गुरुवार, 25 फ़रवरी 2010

अस्त्र, अंध, अंग, हृद्य, ह्रदय

अस्त्र
शास्त्रों में 'अस्त्र' शब्द लैटिन के aster से उद्भूत है जिसका अर्थ 'सितारा' है. वैदिक काल में सितारों के बारे में बहुत अध्ययन किये गए थे इसलिए यह शब्द बहुतायत में पाया जाता है. आधुनिक संस्कृत के इसके अर्थ 'हथियार' से इसका कोई सम्बन्ध नहीं है. 

अंध 
शास्त्रों में पाया जाने वाला 'अंध' शब्द ग्रीक भाषा के anthos से बनाया गया है जिसका अर्थ 'फूल' है. आधुनिक संस्कृत में इसके अर्थ से महाभारत कालीन देश के नाम 'धृतराष्ट्र' को अँधा राजा कहा गया है और एक भ्रान्ति उत्पन्न की गयी है.

अंग 
शास्त्रों में 'अंग' शब्द का अर्थ उर्दू का 'दिल' अथवा हिंदी का 'ह्रदय' है क्योंकि यह 'angio' से बनाया गया है. आधुनिक चिकित्सा विज्ञानं में मनुष्य के ह्रदय के स्वास्थ का परीक्षण angiography कहा जाता है.

हृद्य, ह्रदय
शास्त्रीय शब्द 'हृद्य' का अर्थ मनुष्य के शरीर का 'नितम्ब क्षेत्र' है  तथा 'ह्रदय' का अर्थ 'नितम्ब' है. चिकित्सा शास्त्रों के आधुनिक संस्कृत पर आधारित अनुवादों ने शास्त्रीय काल के चिकित्सा शास्त्र को निष्प्रभावी सिद्ध कर दिया है जिनके अनुसार नितम्बों के अध्ययन को ह्रदय का अध्ययन कहा गया है.  

मस्तिष्क और मन का अंतर

सामान्यतः शब्द मस्तिष्क और मन एक दूसरे के पर्याय के रूप में उपयुक्त कर लिए जाते हैं, किन्तु वास्तव में ये पर्याय नहीं हैं. मस्तिष्क मन का एक अंग होता है ठीक उसी प्रकार हैसे मन शरीर का एक अंग होता है अथवा व्यक्ति समाज का एक अंग होता है.

मनुष्य की खोपड़ी के अन्दर स्थित मांस के बहु-अंगी लोथड़े को उसका मस्तिष्क कहा जाता है जिसके तीन प्रमुख कार्य होते हैं -
  • चिंतन - समस्याओं के समाधानों के प्रयास हेतु सोचना,
  • स्मृति - ज्ञानेन्द्रियों से सूचनाएं गृहण, भंडारण एवं आवश्यकतानुसार उनकी उपलब्धि कराना,
  • नियंत्रण - कर्मेन्द्रियों का यथावश्यकता संयमन. 
इस प्रकार इसे सकल शरीर का संचालन केंद्र कहा जा सकता है. इस संचालन में चिंतन की प्रमुख भूमिका होती है जिसके लिए स्मृति को पूर्व अनुभवों के रूप में उपयुक्त किया जाता है. 

मनुष्य के शरीर में अनेक गतिविधियों के संचालन हेतु स्वयं-सिद्ध अनेक तंत्र होते हैं, यथा - पाचन, रक्त प्रवाह, रक्त शोधन, रक्त संरचना, श्वसन, अनेक सूचना गृहण तंत्र जैसे आँख, कान, नासिका, आदि, अनेक क्रिया तंत्र जैसे हस्त, पाद, आदि. प्रत्येक तंत्र में उसके संचालन हेतु एक लघु-मस्तिष्क होता है जो शरीर के मुख्य मस्तिष्क से नाडियों  के संजोग से सम्बद्ध होता है. ये प्रायः ग्रंथियों के रूप में होते हैं. प्रत्येक लघु-मस्तिष्क अपने तंत्र की प्रत्येक कोशिका से नाडियों के माध्यम से सम्बद्ध होता है. इस प्रकार मनुष्य का मस्तिष्क लघु-नस्तिश्कों एवं नाडियों के माध्यम से सरीर की प्रत्येक कोशिका से सम्बद्ध होता है.

लघु-मस्तिष्क केवल नियंत्रण केंद्र होते हैं, चिंतन और स्मृति की क्षमता इनमें नहीं होती. इस नियंत्रण क्षमता में सम्बद्ध तंत्र की इच्छाओं एवं आवश्यकताओं के ज्ञान एवं तदनुसार उसके संचालन की क्षमता समाहित होती है जिसके लिए लघु-मस्तिष्क अपने विवेकानुसार मुख्य मस्तिष्क की यथावश्यकता सहायता एवं दिशा निर्देश प्राप्त करता है. इस प्रकार प्रत्येक लघु-मस्तिष्क मस्तिष्क के अंतर्गत एक स्वायत्त संस्थान के रूप में कार्य करता है. मनुष्य की इच्छाओं का उदय इन्ही लघु-मस्तिष्कों में होता है, किन्तु ये उनके औचत्य पर चिंतन करने में असमर्थ होते हैं. इसी बिंदु से मानव और महामानव का अंतर आरम्भ होता है.

मानव लघु-मस्तिष्कों को उनकी इच्छानुसार कार्य करने की अनुमति देते हैं और अपने मस्तिष्क को इस क्रिया में चिंतन करने का अवसर नहीं देते. इसलिए उनके शारीरिक तंत्रों की स्वतंत्र इच्छाएँ ही उनके कार्य-कलापों को नियंत्रित करती हैं - उनके औचित्यों पर चिंतन किये बिना. इस प्रकार मानवों में उनके विविध तंत्रों में उगी इच्छाएँ ही सर्वोपरि होती हैं.

महामानव लघु-मस्तिष्कों को स्वायत्त रूप में कार्य करने देते हैं, किन्तु अपनी पैनी दृष्टि उनपर रखते हैं, यथावश्यकता उनपर चिंतन करते हैं, एवं विवेकानुसार उनके क्रिया-कलापों का निर्धारण करते हैं. इन में मस्तिष्क शारीरिक गतिविधियों का प्रमुख नियंत्रक होता है, और चिंतन उसका प्रमुख धर्म.

सारांश रूप में महामानव की गतिविधियाँ चिंतन केन्द्रित होती हैं जबकि मानवों में चिंतन का अभाव होता है और उपयोग में न लिए जाने के कारण उनकी चिंतन क्षमता क्षीण होती जाती है. मानवों की गतिविधियाँ उनके अंग-प्रत्यंगों की इच्छाओं पर केन्द्रित होती हैं. इस प्रकार मानवों में मन तथा महामानवों में मस्तिष्क प्रधान होता है. मनुष्य जाति के वर्ण वितरण के मानव और महामानव दो चरम बिंदु होते हैं और प्रत्येक मनुष्य की स्थिति इन दो चरम बिन्दुओं के मध्य ही होती है.

बुधवार, 24 फ़रवरी 2010

भिक्षु, भिक्षा

शास्त्रों में शब्द भिक्षु तथा भिक्षा क्रमशः लैटिन भाषा के शब्दों victus एवं 'victualis' से बनाये गए हैं जिनके अर्थ क्रमशः ''मनुष्यों हेतु भोजन' तथा 'मनुष्यों हेतु खाद्य सामग्री' हैं. आधुनिक संस्कृत के अनुसार शब्दार्थ अंतर के माध्यम से मानवता की कर्म प्रधानता के शत्रुओं ने भीख मांग कर खाने को गौरवान्वित किया है जो शास्त्रीय परंपरा के अनुसार घृणा योग्य था.

इस प्रकार 'बौद्ध भिक्षु' का वास्तविक मंतव्य 'बुद्ध का भोजन' है, जिसे विकृत कर लाखों युवाओं को पथ भृष्ट किया गया और उन्हें भीख पर आश्रित किया गया. भारत में भीख मांग कर खाने के निंदनीय कार्य के गौरव की परंपरा अभी तक चल रही है और देश की लगभग ५ प्रतिशत जनसँख्या भीख मांग कर खा रही है.

यत्र, यात्री, व्यय, व्यत, व्यतीत

यत्र, यात्री 
भारतीय शास्त्रों में शब्द यत्र एवं यात्री ग्रीक भाषा के शब्दों iatros  तथा iatrikos से उद्भूत हैं जिनके अर्थ क्रमशः 'चिकित्सक' एवं 'स्वस्थ' हैं. इनका सम्बन्ध स्थान अथवा एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने से नहीं है, जो इनके तात्पर्य आधुनिक संस्कृत में लिए गए हैं.


व्यय, व्यत, व्यतीत 
शास्त्रों में ये शब्द लैटिन भाषा के शब्दों via तथा viaticus से बनाये गए हैं जिनके अर्थ क्रमशः 'मार्ग' एवं 'यात्रा संबंधी' हैं. तदनुसार शास्त्रीय शब्द 'व्यय' का अर्थ 'मार्ग', 'व्यत' का अर्थ 'यात्री', तथा 'व्यतीत' का अर्थ 'यात्रा' हैं. 

सोमवार, 22 फ़रवरी 2010

यत्र, यात्र, यात्री

शास्त्रों में पाए गए शब्द यत्र, यात्र, यात्री, आदि ग्रीक भाषा के क्रमशः iatros एवं iatrikos से उद्भूत हैं जिनके अर्थ क्रमशः 'चिकित्सक' तथा 'स्वस्थ' हैं. तदनुसार 'यत्र' का अर्थ स्वास्थ, 'यात्र' का अर्थ 'चिकित्सक' एवं 'यात्री' का अर्थ 'स्वस्थ' होता हैं. आधुनिक संस्कृत में इनके अर्थ क्रमशः 'यहाँ', 'एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना', तथा 'एक स्थान से दूसरे स्थान परे जाने वाला' हैं जिनका उपयोग शास्त्रों के अनुवाद में किया जाना भ्रमात्मक सिद्ध होता है जैसा कि इनके प्रचलित अनुवादों से स्पष्ट है.   

रविवार, 21 फ़रवरी 2010

मानावोदय का विज्ञानं - मनोविज्ञान

मानावोदय का विज्ञानं - मनोविज्ञान पृथ्वी पर जीवन के उदय के साथ ही क्रियान्वित हो गया था, यद्यपि इसका भान मानवों को बहुत बाद में हुआ. मनुष्य, चाहे एकाकी चिंतन मग्न हो, चाहे भीड़ के कोलाहल में अपनी प्रतिष्ठा स्थापित कर रहा हो, वह सभी समय मनोवैज्ञानिक खेलों में रत रहता है, जो कभी पारस्परिक संग्राम होते हैं तो कभी पारस्परिक सहयोग.

मनोविज्ञान मन का विज्ञानं है जो सभी जीवों में अनिवार्य रूप से सक्रीय रहता है. किन्तु मानवों ने इसे समझा है और इसका सदुपयोग तथा दुरुयोग किया है. मन केवल मस्तिष्क नहीं होता और न ही इसे शरीर के किसी एक अंग में पाया जा सकता है. यह शरीर की प्रत्येक कोशिका में उपस्थित चेतनात्मक अवयवों की समष्टि होता है जो मनुष्य का सम्बन्ध समस्त जगत से स्थापित करता है. कभी उसके समक्ष समर्पित होता है तो कभी उसे समर्पण पर विवश करता है. मन ही मनुष्य के शरीर को स्वस्थ रखता है अथवा इसे रुग्ण बनाता है.

मन का संचालन केंद्र मनुष्य का मस्तिष्क होता है जो समस्त शरीर में फैले अत्यंत विस्तृत नाडीतंत्र के माद्यम से मन को संचालित करता है.वस्तुतः मन मस्तिष्क और नाडीतंत्र की समष्टि ही है, इसलिए इसे स्वसंचालित भी कहा जा सकता है. 

कुछ मानव-विकसित विद्याओं जैसे वशीकरण, परमन-पठन, आदि की प्रभाविता से सिद्ध होता है कि प्रत्येक जीव का मन एक सार्वभौमिक माद्यम से अन्य जीवों के मनों से विना किसी संवाद के परस्पर सम्बन्ध स्थापित कर सकता हैं. मनोविज्ञान का बहुलांश इसी प्रकार के दूरस्थ सम्बन्ध स्थापन का अध्ययन करता है और वस्तुतः इसी हेतु लक्षित होता है.

