सोमवार, 26 जुलाई 2010

जंगली व्यवहार, दंड व्यवस्था और वास्तविक दोषी

गाँव के एक युवा ने मेरे साथ जो अशोभनीय व्यवहार किया था, उसका उसे कड़ा दंड मिला था - पुलिस द्वारा और प्रकृति द्वारा भी. उसे न्यायालय से जमानत करानी पडी और अब कुछ समय तक बार-बार न्यायालय में उपस्थित होना होगा. इसके अतिरिक्त प्रकृति ने उसे और भी अधिक कड़ा दंड दिया - उसे बंदी बनाये जाने के दो दिन बाद उसके पिताजी की ह्रदय गति रुक जाने से मृत्यु हो गयी जो एक सज्जन एवं सहृदय व्यक्ति थे. गाँव के लोगों का मानना है कि उनके पुत्र द्वारा किये गए दुर्व्यवहार और बंदी बनाये जाने पर परिवार का अपमान उन्हें सहन नहीं हुआ. यद्यपि उन्हें ह्रदय की समस्या पहले से थी.

उक्त दोनों डंडों के कारण युवा को परिवार में बहुत विरोध झेलना पडा और उस पर उसके भाइयों द्वारा दवाब दिया गया कि वह शराब पीनी छोड़ दे अन्यथा वे उससे सम्बन्ध विच्छेद कर लेंगे. इसी शराब के कारण वह उद्दंडता करता था, लोगों को अपमानित करता था और इसी के कारण उसे उपरोक्त दोहरे दंड मिले. परिणाम बहुत आशाजनक हुए हैं - लगभग एक माह से अधिक समय से उसने शराब नहीं पी है और अब वह गाँव में निरंकुश नहीं घूमता है, तथा अपने परिवार के कृषि व्यवसाय पर पूरा ध्यान देता है. इस सब से गाँव के लोगों पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा है.

उपरोक्त विवरण देने का मेरा तात्पर्य यह है कि निरंकुश प्रकृति को अनुशासित करने के लिए दंड दिया जाना एक प्रभावी उपाय है. यद्यपि क्षमा भी सीमित प्रभाव रखती है किन्तु दंड की तुलना में यह प्रभाव तुच्छ होता है.

प्रत्येक व्यक्ति की मूल प्रकृति उद्दंडता है, किन्तु सामाजिकता, और दंड के भय से मनुष्य अनुशासित रहता है. अधिकाँश मनुष्य सामाजिकता के कारण स्वतः ही अनुशासित रहते हैं किन्तु शराब आदि के नशे में अथवा किसी लोभ वश, अथवा किसी विवशता में लोग उद्दंड व्यवहार करते हैं. इन तीन कारणों में से दो - नशा तथा विवशता, समाज की ही देनें हैं. शराब आदि नशीले द्रव्य सरकार द्वारा राजस्व लाभ के लिए प्रचारित, प्रसारित किये जा रहे हैं.जबकि इनका प्रभाव राष्ट्र को आर्थिक तथा सामाजिक क्षति पहुंचा रहा है. किन्तु देश के शासक-प्रशासक इस यथार्थ से अनभिज्ञ बने बैठे हैं.

कुछ वर्ष पूर्व हरियाणा के मुख्य मंत्री श्री बंसीलाल ने एक सराहनीय कदम उठाते हुए अपने राज्य में शराब पर प्रतिबन्ध लगा दिया था जिसके परिणामस्वरूप अगले चुनाव में लोगों ने उन्हें सताच्युत कर दिया था. इस से सिद्ध होता है कि हमारा समाज एक गलत दिशा में इतना आगे बढ़ गया है कि अब उसकी समझ में गलत और सही का अंतराल मिट गया है. समाज का यही पतन कुछ लोगों को शराब आदि को इतना अधिक अभ्यस्त बना देता है कि वे मानवीय सभ्यता को त्याग जंगली व्यवहार करने लगते हैं. फिर यही विकृत समाज व्यवस्था उन्हें दंड देती है.
The Business of Spirits: How Savvy Marketers, Innovative Distillers, and Entrepreneurs Changed How We Drink 
अतः आवश्यकता इस की है कि हम समाज की दिशा बदलें और एक सशक्त जन मत का विकास कर सरकारों को विवश करें कि वे नशीले द्रव्यों के दुश्चक्र से समाज को बचाने के ओर साहसिक कदम उठायें. बिना जन मत के सरकार इस दिशा में कोई कदम नहीं उठाएंगी.   

शनिवार, 24 जुलाई 2010

उपनिवेशीकरण - विदेशी और देशी

एक देश से किसी अन्य देश पर शासन करना उपनिवेशीकरण कहलाता है. भारत लम्बे समय तक परतंत्र रहा है किन्तु भारत  मुग़ल शासन का उपनिवेश नहीं था क्योंकि मुग़ल इसी भूमि पर रहकर लोगों पर शासन करते थे. ब्रिटिश शासन में लन्दन स्थित राज सिंहासन से भारत पर शासन किया जाता था. ब्रिटिश शासन के जो प्रतिनिधि भारत में शासन व्यवस्था का संचालन करते थे वे भी स्थानीय शासक ही थे यद्यपि उन्हें प्रशासक कहा जाता था. उनकी दृष्टि में भारतीय मनुष्य न होकर केवल उनके गुलाम थे. इसलिए भारत में रह रहे ब्रिटिश नागरिक भारतीय नागरिकों से स्पष्ट दूरी बनाए रखते थे. उनके मत में ऐसा करके वे जनता पर अच्छा प्रशासन कर सकते थे.

इस दूरी को बनाये रखने के लिए ब्रिटिश लोगों के निवास भारतीयों के निवासों से प्रथक बनाए जाते थे. इसका एक कारण भारतीय  और ब्रिटिश नागरिकों के रहन-सहन और संस्कृति का विशाल अंतराल भी था. प्रशासक होने के कारण, ब्रिटिश लोग अपने निवासों में तत्कालीन सभी सुख-सुविधाओं की व्यवस्था करते थे जो भारतीयों के निवासों में उपलब्ध नहीं होती थीं. इस अंतराल का मनोवैज्ञानिक प्रभाव भी होता था जिसके कारण ब्रिटिश नागरिक भारतीयों की दृष्टि में भी श्रेष्ठ माने जाते थे. इस मान्यता के कारण भारतीयों द्वारा ब्रिटिश नागरिकों के आदेशों की अवहेलना करना असंभव सा था चाहे वे आदेश कितने भी अवैधानिक हों. इन्हीं के कारण ब्रिटिश भारतीयों के विविध प्रकार के शोषण करते थे.

