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मंगलवार, 24 मार्च 2015

वैदिक एवं आसुरी धार्मिक संस्कृत

अब से लगभग 2700 वर्ष पूर्व देव विद्वानों ने भारतीय उपमहाद्वीप को एक राष्ट्र के रूप में विकसित करने की संकल्पना की थी। उन्होंने इस क्षेत्र को विश्व में सर्वाधिक सम्पन्न  ही नहीं बनाया था अपितु इस क्षेत्र को विश्व की सर्वाधिक वैज्ञानिक लिपि – देवनागरी, भी दी जो जनसामान्य को लिखित संवाद की सुविधा प्रदान करने के साथ-साथ देवों को अपने अनुभव सूत्र रूप में सुरक्षित करने में भी उपयोगी सिद्ध हुई थी। इस लिपि के माध्यम से एक ही पाठ्य में विविध विषयों से सम्बद्ध अनेक अर्थ समाहित किये जा सकते हैं जिन्हें गुप्त भी रखा जा सकता है ताकि शत्रु इन्हें न समझ सकें किन्तु समधर्मी लोग इन अर्थों को प्राप्त कर सकें।
देवों का नेतृत्व पुरूरवा के दो युगलों में उत्पन्न चार पुत्र ब्रह्मा तथा राम, एवं विष्णु तथा लक्ष्मण कर रहे थे।  जिनकी प्राथमिकता लोगों को स्वस्थ रखना थी ताकि वे स्वावलम्बी बन क्षेत्र के विकास में अपना भरपूर योगदान दे सकें। इसके लिए उन्होंने विश्व के प्रथम स्वास्थ-विज्ञान आयुर्वेद की स्थापना की और उस पर वृहद साहित्य तैयार किया।
साम्राज्यवाद
क्षेत्र की सम्पन्नता से लालायित होकर अनेक जंगली जातियां, यथा यदु, असुर, द्रविड़, रावण, एवं, आदि भी यहां आईं जो यहां के लोगो पर अपना शासन स्थापित कर उनके परिश्रम से प्राप्त सम्पदा पर वैभव भोग कर सकें। यही उनके द्वारा प्रोन्नत साम्राज्यवादी शासन का लक्ष्य होता है जिसमें लोगों को समस्याग्रस्त रखकर उन्हें परावलम्बी बनाया जाता है तथा उनसे पशुतुल्य श्रम कराया जाता है। सुविधा के लिए ये सभी जातियां असुर रूप में ही संगठित हुई जिनका नेतृत्व एक यदुवंशी के हाथ में था।  साम्राज्यवादी शासन सदैव किसी धर्म् के पाखण्ड द्वारा लोगों में हीन भावना विकसित कर उनपर राजनैतिक शासन स्थापित करने से पहले मनोवैज्ञानिक शासन स्थापित किया जाता है।
वैदिक संस्कृत
चूंकि स्वस्थ, सम्पन्न एवं स्वावलम्बी लोगों पर शासन और उनका शोषण करना दुष्कर होता है, इसलिए शासन-लोलुप जातियां देवों द्वारा रचित स्वास्थ-परक साहित्य को नष्ट कर देतीं थीं। अतः भारत भूमि पर असुरों के आगमन के पश्चात इस प्रकार का साहित्य रचा गया जो बाह्य रूप में असुर समर्थक प्रतीत होता है किन्तु गूढ़ रूप में लोक-हितकारी अर्थ रखता है। इस प्रकार का देव साहित्य अपने गुप्त लेखन के कारण आज तक सुरक्षित है जिसके अंतिम पड़ाव विष्णु-पुराण, भावप्रकाश तथा अर्थशास्त्र हैं।
वर्तमान सन्दर्भ में इस प्रकार के साहित्य की भाषा को ही वैदिक संस्कृत कहा जाता है जिसमें प्रत्येक वर्ण तथा उसपर अंकित चिन्हों के रहस्यात्मक अर्थ होते हैं। इस प्रकार के बहुअर्थी लेखन के अर्थ पाना दुष्कर होता है, जिसका दुष्प्रभाव यह हुआ कि विगत 2000 वर्षों में यह साहित्य उपलब्ध होने पर भी सही अनुवादित  नहीं किया गया। इस लेखक ने वैदिक संस्कृत के शोध पर अपने जीवन के २२ वर्ष लगाए है, तब जाकर इसके रहस्यात्मक अर्थों को समझने में सफलता पायी है, जिसके आधार पर वैदिक ग्रन्थ भावप्रकाश का  अनुवाद आरम्भ किया गया है।
धार्मिक संस्कृत
वैदिक साहित्य के सही अनुवाद न होने का एक कारण इसका दुष्कर होना अवश्य है, किन्तु इसका प्रमुख कारण  धर्मावलम्बी साम्राज्यवादियों द्वारा एक अन्य संस्कृत का प्रचलन किया जाना रहा जिसमें वैदिक शब्दावली का ही उपयोग किन्तु भिन्न अर्थों के साथ किया जाता है। इस भाषा में वैदिक साहित्य के विकृत अर्थ प्रकाशित एवं बहुप्रचारित किये गए जिससे लोग वैदिक साहित्य को भी धर्म-समर्थक मानने लगे जबकि वैदिक मत एवं साहित्य पूर्णतः वैज्ञानिक रूप में किये गए परिश्रम के माध्यम से प्रगति के पक्षधर हैं। धार्मिक संस्कृत का प्रतिपादक एवं प्रथम इस भाषा का प्रथम लेखक शंकर था जो मूलतः असुर था। इसी ने ऐसा वृहद साहित्य रचा जो वैदिक साहित्य के दूषित अर्थ प्रतिपादित करता रहा है तथा जिसके कारण वैदिक साहित्य के सही अर्थ पाने के गंभीर प्रयास नहीं हुए।
ब्राह्मणवाद
यद्यपि भारत भूमि पर प्रथम धर्म् यदुवंशियों द्वारा लाया गया यहूदी धर्म् था, किन्तु यहां बहुप्रचारित धर्म् शंकर द्वारा प्रतिपादित सनातन धर्म् तथा सिद्धार्थ द्वारा प्रतिपादित बौद्ध धर्म् रहे। इसी सिद्धार्थ ने गौतम बुद्ध की पत्नि अहिल्या को छल कर उसे गर्भवती किया था जिसके कारण उसे उसके पिता शाक्य सिंह ने अपने राज्य से निष्कासित कर दिया था। इसके बाद वह कृष्ण का सहयोगी बन श्रीलंका द्वीप पर बस गया था। धार्मिक सिद्धांत की दृष्टि से शंकर एवं सिद्धार्थ परस्पर विरोधी क्रमशः ईश्वरवादी एवं अनीश्वरवादी थे , तथापि दोनों साम्राज्यवादी होने के कारण देवा विरोधी थे और कृष्ण के सहयोगी थे।
सनातन धर्म् के प्रचार के लिए शंकर ने प्रसिद्ध आतंकवादी एवं स्त्री अपहरणकर्त्ता रावणों का सहयोग लिया जिनके अपहृत स्त्रियों से उत्पन्न अवैध पुत्र ब्राह्मण कहलाये। इसी कारण से आधुनिक ब्राह्मण भी रावण को विद्वान के रूप में प्रचारित करते हैं। शंकर के मार्गदर्शन में ये ही धर्म् के प्रमुख प्रचारक के रूप में स्थापित हुए। यहूदी और सनातनधर्मी ही बाद में हिन्दू कहलाये।
संस्कृत की उपयोगिता
आधुनिक काल में धार्मिक संस्कृत का उपयोग केवल भृष्ट धार्मिक साहित्य के अर्थ पाने के लिए ही किया जा सकता है, जिससे समाज का अहित ही होगा । अन्यथा इसके आधार पर किसी युवा के भविष्य का निर्माण नहीं किया जा सकता। वैदिक संस्कृत का उपयोग भी प्रमुखतः वैदिक साहित्य के अनुवाद में ही किया जा सकता है जिससे मानव समाज को बहुविध लाभ होगा, विशेषकर इस भाषा में लिखित आयुर्वेद द्वारा जिसमें मनुष्य जाति को 500 वर्ष स्वस्थ जीवन प्रदान करने की सामर्थ्य निहित है।  इसी कारण से वैदिक विद्वानों ने इस ज्ञान  से  मानव-शत्रु असुरों को अनभिज्ञ रखने का निर्देश दिया है।