मनुष्य में मन का यदी होना ही उसे सशक्त एवं महान बनाता है. इसी प्रक्रिया को महामानव का उदय होना कहते हैं. श्री अरविन्द के मतानुसार साधारण मानव ही महामानव बनाने की संभावना रखते हैं और ये उसी प्रकार बनाते हैं जैसे कभी वनमानुष से मनुष्य बना तथापि कुछ वनमानुष यथावत भी रह गए. इस प्रकार, महामानवों की उत्पत्ति पर भी साधारण मानव समाप्त नहीं होते, अर्थात महामानव मोनावों के मध्य से ही उगते हैं.

महामानव प्राकृत एवं सतत कार्यरत उदयन प्रक्रिया के उत्पाद होते हैं, जिनका सोचने एवं कार्य करने के तौर-तरीके साधारण मानवों से भिन्न होते हैं और उनकी उपस्थिति मानव समाज को एक नै दिशा देती है. इन्हें समाज के पथप्रदर्शक भी कहा जाता है. किन्तु सभी पथप्रदर्शक महामानव नहीं होते. कुछ मानव छल-कपट, शक्ति और अधिकार के माध्यम से समाज के पथ प्रदर्शक बन बैठते हैं, वस्तुतः ये समाज को पथ भृष्ट ही करते हैं. किन्तु शक्ति और अधिकार के कारण अग्रणी बने इन मानवों में विशिष्टता का बोध होने लगता है. अतः, महामानवों की पहचान यह है कि वे बिना किसी बाह्य शक्ति एवं अधिकार के समाज में सकारात्मक परिवर्तन की लहर उत्पन्न करते हैंऔर उनका प्रभाव दीर्घकालिक होता है. प्रायः ये अपने जीवन काल में महामानव के रूप में पहचाने भी नहीं जाते. कुछ साधारण पहचानों के रूप में ये दीर्घायु होते हैं और समाज में अपना स्थान अपने सत्कर्मों से बनाते हैं जिन्हें दीर्घ काल तक याद किया जाता है. यही इनका अमरत्व होता है. प्राचीन काल में सुकरात, ब्रह्मा (राम), विष्णु (लक्ष्मण), विश्वामित्र, आदि कुछ महामानव रहे हैं.        .

शनिवार, 20 फ़रवरी 2010

मित्र, अन्न, अणु, अनल, पुरुष

मित्र 
शास्त्रीय शब्द 'मित्र' लैटिन के metra से उद्भूत है जिसका अर्थ मादा का 'गर्भाशय' है.जबकि आधुनिक संस्कृत में इसका अर्थ दोस्त है जिसे शास्त्रों के प्रचलित अनुवाद्दों में लिया गया है. शब्दार्थ के इस विकार से  शास्त्रों के अर्थों मेंस गंभीर विकार आये हैं. 

अन्न, अणु
शास्त्रों में अन्न तथा 'अणु' शब्दों का तात्पर्य हिंदी के 'वर्ष' से है क्योंकि ये शब्द लैटिन के annus से उद्भूत हैं. .

अनल 
शास्त्रीय शब्द 'अनल' लैटिन के annulus का देवनागरी स्वरुप है जिसका अर्थ 'अंगूठी' है. आधुनिक संस्कृत में इस शब्द का अर्थ 'अग्नि' रखा गया है.

पुरुष 
शास्त्रों में 'पुरुष' शब्द लैटिन के शब्द 'पोरोसुस' से लिया गया है, जिसका अर्थ 'रंध्रयुक्त' है. शास्त्रीय अनुवादों में इसका अर्थ आधुनिक संस्कृत के अर्थ 'नर' लेने ले अर्थों में गंभीर विकृति उत्पन्न होती है. इस प्रकार के कारणों से शास्त्रों के प्रचलित अर्थ पूरी तरह भ्रमात्मक हैं.

शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2010

मनु, मानस, मान, मनुष्य, मन

मनु, मानस, मान, मनुष्य 
वेदों और शास्त्रों में बहुतायत में पाए गए ये चार शब्द लैटिन भाषा के manus से उद्भूत हैं  जिसका अर्थ 'हाथ' है. आधुनिक संस्कृत में इनमें से किसी भी शब्द का अर्थ हाथ नहीं है, इसलिए शास्त्रों के अनुवाद आधुनिक संस्कृत के आधार पर करने से भ्रम की उत्पत्ति होती है यथा - हजारों वर्षों की तपस्याएँ, लाखों वर्षों के युद्ध आदि आदि. ऐसे ही ब्रमात्मक अनुवाद बहुतायत में प्रचलित हैं और लोगों को भ्रमों में उलझाया जा रहा है. 

मन
लैटिन भाषा के दो शब्द हैं - mens अथवा mentis तथा mentum जिनके अर्थ क्रमशः 'मस्तिष्क' तथा 'ठोडी' हैं. मेरे अभी तक के शोधों के अनुसार शास्त्रों में इन दोनों भावों के लिए 'मन' शब्द का उपयोग किया गया है. जिसका अर्थ प्रसंग के अनुसार लेने की आवश्यकता होती है.

गुरुवार, 18 फ़रवरी 2010

प्रोक्त, निदान

प्रोक्त 
प्रोक्त शब्द का अर्थ आधुनिक संस्कृत में 'कहना' लिया जाता है जो शास्त्रीय उपयोग के लिए सर्वथा भ्रामक है. यह शब्द ग्रीक भाषा के proktos से बनाया गया है जिसका अर्थ 'गुदा' है. इसी आधार पर गुदा संबंधी अद्ययन को अंग्रेज़ी में proctology कहा जाता है.

निदान
निदान शब्द लैटिन के नेदर से बना है जिसका अर्थ 'नीचा' अथवा 'घटिया' अथवा 'दबा हुआ' होता है शास्त्रों में 'निदान' शब्द का उपयोग आयुर्वेद संबंधी ग्रंथों में आया है, अतः इसका अर्थ 'रोग' है. आधुनिक संस्कृत में इस शब्द का अर्थ 'रोग की पहचान अथवा चिकित्सा' माना गया है जो भ्रमात्मक है.

वाग, वाज, वाक, वान, विजित, विजय

वाग, वाज, वाक
ये शब्द शास्त्रों में दो मंतव्यों के लिए उपयोग किये गए हैं - नाडी तथा चीख. इनका उद्भव लैटिन के शब्द vagus से हुआ है जिसका अर्थ नाडी है. लैटिन का ही एक अन्य शब्द vagitus है जिसका अर्थ चीख है. इसके देवनागरी स्वरुप भी वाग, वाज अथवा वाक् ही हैं. अतः इनके अर्थ प्रसंग के अनुरूप लिए जाते हैं. ग्रन्थ भावप्रकाश में नाडी के लिए वाज शब्द का उपयोग किया गया है.

वान
यह शब्द लैटिन के vana से उद्भूत है जिसका अर्थ रिक्त अथवा अभावपूर्ण है. जैसे लैटिन शब्द समूह 'वान ग्लोरिया' का अर्थ 'झूठा प्रदर्शन' है. इस प्रकार वान का अर्थ आधुनिक संस्कृत में विपरीत कर दिया गया है जो 'बलवान' जैसे शब्दों में बलयुक्त व्यक्ति के लिए उपयुक्त किया जाता है, जब कि इसका शास्त्रीय अर्थ 'बलहीन' है.

विजित, विजय
ये शब्द लैटिन के शब्दों vegere, vegetus से उद्भूत हैं जो क्रमशः जीवंत होने की क्रिया तथा संज्ञा हैं. तदनुसार विजय का अर्थ 'जीवंत' है. अंग्रेज़ी शब्द vegetable भी इन्ही से उद्भूत है जिसका अर्थ सब्जी है क्योंकि सब्जियों को जीवन-दायक माना जाता है.        

कंगाल उत्तर प्रदेश - जन-प्रतिनिधियों पर धन वर्षा

उत्तर प्रदेश भारत का एक ऐसा प्रदेश है जहां की उर्वरा भूमि किसी को भूखे पेट सोने को विवश नहीं करती. गंगा की गोद इस भूमि पर अति प्राचीन काल से घनी जनसँख्या बसती रही है केवल इसलिए कि यहाँ की धरा की गोद सदैव हरी-भारी रहती है. इस सब के होते हुए भी विगत २० वर्षों से यहाँ के शासन की बागडोर ऐसे हाथों में रही है जो केवल शोषण करना जानते हैं, शासन-प्रशासन के मूलभूत दायित्वों से उनका कोई वास्ता प्रतीत नहीं होता. फलस्वरूप प्रदेश में अपराध बढ़ रहे हैं, भृष्टाचार का सर्व-व्यापी बोलबाला है, सड़कें टूटी-फूटी हैं और विद्युत् शक्ति केवल महत्वपूर्ण लोगों के घरों में रोशनी करती है, शिक्षा के मंदिर बच्चों को भिक्षा पाने के घर बना दिए गए हैं जिनमें अधिकाँश अस्थायी शिक्षक अपनी उपस्थिति दर्ज कराने और समय व्यतीत करने आते हैं. न्यायालय थप पड़े हैं और खुली रिश्वतखोरी के अड्डे बना दिए गए हैं.  

चुनाव का समय आता  है तो राजनेता अपनी तिजोरियां खोल देते हैं और लोगों के मध्य शराब की नदियाँ बहाते हुए वोट बटोर ले जाते हैं. इससे अपराधी और भृष्ट नेताओं के चुनाव के लिए जनता को ही दोषी करार दे दिया जाता है. कोई उनकी विवशता नहीं समझता कि उन्हें अल्प समय के लिए कुछ आनंद प्राप्त होता है और उनका बहक जाना स्वाभाविक है. दोष तो चुनाव प्रणाली का है, दोष संविधान का है जो धन के बदले वोट प्रणाली को रोक नहीं पाते हैं. एक विधान सभा सदस्य के चुनाव का अर्थ है प्रत्याशी के न्यूनतम पचास लाख रुपये का व्यय. फिर कैसे कोई इमानदार व्यक्ति चुनाव में उतारे और जनता के समक्ष एक अच्छा विकल्प बने. इतना व्यय कर चुनाव जीतने वाले व्यक्ति भृष्ट होने के अतिरिक्त कुछ और हो ही नहीं सकते. उनकी भी विवशता है.

शासन इन विजित जन प्रतिनिधियों की अनेक प्रकार से क्षतिपूर्ति करता है - बार बार उनके वेतन और सुख-सुविधाएँ बढ़ाते हुए. अभी-अभी ८ फरवरी को उ० प्र० की मुख्यमंत्री ने एक ही बार में जन-प्रतिनिधियों (विधान सभा सदस्यों) को देश के सर्वाधिक धनाढ्य व्यक्तियों की श्रेणी में ला दिया. अब इनकी मासिक वैध आय ५०,००० रुपये कर दी गयी है जो अभी तक ३०,००० रुपये थी. देखिये इस मासिक बढोतरी का नज़ारा -
वेतन - ३,००० से ८,०००  रुपये,
क्षेत्र भत्ता - १५,००० से २२,०००  रुपये,
स्वास्थ भत्ता - ६,००० से १०,०००  रुपये,   
कर्मी भत्ता - ६,००० से १०,०००  रुपये. 

इसी अनुपात में प्रदेश के सभी मंत्रियों और अन्य राजनैतिक पदासीनों के वेतन भत्ते भी बढ़ा दिए गए हैं. यह ऐसी अवस्था में किया गया है जब -
  1. प्रदेश के पास विद्यालयों में नियमित अध्यापक रखने के लिए दान नहीं है, 
  2. अनेक विभागों में कर्मचारियों के वेतन धनाभाव के कारण ६-६ महीने तक भगतान नहीं किये जाते, उन्हें केवल रिश्वतखोरी से प्राप्त धन पर अपना गुजारा करना पड़ता है. 
  3. प्रदेश के पास मार्गों के निर्माण, विदुत के प्रसार आदि के लिए धन नहीं है. ऐसे कार्यों के लिए जो ऋण आदि लिया जाता है वह वेतन भुगतानों में व्यय कर दिया जाता है. 
  4. प्रदेश में एक मजदूर को मात्र १,००० रुपये मासिक की आय पर अपने परिवार का पालन-पोषण करना होता है और उसे ऊपर की भी कोई आय नहीं होती. जबकि उसके प्रतिनिधि को ५०,००० रुपये मासिक दिए जाकर भी उसे असीमित ऊपर की आमदनी से मार्ग बी खोल दिए जाते हैं.
  5. प्रदेश की पूरी अर्थव्यवस्था उत्पादन आधारित न होकर भृष्टाचार आधारित हो गयी है. 
देश तो डूब ही रहा है, उत्तर प्रदेश इस दौड़ में सबसे आगे है, और आगे ही रहेगा. 