ब्रिटिश भारत से चले गए किन्तु प्रशासन के अपने पदचिन्ह यहाँ छोड़ गए. आज भारत स्वतंत्र कहा जाता है किन्तु यहाँ का शासन-प्रशासन ब्रिटिश पद-चिन्हों का ही अनुगमन कर रहा है - विशेषकर कुशल दमनकारी प्रशासन के लिए प्रशासकों और जन साधारण में दूरी बनाए रखकर. इस की व्यवस्था के लिए भारत की केंद्र और राज्य सरकारों के प्रत्येक विभाग के अधिकारियों तथा कर्मियों के लिए अत्याधुनिक बस्तियां बसाई गयी हैं. इन बस्तियों में विद्युत्, जल, संचार आदि की ऐसी विशेष व्यवस्थाएं हैं जो अन्य जन-साधारण की बस्तियों में नहीं हैं और न ही इनके होने की कल्पना की जा सकती है. यथा, भारत के अधिकाँश क्षेत्रों में जन साधारण के लिए ४-५ घंटे प्रतिदिन से अधिक विद्युत् उपलब्ध नहीं है जब कि प्रशासक बस्तियों में इसकी २४ घंटे उपलब्धता सुनिश्चित की जाती है.

प्रशासकों के जन साधारण से प्रथक व्यवस्थाओं में रहने से प्रशासकों को सबसे बड़ा लाभ तो यह होता है कि वे जन-साधारण की समस्याओं से पूरी तरह अनभिज्ञ रहते हैं और अपने तथाकथित कर्तव्यों का पालन बिना किसी तनाव के करते हैं. इस प्रथक व्यवस्था का दूसरा लाभ मनोवैज्ञानिक है - प्रशासक स्वयं को जन-साधारण से श्रेष्ठ समझते हैं और चाहते हैं कि जनता भी ऐसा ही समझे जिसकी वे ब्रिटिश प्रशासकों को समझते थे.
Civilization 4: Colonization

भारत में ब्रिटिश प्रशासकों की संख्या जन-साधारण की तुलना में नगण्य होती थी जिससे उनके लिए प्रथक आवास व्यवस्था की लागत बहुत अल्प होती थी. किन्तु स्वतंत्र भारत में सभी राज्यकर्मी प्रशासकों की भूमिकाओं में हैं जिनकी संख्या कुल जनसँख्या का लगभग १० प्रतिशत है. इन सबके लिए प्रथक आवासीय व्यवस्था पर बड़ी मात्रा में सार्वजनिक धन व्यय किया जा रहा है.

भारत सधार हेतु संगठनात्मक रूपरेखा

भारत की स्थिति वास्तव में उग्र रूप से रुग्ण है, इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि बहुत सारे बुद्धिजीवी स्थिति में सुधार हेतु संगठन खड़े कर रहे हैं, जिनमें से कुछ राष्ट्रीय स्तर पर कार्य कर रहे हैं किन्तु अधिकाँश स्थानीय समस्याओं के समाधानों के प्रयासों में लगे हैं. यह सब अच्छा ही हो रहा है क्योंकि यही देश के बारे में लोगों की चिंता और चिंतन दर्शाता है.

स्थानीय संगठन
आज भारत में भ्रीष्टाचार और कुव्यवस्था शीर्षस्थ स्तर से लेकर ग्राम स्तर तक पहुच गए हैं और ये लोगों को स्थानीय स्तर पर ही इतना पीड़ित कर रहे हैं कि वे राष्ट्रीय स्तर का चिंतन नहीं कर पा रहे हैं. इसलिए लोगों में राष्ट्रीय भावना जागृत करने के लिए उन्हें स्थानीय समस्याओं से मुक्त करना अपरिहार्य हो गया है. राष्ट्रीय स्तर के संगठनों की सबसे बड़ी समस्या यह है कि वे प्रत्येक स्थानीय समस्या को समझ नहीं सकते और न ही अपना सार्थक योगदान प्रदान कर पाते हैं. इसके लिए स्थानीय संगठन ही उपयोगी हो सकते हैं.

भारत विविध भाषाओँ, संस्कृतियों और जातियों का देश है, इसलिए लोगों की अपेक्षाएं भी विविध हैं. इनकी संतुष्टि के लिए स्थानीय संगठनों की आवश्यकता है जो लोगों को उनकी भाषा में उनके साथ सौहार्द स्थापित कर सकें. इनके माध्यम से यह आवश्यक नहीं कि लोगों की सभी समस्याएँ सुलझ जाएँ किन्तु इनके माध्यम से लोग आश्वस्त अवश्य किये जा सकते हैं. यह आश्वस्ति ही लोगों को राष्ट्रीय हित चिंतन का अवसर प्रदान कर सकती है.

राष्ट्रीय संगठन
अधिकाँश जन समस्याएँ स्थानीय होती हैं तथापि कुछ समस्याएँ ऐसी भी होती हैं जिनके मूल और समाधान राष्ट्रीय स्तर पर ही संभव होते हैं. इस प्रकार की समस्याओं के लिए राष्ट्र स्तर के संगठन की आवश्यकता है और इसे केवल उच्च स्तर की समस्याओं के समाधानों पर ही चिंतन एवं प्रयास करने चाहिए. यही संगठन स्थानीय संगठनों के महासंघ के रूप में भी कार्य करेगा, उन्हें मार्गदर्शन देगा तथा उनसे प्राप्त उच्च स्तरीय समस्याओं के समाधानों के प्रयास करेगा.

इस प्रकार के महासंघीय ढांचे में यह आवश्यक नहीं है कि राष्ट्रीय और स्थानीय संगठनों के नामों में कोई पूर्व निर्धारित समानता हों. साथ ही यह भी आवश्यक नहीं है कि स्थानीय संगठनों के स्थापन के समय ही राष्ट्रीय संगठन की भी स्थापना हो. पूरे देश में जनपद स्तर के स्थानीय संगठनों की तुरंत आवश्यकता है और उन्हें अपने कार्य यथाशीघ्र आरम्भ कर देने चाहिए.