शुक्रवार, 1 अक्तूबर 2010

इतिहास, भावुकता और असहिष्णुता

इतिहास प्रायः कटु सत्यों का विषय होता है, न कि भावनाओं का. किन्तु इसको लोग प्रायः अपनी भावनाओं से जोड़ने लगते हैं. ऐसा करके वे इतिहास विषयक शोधों में व्यवधान उत्पन्न करते हैं. शोधों के आधार पर बड़े से बड़े और स्थापित वैज्ञानिक सत्य भी बदलते रहते हैं तो ज्ञात इतिहास में त्रुटि क्यों नहीं खोजी जानी चाहिए. भारत के ज्ञात इतिहास में इतनी भयंकर त्रुटियाँ हैं कि इसे विश्व स्तर पर विश्वसनीय नहीं माना जा रहा है. इसलिए हम सभी भारतीयों का कर्तव्य है कि हम इस पर शोध करें और इसे विश्वसनीय बनाएं. केवल भावनाओं के आधार पर इस विषय में कट्टरता दिखने से कोई लाभ नहीं होने वाला.

इस विषय में दूसरा महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि इतिहास किसी जाति अथवा धर्म का पक्षधर बने रहने से सही रूप में नहीं रचा जा सकता, इसके लिए धर्म और जाति से निरपेक्ष होने की आवश्यकता है. भारत के महाभारतकालीन इतिहास के बारे में तो यह अतीव सरल और सहज इसलिए भी है कि उस समय भारत का मौलिक समाज किसी वर्तमान धर्म अथवा जाति से सम्बद्ध नहीं था.

भारत सहित विश्व के सभी भाषाविद और इतिहासकार जानते और मानते हैं कि वैदिक संस्कृत, जिसमें भारत के वेद और शस्त्र रचे हुए हैं, आधुनिक संस्कृत से कोई सम्बन्ध नहीं है. तथापि आज तक ऐसा कोई प्रयास नहीं किया गया कि वैदिक संस्कृत को जाना जाए. इसका कारण और प्रमाण यह है कि आज तक वेदों और शास्त्रों का कोई ऐसा अनुवाद नहीं किया गया जो आधुनिक संस्कृत पर आधारित न हो. इस कारण से इन प्राचीन ग्रंथों के कोई भी सही अनुवाद उपलब्ध नहीं है जिनसे भारत के तत्कालीन इतिहास की सत्यता को प्रमाणित किया जा सकता. जो भी इतिहास संबंधी सूचनाएं उपलब्ध हुई हैं वे उक्त भृष्ट अनुवादों से ही प्राप्त हुई हैं. इसी लिए वे भी भृष्ट हैं और विश्वसनीय नहीं हैं.

