शुक्रवार, 29 जनवरी 2010

धर्म और भक्ति का नशा

भारतवासियों को सर्वाधिक दुष्प्रभावित किया है भक्तिभाव ने और दुष्टों ने इसका सतत लाभ उठाया है उनकी कमाई पर वैभव-भोग के लिए. ईश्वर और उसकी भक्ति से लोग इतने अधिक आतंकित रहे हैं कि दुष्टों ने अपने सिरों पर ईश्वरीय और अन्य दिव्य ताज रख-रख कर उनकी बुद्धि को विकसित होने से पूरी तरह प्रतिबाधित किया हुआ है. इसी कारण से इस देश पर लगभग २००० वर्षों तक चोर, डकैत और लुटेरे शासन करते रहे और उनके विरुद्ध किसी ने सर नहीं उठाया. स्वतन्त्रता के बाद भी लगभग इन्ही वर्गों के भारतीयों ने राजनैतिक सत्ता पर अपने अधिकार किया हुआ है और लोग सब सहन कर रहे हैं - उनके मस्तिष से भक्ति-भाव का नशा उतरता ही नहीं. शासक चाहे कुछ भी करते रहें, वे सब सहन करते जाते हैं.

भक्ति का यह नशा बच्चे को अपने माता-पिता के संस्कारों से जन्म से पहले ही प्राप्त होने लगता है और जन्म लेने पर समाज के प्रत्येक स्तम्भ से और जीवन के प्रत्येक मोड़ पर इसी नशे को परिपक्व किया जाता रहता है. उसे स्वतंत्र रूप से चिंतन कर अपना मार्ग चुनने का कोई अवसर दिया ही नहीं जाता.

पुनर्जागरण से पूर्व यूरोपे की भी कुछ ऐसी ही स्थिति थी जहाँ प्रत्येक बुद्धि-विसंगत बात को verbum dei अर्थात ईश्वरीय शब्द बताकर बुद्धि को अवरोधित कर दिया जाता था. इस पर भी कुछ साहसी चिंतकों ने नए सिरे से सोचने की परम्परा विकास्ल्ट करते हुए अनेक वैज्ञानिक शोध किये और इस प्रकार मानव जाति को वैज्ञानिक पथ पर अग्रसरित किया. विगत ३०० वर्षों के इन वैज्ञानिक प्रयासों का भारतीयों ने लाभ तो उठाया है किन्तु कभी भी इस प्रकार के चिंतन को नहीं अपनाया. इस कारण से भारत में वैज्ञानिक शोध और विकास कार्य नगण्य ही हुए हैं. और जो भी हुए हैं, वे भारत भूमि एवं इसकी परम्पराओं पर आधारित न होकर बाहरी प्रेरणाओं से हुए हैं.

भारतीयों के मस्तिष्कों पर भक्तिभाव का यह दुश्चक्र्व्यूह इतना अधिक हावी हो गया है कि वे प्रत्येक नव-चिंतन प्रयास को अपने दूषित भावात्मक कुठाराघातों से शैशव अवस्था में ही कुंठित कर देते हैं. इस प्रकार ये भक-भावी स्वयं तो लोई चिंतन करते ही नहीं, किसी अन्य को भी करने से प्रतिबंधित करते रहते हैं. सतत रूप में कुटिल लोगों और से पोषण पाता हुआ यह चक्रव्यूह इतना अधिक सशक्त हो गया है कि यहाँ किसी नवाचार के लिए कोई स्थान शेष नहीं रह गया है. इस चक्रव्यूह से ही पोषण पा रहे हैं शासकों, प्रशासकों और समाज के तथाकथित पथप्रदर्शकों के दुष्कर्म जो बेरोकटोक किये जा रहे हैं.


इस दुश्चक्र के माध्यम से देश के परिश्रमी एवं भोले-भाले लोगों का खून चूंसा जा रहा है. उन्हें स्वास्थ, शिक्षा और न्याय से वंचित रखा जा रहा है, देश की इस ६० प्रतिशत से अधिक जनसँख्या के खून-पसीने की कमाई पर देश के शासन-प्रशासन से जुडी केवल १५ प्रतिशत जनसँख्या वैभव भोग रही है. शेष २५ प्रतिशत जनसँख्या समाज की पथ-प्रदर्शक बनकर उसका सर प्रत्येक ईंट-पत्थर के समक्ष झुकवाते हुए, उसको धर्म, जाति और सम्प्रदायों के नाम पर विभाजित करते हुए, उसको सहिष्णुता का पाठ पढ़ाते हुए, उसको नित्यप्रति मृत्यु, भाग्य, ईश्वर आदि के भय से आतंकित करते हुए उसका मनोवैज्ञानिक पतन करने में लगी हुई है ताकि समाज का कोई अंग सर उठाने योग्य ही नहीं रहे. इस प्रकार ये समाज के तथाकथित अग्रणी भी शासन तंत्र के साथ सांठ-गाँठ कर दूषित शासन तंत्र का पोषण एवं जनता का शोषण कर रहे है.  

