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रविवार, 7 फ़रवरी 2010

भारतीय समाज - विषमताओं का दंगल

आज का भारतीय समाज अनेक विषमताओं में निमग्न है किन्तु उनसे जूझने का दम उसमें कहीं दिखाई नहीं दे रहा है. व्यक्ति को सबसे पहले रोटी चाहिए बिना संघर्ष के, तभी वह आगे की सोच सकता है. जिस वर्ग को रोटी उपलब्ध नहीं है वह इसे पाने के प्रयासों में तल्लीन हैं और यह उस की विवशता है. जिन्हें यह उपलब्ध है वह प्रथम वर्ग के शोषण से ही उपलब्ध हो रही है, इसलिए वे इस स्थिति में परिवर्तन कदापि नहीं चाहते. बस इस विषय पर यदा-कदा अपनी बौद्धिक श्रेष्ठता दर्शाकर अपना कर्तव्य पूरा समझ लेते हैं. शेष समय वे विविध माध्यमों से अपने मनोरंजन में व्यतीत करते हैं. दोनों वर्गों की जनसँख्या लगातार बढ़ रही है जिसके कारण दोनों को रोटी के नए नए स्रोत खोजना भी आवश्यक हो गया है. अतः प्रथम वर्ग के कुछ लोग छलांग लगाकर दूसरे वर्ग में सम्मिलित होने का प्रयास करते हैं जिससे प्रथम वर्ग को कुछ रहत मिलती है. शेष आवश्यकता पूर्ति के लिए यह वर्ग अधिक परिश्रम करता है अथवा दूसरे वर्ग से छीना-झपटी करता है. दूसरा वर्ग अपनी आवश्यकताओं की आपूर्ति के लिए शोषण के नए माध्यम खोजता है और उन्हें विकसित करता है.दोनों वर्गों के मध्य अंतराल निरंतर बढ़ता जा रहा है.  सब मिलाकर यह कहा जा सकता है कि बढ़ती आवश्यकताओं की आपूर्ति के लिए सामान्य विधि - उत्पादन में वृद्धि, पर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा.

कुछ सीमा तक यह वर्ग संघर्ष विश्व स्तर पर भी हो रहा है किन्तु कुछ दूसरे प्रकार का. यहाँ का धनिक वर्ग उत्पादन और इस के साधनों का विकास कर चुका है और आगे कर रहा है. इससे कारण यह वर्ग संपन्न है. कुछ सीमा तक यह निर्धन वर्ग का शोषण भी करता है - विशेषकर उससे सस्ते मूल्य पर जनशक्ति प्राप्त करके. किन्तु इसमें दोनों वर्गों के हित समाहित हैं. विश्व स्तर पर निर्धन वर्ग मानवीय भावुकता के आधार पर धनिक वर्ग का शोषण करता है - ऋण, दान, भिक्षा, सहायता, सुरक्षा, आदि की सतत मांग करता हुआ. यहाँ भी दोनों वर्गों के मध्य अंतराल निरंतर बढ़ता जा रहा है.

भारतीय समाज एकदम स्पष्ट रूप में दो वर्गों में विभाजित है - शासक और शासित, शोषणकर्ता और शोषित,.धनाढ्य और निर्धन, आदि. इसमें कभी कभी वर्गान्तर उत्पन्न हो जाता है, जिस वर्ग के हाथ में राजनैतिक सत्ता की बागडोर आ जाती है वही शोषण करने लगता है दूसरे वर्ग का.

स्वतंत्रता, जिसका सपना देशभक्तों ने स्वतंत्रता संग्राम के समय देखा था, अब स्वच्छन्दता अथवा उद्दंडता में परिवर्तित हो गयी है जहाँ प्रत्येक व्यक्ति तथा वर्ग कुछ भी कभी भी कर सकता है बिना किसी मर्यादा का ध्यान रखे. इसे कभी अनुशासनहीनता कहा जाता था किन्तु अब यह अनुशासनहीनता से भी बहुत आगे है. इस स्वच्छन्दता ने भारतीय समाज को एक सजीव अखाड़े में परिवर्तित कर दिया है जिसके कोई नियम अथवा विधान नहीं हैं. इस विधान-हीनता का एक मात्र कारण है न्यायपालिका की न्याय प्रदान करने में असफलता.      