महर्षि अरविन्द ने 'वेद रहस्य' नामक पुस्तक में वैदिक संस्कृत के बारे में कुछ अध्ययन किया है और संकेत दिए हैं कि वैदिक संस्कृत की शब्दावली लैटिन और ग्रीक भाषाओं की शब्दावली से मेल खाती है. इस आधार पर मेने भी कुछ अध्ययन किये और पाया कि हम लैटिन और ग्रीक भाषाओँ के शब्दार्थों के आधार पर वेदों और शास्त्रों के सही अनुवाद प्राप्त कर सकते हैं. चूंकि मैं लैटिन और ग्रीक भाषाओँ का महर्षि अरविन्द की तरह ज्ञानवान नहीं हूँ तथापि इन भाषाओँ के शब्दकोशों के आधार पर वेदों और शास्त्रों के कुछ अंशों के अनुवाद पाने में समर्थ हो पाया हूँ, जिसके आधार पर भारत के इतिहास के पुनर्रचना आरम्भ की है. इसमें दूसरों का भी सहयोग मिले इसी आशा से वैदिक और शास्त्रीय शब्दावली के अर्थ भी प्रकाशित करने आरम्भ किये हैं. यदि किसी व्यक्ति की दृष्टि में वैदिक संस्कृत के बारे में दोषपूर्ण है तो वह यह अपने विचार से सही अवधारणा प्रतिपादित करे न कि केवल दोष निकालने को ही अपना कर्तव्य समझे. किन्तु ऐसा किसी ने कुछ नहीं किया है.

यहाँ यह भी सभी को स्वीकार्य होगा कि 'महाभारत' युद्ध विश्व का भीषणतम सशस्त्र संग्राम था जिसमें तत्कालीन विश्व के अधिकाँश देश सम्मिलित थे. इसकी भीषणता  सिद्ध करती है कि दोनों पक्षों की जीवन-शैली, चरित्र और विचारधारा में अत्यंत गहन अंतराल थे. एक परिवार के ही दो पक्ष तो बन सकते हैं, और दोनों के मध्य स्थानीय स्तर का संघर्ष भी हो सकता है किन्तु उनके कारण विश्व व्यापक सशस्त्र संघर्ष नहीं हो सकता. वस्तुतः यह युद्ध पृथ्वी का प्रथम विश्व-युद्ध था किन्तु भारत के इतिहास को विश्वसनीयता प्राप्त न होने के कारण इसे इतिहास में कोई महत्व नहीं दिया जा रहा है. यह भी हम भारतीयों को अपनी त्रुटि सुधारने का पर्याप्त कारण होना चाहिए यदि हम में लेश मात्र भी आत्म-सम्मान की भावना शेष है. आखिर भारत के इतिहास में कहीं तो कुछ ऐसा है जिसे हम समझ नहीं पा रहे हैं और लकीर के फ़कीर बने गलत-सलत अवधारणाओं को गले लगाये बैठे हैं और मूर्खतापूर्ण आत्म-संतुष्टि प्राप्त कर रहे हैं.

आर्य विश्व स्तर की एक महत्वपूर्ण जाति थी जिसका भारत से गहन सम्बन्ध था, इससे भी कोई इनकार नहीं कर सकता. किन्तु भारत के इतिहास के त्रुटिपूर्ण होने के कारण आर्यों के बारे में भी अभी तक इतिहासकार एक मत नहीं हो पाए हैं. यह भी हमारे लिए डूब मरने के लिए पर्याप्त होना चाहिए था.

समस्त विश्व सिकंदर को महान कहता है तथापि उसके बारे में शोधों से ज्ञात हुआ है कि वह समलिंगी था जिसे अभी हाल में बनी हॉलीवुड फिल्म 'अलैक्सैंदर' में प्रस्तुत किया गया है, किन्तु उसे महान कहने वाले किसी व्यक्ति ने इस फिल्म पर उंगली नहीं उठायी क्योंकि विश्व भार के समझदार लोग इतिहास को भावुकता से प्रथक रखते हैं और इस बारे में शोधों को महत्व देते हैं. इसी व्यक्ति के बारे में इंटरपोल द्वारा की गयी छान-बीनों के आधार पर सिद्ध किया गया कि सिकंदर बेहद शराबी और नृशंस व्यक्ति था जो उसकी महानता पर प्रश्न चिन्ह लगाता है. इसे भी डिस्कवरी चैनल पर बड़े जोर-शोर से प्रकाशित किया गया. इसी प्रकाशन में यह संदेह भी व्यक्त किया गया कि सिकंदर की हत्या उसके गुरु अरस्तू ने की थी. किन्तु उसका भी भावुकता के आधार पर कोई विरोध नहीं किया गया क्यों कि इसमें भी शोधपूर्ण दृष्टिकोण को महत्व दिया गया.
The World Wars

मेरे आलेखों का कुछ भावुक लोग विरोध कर रहे हैं किन्तु इस बारे में वे कोई शोधपरक तर्क न देकर केवल अपनी भावनाओं को सामने ले आते हैं, जो उग्रता है न कि मानवीय अथवा वैज्ञानिक दृष्टिकोण. अतः मेरा निवेदन है कि वे कुछ शोध करें विशेष कर वैदिक संस्कृत और आधुनिक संस्कृत के अंतराल पर और जब भी वे इस अंतराल को समझ सकें उसके आधार पर शास्त्रों के अनुवाद करें, तभी कोई सार्थक निष्कर्ष निकाला जा सकता है.    

इतिहास, भावुकता और असहिष्णुता

इतिहास प्रायः कटु सत्यों का विषय होता है, न कि भावनाओं का. किन्तु इसको लोग प्रायः अपनी भावनाओं से जोड़ने लगते हैं. ऐसा करके वे इतिहास विषयक शोधों में व्यवधान उत्पन्न करते हैं. शोधों के आधार पर बड़े से बड़े और स्थापित वैज्ञानिक सत्य भी बदलते रहते हैं तो ज्ञात इतिहास में त्रुटि क्यों नहीं खोजी जानी चाहिए. भारत के ज्ञात इतिहास में इतनी भयंकर त्रुटियाँ हैं कि इसे विश्व स्तर पर विश्वसनीय नहीं माना जा रहा है. इसलिए हम सभी भारतीयों का कर्तव्य है कि हम इस पर शोध करें और इसे विश्वसनीय बनाएं. केवल भावनाओं के आधार पर इस विषय में कट्टरता दिखने से कोई लाभ नहीं होने वाला.