बुधवार, 17 फ़रवरी 2010

राष्ट्राध्यक्ष शासन प्रणाली

बौद्धिक जनतंत्र संसदीय शासन प्रणाली को नकारते हुए राष्ट्राध्यक्ष शासन प्रणाली का पक्षधर है, जिसमें जनता सीधे एक व्यक्ति को अपना शासक चुनती है. इसके पक्ष में निम्नांकित तर्क दिए जा सकते हैं -
  1. संसदीय शासन प्रणाली में शासन का दायित्व शासक दल के एक चुने गए समूह का होता है न कि किसी एक व्यक्ति का. शासन एक बहुआयामी जटिल कार्य है, इसमें भूल-चूक, छल-कपट, आदि के पर्याप्त अवसर उपस्थित रहते हैं. शासित लोगों को इनसे उत्पन्न कठिनाइयों के लिए किसी एक व्यक्ति तो उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता, जिसे दोषी वा निर्दोष सभी एक समान प्रतीत होने लगते हैं और दोषी भी निर्दोषों की छाया में छिप जाते है. 
  2. राष्ट्राध्यक्ष शासन प्रणाली में सभी अच्छाइयों और बुराइयों का दायित्व राष्ट्राध्यक्ष का होता है और उसे शासितों की किसी भी कठिनाई के लिए उत्तरदायी ठहराया जा सकता है और दंड भी दिया जा सकता है. इससे शासन में गुणात्मक पक्ष को बल मिलाता है, जो सर्वदा वांछनीय है.
  3. जनता के समक्ष क्षेत्रानुसार अनेक सदस्य चुनने होते हैं जिनमें अच्छे तथा बुरे दोनों प्रकार के चुने जा सकते हैं. मतदाता भी इस पर विशेष ध्यान इसलिए नहीं देते कि वे नहीं जानते कि उनके द्वारा चुने गए व्यक्ति की भावी भूमिका क्या होगी जिससे बुरे व्यक्तियों के चुने जाने की संभावना बढ़ जाती है. अंततः शासन में इनकी सीधी भागीदारी न होने पर भी ये शनैः-शनैः शक्तिशाली होते जाते हैं और एक दिन सत्ता पर अधिकार कर लेते हैं. 
  4. राष्ट्राध्यक्ष शासन प्रणाली में मतदाता स्पष्ट रूप से जानते हैं कि वे अपने राष्ट्र के लिए शासक चुन रहे हैं, और अपने दायित्व के प्रति अधिक सजग हो जाते हैं. ऐसी स्थिति में सही व्यक्ति के राष्ट्राध्यक्ष चुने जाने की संभावना अधिक हो जाती है.
  5. संसदीय शासन प्रणाली में जनता शासक न चुनकर अपने प्रतिनिधि चुनती है तदुपरांत प्रतिनिधि शासक दल चुनते हैं. इस प्रकार शासक का चुनाव सीधा न होकर अदृश्य होता है और शासन गलत लोगों के हाथ में जाने की संभावना बढ़ती है, जबकि राष्ट्राध्यक्ष शासन प्रणाली में शासक का सीधा चुनाव होने से अच्छे व्यक्ति के शासक चुने जाने की संभावना बहुत अधिक होती है.  
  6. स्वतंत्र भारत के जनतांत्रिक अनुभवों से ज्ञान हुआ है कि जन-प्रतिनिधि दल-बदल के घिनौने कृत्यों से जनता के द्वारा किये गए चुनाव को नकारने की सक्षमता रखते हैं, जिससे पूरा का पूरा जनतांत्रिक ढांचा बेईमानी प्रतीत होने लगता है. राष्ट्राध्यक्ष शासन प्रणाली में ऐसी कोई संभावना नहीं होती. 
उपरोक्त कारणों से बौद्धिक जनतंत्र का संवैधानिक ढांचा राष्ट्राध्यक्ष शासन प्रणाली के अनुसार बनाया गया है.यहाँ व्यक्ति और समूह के मनोवैज्ञानिक पक्ष को समझना भी प्रासंगिक है. व्यक्ति जब स्वयं उत्तरदायी होता है तो अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह सर्वोत्तम तरीके से करता है. किन्तु जब वह एक समूह का अंग होता है तो उसका व्यक्तिगत दायित्व कहीं हो जाता है और वह अनुत्तरदायी अनुभव करते हुए ऐसा ही होने की संभावना रखता है.   

शस्त्र, शास्त्र

शब्द युगल 'शस्त्र तथा शास्त्र' उसी तरह परस्पर सम्बद्ध है जिस प्रकार 'यज्ञ तथा याज्ञ' सम्बद्ध हैं, अर्थात पहला कार्य का किया जाना तथा दूसरा उसी से उद्भूत उत्पाद. शास्त्र शब्द के बारे में हमें निश्चित सूचना प्राचीन ग्रन्थ के नाम 'अर्थशास्त्र' से प्राप्त होती है जहां विष्णु गुप्त चाणक्य रचित ग्रन्थ को स्वयं लेखक द्वारा 'इदं अर्थशास्त्रं' कहा गया है, जिससे शास्त्र शब्द का अर्थ आधुनिक अर्थों में 'पुस्तक' अथवा 'ग्रन्थ' सिद्ध होता है.

अर्थशास्त्र में ही लेखक ने स्वयं को शास्त्रं च शास्त्रं का ज्ञाता लिखा है जो संकेत करता है कि शास्त्र शास्त्रों से बनते हैं, जिससे सिद्ध होता है कि शास्त्रीय शब्द 'शस्त्र' का अर्थ हिंदी का 'शब्द' है क्योंकि शास्त्र शब्दों से बनते हैं. अतः विष्णु गुप्त चाणक्य अर्थ शास्त्र के सन्दर्भ में शब्दों और उनके उपयोग से लिखे गए ग्रंथों के ज्ञाता थे.

आधुनिक संस्कृत के अनुसार शस्त्र का अर्थ 'हथियार' और शास्त्र का अर्थ 'ग्रन्थ' लेने से भाषा विकृति उत्पन्न होती है जो उस समय पर होनी संभव नहीं है. किन्तु शास्त्रों के अर्थ भ्रांत करने के उद्देस्ग्य से आधुनिक संस्कृत में उत्पन्न की गयी सिद्ध होती है..

आरती

वेदों तथा शास्त्रों में पाया जाने वाला आरती शब्द लैटिन भाषा के artis से उद्भूत है जिसका अर्थ 'कलात्मक कार्य' अथवा इनका किया जाना है. अतः यह शब्द किसी विशिष्ट व्यक्ति के सन्दर्भ में ही उपयुक्त हुआ है और वहाँ उस व्यक्ति की कलात्मकता अथवा उस द्वारा किये गए कलात्मक कार्यों का उल्लेख होता है.
आधुनिक संस्कृत में आरती का अर्थ सम्बंधित व्यक्ति की पूजा अर्चना लिया जाता है, जो वेदों-शास्त्रों के सन्दर्भ में त्रुटिपूर्ण है.

परम्पराओं का बोझ ढोते हम

स्वतंत्र समाजों में परम्पराएं अनुभवों से उद्भूत होती हैं किन्तु लम्बे समय तक गुलाम रहे देशों में परम्पराएं कृत्रिम रूप से भी थोपी जा सकती हैं. भारत में ऐसा बहुत अधिक हुआ है. परम्पराएं कुछ सीमा तक बुद्धि उपयोग को अवरोधित करती हैं, और प्रायः हम उन्ही बातों को बिना विचारे मानते चले जाते हैं जो हमें परंपरागत रूप में प्राप्त होती हैं. वैसे भी गुलामी की मानसिकता वाले लोग स्वतंत्र चिंतन के अभ्यस्त नहीं होते इसलिए वे बहुत अधिक परंपरागत होते हैं. ऐसे लोगों को नवाचार से घृणा होती है और वे इसे अपनी भावनाओं का विरोधी होने के कारण समाज विरोधी होने का करार देने से भी नहीं चूकते.

आज संध्या लगभग ४ बजे एक बरात में गया था और अभी कुछ समय पूर्व लगभग १-३० पर लौटा हूँ. इन लगभग १० घंटों में से ७ घंटे का समय यात्रा में व्यतीत हुआ जो ग्रामीण पथ पर चलने वाली एक खटारा बस द्वारा ऊबड़-खाबड़ मार्ग पर ९० किलोमीटर आने जाने में लगा. आश्चर्य यह देख कर हुआ कि बारात का सम्बन्ध विवाह प्रक्रिया से नगण्य था - केवल जाना, खाना, और आना. विवाह प्रक्रिया इस दौरान समान्तर रूप से संचालित की जाती रही और अधिकाँश बारातियों से उसमे सम्मिलित होने की अपेक्षा भी नहीं की गयी. तथापि ऐसी निरुद्देश्य बारातों का प्रचलन है और सामाजिक संबंधों को बनाये रखने के लिए इनमें जाना पड़ता है. बारात वर पक्ष तथा कन्या पक्ष, दोनों पर आर्थिक भार होती है तथापि परंपरागत रूप में हम सब यह करते चले आ रहे हैं. कभी समय था जब बारात में जाना सामाजिकता का विस्तार होता था, आज ऐसा भी नहीं है.

ऐसी परम्पराओं को अधिकांश लोग निरर्थक मानते हैं और इनके प्रत्येक अनुपालन के बाद पछताते हैं, तथापि बार-बार ऐसा ही करते जाते हैं. ऐसा हम इसलिए करते जाते हैं क्योंकि हम सामाजिक परम्पराओं के विरोध का साहस नहीं जुटा पाते. कभी-कभी यह भी सोचकर अनुपालन करते जाते हैं कि कोई हमें क्या कहेगा. हम भारतीयों का मानस दब्बू और कायर बन गया है.
ऐसा व्यवहार केवल सामाजिक प्रचलनों तक सीमित नहीं है, ज्ञान-विज्ञानं के क्षेत्र में भी हम प्रायः ऐसा ही व्यवहार करते है. उदाहरण के लिए इतिहास, जो भावुकताविहीन एवं तथ्यपरक होना चाहिए, को भी हम अपने मनोनुकूल होने पर ही सहन करते हैं अन्यथा उसे बिना कोई तर्क दिए नकार देते हैं. वस्तुतः भारतीय जन-मानस तथ्यपरक नहीं रह गया है, उसे केवल वही सुनना या पढ़ना अच्छा लगता है जो परम्परागत रूप से कहा या लिखा जाता रहा है, चाहे वह कितना भी दूषित क्यों न हो, कितना भी तर्कविहीन क्यों न प्रतीत होता हो.

सहमति के लिए किसी साहस की आवश्यकता नहीं होती, किन्तु परम्पराओं और परंपरागत ज्ञान के विरोध के लिए अदम्य साहस की आवश्यकता होती है जो प्रायः भारतीय लोगों में नहीं है. परम्पराओं को इसी प्रकार ढोते रहने के कारण ही भारत लगभग २००० वर्ष गुलाम रहा. अब स्वतंत्र कहा जाता है किन्तु स्थिति गुलामी से भी बदतर है, विशेषकर जन-साधारण के लिए. किन्तु विरोध का स्वर न पहले कभी बुलंद हुआ और न अब हो रहा है. केवल स्वतंत्रता संग्राम इसका अपवाद रहा जो अभूतपूर्व रूप से सफल भी रहा. किसी ने साहस जगाया आर हम जागृत हो गए. किन्तु ऐसा सदैव नहीं हुआ है और न अब हो रहा है.