शुक्रवार, 23 जुलाई 2010

सुख और खुशी का अंतर

बहुधा सुख और खुशी शब्दों को एक दूसरे के पर्याय के रूप में जाना जाता है, जब कि वास्तव में सुख धरातलीय स्थायी अनुभूति है और खुशी क्षणिक हवा के झोंके की तरह तिरोहितेय. सुख जीवन के यथार्थ से सम्बन्ध रखता है, और कोई खुशी काल्पनिक उडान हो सकती है. प्रथम एक अनुभव होता है किन्तु द्वितीय एक अनुभूति. सुख निर्मल जल की झील है तो खुशी एक मृग मरीचिका सिद्ध हो सकती है.

अधिकाँश मनुष्य खुशियों की खोज में और उन्हें पाने में अपना जीवन लगा देते हैं अतः क्षण-प्रतिक्षण खुशियाँ खोजते अथवा पाते हुए एक अनंत यात्रा पर चलते रहते हैं, विराम अथवा विश्राम उन्हें प्राप्त नहीं होता. जो सुख पा लेता है, उसे विश्राम भी स्वतः प्राप्त हो जाता है क्योंकि उसे आगे कुछ खोजने की लालसा अथवा पाने की इच्छा नहीं रहती. इससे उसे स्थायी खुशी प्राप्त होती है. इस प्रकार, सुख से खुशियाँ निश्चित रूप से प्राप्त होती हैं, किन्तु खुशियों से सुख प्राप्ति सुनिश्चित नहीं होती.

खुशी का सुख से भिन्न होने का अर्थ यह नहीं है जीवन में खुशी का कोई महत्व नहीं है. प्रत्येक खुशी मनुष्य के मानसिक तथा शारीरिक तनाव को दूर करती है जिस से उसे स्वास्थ लाभ होता है. यदि कोई मनुष्य क्षण प्रति क्षण खुशी पाता रहे तो उसे अन्य किसी सुख की आवश्यकता ही नहीं रहती. सतत खुशियों का संचयन भी सुख ही होता है. अच्छा स्वास्थ एक सुख अवश्य है, किन्तु सुख स्वास्थ सुनिश्चित नहीं करता, जब कि प्रत्येक खुशी स्वास्थप्रद होती है.

मनुष्य को खुशी अनेक प्रकार से प्राप्त होती हैं - यथा विचित्र वस्तु देखकर, किसी का असामान्य व्यवहार देखकर, कल्पना करके अथवा काल्पनिक कथा जान कर, मनोरंजक चुटकला आदि सुनकर, आदि. किन्तु इन सबसे सुख प्राप्त नहीं होता. वस्तुतः खुशी अपने स्रोत में उपस्थित नहीं होती, इसे मनुष्य का मस्तिष्क स्रोत के किसी अवयव में खोज लेता है. इस खोज का स्रोत की वास्तविकता से कोई सम्बन्ध नहीं होता. उदाहरण के लिए मैथुन क्रिया खुशी के सर्वोच्च साधन मानी जाती है, किन्तु इसका यथार्थ स्त्री का गर्भ गृहण कराना भी होता है जो अनेक परिस्थितियों में अवांछित तथा दुखमय हो सकता है.

Pleasureनित्य प्रति देखी जाने वाली एवं उपयोगी वस्तुएं हमें उतनी खुशी प्रदान नहीं कर पाती जितनी कि कोई नवीन वस्तु प्रदान करती है, चाहे उसका हमारे जीवन में कोई उपयोग न हो. इसका अर्थ यह भी है कि हम खुशियों के लिए अपने जीवन के यथार्थों से दूर भागते हैं. स्त्री के मुख मंडल पर काला तिल, यद्यपि एक त्वचा विकार होता है, किन्तु मनुष्य जाति इसे सौन्दय संवर्धक मानता है और इसे देख कर खुश होती है. इस प्रकार हमारी अनेक खुशियाँ हमारे अतार्किक होने के कारण प्राप्त होती हैं.

सोमवार, 19 जुलाई 2010

जातीय विष का प्रत्युत्तर

निर्धन लोगों को शुद्ध पेय जल उपलब्ध करने के लिए राज्य की ओर से उनकी बस्तियों में हैण्ड-पम्प लगाये जाते हैं. यह एक सामाजिक रूप से उपयोगी कार्य है जिसकी सराहना की जानी चाहिए. मेरे गाँव में भी अनेक हैण्ड-पम्प लगाये गए हैं, जिनमें से अनेक पम्पों का सामान चोरी कर लिया गया है. यह कार्य किसी आर्थिक लाभ के लिए न किया जाकर शराबियों द्वारा शराब पीने के लिए किया जाता है.

जिस समय ग्रीष्म ऋतू अपने भीषणतम रूप में थी एक निर्धन बस्ती का हैण्ड-पम्प ख़राब हो गया जिस पर लगभग ३० परिवारों का जीवन निर्भर है. जब मैं इसे ठीक करने के लिए जल निगम के कार्यालय को जा रहा था तो मुझे ज्ञात हुआ कि गाँव के तीन अन्य हैण्ड-पम्प भी वर्षों से ख़राब पड़े हैं जिनपर निर्धन लोग निर्भर करते हैं जो उन्हें ठीक करने में असमर्थ रहते हैं. अतः मैंने चारों पम्पों को ठीक करने का प्रयास किया. राज्य कार्यालय ने मुझे सूचित किया कि उक्त पम्पों को ठीक करने के लिए सरकार के पास धन उपलब्ध नहीं है.

लगभग ६ माह बाद उक्त पम्पों को ठीक करने के लिए धन उपलब्ध हुआ और तीन हैण्ड-पम्प ठीक स्थिति में वांछित स्थलों पर लगा दिए गए. चौथा हैण्ड-पम्प गाँव के एक मुख्य मार्ग पर था जिसका उपयोग उस मार्ग के यात्रियों द्वारा किया जाता था. पम्प ठीक करने वाला दल ने जब इस पर कार्य आरम्भ किया तो कुछ धनाढ्य लोगों ने इस पम्प को इसके मूल स्थल से दूर एक व्यक्ति के व्यक्तिगत स्थान पर लगाने के लिए दल को बहला फुसला कर राजी कर लिया जो अवैध था.