इस विषय में दूसरा महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि इतिहास किसी जाति अथवा धर्म का पक्षधर बने रहने से सही रूप में नहीं रचा जा सकता, इसके लिए धर्म और जाति से निरपेक्ष होने की आवश्यकता है. भारत के महाभारतकालीन इतिहास के बारे में तो यह अतीव सरल और सहज इसलिए भी है कि उस समय भारत का मौलिक समाज किसी वर्तमान धर्म अथवा जाति से सम्बद्ध नहीं था.

भारत सहित विश्व के सभी भाषाविद और इतिहासकार जानते और मानते हैं कि वैदिक संस्कृत, जिसमें भारत के वेद और शस्त्र रचे हुए हैं, आधुनिक संस्कृत से कोई सम्बन्ध नहीं है. तथापि आज तक ऐसा कोई प्रयास नहीं किया गया कि वैदिक संस्कृत को जाना जाए. इसका कारण और प्रमाण यह है कि आज तक वेदों और शास्त्रों का कोई ऐसा अनुवाद नहीं किया गया जो आधुनिक संस्कृत पर आधारित न हो. इस कारण से इन प्राचीन ग्रंथों के कोई भी सही अनुवाद उपलब्ध नहीं है जिनसे भारत के तत्कालीन इतिहास की सत्यता को प्रमाणित किया जा सकता. जो भी इतिहास संबंधी सूचनाएं उपलब्ध हुई हैं वे उक्त भृष्ट अनुवादों से ही प्राप्त हुई हैं. इसी लिए वे भी भृष्ट हैं और विश्वसनीय नहीं हैं.

महर्षि अरविन्द ने 'वेद रहस्य' नामक पुस्तक में वैदिक संस्कृत के बारे में कुछ अध्ययन किया है और संकेत दिए हैं कि वैदिक संस्कृत की शब्दावली लैटिन और ग्रीक भाषाओं की शब्दावली से मेल खाती है. इस आधार पर मेने भी कुछ अध्ययन किये और पाया कि हम लैटिन और ग्रीक भाषाओँ के शब्दार्थों के आधार पर वेदों और शास्त्रों के सही अनुवाद प्राप्त कर सकते हैं. चूंकि मैं लैटिन और ग्रीक भाषाओँ का महर्षि अरविन्द की तरह ज्ञानवान नहीं हूँ तथापि इन भाषाओँ के शब्दकोशों के आधार पर वेदों और शास्त्रों के कुछ अंशों के अनुवाद पाने में समर्थ हो पाया हूँ, जिसके आधार पर भारत के इतिहास के पुनर्रचना आरम्भ की है. इसमें दूसरों का भी सहयोग मिले इसी आशा से वैदिक और शास्त्रीय शब्दावली के अर्थ भी प्रकाशित करने आरम्भ किये हैं. यदि किसी व्यक्ति की दृष्टि में वैदिक संस्कृत के बारे में दोषपूर्ण है तो वह यह अपने विचार से सही अवधारणा प्रतिपादित करे न कि केवल दोष निकालने को ही अपना कर्तव्य समझे. किन्तु ऐसा किसी ने कुछ नहीं किया है.

यहाँ यह भी सभी को स्वीकार्य होगा कि 'महाभारत' युद्ध विश्व का भीषणतम सशस्त्र संग्राम था जिसमें तत्कालीन विश्व के अधिकाँश देश सम्मिलित थे. इसकी भीषणता  सिद्ध करती है कि दोनों पक्षों की जीवन-शैली, चरित्र और विचारधारा में अत्यंत गहन अंतराल थे. एक परिवार के ही दो पक्ष तो बन सकते हैं, और दोनों के मध्य स्थानीय स्तर का संघर्ष भी हो सकता है किन्तु उनके कारण विश्व व्यापक सशस्त्र संघर्ष नहीं हो सकता. वस्तुतः यह युद्ध पृथ्वी का प्रथम विश्व-युद्ध था किन्तु भारत के इतिहास को विश्वसनीयता प्राप्त न होने के कारण इसे इतिहास में कोई महत्व नहीं दिया जा रहा है. यह भी हम भारतीयों को अपनी त्रुटि सुधारने का पर्याप्त कारण होना चाहिए यदि हम में लेश मात्र भी आत्म-सम्मान की भावना शेष है. आखिर भारत के इतिहास में कहीं तो कुछ ऐसा है जिसे हम समझ नहीं पा रहे हैं और लकीर के फ़कीर बने गलत-सलत अवधारणाओं को गले लगाये बैठे हैं और मूर्खतापूर्ण आत्म-संतुष्टि प्राप्त कर रहे हैं.

आर्य विश्व स्तर की एक महत्वपूर्ण जाति थी जिसका भारत से गहन सम्बन्ध था, इससे भी कोई इनकार नहीं कर सकता. किन्तु भारत के इतिहास के त्रुटिपूर्ण होने के कारण आर्यों के बारे में भी अभी तक इतिहासकार एक मत नहीं हो पाए हैं. यह भी हमारे लिए डूब मरने के लिए पर्याप्त होना चाहिए था.