आज देश के जनसाधारण की स्थिति १९३८ के फ़्रांस के जनसाधारण से कहीं अधिक बदतर है, जब वहां रक्त-रंजित जनक्रांति हुई थी और शासन तंत्र में व्यापक परिवर्तन किये गए थे. किन्तु भारत में ऐसी कोई संभावना उदित नहीं हुई है.  

शनिवार, 23 जनवरी 2010

बौद्धिक जनतंत्र की प्राथमिकता तीन - न्याय

बौद्धिक जनतंत्र की तीसरी प्राथमिकता सभी को निःशुल्क त्वरित न्यायप्रदान करना है जो स्वस्थ एवं शिक्षित नागरिकों के सुखी जीवन के लिए अनिवार्य है. स्वतंत्र भारत के के ६० वर्षों से अधिक की अवधि में न्याय उपलब्धि अधिक से अधिक दुर्लभ होती जा रही है, जो शासन के लिए शर्मनाक है.


न्याय की त्वरित उपलब्धि न्याय प्रक्रिया का अभिन्न अंग है. अतः बौद्धिक जनतंत्र में प्रत्येक न्यायालय के लिए प्रत्येक विवाद में तीन माह की अवधि में न्याय प्रदान करना अनिवार्य किया गया है जिसका उत्तरदायित्व सम्बद्ध न्यायाधीश का निर्धारित किया गया है. ऐसा न होने पर न्यायाधीश को इस सेवा के अयोग्य  ठहराकर पद मुक्त किये जाने का प्रावधान है. 

यदि देश अथवा समाज में अन्याय न हो तो किसी भी नागरिक को न्याय की आवश्यकता नहीं होगी, और देश अथवा समाज की व्यवस्था का दायित्व शासन का होता है. अतः अन्यायों को रोकना शासन का दायित्व है. यदि शासन इसमें असफल रहता है तो ही नागरिकों को न्याय माँगने की आवश्यकता होती है. नागरिकों को न्याय प्रदान करने के लिए उनसे किसी शूल की मांग किया जाना स्वयं एक अन्याय है. अतः बौद्धिक जनतंत्र में निःशुल्क न्याय प्रदान करना शासन का निर्धारित दायित्व है क्योंकि न्याय की आवश्यकता शासन दोष से ही व्युत्पन्न होती है. 

न्याय का अर्थ होता है दंड व्यवस्था, जिस के लिए बौद्धिक जनतंत्र में कुछ विशिष्ट प्रावधान हैं -
  1. प्रकृति कारण-प्रभाव सिद्धांत पर कार्य करती है जिसमें प्रत्येक कारण का प्रभाव अवश्य होता है, अर्थात कोई भी कारण प्रभावहीन अथवा क्षम्य नहीं होता. बौद्धिक जनतंत्र की न्याय व्यवस्था भी इसी सिद्धांत पर कार्य करती है, तदनुसार कोई भी अपराध क्षम्य नहीं होगा. 
  2. अपराधी को दंड उसके द्वारा किये गए अपराध के अनुसार न दिया जाकर समाज में उसके दायित्व और अधिकार के अनुरूप निर्धारित है. यथा यदि कोई निम्न वर्गीय राज्यकर्मी रिश्वत लेता है तो उसे अल्प दंड दिया जायेगा किन्तु यदि ऐसा ही अपराध कोई उच्च पदासीन व्यक्ति करता है तो उसे इसके लिए अत्यधिक कठोर दंड दिया जायेगा. 
  3. न्यायाधीश समाज के विशिष्ट बुद्धिसम्पन्न एवं अधिकृत व्यक्ति होते हैं अतः उनका दायित्व भी सर्वाधिक होता है. अतः उनसे सर्वाधिक अपेक्षाएं की जाती हैं. यदि किसी न्यायाधीश का न्यायादेश उच्चतर न्यायाधीश द्वारा निरस्त अथवा उलटा जाता है तो यह पूर्व न्यायाधीश की अक्षमता मानी जायेगी और उसे न्याय करने के अयोग्य घोषित किया जाकर पदमुक्त किया जायेगा. साथ ही उच्चतर न्यायाधीश को पूर्वादेश को निरस्त किये जाने के विस्तृत कारण देने होंगे.
  4. न्यायालयों के न्याय-आदेशों पर समाज अथवा जन-माध्यम में खुली चर्चा की जा सकेगी ताकि समाज उनकी कार्य कुशलता की परख करता रहे तथा वे स्वयं भी सजग रहें. इसके साथ ही न्यायाधीशों के कोई विशेषाधिकार नहीं होंगे और उन्हें अपने प्रत्येक आदेश का अधर सिद्ध करना होगा. 
  5. बौद्धिक जनतंत्र मृत्युदंड का पक्षधर है और इसे अपराध रोकने के लिए आवश्यक मानता है. 
इस प्रकार बौद्धिक जनतंत्र समाज में अपराधों को ही नहीं, अपराध प्रवृतियों को रोकने के कारगर उपाय करने के लिए कृतसंकल्प है. 