नवीन स्थल पर कार्य चल ही रहा था कि मुझे इसका ज्ञान हो गया और मैंने इसकी अवैधता पर बल देते हुए कार्य को रुकवा दिया. इस पर मुझे ज्ञात हुआ कि इस पम्प के विस्थापन में एक विशेष जाति के लोग रूचि ले रहे थे, जिनमें मेरे अनेक सहयोगी भी सम्मिलित थे. मेरे विरोध करने पर मुझ पर एक जाति विशेष का विरोध करने का आरोप लगाया गया और लोगों को जातीय आधार पर एक सूत्र में बांधने का प्रयास किया गया.

इसी जाति के मेरे सहयोगी मुझे गाँव के प्रधान पद पर देखना चाहते हैं किन्तु इस घटना से सिद्ध हुआ कि ये लोग मेरा अनुचित लाभ उठाते हुए अपनी जाति के हितों का अनुचित पोषण करना चाहते हैं जिससे अन्य जातियों के हितों का हनन होना स्वाभाविक है. उक्त पम्प के विस्थापन को मेरे विरुद्ध जातीय विष फ़ैलाने का साधन बनाया गया ताकि मेरे सहयोगी ही मेरे विरुद्ध होकर शत्रु पक्ष में सम्मिलित हो जाएँ.

गाँव में जातीय विष फ़ैलाने के प्रयास सदैव किये जाते रहे हैं, जिसमें गाँव में मेरी जाति का केवल एक परिवार होने के कारण मेरे परिवार की अवहेलना होनी स्वाभाविक है. किन्तु मेरे पिताजी ने सदैव इस विष का डट कर सामना किया था जिसके कारण वे तीन पंचवर्षीय सत्रों में गाँव के प्रधान रहे, और एक सत्र में मेरे ताऊजी प्रधान रहे. अब मेरे इस क्षेत्र में आने पर मेरे विरुद्ध भी जातीय विष को उभारा गया.
Caste, Society and Politics in India from the Eighteenth Century to the Modern Age (The New Cambridge History of India)

मैंने पूरी दृढ़ता से पम्प के अवैध विस्थापन का ही विरोध नहीं किया, जातीय आधार पर संगठित होने वाले अपने सहयोगियों का भी मुकाबला किया जिसके लिए मैंने प्रधान पद के लिए अपनी दावेदारी भी ठुकरा दी. अंततः जातीय एकता विखंडित हुई और मेरे सहयोगी अपनी भूल स्वीकारते हुए पुनः मेरे पक्ष में आ गए. यदि मैं दृढ़ता न दर्शाता तो यह निश्चित था कि पूरा गान जातीय आधार पर विघटित हो जाता जिसमें मेरे लिए कोई स्थान नहीं होता. मेरी दृढ़ता से मेरी शक्ति सम्वधित हुई है.

जीवन में खेलों की भूमिका

खेल आधुनिक जीवन के सुसंगठित व्यावसायिक अंग बन गए हैं जबकि इनका व्यवसायीकरण स्वयं इनके और खिलाड़ियों के अस्तित्व के लिए घातक बनता जा रहा है. तथापि कुछ चतुर व्यक्तियों को खेलों की चिंता के सापेक्ष अपने व्यावसायिक लाभों की अधिक चिंता रहती है और वे इस बारे में लोगों को भ्रमित कर उन्हें खेल देखने के लिए आकर्षित करते रहे है. इससे खेल अपने वास्तविक एवं प्राकृत उपयोग से दूर होते जा रहे हैं. वस्तुतः खेलों के दो प्राकृत उपयोग हैं - कौशल विकास और स्वास्थ लाभ.

कौशल विकास 
प्रत्येक जीव में एक अंतर्चेतना खेल-खेल में शिक्षा-दीक्षा गृहण करना है जिसके कारण प्रत्येक जीव जन्म से ही खेलों में रमने लगता है और उन्हीं के माध्यम से अपनी जीवनोपयोगी विद्याएँ गृहण करता है और उनका अभ्यास करता रहता है. अतः खेल जीवनोपयोगी विद्याएँ सीखने के प्राकृत माध्यम होते हैं. इसी कारण प्रत्येक खेल खिलाड़ी में किसी कौशल का विकास करता है, जो केवल खेल में ही उपयोगी न होकर जीवन में उपयोगी होता है. इसके विपरीत, प्रत्येक कौशल के विकास हेतु किसी खेल की आवश्यकता होती है. खेल जीवन में वैज्ञानिकों के प्रयोगों की तरह होते हैं जो वस्तुस्थिति से हटकर प्रयोगशालाओं में परीक्षित किये जाते हैं और सफल सिद्ध होने पर उनके सार्थक उपयोग किये जाते हैं.

खेलों द्वारा विकसित कौशल को केवल खेल के लिए उपयोग करना खेलों के प्राकृत उपयोगों के विरुद्ध है, जिसके कारण पेशेवर खिलाड़ी समाज के ऊपर निरर्थक भार होते हैं, जैसे कोई वैज्ञानिक जीवन भर प्रयोगशाला में निरर्थक प्रयोग करता रहे. खेल प्रत्येक जीव के लिए सार्थक कौशल विकसित करने के माध्यम होते हैं और इनका उपयोग इसी उद्येश्य से किया जाना चाहिए.

स्वास्थ लाभ
खेलों का दूसरा लाभ खिलाड़ियों को व्यायाम द्वारा स्वास्थ लाभ प्रदान करना है. चूंकि स्वास्थ सभी के लिए सर्वाधिक महत्व रखता है, इसलिए प्रत्येक जीव को खिलाड़ी होना चाहिए. वस्तुतः ऐसा होता भी है, अधिकाँश जीव स्वास्थ लाभ के लिए अपनी इच्छानुसार खेल खेलते है भले ही वे औपचारिक खेल न माने जाते हों.

इन प्राकृत उपयोगों के लिए खेल जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका रखते हैं. किन्तु खेल केवल औपचारिक नियमन और नामकरण वाले ही नहीं होते. बच्चे की किलकारी भी उसके लिए एक खेल होता है जो वह अपना हर्ष प्रकट करने के लिए उपयोग में लाता है. इससे उसके स्वर तंत्र का अभ्यास होता है और वह सीखता है कि किलकारी सभी के लिए आनंददायक होती है. इसी से वह अपनी किलकारियों में विविधता लाकर उनके विविध उपयोगों की खोज भी करता है.
Poleish Sports Standard Game Set with Soft Surface Spike

आधुनिक खेल व्यवसाय मनुष्य जाति को खेल खेलते रहने से दूर ले जाते हुए दूसरों को खेलते हुए देखने के लिए उकसाते रहते हैं जिससे लोग स्वयं खेल खेलने से दूर होते जा रहे हैं और स्वयं कौशल विकास से वंचित रहने के कारण जीवन में असफल होते हैं.