समस्त विश्व सिकंदर को महान कहता है तथापि उसके बारे में शोधों से ज्ञात हुआ है कि वह समलिंगी था जिसे अभी हाल में बनी हॉलीवुड फिल्म 'अलैक्सैंदर' में प्रस्तुत किया गया है, किन्तु उसे महान कहने वाले किसी व्यक्ति ने इस फिल्म पर उंगली नहीं उठायी क्योंकि विश्व भार के समझदार लोग इतिहास को भावुकता से प्रथक रखते हैं और इस बारे में शोधों को महत्व देते हैं. इसी व्यक्ति के बारे में इंटरपोल द्वारा की गयी छान-बीनों के आधार पर सिद्ध किया गया कि सिकंदर बेहद शराबी और नृशंस व्यक्ति था जो उसकी महानता पर प्रश्न चिन्ह लगाता है. इसे भी डिस्कवरी चैनल पर बड़े जोर-शोर से प्रकाशित किया गया. इसी प्रकाशन में यह संदेह भी व्यक्त किया गया कि सिकंदर की हत्या उसके गुरु अरस्तू ने की थी. किन्तु उसका भी भावुकता के आधार पर कोई विरोध नहीं किया गया क्यों कि इसमें भी शोधपूर्ण दृष्टिकोण को महत्व दिया गया.
The World Wars

मेरे आलेखों का कुछ भावुक लोग विरोध कर रहे हैं किन्तु इस बारे में वे कोई शोधपरक तर्क न देकर केवल अपनी भावनाओं को सामने ले आते हैं, जो उग्रता है न कि मानवीय अथवा वैज्ञानिक दृष्टिकोण. अतः मेरा निवेदन है कि वे कुछ शोध करें विशेष कर वैदिक संस्कृत और आधुनिक संस्कृत के अंतराल पर और जब भी वे इस अंतराल को समझ सकें उसके आधार पर शास्त्रों के अनुवाद करें, तभी कोई सार्थक निष्कर्ष निकाला जा सकता है.    

सोमवार, 1 फ़रवरी 2010

पृष्ठभूमि

भारत के वेद और शास्त्र ज्ञान-विज्ञानं तथा लगभग २४०० वर्ष पूर्व के इतिहास के अकूत भण्डार हैं. तथापि इनके सही अनुवाद न होने के कारण इनसे न तो कोई ज्ञान-विज्ञानं प्राप्त हो पाया है और न ही कोई विश्वसनीय एतिहासिक तथ्य. इसका प्रमुख कारण यह है कि अभी तक इनके सभी अनुवाद आधुनिक संस्कृत शब्दावली के अर्थों के आधार पर किये गए हैं जबकि सभी विद्वान् इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि आधुनिक संस्कृत भाषा इन ग्रंथों के लिखे जाने से बहुत बाद में विकसित की गयी थी. इनकी वास्तविक भाषा को प्रायः वैदिक संस्कृत कहा जाता है. इनके वर्तमान में प्रचलित हिंदी अनुवादों से जो प्राप्त होता है वह विकृत और भ्रमित करने वाला है. इन अनुवादों के कारण ये बहुमूल्य ग्रन्थ अप्रासंगिक लगने लगते हैं.

श्री अरविन्द की प्रेरणा तथा इन ग्रंथों पर किये गए शोधों से मुझे ज्ञात हुआ कि इनकी शब्दावली का आधुनिक संस्कृत से कोई सम्बन्ध न होकर तत्कालीन विकसित लैटिन और ग्रीक भाषाओं से गहन सम्बन्ध है. इस आधार पर किये गए अनुवादों से ही इन बहुमूल्य ग्रंथों से इनके मंतव्यों का सही बोध होना संभव है. किन्तु यह ग्रंथावली इतनी विशाल है कि मैं अपने सम्पूर्ण जीवन में इनके अनुवाद प्रस्तुत करने में असमर्थ ही रहूँगा. इस कार्य में अन्य विद्वान् भी लगें, इसके लिए मैं इस संलेख के माध्यम से इनकी शब्दावली के व्याख्यात्मक अर्थ प्रस्तुत कर रहा हूँ जिससे कि अनुवाद सरल, सहज और यथार्थपरक हों.    

बुधवार, 13 जनवरी 2010

ऐतिहासिक सन्दर्भों की क्लिष्टताएं भाग 3

शब्दार्थ बदलकर किस तरह शास्त्रों के अर्थ बदले गए हैं, इसके लिए दो उदाहरण दिए जा रहे हैं -
१. एक शब्द है 'तृप्ति' जिसका अर्थ आधुनिक संस्कृत के अनुसार 'संतुष्टि' है. किन्तु वेदों और शास्त्रों में इस शब्द का अभिप्राय एकदम विपरीत है. यह शब्द लैटिन भाषा के शब्द 'turpitude ' का देवनागरी रूप है जिसका अर्थ 'अभाव' है. इस प्रकार वेद और शास्त्रों में आये इस शब्द का अर्थ 'संतुष्टि' लेने से आशय एकदम विपरीत हो जायेगा.
'तृप्ति' शब्द का ही द्रविड़ रूप 'तिरुपति' है जिसे दक्षिण भारत के एक देवता के नाम के लिए उपयोग किया जाता है जिसके दर्शन के लिए लाखों लोग तिरुपति नामक स्थान पर जाते हैं. मेरे एक सहकर्मी आन्ध्र प्रदेश के थे - श्री इ. एन. राव, वे कहा करते थे कि तिरुपति के बारे में एक किंवदंती प्रसिद्द है कि वहां कोई श्रद्धालु चाहे जितना भी धन लेकर जाये, वह वहां से खाली हाथ ही वापिस आता है. सभवतः यह किंवदंती सच न हो, किन्तु इसके प्रसिद्द होने का कुछ तो कारण होगा ही. मेरे विचार में यह किंवदंती तिरुपति शब्द का वास्तविक अर्थ प्रकट करने के लिए कभी प्रचलित की गयी होगी. जब जन-समुदाय भावावेश में सच्चाई से दूर भागता है तो उसे सत्य से परिचित कराने के लिए ऐसे मार्ग अपनाए जाते रहे हैं. इस किंवदंती से भी तिरुपति का अर्थ 'अभाव' सिद्ध होता है.
२. एक शब्द है 'शुभ' जो वेदों, शास्त्रों तथा आधुनिक संस्कृत एवं हिंदी में भी प्रचलित है. आधुनिक संस्कृत एवं हिंदी में इसका अर्थ है 'अच्छा' अथवा 'जिसकी उपस्थिति मात्र लाभकर हो' जबकि ऐसी कोई वस्तु नहीं होती जिसकी उपस्थिति लाभ या हानिकर हो. वस्तु की उपस्थिति का प्रभाव ही लाभकर या हानिकर हो सकता है.
वेदों तथा शास्त्रों में यह शब्द लैटिन भाषा के शब्द 'sophia ' से लिया गया है जिसका व्यापक अर्थ है - भाषा के उपयोग संबंधी कार्य जैसे लेखन, प्रवचन, शिक्षण, अध्ययन, चिंतन, आदि. फिलोसोफी शब्द भी इसी से बना है. अरबी और हिन्दुस्तानी में इसका समतुल्य शब्द सूफी है जिसका अर्थ भी वेदों और शास्त्रों के मूल मंतव्य से मेल खाता है. अतः वेदों एवं शास्त्रों में इसका अर्थ आधुनिक संस्कृत के अनुसार लेने से भाव में विकृति उत्पन्न होना स्वाभाविक है.