कृष्ण की शिक्षा-दीक्षा

प्रचलित जानकारी के अनुसार कृष्ण की शिक्षा-दीक्षा संदीपनी नामक आश्रम में हुई, किन्तु यह कहीं उल्लेख नहीं मिलता कि यह कब हुई क्योंकि वह तो ज्ञात कथाओं में सभी समय खेलकूद और षड्यंत्रों में लिप्त रहता हुआ पाया जाता है. उसके गुरुजनों के नामों के बारे में भी कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है. इस विषय में जो जानकारी मुझे उपलब्ध हुई है वह इस प्रकार है.

कृष्ण के बालपन के समय ही विशेषज्ञों का एक दल प्लेटो की अकादेमी से आकर आज श्रीलंका कहे जाने वाले द्वीप पर ठहरा जो उस समय निर्जन था. यही स्थान कृष्ण की शिक्षा-दीक्षा का संदीपनी आश्रम था. यह दल कृष्ण को बचपन से ही छल-कपट के तौर-तरीके सिखाता था जिससे कि वह अत्यधिक कुशल छलिया बन सके. इसी कारण से अनेक स्थानों पर कृष्ण को छलिया कहा गया है. कृष्ण का सबसे शक्तिशाली शास्त्र उसका सुदर्शन चक्र था जो उसके सीधे हाथ की तर्ज़नी उंगली में बंधा एक चाकू था. चाकू शब्द चक्र का ही सरल रूप है.

इस चाकू के उपयोग से कृष्ण अपने मित्र और शत्रुओं के अंडकोष काट दिया करता था. शास्त्रों में इस क्रिया को 'वध' कहा गया है तथा जिसका भ्रमित हिंदी अर्थ हत्या लिया जाता है. इसका संकेत इस तथ्य से भी मिलता है कि लोकभाषा में पशुओं के अंडकोष काटकर उन्हें नपुंसक बनाने के लिए 'वधिया करना' कहा जाता है. महाभारत में 'वध' शब्द का उपयोग प्रायः उन्ही प्रसंगों में है जो कृष्ण से सम्बंधित हैं.

कृष्ण ने अपने यदु वंश के अपने सभी मित्रों को इस क्रिया से नपुंसक बना दिया था ताकि उनकी कामुक पत्नियाँ विवश होकर कृष्ण की प्रेयसी अथवा दीवानी बन कर रहें.जिन्हें गोपियाँ कहा जाता है. राधा के साथ किया गया उसका प्रेम तथा बाद में परित्याग का छल भी इसी के अंतर्गत किया गया. भारतीय जन-मन में इस छल को प्रेम के रूप में ठूंसा गया है तथा कृष्ण-भक्ति में अंधे व्यक्ति इस की प्रशंसा करते हैं तथापि अपनी पुत्रियों अथवा बहुओं को ऐसा प्रेम करने से दूर रखते हैं. संस्कृत के एक बहु-प्रतिष्ठित ग्रन्थ 'गीत गोविन्द' में राधा-कृष्ण प्रेम को महिमा मंडित किया गया है जिसमें कृष्ण मिलन के समय राधा की जंघाओं की कामुक हलचल भी वर्णित की गयी है. विश्व की किसी अन्य संस्कृति में पर-स्त्री गमन को इस प्रकार महिमा-मंडित नहीं किया गया. 