शुक्रवार, 16 जुलाई 2010

वर्य, वरीय

It's Okay To Be Differentवेदों और शास्त्रों में पाए गए वर्य तथा वरीय शब्द लैटिन भाषा के शब्द  variorum  से उद्भूत हैं जिसका अर्थ 'भिन्न' है न कि 'इच्छित अथवा वांछित' जैसा कि आधुनिक संस्कृत में माना गया है. अतः आधुनिक संस्कृत के आधार पर किये गए उक्त ग्रंथों के अनुवाद भ्रामक हैं.

अक्ष, अक्षर

वेदों और शास्त्रों में पाया जाने वाला शब्द 'अक्ष' लैटिन भाषा के शब्द  actus  का प्रतिरूप है जिसका अर्थ 'कार्य करना', और यही अर्थ वेदों आदि के अनुवाद हेतु उपयोग में लिया जाना चाहिए.
Doers of the Word: Putting Your Faith Into Practice

'अक्ष' शब्द से ही उद्भूत है शास्त्रीय शब्द  'अक्षर' जो लैटिन भाषा के शब्द  actuaris  से बना है तथा जिसका अर्थ 'कार्य' करने वाला अर्थात कर्ता' है. आधुनिक संस्कृत में लिया गया इसका अर्थ 'वर्णमाला का एक ध्वनि प्रतीक शात्रीय अनुवाद के अनुकूल नहीं है.

रविवार, 11 जुलाई 2010

भारत समाधान का सूत्रपात

मेरी शिक्षा, अनुभव, निष्ठां और चिंतन के कारण और मेरे गाँव में सामाजिक रूप में सक्रिय होने से गाँव के ही नहीं आसपास के अनेक गाँवों के लोग मेरे पास अपनी समस्याएँ लेकर मेरे परामर्श और सहायता की आशा लेकर आते रहते हैं और मैं यथा-संभव उन्हें संतुष्ट करने के प्रयास भी करता रहा हूँ. मुझे गाँव का प्रधान बनने के लोगों के प्रयास भी इन्ही कारणों से किये गए हैं जिसके लिए मैं सहमत हो गया हूँ.

अभी मैं एक व्यक्ति के रूप में हूँ जिसके कारण मैं लोगों को परामर्श तो दे पाता हूँ किन्तु किसी कार्यालय में जाकर उनकी सहायता नहीं कर सकता, जिसकी आवश्यकता मुझे तथा अन्य लोगों को अनुभव होती रहती है. इसके लिए मुझे एक संगठन की आवश्यकता है. इसी उद्येश्य से मैंने लोगों की समस्याओं के निदान हेतु स्थानीय स्तर पर 'भारत समाधान संघ' नामक संगठन की स्थापना का मन बनाया है जिसकी वैधानिक औपचारिकताएं अभी पूरी की जानी हैं.

'भारत समाधान संघ' कोई जन-संगठन न होकर अभी केवल बुलंदशहर जनपद के बौद्धिक लोगों का संगठन होगा जो अपने सामाजिक दायित्वों के निर्वाह करने एवं ग्रामीण लोगों की समस्याएँ हल करने के लिए प्रयास करेंगे. इसका मुख्यालय मेरा गाँव खंदोई रहेगा. इस संगठन को अन्य राष्ट्रीय स्तर के संगठनों से लग्नित कर दिया जाएगा ताकि बड़ी समस्याओं के लिए उनकी सहायता ली जा सके और उनके लक्ष्यों और संदेशों को जन साधारण तक पहुँचाया जा सके. भारत समाधान मुख्यतः जन-साधारण के शोषण और भृष्टाचार के विरुद्ध संघर्ष करेगा.
The Impossible Patriotism Project

'भारत समाधान संघ' के माध्यम से मैं अपने समाज और राष्ट्र की स्थिति सुधारने में अपना और अपने सहधर्मियों का योगदान समर्पित कर सकूंगा, जो राष्ट्रीय चेतना का उत्प्रेरक सिद्ध हो सकता है और भारतीय जनतंत्र के स्थान पर बौद्धिक जनतंत्र की स्थापना में अपना योगदान दे सकता है. आप सभी का यथा संभव नैतिक सहयोग प्रार्थनीय है. इस संघ का ईमेल पता यह है -
bharat.samadhan@gmail.com

शुक्रवार, 9 जुलाई 2010

हम किधर जा रहे हैं

विगत लगभग एक माह में मेरे गाँव में कुछ घटनाएँ हुईं जो हमारे चारों ओर घट रही अनेक घटनाओं जैसी ही हैं किन्तु इनसे हमें स्पष्ट संकेत मलते हैं कि हम भारतवासी इस समय किधर जा रहे हैं, और इस मार्ग पर चलते हुए हमारा भविष्य क्या होगा. 

अधिकार और चोरी 
गाँव के एक वयोवृद्ध किसान अपने खेत की सिंचाई के लिए अपना ट्यूबवेल चला रहे थे जो ४४० वोल्ट पर चलता है. अचानक एक ११००० वोल्ट की लाइन का एक तार टूटा और ट्यूबवेल की ४०० वोल्ट लाइन पर आ पड़ा. मोटर को ११००० वोल्ट प्राप्त होने पर उसकी ध्वनि बदली तो किसान मोटर बंद करने के लिए स्टार्टर की ओर भागे. जैसे ही उन्होंने उसे छुआ, उनके शरीर में विद्युत् धारा प्रवाहित हुई, और वे ट्यूबवेल के कुए में गिर गए. वहां उनका एक पैर और एक हाथ कट गया. कुछ समय बाद उनका मृत शरीर कुए से निकाला गया. उनका शरीर और कपडे बुरी तरह झुलसे हुए थे.

मैंने उनके पुत्र को बताया कि मृत्यु विद्युत् प्रशासन की लापरवाहियों से हुई है इसलिए उन्हें इसकी पुलिस में रिपोर्ट करनी चाहिए जिससे उन्हें ५ लाख रुपये तक की क्षतिपूर्ति हो सकेगी. किन्तु मेरा सुझाव यह कहकर नकार दिया गया कि उनकी आय बहुत है इसलिए वे किसी क्षतिपूर्ति की मांग नहीं करेंगे. शव का अंतिम संस्कार कर दिया गया.