इस प्रकार शब्दार्थ परिवर्तन कर वेदों और शास्त्रों के मंतव्यों को विकृत किया गया है. यहाँ आश्चर्य यह है कि सभी मानते और जानते हैं कि वेदों और शास्त्रों की भाषा आधुनिक संस्कृत से भिन्न है तथापि जब इनके अनुवाद करते हैं तो आधुनिक संस्कृत के आधार पर ही करते हैं. यह या तो बुद्धिहीनता है अथवा जानबूझकर वेदों और शास्त्रों के मंतव्यों में विकृति उत्पन्न करना है. अभी तक मैंने कोई ऐसा अनुवाद नहीं देखा है जो आधुनिक संस्कृत के उपयोग पर आधारित न हो. इसलिए अब तक किये गए सभी अनुवादों को टाक पर रखकर इस कार्य को नए सिरे से की जाने की आवश्यकता है. इस कार्य के लिए मैं एक शब्दकोष भी तैयार कर रहा हूँ जिसमें लगभग ५००० शब्दों के अर्थ संकलित भी किये जा चुके हैं.

इन कारणों से इस संलेख में सन्दर्भ देना संभव नहीं है, तथापि कुछ स्थानों पर मूल लिपि को सही ढंग से अनुवाद करके नए अर्थ दर्शाए जायेंगे.


ऐतिहासिक सन्दर्भों की क्लिष्टताएं भाग 3

शब्दार्थ बदलकर किस तरह शास्त्रों के अर्थ बदले गए हैं, इसके लिए दो उदाहरण दिए जा रहे हैं -
१. एक शब्द है 'तृप्ति' जिसका अर्थ आधुनिक संस्कृत के अनुसार 'संतुष्टि' है. किन्तु वेदों और शास्त्रों में इस शब्द का अभिप्राय एकदम विपरीत है. यह शब्द लैटिन भाषा के शब्द 'turpitude ' का देवनागरी रूप है जिसका अर्थ 'अभाव' है. इस प्रकार वेद और शास्त्रों में आये इस शब्द का अर्थ 'संतुष्टि' लेने से आशय एकदम विपरीत हो जायेगा.
'तृप्ति' शब्द का ही द्रविड़ रूप 'तिरुपति' है जिसे दक्षिण भारत के एक देवता के नाम के लिए उपयोग किया जाता है जिसके दर्शन के लिए लाखों लोग तिरुपति नामक स्थान पर जाते हैं. मेरे एक सहकर्मी आन्ध्र प्रदेश के थे - श्री इ. एन. राव, वे कहा करते थे कि तिरुपति के बारे में एक किंवदंती प्रसिद्द है कि वहां कोई श्रद्धालु चाहे जितना भी धन लेकर जाये, वह वहां से खाली हाथ ही वापिस आता है. सभवतः यह किंवदंती सच न हो, किन्तु इसके प्रसिद्द होने का कुछ तो कारण होगा ही. मेरे विचार में यह किंवदंती तिरुपति शब्द का वास्तविक अर्थ प्रकट करने के लिए कभी प्रचलित की गयी होगी. जब जन-समुदाय भावावेश में सच्चाई से दूर भागता है तो उसे सत्य से परिचित कराने के लिए ऐसे मार्ग अपनाए जाते रहे हैं. इस किंवदंती से भी तिरुपति का अर्थ 'अभाव' सिद्ध होता है.
२. एक शब्द है 'शुभ' जो वेदों, शास्त्रों तथा आधुनिक संस्कृत एवं हिंदी में भी प्रचलित है. आधुनिक संस्कृत एवं हिंदी में इसका अर्थ है 'अच्छा' अथवा 'जिसकी उपस्थिति मात्र लाभकर हो' जबकि ऐसी कोई वस्तु नहीं होती जिसकी उपस्थिति लाभ या हानिकर हो. वस्तु की उपस्थिति का प्रभाव ही लाभकर या हानिकर हो सकता है.
वेदों तथा शास्त्रों में यह शब्द लैटिन भाषा के शब्द 'sophia ' से लिया गया है जिसका व्यापक अर्थ है - भाषा के उपयोग संबंधी कार्य जैसे लेखन, प्रवचन, शिक्षण, अध्ययन, चिंतन, आदि. फिलोसोफी शब्द भी इसी से बना है. अरबी और हिन्दुस्तानी में इसका समतुल्य शब्द सूफी है जिसका अर्थ भी वेदों और शास्त्रों के मूल मंतव्य से मेल खाता है. अतः वेदों एवं शास्त्रों में इसका अर्थ आधुनिक संस्कृत के अनुसार लेने से भाव में विकृति उत्पन्न होना स्वाभाविक है.