साहस का अभाव हमें सतत डस रहा है, परम्पराएं हमें निगल रही हैं और हम निश्चिन्त भाव से वही कहते और करते चले जा रहे हैं जो समाज में परंपरागत रूप से व्याप्त है. विरोध का साहस केवल बुद्धिजीवी कर सकते हैं किन्तु भारत में वे भी बुद्धिवादी न रहकर परम्परावादी बन गए हैं और बनी बनाई लकीर से टस से मस होने को तैयार नहीं हैं. परंपरा-विरोधी स्वरों का दमन करने में ही ये अपनी पूरी शक्ति लगा रहे हैं और इसी को बुद्धिमत्ता समझ रहे हैं. यथार्थ से ये कोई वास्ता रखना ही नहीं चाहते जबकि जानते हैं कि गुलामी के कारण भारतीय समाज यथार्थ से बहुत अधिक दूर चला गया है.   

मंगलवार, 16 फ़रवरी 2010

गुण - सत, रज, तम

 वेदों तथा शास्त्रों में 'गुण' शब्द ग्रीक भाषा के gonos से उद्भूत है जिसका अर्थ 'जन्म से स्रोत' से है. यह प्रायः वनस्पतियों के अध्ययन से सम्बन्ध रखता है, इसलिए इसका उपयोग उन वानस्पतिक अंगों के लिए किया गया है जिनसे नए पौधे उगाये जा सकते हैं. तदनुसार वनस्पतियों के तीन गुण होते हैं - सत, रज तथा तम.
सत शब्द लैटिन के sativus से उद्भूत है जिसका अर्थ बीज होता है. अतः जो वनस्पतियाँ बीजों के माध्यम से वंशवृद्धि करती हैं जैसे उन्हें सतोगुणी कहा गया है.  अधिकाँश वनस्पतियाँ बीजों से ही उगती हैं.
रज शब्द लैटिन के radix से उद्भूत है क्योंकि लैटिन वर्ण डी अनेक स्थानों पर ज का स्वर देता है. इसका अर्थ जड़ है. अतः जो पौधे जड़ों से उगाये जाते हैं, जैसे केला, हल्दी, अदरक, आदि उन्हें रजोगुणी कहा गया है.
तम शब्द लैटिन के stemma से उद्भूत है जिससे स्तम्भ भी बना है. इसका अर्थ तना होता है. गुलाब, गन्ना जैसे अनेक पौधे टनों से उगाई जाती हैं अतः उन्हें तमोगुणी कहा गया है.
वेदों तथा शास्त्रों के अनुवाद आधुनिक संस्कृत के आदार पर किये जाने के कारण गुण शब्द का अत्यधिक दुरूपयोग हुआ है. जिससे आयुर्वेद का मूल स्वरुप भी दूषित होने के कारण यह विज्ञानं निष्प्रभावी प्रतीत होने लगा है. अतः आधुनिक संस्कृत के माध्यम से वेदों शास्त्रों के अनुवाद कारण इस देश के लोगों के साथ अन्याय है जो एक षड्यंत्र के रूप में आरम्भ किया गया. आज तक किसी अन्य व्यक्ति ने इस षड्यंत्र को नहीं पहचाना. केवल श्री अरविन्द ने इसके संकेत अपनी पुटक वेद रहस्य में दिए थे जहाँ से मैंने प्रेरणा पायी, शोध किये और यह कार्य आगे बढाया.       

सोमवार, 15 फ़रवरी 2010

शुभ, शोफ़, सूफी

शुभ शब्द वेदों और शास्त्रों में अनेक स्थानों पर पाया जाता है, ग्रन्थ भावप्रकाश में शोफ़ शब्द का भी उपयोग किया गया है, जबकि शब्द 'सूफी; उर्दू, अरबी आदि भाषाओँ में हिंदी के शब्द 'संत' के समतुल्य माना जाता है. ये सभी भ्रांत अर्थ हैं तथा तीनों ही लैटिन भाषा के शब्द 'सोफिया (sophia)' से उद्भूत हैं जिसका अर्थ 'भाषा अथवा शब्दों का उपयोग करते हुए बौद्धिक कार्य करना' है. इस प्रकार लेखन, प्रवचन, तर्क, आदि कार्यों के लिए शास्त्रों में शुभ और शोफ़ शब्दों का उपयोग किया गया है. प्रच्गीन काल में ऐसे सभी बौद्धिक कार्य करने वाले व्यक्तियों के लिए एक ही शब्द 'philosopher' प्रयोग किया जाता था जिसका अन्त्य भाग सोफिया का ही है.

रविवार, 14 फ़रवरी 2010

रोटी, कपड़ा और मकान से आगे

भारतीय जनतंत्र लोगों की मूलभूत आवश्यकताएं - रोटी कपड़ा और मकान की सुविधाएँ प्रदान करने का वचन देता रहा है और इसमें भी असफल रहा है. देश में खाद्यान्नों का उत्पादन बाधा है किन्तु साथ ही रासायनिक खादों और कीत्नाशालों के अत्यधिक उपयोग से उनकी गुणता में भारी गिरावट आयी है. देश में कपडे की कोई कमी अब नहीं है किन्तु ग्रामीण और आदिवासी अंचलों में लोग अभी भी निर्वस्त्र जीवन यापन कर रहे हैं. देश की ५० प्रतिशत से अधिक नगरीय जनसँख्या के पास अपने मकान नहीं हैं और वे पूंजीपतियों की दया पर किरायेदारों के रूप में अपने सर छिपाए हुए हैं. सम्पन्नाताओं के मध्य विपन्नताओं के प्रमुखतः दो स्रोत हैं - देश की प्राकृत संपदा भूमि पर निजी स्वामित्व, तथा देश की संपदा हड़पने में राजनेताओं एवं प्रशासकों का भृष्ट गठजोड़.

बौद्धिक जनतंत्र में इन दोनों विकारों के शमन के कारगर उपाय हैं - विशिष्ट भू-प्रबंधन के अंतर्गत भूमि पर निजी स्वामित्व की समाप्ति कर उसको सभी नागरिकों को यथावश्यकता उपलब्ध कराना तथा न्याय व्यवस्था के अंतर्गत शासक-प्रशासकों के भृष्ट आचरण को देशद्रोह की मान्या और इसके लिए मृत्यु दंड का प्रावधान.

रोटी, कपड़ा और मकान प्रदान कराना ही बौद्धिक जनतंत्र का लक्ष्य नहीं है. यह लोगों के स्वास्थ को सर्वोच्च प्राथमिकता प्रदान करता है और प्रत्येक नागरिक को अन्य सभी के समान निःशुल्क शिक्षा प्राप्त करने के अवसर प्रदान करता है. इन प्रावधानों से देश के नागरिक स्वस्थ एवं प्रसन्न बनते हैं. इसके अतिरिक्त देश के नागरिकों को संपन्न बनाना बौद्धिक जनतंत्र की विशिष्टता है जिसके लिए सार्वजनिक सुविधाओं यथा  यातायात, विद्युत्, संचार आदि को सुचारू बनाने के लिए महत्वपूर्ण प्रावधान हैं जिनके अंतर्गत सरकार स्वयं कोई व्यावसायिक गतिविधि न कर प्रत्येक गतिविधि को जनहित में नियमित करेगी.

बौद्धिक जनतंत्र विचारधारा में विशाल स्तर पर शहरीकरण मानवता के विरुद्ध अपराध है जिससे लोग निर्वासन के लिए विवश होते हैं तथा उनके मध्य आर्थिक विषमताएं विकसित होती हैं. वस्तुतः विशाल शहरीकरण पूंजीवादी व्यवस्था का पोषक है. इसलिए बौद्धिक जनतंत्र गांवों के व्यापक विकास पर बल देता है और सीमित शहरीकरण भी इसी को पुष्ट करने के माध्यम के रूप में किया जाता है. प्रत्येक गाँव में सभी सरकारी सेवाएँ जनसेवकों के माध्यम से उपलब्ध करना भी इसी व्यवस्था का एक अंग है जिससे किसी भी नागरिक को स्थानीय कार्यालय के अतिरिक्त किसी अन्य राजकीय कार्यालय में जाने की आवश्यकता ही नहीं होगी. उन्हें सभी राजकीय सेवाएं ग्राम स्तर पर उपलब्ध कराना ग्राम-स्तरीय जनसेवकों का दायित्व होगा.
  

शनिवार, 13 फ़रवरी 2010

योग का रोग अथवा रोग का योग

भारत के धर्मावलम्बियों तथा अध्यात्मवादियों ने जिन वैदिक शब्दों का सर्वाधिक दुरूपयोग किया है, योग भी उनमें से एक है. योग शब्द का मूल अर्थ रोगों की चिकित्सा के लिए रसायनों का संयोग कर औषधियां तैयार करना है जो चिकित्सा क्षेत्र में आज भी प्रचलित है. किन्तु योग का अर्थ जो सर्वाधिक प्रचलित है वह है आत्मा परमात्मा के मिलन के लिए मनुष्यों को सुझाये गए अनेक उपाय जिनमें मनुष्य को कभी मुर्गा बनाया जाता है तो कभी मयूर. इस प्रकार योग द्वारा शरीर को जो भी आकृतियाँ प्रदान की जाती हों , मनुष्यों को उल्लू ही बनाया जा रहा है.

योग शब्द के इस दुरूपयोग में एक बहुत सशक्त और विशाल वर्ग सतत रूप में लगा हुआ रहता है. क्या है इसका उद्देश्य ? भारत में विगत २००० वर्षों से एक के बाद एक कुशासन स्थापित होते रहे हैं आज स्वतंत्र भारत में भी वैसा ही है. अन्यथा गुप्त वंश के शासन में सोने की चिड़िया कहलाने वाले भारत ऐसी दुर्दशा नहीं होती जैसी कि विगत २००० वर्षों में रही है.  क्शासन के विरुद्ध लोग प्रायः विद्रोह करते रहे हैं किन्तु भारत में स्वतंत्रता आन्दोलन के अतिरिक्त कभी ऐसा नहीं हुआ. इसी में योग का रहस्य छिपा हुआ है. 

लोग दो प्रकार के होते हैं - श्रमिक और बौद्धिक. बहुलांश श्रमिक अपनी आजीविका संचालन में इतने लिप्त होते हैं कि उन्हें किसी कुशासन के विरुद्ध अपना स्वर बुलंद करने का समय ही नहीं होता. विद्रोह सदैव बौद्धिक वर्ग ही करता है. इसलिए उसे उलझाने के लिए कुटिल शासकों और उनके समर्थकों ने योग शब्द का दुरूपयोग किया ताकि देश का बौद्धिक वर्ग आत्मा-परमात्मा मिलन की अनंत यात्रा पर चलता रहे और वे अपना कुशासन निर्विरोध जारी रख सकें.

शासन के इस षडयंत्र में आधुनिक युग में विवेकानंद का अभूतपूर्व योगदान रहा है जिसने पतंजलि योग सूत्र का अंग्रेजी में अनुवाद करके लोगों में योग साधनाओं के माद्यम से सिद्धियाँ प्राप्त करने का भ्रम फैलाया और देश के एक विशाल बौद्धिक वर्ग को उसमें उलझा दिया. वह सुन्दर था और वाकपटु भी. उसने अपने इन्ही गुणों का दुरूपयोग किया. यदि हम विवेकानंद के जीवन का अवलोकन करें तो पाते हैं कि जिस समय देश में स्वतंत्रता के लिए संग्राम चल रहा था वह राजस्थान में खेतड़ी के शासक के यहाँ वैभव भोग करता रहा और वहां से अमेरिका चला गया और स्त्री रमण में व्यस्त रहा. धनी और रोगी अवस्था में वहाँ से लौटने पर रामकृष्ण मिशन की स्थापना की और मृत्यु को प्राप्त हो गया. जो व्यक्ति अपने जीवन को न बचा सका वह विश्व को बचाने की बात करे तो हास्यास्पद लगता है. विवेकानंद द्वारा पतंजलि के प्रथम योगसूत्र को आधा लेकर उसका भ्रमित अनुवाद किया गया और लोगों को ब्रमित किया गया. इसका सही अनुवाद त्वचा के सौन्दर्य की रक्षा करना है.  

योग साधनों का भ्रम फैलाना भारत में एक छूत के रोग की तरह एक व्यवसाय के रूप में विकसित हो रहा है, जिससे किसी भी व्यक्ति को कभी कोई लाभ नहीं हुआ है, केवल लाभ की आशा की जाती रहती है. वस्तुतः जो लाभ प्रतीत होता है वह खुले शुद्ध वातावरण में भ्रमण करने और व्यायाम करने से होता है, किसी योग साधना से नहीं.