क्षतिपूर्ति किसान का अधिकार था किन्तु इसे प्राप्त करने के लिए कुछ संघर्ष करना पड़ता, जिससे बचा गया. यही परिवार घर में उपयोग के लिए बिजली की चोरी करता है जिसका बिल केवल १३२ रुपये प्रति माह देना पड़ता जिसे बचने के लिए चोरी की जा रही है. विचार कीजिये कि एक ओर ५ लाख रुपये को इसलिए ठुकराया गया कि घर में आय की कोई कमी नहीं है. दूसरी ओर रुपये ४.५० की प्रतिदिन चोरी की जा रही है. अब क्या हो नैतिकता का मूल्य, हमारी दृष्टि में.

एक प्रसिद्ध कथावत है - व्यक्ति को अधिकार भीख में नहीं मिलते, इन्हें आगे बढ़कर पाया जाता है. दूसरे शब्दों में प्रत्येक व्यक्ति को अपने अधिकारों के लिए भी संघर्ष करने की आवश्यकता होती है. जो लोग संघर्ष नहीं करते वे अपने अधिकारों से वंचित ही रह जाते हैं. इससे उनकी उपलब्धियां अल्प हो जाती हैं जिसके कारण वे जीवन को अभावग्रस्त अनुभव करते हैं और आत्म संतुष्ट नहीं हो पाते. इस अभाव की आपूर्ति के लिए वे छल-कपट का मार्ग अपनाते हैं जिससे समाज में विकृतियाँ उत्पन्न करते हैं. भारत के जन साधारण की मानसिकता की वर्तमान स्थिति ऐसी ही है जो उपरोक्त उदाहरण से स्पष्ट है.

शराबी का पतन 
गाँव का एक सतीश नामक हृष्ट-पुष्ट युवा था बहुत परिश्रमी. मजदूरी करके परिवार का लालन-पालन करता था बड़ी खुशी के साथ. सन २००५ में गाँव में पंचायत प्रधान का चुनाव हुआ. चुनाव जीतने के लिए एक प्रत्याशी ने पूरे गाँव के शराबियों को इच्छानुसार पीने की दावतें दीन लगभग एक महीन तक, जिनमें लगभग १ लाख रूपया व्यय हुआ. उक्त युवा प्रत्याशी का मित्र था इसलिए दावतों में उसने भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया. इसके बाद अन्य तथाकथित जनतांत्रिक चुनाव हुए और उनमें भी जी भर के शराब की दावतें हुईं. परिणामस्वरूप उक्त युवा सुबह से शाम तक पीने वाला शराबी बन गया. मुफ्त की शराब न मिलने पर उसने अपनी कमाई से शराब पीनी आरम्भ कर दी जिससे परिवार का लालन-पालन दूभर हो गया और घर में नित्य प्रति कलह होने लगी.

अभी कुछ दिन पूर्व, सतीश नशे में धुत अपने घर की छत पर सोया और रात्री में नीचे गिर गया. पत्नी उससे नाराज थी ही इसलिए उसने उसकी कोई परवाह नहीं की और वह रात भर वहीं पड़ा रहा. सुबह पत्नी उठी और वर्तमान ग्राम प्रधान, जिसने शराब पिलाकर पड़ प्राप्त किया था, के पास गयी और उससे उसके मित्र की हालत देखने को कहा. सतीश की गर्दन टूट चुकी थी और वह बेहोश था. उसे तुरंत दिल्ली अस्पताल भेजा गया. राजकीय अस्पताल में चिकित्सा पर लगभग ५०,००० रुपये व्यय करने के बाद अब सतीश गाँव में आ गया है. किन्तु उसके शरीर का नीचे का आधा भाग मृत है जिसके कारण वह केवल पड़े रहने में ही समर्थ है - जीवन की प्रत्येक कार्य के लिए पराश्रित. उसके तीन छोटे-छोटे बच्चे हैं, परिवार भूमिहीन है इसलिए अब आय का कोई साधन नहीं है. उसकी पत्नी की मजदूरी करके बच्चे पालना विवशता है किन्तु ऐसा करते हुए वह सतीश की देखभाल नहीं कर सकती. इस प्रकार भारत के तथाकथित जनतंत्र ने पूरे परिवार को बर्बाद कर दिया है.

गुंडे के पिता की मृत्यु
अभी कुछ दिन पूर्व एक गुंडे ने मेरे साथ दुर्व्यवहार किया था जिसका दंड उसे पुलिस द्वारा दिया गया. दंड देने की प्रक्रिया को विलंबित और सुकोमल करने के लिए पुलिस ने उसके परिवार से ३२,००० रुपये की रिश्वत ली तथापि उसे दंड भी पर्याप्त दिया गया. मामला अब न्यायालय में है.

उक्त गुंडे का पिता एक सज्जन एवं परिश्रमी लगभग ५० वर्षीय किसान था तथापि पुत्र मोह में गुंडागर्दी का समर्थन करता था. वह अपने पुत्र के अपराध के कारण उक्त धन और अपमान की क्षति को सहन नहीं कर सका और पुलिस कार्यवाही के दो दिन बाद ह्रदय गति रुक जाने से मृत्यु को प्राप्त हो गया. इस प्रकार गुंडे के दंड में पिता की मृत्यु भी सम्मिलित हो गयी.

जब हम अपनों के दोषों की अवहेलना करने लगते हैं तो दोष में वृद्धि होती रहती है जो एक दिन विनाशकारी सिद्ध होती है.

हमारी परिस्थितियां और उनका प्रभाव

व्यक्ति की परिस्थितियां उसके वश में नहीं होतीं अपितु इनका निर्माण समाज की दीर्घकालिक स्थिति पर निर्भर करता है. तथापि प्रत्येक व्यक्ति अपनी परिस्थितियों से प्रभावित होता है और इन की अवहेलना नहीं कर सकता. किन्तु यह व्यक्ति पर निर्भर करता है कि वह परिस्थितियों को किस प्रकार अपनाता है जिसके दो तरीके हैं.