इस प्रकार शब्दार्थ परिवर्तन कर वेदों और शास्त्रों के मंतव्यों को विकृत किया गया है. यहाँ आश्चर्य यह है कि सभी मानते और जानते हैं कि वेदों और शास्त्रों की भाषा आधुनिक संस्कृत से भिन्न है तथापि जब इनके अनुवाद करते हैं तो आधुनिक संस्कृत के आधार पर ही करते हैं. यह या तो बुद्धिहीनता है अथवा जानबूझकर वेदों और शास्त्रों के मंतव्यों में विकृति उत्पन्न करना है. अभी तक मैंने कोई ऐसा अनुवाद नहीं देखा है जो आधुनिक संस्कृत के उपयोग पर आधारित न हो. इसलिए अब तक किये गए सभी अनुवादों को टाक पर रखकर इस कार्य को नए सिरे से की जाने की आवश्यकता है. इस कार्य के लिए मैं एक शब्दकोष भी तैयार कर रहा हूँ जिसमें लगभग ५००० शब्दों के अर्थ संकलित भी किये जा चुके हैं.

इन कारणों से इस संलेख में सन्दर्भ देना संभव नहीं है, तथापि कुछ स्थानों पर मूल लिपि को सही ढंग से अनुवाद करके नए अर्थ दर्शाए जायेंगे.


शनिवार, 9 जनवरी 2010

ऐतिहासिक सन्दर्भों की क्लिष्टताएं - भाग दो

इस संलेख में प्रकाशित भारत के इतिहास में सन्दर्भ प्रदान करने की सबसे बड़ी क्लिष्टता यह है कि यह इतिहास किसी ग्रन्थ से यथावत न लिया जाकर अनेक ग्रंथों के मेरे अनुवादों के कणों को संगृहीत करके बनाया गया है जिसमें बौद्धिक तर्कों का भी समावेश है. यदि इतिहास किसी ग्रन्थ में सीधे-सीधे समावेशित होता तो इस सम्बन्ध में अभी तक फ़ैली भ्रांतियां उत्पन्न ही नहीं होतीं और मुझे यह इतिहास नए सिरे से लिखने की आवश्यकता ही नहीं होती. किसी ग्रन्थ में प्राचीन इतिहास को समावेशित करने में जटिलताएं थीं जिनका अवलोकन यहाँ किया जा रहा है.


भारत राष्ट्र के विकास के बारे में सबसे पहले वेड लिखे गए जो आरम्भ में किसी अन्य लिपि में लिखे गए होंगे किन्तु बाद में इन्हें देवनागरी में लिपिबद्ध किया गया. इनकी शब्दावली लातिन तथा ग्रीक भाषाओं की शब्दावली है क्योंकि उस समय तक ये भाषाएँ ही विकसित हुई थीं. यह भाषा आधुनिक संस्कृत से एकदम भिन्न है और इसके आधार पर वेदों का अनुवाद करना मूर्खतापूर्ण तथा अतार्किक है. इस तथ्य को सभी मानते हैं तथापि सभी अनुवाद आधुनिक संस्कृत के आधार पर ही किये गए  है जो वेदों के बारे में भ्रांत धारणाएं उत्पन्न करते हैं.वेदों में पूर्णतः तत्कालीन वैज्ञानिक ज्ञान निहित है किन्तु काल अंतराल के कारण इनके अनुवाद करनी अति क्लिष्ट है.

यवनों एवं अन्य जंगली जातियों के भारत में आने और उन के द्वारा देवों द्वारा किये जा रहे विकास कार्यों में धर्म प्रचार के माध्यम से बाधा उत्पन्न किये जाने के अंतर्गत उन्होंने वेदों तथा अन्य ग्रन्थों के गलत अनुवाद प्रसारित करने आरम्भ किये  जिनमें धर्म और अध्यात्म प्रचार पर बल दिया गया जो पूरी तरह देवों तथा वेदों के मंतव्य से भिन्न था. इस उद्देश्य से इन जंगली जातियों ने आधुनिक संस्कृत विकसित की जिसमें शब्दार्थ मूल शब्दार्थ से बहुत भिन्न हैं. शास्त्रों के प्रचलित अनुवाद इसी आधुनिक संस्कृत शब्दार्थों पर आधारित होने के कारण दोषपूर्ण हैं.

ऐसी स्थिति में यदि देव उसी प्रकार अन्य ग्रन्थ भी लिखते तो उससे कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता. अतः देवों ने एक नयी लेखन शैली का विकास किया जिसे शास्त्रीय शैली कहा जा सकता है. इस शैली में शब्दावली को इस प्रकार बदला जाता है कि उसमें वास्तविक अर्थ तो छिपा रहे किन्तु प्रतीत अर्थ धर्म एवं अध्यात्मा परक लगे. इस आशय के संकेत प्रत्येक ग्रन्थ के आरम्भ में गूढ़ रूप में दे दिए गए ताकि गंभीर पाठक इस शैली में लिखे ग्रंथों के सही अनुवाद पा सकें. साथ ही अध्यात्मवादी भी इन ग्रंथों से प्रसन्न रहें और इन्हें नष्ट करने के स्थान पर इन्हें सुरक्षित रखें. इस कारण से अधकांश ग्रंथों की मूल भाषा आज तक सुरक्षित है किन्तु उनके उलटे-सीधे अनुवाद प्रचलित हैं जिसके कारण इन ग्रंथों में अतार्किक वर्णन प्रतीत होते हैं.