वस्तुतः पतंजलि के सभी योग सूत्र विविध रोगों की चिकित्साओं से सम्बंधित हैं जिन के लिए आज तक कोई प्रयास नहीं किया गया. किसी देश की दुर्दशा इससे अधिक क्या होगी कि ज्ञान उपलब्ध होने पर भी उसका सही उपयोग न किया जाकर उसे केवल भ्रमों के प्रचार प्रसार के लिए उपयोग में लिया जा रहा है.  

आचार्य शंकर और सनातन धर्म

यवन समूह को सशक्त करने वाले एक मात्र शिक्षित व्यक्ति आचार्य शंकर थे. चूंकि यवन समूह का मुख्य उद्देश्य भारत में धर्मों के माद्यम से ईश्वर का आतंक और भ्रम फैलाकर यहाँ अपना शासन स्थापित करना था, इसलिए आचार्य शंकर के 'सनातन धर्म' को भी दुष्प्रचारित किया गया और उसके माध्यम से भी यवनों ने अपना मंतव्य सिद्ध किया. .

आचार्य शंकर ने ही आधुनिक संस्कृत को जन्म दिया और इस भाषा के आधार पर वेदों और शास्त्रों के त्रुटिपूर्ण अनुवाद प्रचारित किये ताकि लोग कभी इनके मूल मंतव्यों को न समझ सकें. आचार्य शंकर चूंकि एक प्रकांड पंडित थे इसलिए उनके वचनों को लोगों ने महत्व दिया और वे वेदों और शास्त्रों के मूल मंतव्यों से दूर हो गए. इससे यवन समूह का मार्ग सरल हो गया.

धर्म के क्षेत्र में आचार्य शंकर का योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण रहा जो भारतीय जनमानस को अभी तक डस रहा है. शब्द 'सनातन धर्म' का मूल मंतव्य लोगों में स्वास्थ के महत्व को रेखांकित करना था किन्तु इसे लोगों के समक्ष छद्म रूप में एक नए धर्म के रूप में प्रस्तुत किया गया. सनातन धर्म के मंतव्य को सिद्ध करने के लिए आचार्य शंकर ने देश के चारों कोनों में चार मठ स्थापित किये -
उत्तर में बदरिकाश्रम में ज्योतिः पीठ, 
पूर्व में जगन्नाथ पुरी में गोवर्धन पीठ,
दक्षिण में श्रृंगेरी में शारदा पीठ, तथा  
पश्चिम में द्वारिका में कालिका पीठ.

यहाँ यह स्पष्ट करना भी प्रासंगिक है कि शंकर और शिव का परस्पर कोई सम्बन्ध नहीं है जैसा कि सामान्यतः माना जा रहा है. शंकर आचार्य शंकर का मूल नाम है जिन्हें आदिशंकराचार्य भी कहा जता है. जबकि शिव देव समुदाय की एक उपाधि है जो महेश्वर को दी गयी थी. जिन्हें महादेव भी कहा जाता है.

आज यह कहना सरल नहीं है कि आचार्य का मूल मंतव्य क्या था - जन-स्वास्थ को नष्ट करना या उसकी रक्षा करना. किन्तु इसका जो प्रभाव हुआ है वह रिनात्मक ही रहा है और सनातन धर्म का प्रचार प्रसार भी धर्म-आडम्बरों का प्रचार प्रसार ही सिद्ध हुआ है. यह आचार्य के साथ यवनों का छल भी हो सकता है.

वेदों और शास्त्रों का प्राथमिक लक्ष्य भी स्वास्थ की रक्षा है संभवतः इसी को रेखांकित करने के लिए आचार्य शंकर ने इनका सार वेदान्त के रूप में प्रस्तुत किया और सनातन धर्म के नाम से प्रचारित किया. किन्तु आज तक के किसी भी सनातन धर्म साहित्य को स्वास्थ के समर्पित नहीं कहा गया है और उसे धर्म-आडम्बरों के प्रचार-प्रसार का माध्यम बनाया गया है. यहाँ तक कि बाद में प्रतिपादित हिन्दू धर्म प्रचारकों ने सनातन धर्म को ही हिन्दू धर्म का मूल स्वरुप कहा ताकि वे आचार्य शंकर की प्रतिष्ठा का अनुचित लाभ उठा सकें. 

सनातन धर्म के प्रभाव का आकलन करने के लिए हम बदरिकाश्रम की स्थिति को देखते हैं, जहां समस्त क्षेत्र में कभी तुलसी के वन फैले थे. यह केदारनाथ मंदिर की चारदीवारी पर अंकित एक तमिल कवि के वर्णन से सिद्ध होता है. बदरिकाश्रम में विष्णु के पूजन आदि में तुलसी की पत्तियों का उपयोग किया जाता रहा है जिसके कारण वहां के सभी तुलसी वन अब उजाड़ चुके हैं. स्थानीय मजदूर अपनी आजीविका के लिए तुलसी के एक इंच के अंकुरों को भी नोंच-नोंच कर पत्तियां प्राप्त करते हैं और उन्हें मंदिर में पूजा-अर्चना के लिए प्रदान कर देते हैं. इससे वहां तुलसी के पौधों का विकास प्रतिबंधित हो रहा है.

तुलसी एक अति महत्वपूर्ण औषधीय पौधा है जो वातावरण एवं शरीर में उपस्थित अनेक विकारों का शोधन कर जन-स्वास्थ की रक्षा करता है. उत्तर में इसके वनों का विशेष महत्व है क्योंकि वहाँ से सुगन्धित वायु देश के बड़े भूभाग को स्वास्थ्जनक बना सकती है. पूजा-अर्चना में तुलसी के उपयोग के अनुत्पादक उपयोग से वहां इसके वनों को नष्ट किया गया है जो किसी भी मानवीय धर्म में मान्य नहीं हो सकता. इसमें आचार्य शंकर का सीधा योगदान है अथवा यवन समूह द्वारा उनको गलत ढंग से प्रस्तुत किया गया है, यह शोध का विषय है. . 

ग्राम, ग्रामीण, गोत्र

 वेदों और शास्त्रों में उपयुक्त ग्राम और ग्रामीण शब्दों के वही अर्थ लिए जा रहे हैं जो आधुनिक संस्कृत में लिए जाते हैं, जो सर्वथा दोषपूर्ण है और इससे वेदों और शास्त्रों के भृष्ट अनुवाद किये गए हैं. इन शब्दों का मूल स्रोत लैटिन भाषा का शब्द gramen / graminis है जिसका अर्थ हिंदी का घास है. मनुष्य जाति के अधिकाँश खाद्यान्न जिन पोधों से प्राप्त होते हैं वे सभी घास वर्ग के पौधे होते हैं यथा - गेंहू, चना, मटर, मक्की, अरहर, मसूर, आदि. घास वर्ग के सभी पौधे वार्षिक होते हैं और ऋतू परिवर्तन के साथ सूख जाते हें  किन्तु गन्ना जैसे कुछ पौधे पुनः अनुकूल परिस्थितियां पाकर उगने लगते हैं. आधुनिक वनस्पति शास्त्र की भी यही मान्यता है. इस प्रकार वेदों और शास्त्रों में उपयुक्त इन शब्दों के अर्थ क्रमशः खाद्यान्न तथा घास हैं.

हिंदी के ग्राम शब्द के समतुल्य शास्त्रीय शब्द गोत्र है जो लैटिन के cotter से उद्भूत है और जिसका भाव कुटियों का स्थान है क्योंकि उस समय घर कुटियों के रूप में ही होते थे. अपने ही गाँव में विवाह को प्रतिबंधित करने के लिए अपने गोत्र में विवाह की मनाही थी जो सभी जातियों में आज भी प्रचलित है. 

शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2010

सनातन, धर्म

शब्द समूह 'सनातन धर्म' आचार्य शंकर द्वारा आज से लगभग २३०० वर्ष पूर्व दिया गया था. उन्होंने इस धर्म को प्रतिपादित करके भारत के इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ा था. शास्त्रीय भाषा वैदिक संस्कृत तथा आधुनिक संस्कृत में इसके भिन्न अर्थ हैं.यह सब्द समूह यह भी दर्शाता है कि किस प्रकार आधुनिक संस्कृत के माध्यम से भारतवासियों को भ्रमित किया गया.

सनातन 
शास्त्रीय भाषा में सनातन शब्द लैटिन भाषा के शब्द 'sanatus' से उद्भूत है जिसका अर्थ है 'उपचार करना' अथवा 'स्वस्थ बनाना' अथवा स्वास्थ.  आधुनिक संस्कृत में इसका अर्थ है - 'सदा-सदा से चला आ रहा'

धर्म  
वैदिक संस्कृत में 'धर्म' के तीन अर्थ पाए जाते हैं. इसका प्राचीनतम अर्थ 'सोना' अथवा 'सुलाना' है क्योंकि यह लैटिन शब्द 'dorma' से लिया गया है. इसी लिए अभी भी यात्रियों के सोने के स्थान को 'धर्मशाला अर्थात 'सोने के लिए स्थान' कहा जाता है. धर्म का दूसरा स्रोत लैटिन का ही 'derma' है जिसका हिंदी अर्थ 'त्वचा है. त्वच जीवधारियों के शरीरों का बाह्य आवरण होने के कारण धर्म का व्यापक अर्थ 'जो धारण किया गया हो' है. इससे दो अर्थ बने - भौतिक स्तर पर त्वचा तथा मानसिक स्तर पर धारणा. इस प्रकार वैदिक संस्कृत में 'धर्म' शब्द तीन अभिप्रायों में उपयोग किया गया -
जीव की सम्पदा 'त्वचा' अथवा 'धारणा', 
जीव का मौलिक कर्म, तथा 
जीव की अवस्था - 'सोना'.
आधुनिक संस्कृत में धर्म का अर्थ 'कर्मकांड' पूजा-पाठ, जीवन-शैली.आदि है.

सनातन धर्म 
उपरोक्तानुसार 'सनातन धर्म' के वैदिक अर्थ तीन हैं -
स्वास्थ का सुलाना अथवा नष्ट करना, 
स्वास्थ की धारणा, तथा
स्वस्थ त्वचा  
जबकि आधुनिक संस्कृत में सनातन धर्म का तात्पर्य 'सदा-साद से चली आ रही जीवन शैली.   

सोमवार, 8 फ़रवरी 2010

पुत्र, पुत्री

शास्त्रों में पुत्री शब्द का उपयोग कहीं है, ऐसा मुझे याद नहीं. किन्तु एक विशेष आग्रह पुत्र शब्द के साथ पुत्री को भी रख लिया गया है. पुत्री के लिए शास्त्रीय शब्द दुहिता अथवा दोहित्र है जो लैटिन भाषा के शब्द dohtor से लिया गया है.जो प्राचीन और मध्यकालीन अंग्रेजी में भी यथावत था. दुहिता शब्द का उपयोग बगाली भाषा में भी किया जाता है.

शास्त्रों में उपयुक्त शब्द पुत्र का वह अर्थ नहीं है जो हिंदी तथा आधुनिक संस्कृत में है. शास्त्रीय पुत्र लैटिन शब्द putridus, putrere से उद्भूत है तथा जिसका अर्थ 'सडन' अथवा 'भृष्ट' है. तदनुसार अवैध संतान को शास्त्रीय पुत्र कहा जा सकता है.    

योग

योग शब्द का विश्व भर में बहुत अधिक दुरूपयोग किया जा रहा है तथा इसे शरीर के व्यायाम से लेकर 'आत्मा परमात्मा के मिलन'  तक के भावों में लिया जा रहा है. इसका वास्तविक अर्थ द्रव्यों को मिलाकर कोई उपयोगी औषधि अथवा पोषण द्रव्य बनाना मात्र है. संज्ञा के रूप में यह मिलाकर बनाई गयी उपयोगी वस्तु के लिए उपयोग किया जाता है.

दुरूपयोग के सन्दर्भ में योग का परिभाषा सूत्र 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः' अर्थात योग 'चित्त की वृत्तियों को संयमित करना है' माना जाता है, जो सर्वथा भ्रमात्मक है, क्योंकि यह सूत्र का पूरा स्वरुप ही न होकर पतंजलि योगसूत्र के प्रथम सूत्र का आधा भाग है.. यह पूरा सूत्र और इसकी व्याख्या मेरे दूसरे संलेख पर दी गयी है.

