रविवार, 9 मई 2010

गन्ने की खेती

भारत के एक प्रसिद्ध कवि द्वारा रचित दोहा है -

'अति का भला न बरसना अति की भली न धूप,
अति का भला न बोलना अति की भली न चूप.'

किन्तु भारत के किसानों ने इससे कोई सीख नहीं ली और जब कोई फसल उगाते हैं तो सभी उगाते हैं. इस बार प्रत्येक किसान गन्ने की फसल बो रहा है और वह भी अधिकतम संभव भूमि पर. इसके फलस्वरुप मक्की और धान की फसल नगण्य बोई जायेगी. मेरे गाँव में सभी किसानों ने धान की फसल बोई थी जिसके कारण कुछ समय तो धान के भाव ठीक रहे किन्तु अब धराशायी हो गए.


गन्ने की फसल पर जोर होने का कारण विगत काल में गन्ने के भाव पिछले साल के ११० रुपये प्रति कुंतल के स्थान पर २५० रपये प्रति कुंतल होना है. इस वृद्धि में कुछ पहल सर्वकार ने की थी तो शेष निजी क्षेत्र के चीनी मीलों ने पूरी कर दी. इससे चीनी मीलों को कोई हानि नहीं हुई क्योंकि उन्होंने अपनी चीनी २० रुपये प्रति किलोग्राम के स्थान पर ४० रुपये प्रति किलोग्राम पर विक्रय करा दी. इसका अप्रत्याशित भार उपभोक्ताओं पर पडा जिससे उन्हें शक्कर की कड़वाहट अनुभव हुई.


गन्ने की खेती करने की विशेषता यह है कि किसान इसकी बुवाई एक दूसरे के खेतों में मिलजुलकर बिना पारिश्रमिक लिए करते हैं, जिसके बदले में खेत का स्वामी श्रमदान करने वालों को दावत देता है. इस कार्य में बच्चे बहुत उपयोगी सिद्ध होते हैं जो बड़ी संख्या में गन्ना बोने में सहयोग कर रहे हैं आर दावतें खा रहे हैं. इस समय गाँव में दावतों का दौर चल रहा है. यद्यपि मैं किसान नहीं हूँ किन्तु गाँव वाले मुझ से भी श्रमदान करा रहे हैं और दावत खिला रहे हैं. लगभग ५० वर्ष पहले ऐसी दावतों में कढी-फुलका तथा दाल-चावल हुआ करते थे किन्तु अब खीर-पूड़ी का प्रचलन है. खीर तो  स्वादिष्ट होती है और कोई विकार भी उत्पन्न नहीं करती किन्तु इसकी सहभागिनी पूड़ियाँ तैलयुक्त होने के कारण पेट की व्याधियां उत्पन्न करती हैं.

प्रायः किसान के फसल पकाने के समय उत्पाद के भाव कम होते हैं जो व्यापारियों द्वारा बाद में बढ़ा दिए जाते हैं. किन्तु धान के बारे में इस बार ऐसा नहीं हुआ. जो धान फसल के समय ३५ रपये प्रति किलोग्राम से विक्रय हो रहा था वह अब १८ रुपये पर पहुँच गया है. अतः जिन किसानों ने अपना धान नहीं बेचा था वे अब बर्बादी अनुभव कर रहे हैं. यह किसी भी दृष्टि से प्राकृत नहीं है अतः कृत्रिम है तथा इसके पीछे कोई षड्यंत्र है. ऐसा प्रतीत होता है कि किसानों को धान की फसल से विमुख कर गन्ने की फसल बोने के लिए प्रेरित करने के उद्येश्य से ऐसा किया गया है. गन्ने की अधिकता होने से गन्ना मीलों की क्षमता कम रहेगी जिससे किसानों को गन्ना सस्ती दरों पर देने की विवशता हो जायेगी. ८० के दशक में भी ऐसा हुआ था जब किसानों द्वारा गन्ने की फसल को खेतों में ही जलाना पडा था. धान आदि की फसल की अधिकता होने से उसे भविष्य के लिए भंडारित किया जा सकता है अथवा निर्यात किया जा सकता है किन्तु गन्ने की फसल न तो निर्यात की जा सकती है और ना ही इसे भविष्य के लिए भंडारित रखा जा सकता है.  अतः इस बार गन्ने की अधिकता किसानों के लिए संकट का कारण बन सकती है.

गन्ने की फसल की अधिकता का दुष्प्रभाव दूसरी फसलों जैसे गेंहू, मक्की, धान, aadi का अभाव होगा जिससे इन आवश्यक वस्तुओं के मूल्य भी बढ़ेंगे. इस प्रकार एक विसंगति अनेक विसंगतियों को जन्म देगी जिसकी ओर किसानों अथवा सर्वकार का कोई ध्यान नहीं है. 

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