क्यों है शासन इतना लापरवाह लोगों को न्याय जैसी मूलभूत सुविधा प्रदान करने में? इस कारण का विशेष विश्लेषण करना ही लक्ष्य है इन आलेख का. यही कारण साल रहा है और छल रहा है हम सब भारतीयों को. आइये झांके अपने समाज में और इसकी मानसिकता में ताकि कोई हल खोजा जा सके.

भारत लंबे समय तक गुलामी की जंजीरों में जकड़ा रहा है और यहाँ का जनमानस सब कुछ चुपचाप सहन करता रहा है. यहाँ तक कि जंगली जातियां, घुमक्कड़, चोर लुटेरे भी यहाँ अपना शासन ज़माने और बनाये रखने में सफल रहे हैं. क्या है इस सब का कारण? कहीं ऐसा तो नहीं कि ऊपर के प्रश्न और इस प्रश्न का उत्तर एक ही हो. जी हाँ, निश्चित रूप से उत्तर एक ही है.

भारतीय समाज की मानसिकता ही इसका कारण है जिसमें चिंतन की क्षमता शून्यस्थ हो गयी है, बस जो परोसा जाता है, किसी ऊपर वाले द्वारा चाहे वह स्वयं को ईश्वर कहे अथवा शासक, बस उसी को सहर्ष स्वीकार कर लिया जाता है, पूरे सहिष्णु भाव के साथ. यह मानसिकता जन-जन में अन्दर तक पैठ गयी है और यह जिज्ञासा भी कभी नहीं होती कि ऊपर वाले ने जो आदेश दिया है वह उचित भी है अथवा नहीं. इसी मानसिकता का लाभ उठाया जाता रहा है यहाँ के उत्पीड़क शासकों द्वारा विगत २००० वर्षों से आज तक.

इस कलुषित मानसिकता को मैं नाम देना चाहूँगा - मनोवैज्ञानिक शासन कराये जाने की सतत अतृप्त इच्छा. स्वयं बस शासित बने रहना ही यहाँ समाज का धर्म है क्योंकि शासन से मुक्त होने का अर्थ होता है स्वयं अपने पैरों पर खड़े होकर अपने जीवन दायित्वों का निर्वाह करना. यह भारतीय मानसिकता के लिए दुष्कर लगता है, इसलिए यह सदैव किसी ऊपर वाले के आश्रय में बने रहना चाहती है. इस आश्रय के लिए आत्मसम्मान, स्वाभिमान, आत्मविश्वास आदि सभी प्राकृत मानवीय गुणों को तिलांजलि दे दी जाती है.

इसी आश्रित मानसिकता का लाभ उठाया है अनेक राजनेताओं ने जो स्वयं को कभी ईश्वर के अवतार घोषित कर शासन करते रहे हैं तो कभी ईश्वर पाने के माध्यम, कभी धर्मगुरु बनकर सामने आते हैं तो कभी कर्मकांड करने वाले वामन. ये बस आश्रय प्रदान कर दायित्वों से मुक्ति का आश्वासन देते रहे हैं और शासन करते रहे है जन-मानस पर - कभी राजनैतिक तो कभी मनोवैज्ञानिक. ये चाहे कितने भी अत्याचार करें, कितने भी व्यभिचार और दुष्कर्म करें, जनमानस इनके विरुद्ध कोई स्वर सुनने को प्रस्तुत नहीं होता क्योंकि ये ही इसके मनोवैज्ञानिक खोखलेपन में आश्रयदाता होते हैं.

जनमानस में स्वयं चिंतन की क्षमता नहीं है उसे चिन्तक करने के लिए किसी न किसी ऊपर वाले की अपरिहार्य आवश्यकता होती है. यही इस समाज की परंपरा बन गयी है और इस या अन्य किसी परंपरा के विरुद्ध यह निर्बल जनमानस कुछ सुनने को तैयार नहीं होता. बस परम्पराओं का अनुपालन हे यहाँ का धर्म है जिसने इस देश में घोर विषमताएं उत्पन्न की हैं और वे सब एक दंगल के रूप में चारों ओर फ़ैली दिखाई दे रही हैं.