रविवार, 7 फ़रवरी 2010

वरीयता क्रम मत प्रणाली

बौद्धिक जनतंत्र में सरकार के चुनाव के लिए नागरिकों को मताधिकार उपयोग हेतु एक विशिष्ट चुनाव प्रणाली का प्रतिपादन किया गया है, जिसे 'वरीयता क्रम मत प्रणाली' नाम दिया गया है. इस प्रणाली में प्रत्येक मतदाता किसी एक प्रत्याशी को अपना मत न देकर तीन प्रत्याशियों को अपना वरीयता क्रम प्रदान करता है. इन क्रमों के मूल्य निम्न प्रकार निर्धारित हैं -
प्रथम वरीयता - ५ अंक
द्वितीय वरीयता - ३ अंक, तथा
तृतीय वरीयता - २ अंक.

मतदान के पश्चात् प्रत्येक प्रत्याशी के वरीयता अंको का योग प्राप्त किया जायेगा और जो प्रत्याशी कुल अंको का ५० प्रतिशत से अधिक तथा प्रत्याशियों में सर्वाधिक अंक प्राप्त करेगा, वही विजयी घोषित होगा. इसके तीन लाभ अपेक्षित हैं -
  1. प्रत्याशियों में परस्पर सहयोग करने की भावना उभरेगी ताकि एक प्रत्याशी के प्रथम वरीयता मतदाता दूसरे प्रत्याशियों को अपनी अन्य वरीयता प्रदान कर सकें. अतः चुनावों में अंतर्कलह न्यूनतम होगी.
  2. प्रत्येक मतदाता को सुविधा मिलेगी कि वह तीन प्रत्याशियों का मूल्यांकन करे और किसी एक तक सीमित न रहे. 
  3. विजित प्रत्याशी का प्रबाव क्षेत्र सीमित न रहकर विस्तृत प्राप्त होगा.
यद्यपि इस प्रणाली में एक बार की चुनाव प्रक्रिया में ही विजित प्रत्याशी को ५० प्रतिशत से अधिक मतदाताओं का पूर्णतः अथवा अंशतः समर्थन अपेक्षित है, तथापि यह ५० प्रतिशत से न्यून होने पर चुनाव प्रक्रिया पुनः अपनाई जाएगी जिसमे केवल तीन प्रत्याशी हे मैदान में रहेंगे. इससे विजित प्रत्याशी का जनसमर्थन निश्चित रूप से व्यापक पाया जाएगा.

यदि चुनाव मैदान में केवल दो ही प्रत्याशी रहते हैं तो वरीयता अंक इस प्रकार दिए जाएँगे -
प्रथम वरीयता - 6 अंक, तथा 
द्वितीय वरीयता - 4 अंक.

जिससे कि विजित प्रत्याशी को एक बार में ही ५० प्रतिशत से अधिक अंक प्राप्त हो सकें, क्योंकि इस स्थिति में पुनः मतदान करना अव्यवहारिक होगा. . 

भारतीय समाज - विषमताओं का दंगल

आज का भारतीय समाज अनेक विषमताओं में निमग्न है किन्तु उनसे जूझने का दम उसमें कहीं दिखाई नहीं दे रहा है. व्यक्ति को सबसे पहले रोटी चाहिए बिना संघर्ष के, तभी वह आगे की सोच सकता है. जिस वर्ग को रोटी उपलब्ध नहीं है वह इसे पाने के प्रयासों में तल्लीन हैं और यह उस की विवशता है. जिन्हें यह उपलब्ध है वह प्रथम वर्ग के शोषण से ही उपलब्ध हो रही है, इसलिए वे इस स्थिति में परिवर्तन कदापि नहीं चाहते. बस इस विषय पर यदा-कदा अपनी बौद्धिक श्रेष्ठता दर्शाकर अपना कर्तव्य पूरा समझ लेते हैं. शेष समय वे विविध माध्यमों से अपने मनोरंजन में व्यतीत करते हैं. दोनों वर्गों की जनसँख्या लगातार बढ़ रही है जिसके कारण दोनों को रोटी के नए नए स्रोत खोजना भी आवश्यक हो गया है. अतः प्रथम वर्ग के कुछ लोग छलांग लगाकर दूसरे वर्ग में सम्मिलित होने का प्रयास करते हैं जिससे प्रथम वर्ग को कुछ रहत मिलती है. शेष आवश्यकता पूर्ति के लिए यह वर्ग अधिक परिश्रम करता है अथवा दूसरे वर्ग से छीना-झपटी करता है. दूसरा वर्ग अपनी आवश्यकताओं की आपूर्ति के लिए शोषण के नए माध्यम खोजता है और उन्हें विकसित करता है.दोनों वर्गों के मध्य अंतराल निरंतर बढ़ता जा रहा है.  सब मिलाकर यह कहा जा सकता है कि बढ़ती आवश्यकताओं की आपूर्ति के लिए सामान्य विधि - उत्पादन में वृद्धि, पर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा.

कुछ सीमा तक यह वर्ग संघर्ष विश्व स्तर पर भी हो रहा है किन्तु कुछ दूसरे प्रकार का. यहाँ का धनिक वर्ग उत्पादन और इस के साधनों का विकास कर चुका है और आगे कर रहा है. इससे कारण यह वर्ग संपन्न है. कुछ सीमा तक यह निर्धन वर्ग का शोषण भी करता है - विशेषकर उससे सस्ते मूल्य पर जनशक्ति प्राप्त करके. किन्तु इसमें दोनों वर्गों के हित समाहित हैं. विश्व स्तर पर निर्धन वर्ग मानवीय भावुकता के आधार पर धनिक वर्ग का शोषण करता है - ऋण, दान, भिक्षा, सहायता, सुरक्षा, आदि की सतत मांग करता हुआ. यहाँ भी दोनों वर्गों के मध्य अंतराल निरंतर बढ़ता जा रहा है.

भारतीय समाज एकदम स्पष्ट रूप में दो वर्गों में विभाजित है - शासक और शासित, शोषणकर्ता और शोषित,.धनाढ्य और निर्धन, आदि. इसमें कभी कभी वर्गान्तर उत्पन्न हो जाता है, जिस वर्ग के हाथ में राजनैतिक सत्ता की बागडोर आ जाती है वही शोषण करने लगता है दूसरे वर्ग का.

स्वतंत्रता, जिसका सपना देशभक्तों ने स्वतंत्रता संग्राम के समय देखा था, अब स्वच्छन्दता अथवा उद्दंडता में परिवर्तित हो गयी है जहाँ प्रत्येक व्यक्ति तथा वर्ग कुछ भी कभी भी कर सकता है बिना किसी मर्यादा का ध्यान रखे. इसे कभी अनुशासनहीनता कहा जाता था किन्तु अब यह अनुशासनहीनता से भी बहुत आगे है. इस स्वच्छन्दता ने भारतीय समाज को एक सजीव अखाड़े में परिवर्तित कर दिया है जिसके कोई नियम अथवा विधान नहीं हैं. इस विधान-हीनता का एक मात्र कारण है न्यायपालिका की न्याय प्रदान करने में असफलता.      

क्यों है शासन इतना लापरवाह लोगों को न्याय जैसी मूलभूत सुविधा प्रदान करने में? इस कारण का विशेष विश्लेषण करना ही लक्ष्य है इन आलेख का. यही कारण साल रहा है और छल रहा है हम सब भारतीयों को. आइये झांके अपने समाज में और इसकी मानसिकता में ताकि कोई हल खोजा जा सके.

भारत लंबे समय तक गुलामी की जंजीरों में जकड़ा रहा है और यहाँ का जनमानस सब कुछ चुपचाप सहन करता रहा है. यहाँ तक कि जंगली जातियां, घुमक्कड़, चोर लुटेरे भी यहाँ अपना शासन ज़माने और बनाये रखने में सफल रहे हैं. क्या है इस सब का कारण? कहीं ऐसा तो नहीं कि ऊपर के प्रश्न और इस प्रश्न का उत्तर एक ही हो. जी हाँ, निश्चित रूप से उत्तर एक ही है.

भारतीय समाज की मानसिकता ही इसका कारण है जिसमें चिंतन की क्षमता शून्यस्थ हो गयी है, बस जो परोसा जाता है, किसी ऊपर वाले द्वारा चाहे वह स्वयं को ईश्वर कहे अथवा शासक, बस उसी को सहर्ष स्वीकार कर लिया जाता है, पूरे सहिष्णु भाव के साथ. यह मानसिकता जन-जन में अन्दर तक पैठ गयी है और यह जिज्ञासा भी कभी नहीं होती कि ऊपर वाले ने जो आदेश दिया है वह उचित भी है अथवा नहीं. इसी मानसिकता का लाभ उठाया जाता रहा है यहाँ के उत्पीड़क शासकों द्वारा विगत २००० वर्षों से आज तक.

इस कलुषित मानसिकता को मैं नाम देना चाहूँगा - मनोवैज्ञानिक शासन कराये जाने की सतत अतृप्त इच्छा. स्वयं बस शासित बने रहना ही यहाँ समाज का धर्म है क्योंकि शासन से मुक्त होने का अर्थ होता है स्वयं अपने पैरों पर खड़े होकर अपने जीवन दायित्वों का निर्वाह करना. यह भारतीय मानसिकता के लिए दुष्कर लगता है, इसलिए यह सदैव किसी ऊपर वाले के आश्रय में बने रहना चाहती है. इस आश्रय के लिए आत्मसम्मान, स्वाभिमान, आत्मविश्वास आदि सभी प्राकृत मानवीय गुणों को तिलांजलि दे दी जाती है.

इसी आश्रित मानसिकता का लाभ उठाया है अनेक राजनेताओं ने जो स्वयं को कभी ईश्वर के अवतार घोषित कर शासन करते रहे हैं तो कभी ईश्वर पाने के माध्यम, कभी धर्मगुरु बनकर सामने आते हैं तो कभी कर्मकांड करने वाले वामन. ये बस आश्रय प्रदान कर दायित्वों से मुक्ति का आश्वासन देते रहे हैं और शासन करते रहे है जन-मानस पर - कभी राजनैतिक तो कभी मनोवैज्ञानिक. ये चाहे कितने भी अत्याचार करें, कितने भी व्यभिचार और दुष्कर्म करें, जनमानस इनके विरुद्ध कोई स्वर सुनने को प्रस्तुत नहीं होता क्योंकि ये ही इसके मनोवैज्ञानिक खोखलेपन में आश्रयदाता होते हैं.

जनमानस में स्वयं चिंतन की क्षमता नहीं है उसे चिन्तक करने के लिए किसी न किसी ऊपर वाले की अपरिहार्य आवश्यकता होती है. यही इस समाज की परंपरा बन गयी है और इस या अन्य किसी परंपरा के विरुद्ध यह निर्बल जनमानस कुछ सुनने को तैयार नहीं होता. बस परम्पराओं का अनुपालन हे यहाँ का धर्म है जिसने इस देश में घोर विषमताएं उत्पन्न की हैं और वे सब एक दंगल के रूप में चारों ओर फ़ैली दिखाई दे रही हैं.

शनिवार, 6 फ़रवरी 2010

दो बुद्धों की कथा

 देव-यवन संघर्ष के समय कुछ अन्य लोग भी देवों के विरुद्ध यवनों के साथ मिल गए जिनमें एक सिद्धार्थ भी था जो एक प्रतिष्ठित देव शुद्धोधन का पुत्र था. उस समय देवों की परंपरा में बुद्ध एक उपाधि थी जो शीर्ष न्यायाधिपति को दी जाती थी. इस परंपरा में प्रथम बुद्ध शाक्य सिंह थे. उनके बाद यह पड ऋषि गौतम को दिया गया. संघर्ष के समय गौतम ही वास्तविक बुद्ध थे.

गौतम की पत्नी अहिल्या अप्रतिम रूपवती थी जिसे गौतम की पत्नी होने के कारण गौतमी भी कहा जाता था. उस पर सिद्धार्थ की कुदृष्टि पड गयी. एक बार जब ऋषि गौतम घर से बाहर गए हुए थे उस समय सिद्धार्थ गौतम का वेश धारण कर अहिल्या के पास पहुंचा और उसे भ्रमित कर उसके साथ सम्भोग किया. इससे अहिल्या गर्भवती हो गयी. बाद में जब अहिल्या को इसका ज्ञान हुआ तो वह सदमे में जडवत हो गयी. ब्रह्मा के समझाने-बुझाने और उसे निर्दोष माना जाने पर ही वह सामान्य अवस्था में आयी.