इस शास्त्रीय शैली में पुराण लिखे गए जिनमें पुरु वंश एवं इसके प्रमुख व्यक्तियों के इतिहास निहित हैं. किन्तु इस इतिहास को आधुनिक संस्कृत के आधार पर किये गए अनुवादों में प्राप्त नहीं किया जा सकता. इसके कारण इस इतिहास के सीधे सन्दर्भ देना संभव नहीं है. मूल भाषा में सन्दर्भ प्रदान करने से उसके अनुवादों की जटिलता सामने आती है. इसलिए इस इतिहास को कण-कण करके बनाया गया है, शास्त्रीय शैली में सबसे बाद में लिखा गया ग्रन्थ भाव प्रकाश है जिसमें आयुर्वेद के अतिरिक्त इतिहास का भी समावेश है.

ऐतिहासिक सन्दर्भों की क्लिष्टताएं - भाग दो

इस संलेख में प्रकाशित भारत के इतिहास में सन्दर्भ प्रदान करने की सबसे बड़ी क्लिष्टता यह है कि यह इतिहास किसी ग्रन्थ से यथावत न लिया जाकर अनेक ग्रंथों के मेरे अनुवादों के कणों को संगृहीत करके बनाया गया है जिसमें बौद्धिक तर्कों का भी समावेश है. यदि इतिहास किसी ग्रन्थ में सीधे-सीधे समावेशित होता तो इस सम्बन्ध में अभी तक फ़ैली भ्रांतियां उत्पन्न ही नहीं होतीं और मुझे यह इतिहास नए सिरे से लिखने की आवश्यकता ही नहीं होती. किसी ग्रन्थ में प्राचीन इतिहास को समावेशित करने में जटिलताएं थीं जिनका अवलोकन यहाँ किया जा रहा है.


भारत राष्ट्र के विकास के बारे में सबसे पहले वेड लिखे गए जो आरम्भ में किसी अन्य लिपि में लिखे गए होंगे किन्तु बाद में इन्हें देवनागरी में लिपिबद्ध किया गया. इनकी शब्दावली लातिन तथा ग्रीक भाषाओं की शब्दावली है क्योंकि उस समय तक ये भाषाएँ ही विकसित हुई थीं. यह भाषा आधुनिक संस्कृत से एकदम भिन्न है और इसके आधार पर वेदों का अनुवाद करना मूर्खतापूर्ण तथा अतार्किक है. इस तथ्य को सभी मानते हैं तथापि सभी अनुवाद आधुनिक संस्कृत के आधार पर ही किये गए  है जो वेदों के बारे में भ्रांत धारणाएं उत्पन्न करते हैं.वेदों में पूर्णतः तत्कालीन वैज्ञानिक ज्ञान निहित है किन्तु काल अंतराल के कारण इनके अनुवाद करनी अति क्लिष्ट है.

यवनों एवं अन्य जंगली जातियों के भारत में आने और उन के द्वारा देवों द्वारा किये जा रहे विकास कार्यों में धर्म प्रचार के माध्यम से बाधा उत्पन्न किये जाने के अंतर्गत उन्होंने वेदों तथा अन्य ग्रन्थों के गलत अनुवाद प्रसारित करने आरम्भ किये  जिनमें धर्म और अध्यात्म प्रचार पर बल दिया गया जो पूरी तरह देवों तथा वेदों के मंतव्य से भिन्न था. इस उद्देश्य से इन जंगली जातियों ने आधुनिक संस्कृत विकसित की जिसमें शब्दार्थ मूल शब्दार्थ से बहुत भिन्न हैं. शास्त्रों के प्रचलित अनुवाद इसी आधुनिक संस्कृत शब्दार्थों पर आधारित होने के कारण दोषपूर्ण हैं.

ऐसी स्थिति में यदि देव उसी प्रकार अन्य ग्रन्थ भी लिखते तो उससे कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता. अतः देवों ने एक नयी लेखन शैली का विकास किया जिसे शास्त्रीय शैली कहा जा सकता है. इस शैली में शब्दावली को इस प्रकार बदला जाता है कि उसमें वास्तविक अर्थ तो छिपा रहे किन्तु प्रतीत अर्थ धर्म एवं अध्यात्मा परक लगे. इस आशय के संकेत प्रत्येक ग्रन्थ के आरम्भ में गूढ़ रूप में दे दिए गए ताकि गंभीर पाठक इस शैली में लिखे ग्रंथों के सही अनुवाद पा सकें. साथ ही अध्यात्मवादी भी इन ग्रंथों से प्रसन्न रहें और इन्हें नष्ट करने के स्थान पर इन्हें सुरक्षित रखें. इस कारण से अधकांश ग्रंथों की मूल भाषा आज तक सुरक्षित है किन्तु उनके उलटे-सीधे अनुवाद प्रचलित हैं जिसके कारण इन ग्रंथों में अतार्किक वर्णन प्रतीत होते हैं.

इस शास्त्रीय शैली में पुराण लिखे गए जिनमें पुरु वंश एवं इसके प्रमुख व्यक्तियों के इतिहास निहित हैं. किन्तु इस इतिहास को आधुनिक संस्कृत के आधार पर किये गए अनुवादों में प्राप्त नहीं किया जा सकता. इसके कारण इस इतिहास के सीधे सन्दर्भ देना संभव नहीं है. मूल भाषा में सन्दर्भ प्रदान करने से उसके अनुवादों की जटिलता सामने आती है. इसलिए इस इतिहास को कण-कण करके बनाया गया है, शास्त्रीय शैली में सबसे बाद में लिखा गया ग्रन्थ भाव प्रकाश है जिसमें आयुर्वेद के अतिरिक्त इतिहास का भी समावेश है.