जन साधारण परिस्थितियों के समक्ष समर्पण कर देते हैं जिसके फलस्वरूप उनका अपने व्यवहार पर कोई नियंत्रण नहीं रह जाता और यह पूरी तरह परिस्थितियों के अधीन होता है. ऐसी स्थिति में व्यक्ति का परिस्थितियों से कोई विरोध नहीं रहता और व्यक्ति का जीवन सरल एवं सहज कहा जा सकता है. परिस्थितियों की इसी अधीनता को ही व्यक्ति का भाग्य आदि कह दिया जाता है. तथापि इस स्थिति में व्यक्ति परिस्थितियों से पराजित हुआ अनुभव करता है और उसे आत्म-संतुष्टि प्राप्त नहीं होती.

कुछ व्यक्ति परिस्थितियों के समक्ष न तो स्वयं आत्म-समर्पण करते हैं और न ही परिस्थितियों को अपने वश में कर सकते हैं. ये व्यक्ति परिस्थितियों का स्वहित में उपयोग करते हैं. यह परिस्थितियों पर विजय तो नहीं होती किन्तु इसे व्यक्ति का परिस्थितियों की अधीन होना भी नहीं कहा जा सकता. यह व्यक्ति द्वारा परिस्थितियों का सदुपयोग कहा जाता है.

प्रत्येक परिस्थिति को व्यक्ति द्वारा दो प्रकार से देखा जा सकता है - एक विवशता के रूप में तथा दूसरे एक अवसर के रूप में. पारिस्थितिक विवशता स्वीकार करने पर व्यक्ति परिस्थितियों के अधीन होता है जो व्यक्ति की परिस्थितियों के समक्ष पराजय होती है. यह जीवन का एक यथार्थ है, इसके साथ ही जीवन का एक यथार्थ यह भी होता है कि प्रत्येक परिस्थिति व्यक्ति को एक अवसर प्रदान करती है, उसका उपयोग कर उससे कुछ शिक्षा गृहण करते हुए आगे बढ़ने के लिए. इसे एक उदाहरण से स्पष्ट किया जा सकता है.
Extraordinary Circumstances: The Journey of a Corporate Whistleblower

अभी हाल ही में मेरे गाँव के एक गुंडे ने गाँव वालों की दृष्टि में मेरा सम्मान कम करने के उद्येश्य से अचानक मुझे गालियाँ देकर अपमानित किया और इस प्रकार मेरे समक्ष एक अप्रत्याशित परिस्थिति उत्पन्न कर दी. मैं न तो गलियों का उत्तर गालियों से देने में सामर्थ हूँ और न ही इसके लिए हिंसा कर सकता हूँ. मैंने उक्त घटना की रिपोर्ट पुलिस को की तो गुंडे ने पुलिस पर राजनैतिक दवाब डलवा कर कार्यवाही रुकवा दी. मैंने इस का विवरण अपने ब्लॉग पर लिख दिया. अनेक लोगों ने मेरे प्रति सहानुभूति दर्शाई और एक मित्र ने एक उच्च स्तरीय संगठन की सहायता ली जिसके सदस्यों में पुलिस के एक उच्च अधिकारी भी हैं. उन्होंने तुरंत स्थानीय पुलिस को मेरी रक्षा करते हुए गुंडे के विरुद्ध कठोर कार्यवाही का निर्देश दिया. पुलिस द्वारा ऐसा ही किया गया और गाँव में मेरा सम्मान और अधिक बढ़ गया. इस प्रकार मेरे विरुद्ध गुंडे का दुर्व्यवहार मेरे लिए एक सुअवसर सिद्ध हुआ. इसके विपरीत यदि मैं अपने अपमान को चुपचाप सह लेता तो शनैः-शनैः गाँव में मेरा सम्मान समाप्त हो जाता.

शनिवार, 3 जुलाई 2010

सत्ता हस्तांतरण : बुद्धि, बल और छल के मध्य

भारत में राज्य सता का हस्तांतरण बार-बार होता रहा है, जिसमें प्रमुखतः तीन गणक सम्मिलित रहे हैं - बल, छल और बुद्धि. भारत में राज्य सत्ता का श्री गणेश देवों द्वारा किया गया, किन्तु महाभारत संघर्ष में बल और छल-कपट की विजय हुई और नैतिक मूल्यों की पराजय. इस सिकंदर के समर्थन से महापद्मानंद भारत का सम्राट बना.

महापद्मानंद के सम्राट बनने के बाद विष्णु गुप्त चाणक्य सर्वाधिक हताहत हुए. उनके पास कोई बल शेष नहीं था किन्तु वे बुद्धि के धनी थे. अपने मित्र चित्र गुप्त और पुत्र चन्द्र गुप्त के साथ मिलकर उन्होंने बुद्धि का उपयोग करते हुए उन्होंने भारत की राज्य सत्ता पर अधिकार किया और चन्द्र गुप्त को भारत का सम्राट बनाया. यहीं से गुप्त वंश का शासन स्थापित हुआ जिसमें भारत को विश्व भर में 'सोने की चिड़िया' कहलाने का गौरव प्राप्त हुआ.

पासा फिर पलटा. समुद्र गुप्त जैसे कुछ गुप्त वंश के शासकों के अतिरिक्त शेष शासक बुद्धि-संपन्न तो थे किन्तु उनमें बल का अभाव था. इसके लिए वे बलशालियों की सेना पर आश्रित थे. कालांतर में इन बल-शालियों ने राज्य सत्ता पर अपना अधिकार कर लिया, और बुद्धि पराजित हुई. ये बल-शाली युद्ध कला में तो पारंगत थे किन्तु शासन व्यवस्था में अयोग्य सिद्ध हुए. इनके शासन में देश छोटे-छोटे टुकड़ों में विभाजित हो गया और शासकों का अधिकाँश समय युद्ध क्षेत्र में ही व्यतीत होने लगा. इससे शासन व्यवस्था चरमरा गयी. यह अराजकता भारत में लगभग ७०० वर्ष तक रही.

इस अराजकता का लाभ उठाने के लिए कुछ लुटेरे भारत में आये जिनके पास बल और छल दोनों थे. इनका उपयोग करते हुए उन्होंने भारत में इस्लामी शासन स्थापित कर दिया, जो विभिन्न नामों से लगभग ७०० वर्ष चला. इस शासन की सर्वाधिक निर्बलता शासकों के भोग-विलास थे जिनके लिए वे ५०० की संख्या तक स्त्रियाँ रखते थे. इस प्रकार के विलासों ने शासकों की बुद्धि और बल दोनों का हरण कर लिया. इसके प्रभाव में उन्होंने बुद्धि संपन्न अंग्रेजों को भारत में आने के लिए आमंत्रित कर दिया. इस प्रकार बल और छल पर पुनः बुद्धि की विजय हुई, और देश में अंग्रेजों ने अपना शासन स्थापित कर लिया.