अपने पुत्र के इस अपराध के लिए शुद्धोधन ने सिद्धार्थ को अपने नगर से निष्कासित कर दिया.और वह कृष्ण की शरण में चला गया. कृष्ण ने उसे अब श्रीलंका कहे जाने वाले द्वीप पर बसा दिया जो उस समय निर्जन था और कृष्ण के अधिकार क्षेत्र में था. श्रीलंका का अब ज्ञात इतिहास भी इसी प्रकार कहता है कि यह द्वीप भारत से निष्कासित एक राजकुमार द्वारा बसाया गया था. यहाँ बसने के बाद उसने साधना करने का छल किया और बोधगया में साधना पर कुछ समय बैठने के बाद स्वयं को बुद्ध घोषित कर दिया. उसने अपने बारे में वैसी ही उदघोषणाएँ  कीं जैसी कि कृष्ण अपने बारे में किया करता था. इसी सिद्धार्थ ने बाद में बोद्ध धर्म का प्रतिपादन किया जिसमें लाखों युवक बोद्ध भिक्षु बनकर बिना परिश्रम किये वैभव भोगने लगे थे और देश में अकर्मण्यता का रोग लग लग गया था.   

बोद्ध धर्म का प्रमुख ग्रन्थ तिपिटक है जिसमें सिद्धार्थ को बुद्ध न कहकर सम्बुद्ध - बुद्ध के समान - कहा गया है. इसी ग्रन्थ के अम्बत्थ सुत्त में कहा गया है -
यदि वा सो भवं गोतमो तादिसो, यदि वा न तादिसो.

जो तत्कालीन विद्वानों की मनोस्थिति के बारे में है और जिसका अर्थ - 'क्या वह गौतम जैसा ही हैं, या वैसा नहीं हैं'. इसी प्रकार के अनेक उद्धरणों से स्पष्ट है कि सिद्धार्थ गौतम नहीं था किन्तु गौतम जैसा ही था.

इस बारे में यह भी ध्यातव्य है कि ऐसा कहा जाता है कि सिद्धार्थ ने गृहत्याग रोगों, वृद्धावस्था और मृत्यु के दुखों से दुखी होने के कारण किया था और वह इन दुखों से मुक्ति मार्ग खोजने घर से निकला था. इसके बाद उसने स्वयं को बोधिसत्व घोषित किया जिसका तात्पर्य होता है कि उसे उक्त दुखों से मुक्ति का मार्ग मिल गया था. किन्तु इस पर भी उसने इन दुखों से मुक्ति का कोई मार्ग नहीं दिखाया और ये दुःख उसी प्रकार आज तक बने हुए हैं जैसे कि पहले थे. इससे सिद्ध यही होता है कि सिद्धार्थ का बोधिसत्व होना केवल एक आडम्बर था. 

वाजीकरण

 वाजीकरण का अर्थ वर्तमान शास्त्रनुवादों में स्त्री-रमण माना जा रहा है जो सर्वथा मिथ्या है.वस्तुतः इस शब्द का लोक स्वरुप बाजीगर है जो उन लोगों के लिए उपयुक्त किया जाता है जो लोक मनोरंजन के लिए हाथों की सफाई से तरह तरह के खेल दिखाते हैं. इस कार्य में अत्यधिक चपलता, शरीर और मस्तिष्क का सामंजस्य, तथा बुद्धिमानी की आवश्यकता होती है. अतः वाजीकरण का अर्थ शरीर और मस्तिष्क का पूर्ण स्वास्थ एवं सामंजस्य है जिसे सरल भाषा में बुद्धिमानी कहा जा सकता है.
इसकी पुष्टि यूरोपीय भाषा परिवार की एक भाषा डच के शब्द wijsseggher से होती है जो वाजीकरण के अत्यधिक निकट है एवं जिसका अर्थ 'ऐसा व्यक्ति, जो अत्यधिक बौद्धिक कार्यों में व्यस्त रहता हो'. 

शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2010

यवन

 प्राचीन काल में एशिया माइनर में एक क्षेत्र का नान आयोनिया (Ionia) था और यहाँ के लोग यवन कहलाते थे. अत्यधिक महत्वाकांक्षी होने के कारण धीरे धीरे ये लोग अन्य भू भागों पर भी फ़ैल गए और यवन जाति एक विशाल जाती और विशाल भू क्षेत्र की स्वामी बन गयी.इस जाती की वृद्धित शक्ति को देखते हुए अनेक अन्य छोटीचोटी जातियों ने भी स्वयं को यवन कहना आरम्भ कर दिया. यहाँ तक कि फिलिप और उसका पुत्र सिकंदर, जो मूलतः मेसिडोनिया क्षेत्र तथा डोरिस नगर के वासी होने के कारण मेसिडोन अथवा डोरियन थे, स्वों को यवन कहने लगे. यह संभव है कि इनके पूर्वज मूलतः आयोनिया के वासी रहे हों. फिलिप ने ग्रीस पर अपने अधिपत्य के बाद उस देश का नाम बदलकर यूनान कर दिया और वहन के सभी वासी यूनानी अथवा यवन कहलाने लगे.
यवन शब्द मूलतः लैटिन भाषा के शब्द ion से उद्भूत है जिसका अर्थ बैंगनी रंग होता है. भारत के देवों द्वारा विकास किये जाते समय यवनों ने ही इस पर अपना अधिपत्य ज़माने का प्रयास किया था जो एक षड्यंत्रपूर्ण विशाल एवं दीर्घगामी योजना थी. इसी योजना के अंतर्गत भारत में आकर बसे यहूदी परिवार में कृष्ण का कृत्रिम जन्म कराया गया. वस्तुतः एक यवन भ्रूण को बैंगनी रंग में रंगकर यहूदी स्त्री के गर्भ में आरोपित करके बैंगनी रंग के कृष्ण का जन्म कराया गया. उसका बैंगनी रंग कृत्रिम था क्योंकि किसी भी अन्य व्यक्ति का रंग कभी बैंगनी नहीं हुआ. बैंगनी रंग को यवन शक्ति के प्रतीक के रूप में उपयोग किया गया. 
इस प्रकार शास्त्रों में यवन शब्द दो अर्थों में उपयुक्त किया गया है - एक जाती के लिए, तथा दूसरा बैंगनी रंग के लिए. शास्त्र लिखे जाते समय शब्दों का बहुत अधिक विकास नहीं हुआ था, इसलिए शब्दों को अनेक अर्थों में उपयोग किया गया है. किन्तु इसके विपरीत एक ही अर्थ के लिए कदापि अनेक शब्दों का उपयोग नहीं हुआ है.  

गुरुवार, 4 फ़रवरी 2010

यज्ञ (यजन), याज्ञ (याजन)

यज्ञ (यजन), याज्ञ (याजन), युग और योग, ये सभी सब्द संग्रहवाचक हैं अर्थात कुछ वस्तुओं को एक साथ जोड़ना. इन शब्दों का उस समय विकास हुआ जब मनुष्य जाती ने समाज बनाकर बस्तियों में रहना आरम्भ किया था. बसई में रहने को यज्ञ कहा गया क्योंकि इसके माध्यम से व्यक्तियों का संग्रह होता है. इसी शब्द से याज्ञ शब्द उद्भूत हुआ है, तदनुसार इसका अर्थ बस्ती का निर्माण करना अथवा बसाना होता है.


विद्युत् ऊर्जा की कमी तथापि दुरूपयोग

आधुनिक मानव जीवन के लिए विद्युत् ऊर्जा वस्त्रों और भवनों की तरह ही महत्वपूर्ण हो गयी है. इस पर भी भारत की लगभग आधी जनसँख्या को विद्युत् उपलब्ध नहीं है. जिन ग्रामीण क्षेत्रों में विद्युत् उपलब्ध भी है वहां भी अनेक क्षेत्रों में केवल नाम मात्र के लिए उपलब्ध है, और संध्या के समय तो बिलकुल नहीं जब प्रकाश के लिए इसकी अतीव आवश्यकता होती है. इस कारण से भारत के अधिकाँश ग्रामीणों का जीवन अभी भी अँधेरे की कालिख में दबा हुआ है. नगरीय क्षेत्रों में जहाँ रात्री के १०-१२ बजे तक चहल-पहल रहती है, वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में संध्या होते ही घर और गलियां अँधेरे में डूब जाते हैं. चूंकि देश की अधिकाँश जनसँख्या ग्रामों में रहती है, इसलिए कहा जा सकता है कि भारतीयों के जीवन अंधेरों में डूबे हैं.

भारत में विद्युत् ऊर्जा का अभाव प्रतीत होता है इस पर भी इस जीवन समृद्धि स्रोत का किस प्रकार दुरूपयोग किया जा रहा है, इस पर एक दृष्टि डालें.
  1. ग्रामीण क्षेत्रों में जहाँ विदुत पहुँच चुकी है वहां इसकी चोरी सार्वजनिक रूप से की भी जा रही है और विद्युत् वितरण अधिकारियों द्वारा निजी स्वार्थों के लिए कराई भी जा रही है. चोरी का किया जाना भी उनकी लापरवाही के कारण ही संभव होता है. इससे कुछ जीवन तो प्रकाशित होते हैं किन्तु यह प्रक्रिया बहुत अन्यों के जीवनों को अँधेरे में धकेल रही है क्योंकि चोरी से विद्युत् का उपयोग करने वाले इसका अत्यधिक दुरूपयोग करते हैं. उनके घरों में बल्ब तो अनेक लगे होते हैं किन्तु उनके कोई स्विच नहीं होते. दिन हो या रात, प्रकाश की आवश्यकता हो या नहीं उनके बल्ब विद्युत् उपलब्ध होने पर जले ही रहते हैं.   
  2. भारत के अधिकाँश क्षेत्रों में विद्युत् का सही विद्युत् वोल्टेज प्राप्त नहीं होता है. देखा यह गया है कि विद्युत् वोल्टेज २३० के स्थान पर १००-१५० ही रहता है. इन दोनों कारणों से विद्युत् उपभोक्ताओं की विवशता होती है कि वे प्रत्येक विदुत परिचालित उपकरण के लिए एक वोल्टेज स्थिरक का उपयोग करें, जिनकी कार्य दक्षता ६० से ७० प्रतिशत होती है. अतः विद्युत् की जितनी खपत होनी चाहिए, उससे लगभग ३० प्रतिशत अधिक खपत होती है. यदि विद्युत् लीनों पर वोल्टेज सही रहे तो यहे ३० प्रतिशत ऊर्जा अन्य लोगों के जीवनों को प्रकाशित कर सकती है. साथ हीउपभोक्ताओं का जो धन इन अतिरिक्त अनावश्यक उपकरणों पर व्यय हो रहा है, वह उनके जीवन स्तर को सुधार सकता है.
  3. विद्युत् अधिकारियों की असक्षमता और लापरवाही के कारण भारत में विद्युत् उपलब्धि का कोई निश्चित समय नहीं होता. यहे कभी भी उपलब्ध हो सकती है और कभी भी बंद. इस कारण से विद्युत् उपभोक्ताओं की विवशता यह भी होती है कि वे अपने घर एवं कार्यालयों में आवश्यकतानुसार विदुत उपलब्ध रखने के लिए बैट्री और इनवर्टरों का उपयोग करें. ये अतिरिक्त उपकरण ५० प्रतिशत से कम कार्य दक्षता रखते हैं और बहुमूल्य भी होते हैं. इस प्रकार इन से उपभोक्ताओं को धन की हनी तो होती ही है विद्युत् ऊर्जा की खपत भी दोगुनी हो जाती है. जहाँ विद्युत् का अभाव इतना अधिक हो, वहां विद्युत् का इस प्रकार का दुरूपयोग एक आपराधिक वृत्ति को दर्शाता है. 
  4. विदुत का चौथा दुरूपयोग उत्तर प्रदेश जैसे कुछ कुप्रबंधित राज्यों में ही पाया जाता है. उत्तर प्रदेश में, जहाँ विद्युत् का बहुत अधिक अभाव है, प्रत्येक घरेलु उपभोलता के लिए २ किलोवाट का विदुत कनेक्शन लेना अनिवार्य कर दिया गया है जबकि अधिकांश घरों में ५०० वाट का ही विद्युत् भार होता है अथवा सीमित किया जा सकता है. इस प्रकार प्रत्येक घरेलु उपभोक्ता को विवश किया जा रहा है कि वह अपनी आवश्यकता से चार गुनी विदुत ऊर्जा की खपत करे तथा उसके विद्युत् बिउल्ल का भुगतान करे. विद्युत् कुप्रबंधन का यह सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है.  
भारत विद्युत् ऊर्जा का उत्पादन एवं वितरण अभी भी सार्वजनिक क्षेत्र में है और शासन प्रशासन इसकी व्यवस्था करता है. इस प्रकार देश और इसके नागरिक स्वयं ही पतन की ओर नहीं जा रहे उन्हें शासन एवं प्रशासन द्वारा इस ओर धकेला भी जा रहा है.

बुधवार, 3 फ़रवरी 2010

सरकार के अधिकार और कर्तव्य

बौद्धिक जनतंत्र जहाँ सरकार को नागरिकों के जीवन को अनुशासित करने के लिए विशिष्ट अधिकार प्रदान करता है वहीं यह सरकार को जीवन स्तर में सुधार और उसमें प्रसन्नता विकास के लिए उत्तरदायी भी बनाता है. सरकार के इसके अतिरिक्त कोई अन्य कर्तव्य नहीं हैं क्योंकि इन्हीमें वह सब कुछ समाहित है जो किसी राष्ट्र के विकास के लिए वांछित है.

नागरिक विकास
नागरिकों का सर्वांगीण विकास ही राष्ट्र का सर्वांगीण विकास होता है जिसके लिए प्रत्येक नागरिक स्वस्थ, शिक्षित और अनुशासित होना चाहिए. स्वस्थ और शिक्षा सेवाओं की निःशुल्क व्यवस्था करना और सभी नागरिकों को सामान रूप में अवसर प्रदान करना बौद्धिक जनतंत्र सरकार के अनिवार्य दायित्व हैं. नागरिकों को अनुशासित करने के लिए उनको निःशुल्क एवं त्वरित न्याय प्रदान करना भी सरकार का दायित्व है ताकि कोई नागरिक किसी अन्य नागरिक के साथ अन्याय करने का साहस ही न करे. इसके लिए सरकार को कठोर दंड व्यवस्था के लिए अधिकृत किया जाता है.

धर्म, संप्रदाय और स्वतंत्रता  
बौद्धिक जनतंत्र में प्रत्येक नागरिक को कोई भी धर्म अथवा संप्रदाय अपनाने की पूर्ण स्वतंत्रता होगी किन्तु इसका सार्वजनिक प्रदर्शन पूरी तरह प्रतिबंधित होगा. इसका अर्थ यह भी है कि प्रत्येक नागरिक व्यक्तिगत स्तर पर ही स्वतंत्र होगा सामाजिक स्तर पर नहीं. सामाजिक स्तर पर उसे अनुशासित रहना होगा और इसका दायित्व सरकार का होगा. इस प्रकार नागरिक सीमित रूप में ही स्वतंत्र होंगे, पूर्ण रूप में नहीं. सार्वजनिक स्तर पर समाज और राष्ट्र के हित उसकी स्वतंत्रता को संयमित करेंगे.  

उद्योग एवं व्यवसाय
सरकार कोई उद्योग अथवा व्यवसाय कार्य नहीं करेगी, किन्तु प्रत्येक उद्योग एवं व्यवसाय को नियमित एवं नागारिकोंमुखी बनाये रखना सरकार का अधिकार भी है और दायित्व भी. इसके लिए बौद्धिक जनतंत्र के अंतर्गत दो स्थाई संवैधानिक आयोग कार्यरत रहेंगे - उत्पाद गुणता एवं मूल्य निर्धारण आयोग, तथा मांग पूर्वाकलन एवं उत्पादन नियोजन आयोग. ये आयोग सुनिश्चित करेंगे कि नागरिकों की सभी आवश्यकताएं उचित मूल्य पर उच्च गुणता वाले उत्पादों से आपूर्त हों. साथ ही देश में निम्न गुणता वाला कोई उत्पाद अनुमत ही नहीं होगा.  


सार्वजनिक सेवाएँ 
परिवहन, संचार, विद्युत्, जल, आदि सार्वजनिक सुविधाएं जहाँ राष्ट्र की अर्थ व्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान देती हैं वहीं नागरिकों के जीवन को भी सहज एवं सुविधाजनक बनाती हैं. सरकार इस प्रकार की लोई सेवा स्वयं प्रदान नहीं करेगी किन्तु इनकी समुचित उपलब्धि सरकार का दायित्व होगी, जो वह निजी क्षेत्र को प्रोत्साहित एवं नियमित करते हुए करेगी.

कृष्ण का लक्ष्य और चरित

कृष्ण के जीवन का एक मात्र लक्ष्य भारत भूमि को अपने अधिकार में लेना था क्योंकि यहाँ विशाल समतल भूमि क्षेत्र था, पूरे क्षेत्र में प्राकृत जलधाराएँ थीं, भूमि उपजाऊ थी और खनिजों से संपन्न थी. इनके अतिरिक्त यहाँ के लोग सीधे सादे सरल स्वभाव के थे जिनपर सरलता से शासन किया जा सकता था. देवों ने यहाँ पर्याप्त विकास कार्य कर दिए थे जिससे शोषण के लिए पर्याप्त स्रोत उपलब्ध हो गए थे.

भारत में कृष्ण का जन्म यवन शक्ति के प्रतीक के रूप में कराया गया था. मूलतः एक छोटे से क्षेत्र आयोनिया (Ionia ) के लोगों को यवन कहा जाता था जो दूर दूर तक जा बसे थे और अपनी जाती का विस्तार कर रहे थे. प्लेटो भी इसी जाती का था जो ग्रीस के नगर राज्य अथेन्स में जा बसा था और भारत के विरुद्ध षड्यंत्र का रचयिता था. इसी ने एक यवन भ्रूण को बैंगनी रंग कर भारत में कृष्ण का जन्म प्रबंधित किया था जिससे कृष्ण बैंगनी रंग का एक मात्र व्यक्ति था. लैटिन भाषा में ion शब्द का अर्थ बैंगनी रंग है, इसीलिये कृष्ण का रंग बैंगनी रखा गया ताकि वह यवन शक्ति का परिचायक रहे.

अधिकार करने की इस महत्वाकांक्षी योजना में केवल एक बाधा थी - लोकप्रिय राम, परम बुद्धिमान विष्णु, परम बलशाली महेश्वर और कंस, जरासंध, कीचक आदि योद्धाओं की उपस्थिति. इसलिए कृष्ण के लिए यह आवश्यक हो गया कि वह येन केन प्रकारेण इनका सफाया करे अथवा करवाए.

कृष्ण ने उस समय तक स्वयं को दिव्य सिद्ध करने में कोई कसर नहीं रख छोडी थी किन्तु वह ब्रह्मा (राम) की तरह लोकप्रिय नहीं हो पाया था. कृष्ण निरक्षर था और उसकी शिक्षा-दीक्षा छल-कपटों तक सीमित थी, इसलिए वह विष्णु (लक्ष्मण) की बुद्धिमत्ता का सामना करने में भी असक्षम था. स्वयं को दिव्य सिद्ध बनाये रखने के किये वह स्वयं किसी से भी सीधे टकराव से बचता था अन्यथा पराजय उसकी दिव्यता की पोल खोल देती. इस कारण से वह स्वयं किसी युद्ध अथवा द्वन्द में भाग लेने से कतराता था जिससे वह स्वभावतः कायर बन गया था. इसलिए बलशाली और योद्धा देवों से भयभीत हो वह बचता ही रहता था, विशेषकर महेश्वर (भरत) से तो वह भयभीत ही रहता था. किन्तु उसकी महत्वाकांक्षा की आपूर्ति के लिए उसे ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर, कंस, कीचक, जरासंध आदि देवों को अपने मार्ग से हटाना अनिवार्य था. उस समय मदुरै में कंस का शासन था और वहीं कृष्ण के यदुवंश का बाहुल्य था, इसलिए उसने सबसे पहले मदुरै पर अधिकार की योजना बनाई. श्रीमदभगवद-गीता की प्रस्तावना में कंस के वध का उल्लेख इस प्रकार है -

वसुदेवसुतं देवं कंसचाणूरमर्दनम. 
अर्थात - वसुदेव के रक्षक देव कंस के दोनों आणों (अन्डकोशों) को मसल दिया गया.

इसके बाद दक्षिण भारत पर कृष्ण का अधिकार हो गया और यही उसकी गतिविधियों का केंद्र बना. किन्तु वह उत्तरी क्षेत्र में आकर देव योद्धाओं से टकराने का साहस न कर सका.    

इस कार्य के लिए उसने पांडवों को भारत बुलाया जो कुंती के साथ जंगल-जंगल भटक रहे थे. तीनों पांडव सरल स्वाभाव के तथा बहुत कुछ बुद्धिहीन थे. कृष्ण ने उन्हें भारत के शासन में भागे देने का वचन दिया और वे कृष्ण के छल में आगये. पांडवों में भीम सर्वाधिक बलशाली था इसलिए उसने भीम को ही देव योद्धाओं से एक-एक करके युक्तिपूर्वक भिड़ाया. भीम का बल और कृष्ण का छल अधिकांश देवों को पराजित करने में सफल रहे. इन वधों तथा हत्याओं से देवों की शक्ति क्षीण होने लगी.

देवों की इस दुर्बलता का पूरा लाभ उठाने के लिए उसने महाभारत युद्ध की योजना बनायी जो तत्कालीन विश्व के सभी योद्धाओं की हत्या की योजना थी. इस युद्ध के लिए उसने सिकंदर को भारत पर आक्रमण के लिए आमंत्रित किया और पांडवों को राज्य में हिस्सा देने को कारण बनाया. उसके तर्क रखा कि कुंती का विवाह महेश्वर से हुआ था इसलिए उसके पुत्र पांडव महेश्वर के पुत्र हुए, जब कि वे कुंती के अवैध संबंधों से उत्पन्न संतानें थीं. .  






सोमवार, 1 फ़रवरी 2010

पृष्ठभूमि

भारत के वेद और शास्त्र ज्ञान-विज्ञानं तथा लगभग २४०० वर्ष पूर्व के इतिहास के अकूत भण्डार हैं. तथापि इनके सही अनुवाद न होने के कारण इनसे न तो कोई ज्ञान-विज्ञानं प्राप्त हो पाया है और न ही कोई विश्वसनीय एतिहासिक तथ्य. इसका प्रमुख कारण यह है कि अभी तक इनके सभी अनुवाद आधुनिक संस्कृत शब्दावली के अर्थों के आधार पर किये गए हैं जबकि सभी विद्वान् इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि आधुनिक संस्कृत भाषा इन ग्रंथों के लिखे जाने से बहुत बाद में विकसित की गयी थी. इनकी वास्तविक भाषा को प्रायः वैदिक संस्कृत कहा जाता है. इनके वर्तमान में प्रचलित हिंदी अनुवादों से जो प्राप्त होता है वह विकृत और भ्रमित करने वाला है. इन अनुवादों के कारण ये बहुमूल्य ग्रन्थ अप्रासंगिक लगने लगते हैं.

श्री अरविन्द की प्रेरणा तथा इन ग्रंथों पर किये गए शोधों से मुझे ज्ञात हुआ कि इनकी शब्दावली का आधुनिक संस्कृत से कोई सम्बन्ध न होकर तत्कालीन विकसित लैटिन और ग्रीक भाषाओं से गहन सम्बन्ध है. इस आधार पर किये गए अनुवादों से ही इन बहुमूल्य ग्रंथों से इनके मंतव्यों का सही बोध होना संभव है. किन्तु यह ग्रंथावली इतनी विशाल है कि मैं अपने सम्पूर्ण जीवन में इनके अनुवाद प्रस्तुत करने में असमर्थ ही रहूँगा. इस कार्य में अन्य विद्वान् भी लगें, इसके लिए मैं इस संलेख के माध्यम से इनकी शब्दावली के व्याख्यात्मक अर्थ प्रस्तुत कर रहा हूँ जिससे कि अनुवाद सरल, सहज और यथार्थपरक हों.