अंग्रेजों के सासन में भारत की धन-संपदा का सतत शोषण होता रहा जिससे ब्रिटिश खज़ाना भरता रहा.यह शोषण इस सीमा तक पहुँच गया कि जन-साधारण के पास जीवन की रक्षा के लिए 'करो या मरो' के अतिरिक्त कोई अन्य मार्ग शेष न रहा. इस जन आन्दोलन का नेतृत्व महात्मा गाँधी ने किया. इसके साथ ही नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने 'आजाद हिंद सेना' का गठन कर अंग्रेजों को बल-शाली चुनौती भी दी. इन दोनों कारणों से अंग्रेजों को भारत स्वतंत्र करना पडा, और देश की राज्य सत्ता ऐसे लोगों के हाथ में आ गयी जो शासन करने के लिए न तो बल से संपन्न थे और न ही बुद्धि से. अतः मात्र छल ही उनके शासन तंत्र की विशिष्टता रही.इस शासन का नेतृत्व जवाहर लाल नेहरु ने किया.

नेहरु के बाद सत्ता की स्वामिनी इंदिरा बनी जिसे छल के साथ बल की भी आवश्यकता अनुभव हुई जिसके लिए उसने देश भर के असामाजिक तत्वों का आश्रय लिया और देश पर बल और छल के साथ शासन किया. कालांतर में बल-शालियों को अपनी सामर्थ्य का आभास हुआ और उन्होंने सत्ता हथियाने के साथ-साथ छल भी सीख लिए. इस प्रकार भारत में आज बल और छल का शासन स्थापित है.

अगला परिवर्तन में देश पर बुद्धि का शासन होना अवश्यम्भावी है किन्तु यह तभी होगा जब देश का प्रबुद्ध वर्ग इसके लिए जागृत हो और संघर्ष करे. जहां तक जन-साधारण का प्रश्न है, यह सता परिवर्तन में कभी भी महत्वपूर्ण गणक नहीं रहा है - यहाँ तक कि आज के तथाकथित जनतांत्रिक शासन में भी. आज की स्थिति कुछ उसी प्रकार की है जैसी कि विष्णुगुप्त चाणक्य के समय थी जब बुद्धि ने बल और छल दोनों को पराजित लिया था.

बौद्धिक मतभेद : कारण और निवारण

बौद्धिक जनतंत्र स्थापना के लिए सर्व प्रथम यह अनिवार्य है कि बौद्धिक लोग एक मंच पर एकत्रित हों और देश को एक कुशल शासन व्यवस्था प्रदान करने हेतु एक मत हों. इसमें सब से बड़ी बाधा यह है बौद्धिक लोग प्रायः किसी बिंदु पर परस्पर समत नहीं होते. इसका लाभ देश के अन्य लोग उठाते हैं और वे बौद्धिक लोगों को एक किनारे कर देते हैं अथवा उनका उपयोग अपने हित साधन में करते हैं.

बौद्धिक लोगों में अन्य लोगों की तरह ही व्यक्तिगत अंतर होते हैं. इस अंतराल का प्रभाव उनके चिंतन पर भी पड़ता है. चूंकि बौद्धिक जनों की विशिष्टता ही यह होती है कि वे चिंतन करते हैं और चिंतन किये गए विषयों पर अपना मत विकसित करते हैं. चूंकि चिंतन पूर्णतः लक्ष्यपरक न होकर अंशतः व्यक्तिपरक होता है इसलिए बौद्धिक लोगों के मत प्रायः परस्पर भिन्न हो जाते हैं. इसके विपरीत जन-साधारण न तो कोई चिंतन करते हैं और न ही किसी विषय पर अपना कोई मत विकसित करते हैं. इसलिए वे किसी भी मत से असहमत नहीं होते. उनके समक्ष जो भी मत प्रकट किया जाता है वे उसी से युरांत एवं सहर्ष सहमत हो जाते हैं. साथ ही दूसरा मत उनके समक्ष आने पर वे उस से भी सहमति जता देते हैं. बौद्धिक और अबौद्धिक जनों के इस अंतराल के कारण बौद्धिक जनों में प्रायः मत-भेद और अबौद्धिकों में प्रायः सहमति पायी जाती है.

बौद्धिक लोगों में स्वाभाविक मतभेद होने का अर्थ यह कदापि नहीं है कि उनमें सहमति विकसित ही नहीं हो सकती, किन्तु यह दुष्कर अवश्य होती है. बौद्धिक लोगों में विचार शीलता के कारण असहमति होती है, और इसी विचार शीलता से ही उनमें सहमति विकसित की जा सकती है. इसके दो उपाय हैं, जिन दोनों को ही इस कार्य के लिया उपयोग किया जा सकता है.

बौद्धिक जनों में सहमति का प्रथम उपाय सतत विचारशीलता और विचार विमर्श है. विचार-शीलता का एकीकरण सिद्धांत यह है कि किसी एक समस्या का एक ही सर्वोत्तम हल होता है. इसलिए यदि अनेक व्यक्ति किसी एक समस्या पर सतत विचार करते रहें तो वे सभी अंततः एक ही समाधान पर पहुचेंगे. आवश्यकता बस यह है कि वे सर्वोत्तम समाधान की खोज में सतत चिंतन करते रहें.
उक्त सहमति का दूसरा उपाय यह है कि बौद्धिक जन अपना चिंतन लक्ष्यपरक करें जिसके लिए उन्हें व्यक्तिपरक चिंतन से दूर रहने का भरसक प्रयास करना होगा. पूर्णतः लक्ष्यपरक चिंतन भी सभी बौद्धिक जनों को एक ही लक्ष्य और उसके मार्ग पर पहुंचा देगा.   
How History Made the Mind: The Cultural Origins of Objective Thinking

भारत के समक्ष इस समय विकराल राजनैतिक संकट है, जिससे केवल बौद्धिक समाज ही मुक्ति दिला सकता है - अपने-अपने व्यक्तिगत अंतर भुला कर और किसी समाधान पर एक मत होकर. बौद्धिक जनतंत्र उनके विचार हेतु एक पृष्ठभूमि का कार्य कर सकता है.