उसने अपने शत्रुओं के वध किये अथवा इसका प्रयास किया ताकि वे अपना शेष जीवन दुखों में व्यतीत करने को विवश हों. इस प्रकार कृष्ण बचपन से ही एक निष्ठुर 'पर-संतापी' (saddist ) के रूप में प्रशिक्षित किया गया और उसका यह प्रशिक्षण पूरी तरह सफल सिद्ध हुआ.

वध करने की प्रक्रिया के अतिरिक्त भी कृष्ण को सभी प्रकार के शारीरिक तथा मानसिक छल करने के लिए प्रशिक्षित किया गया जो उसके जीवन चरित में सर्वत्र स्पष्ट दिखाई देते हैं. इन छलों में स्वयं को बार बार दिव्य घोषित करना भी था जो वह प्रायः किया करता था. इसके विपरीत भारत में प्रचलित अन्य किसी दिव्य विभूति, जैसे राम, ने कभी स्वयं को दिय घोषित नहीं किया.

कृष्ण का एक परम मित्र सुदामा कहा जाता है जो उसका गुणवाचक नाम है. सुदामा शब्द लैटिन के शब्द 'sodoma से उद्भव हुआ है जिसका अर्थ 'समलैंगिक मैथुन'' है जो बाइबिल में उल्लिखित एक नगर सोडोम के नागरिकों में प्रचलित थी. बाइबिल के अनुसार यह नगर लोगों के इसी दोष के कारण नष्ट हो गया. इससे यह भी स्पष्ट है कि कृष्ण भी समलैंगिक मैथुन का अभ्यस्त था.    .   



सोमवार, 18 जनवरी 2010

वर्ण व्यवस्था के बारे में आशंकाएं और उत्तर

इस संलेख के सम्मानित पाठकों ने अंतिम आलेख 'वर्ण व्यवस्था की सच्चाई' पर कुछ संशयात्मक टिप्पणीयाँ की हैं जिनके विस्तृत उत्तर देना आवश्यक है ताकि भारत की ऐतिहासिक सच्चाईयों का निरूपण सरल, सहज और कारगर हो सके. यह टिप्पणी इस प्रकार है -  

"आपने बात-बात पर लैटिन, हिब्रू शब्दों का प्रयोग करके इतिहास को अपने हिसाब से समझने/समझाने की वैसी ही कोशिश की है जैसा अंग्रेजों ने 'आर्य' शब्द का निकालकर भारत के इतिहास को कलुषित करने के लिये किया था (जो अब पूर्णत: झूठ साबित हो चुका है)

"मेरे मन में भी कुछ प्रश्न हैं जो आप द्वारा उठाये गये प्रश्नों से कम महत्वपूर्ण नहीं हैं-

१) क्या वर्ण-व्यवस्था अपने 'पूर्ण रूप' में कभी लागू हो पायी थी?

२) वर्ण व्य्वस्था किसी आधुनिक नियम की भाँति किसी एक दिन लागू कर दी गयी या यह कई शताब्दियों तक धीरे-धीरे और बहुत ही धुंधले रूप में प्रकट हुई?

३) यदि यह किसी धर्माचार्य या राजा द्वारा प्रचलित की गयी तो किसको ब्राह्मण, किसको क्षत्रिय आदि माना गया? क्या ऐसा करना व्यावहारिक लगता है?

४) यदि यह शनै:-शनै: क्रमिक विकास (इवोलूशन) जैसा हुआ तो लोगों को इसमें आपत्ति क्या है? यह तो प्राकृतिक है।"

मेरे स्पष्टीकरण :
भाषा प्रसंग
भारत की सभी भाषाएँ यूरोपीय भाषा परिवार की सदस्य हैं और इस परिवार की सभी बाषाओं के उद्भव परस्पर सम्बंधित हैं जैसा कि अन्य भाषा परिवारों में है. इस प्रकार लैटिन, ग्रीक, हेब्रू आदि भाषाएँ हमारी प्राचीन भाषाओं को समझाने में सहायक हैं. इसके अतिरिक्त ये भाषाएँ विश्व की प्राचीनतम विकसित भाषाएँ हैं जिनसे इस परिवार की सभी भाषाएँ विकसित हुई हैं. इनका आश्रय लेना हमारे लिए इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि हमारे वेदों और शास्त्रों की भाषा आधुनिक संस्कृत से एकदम भिन्न है और उस भाषा के बारे में हमेंबहुत अधिक ज्ञान नहीं है. वेदों और शास्त्रों के अब तक प्रचलित सभी अनुवाद आधुनिक संस्कृत के आधारित हैं और वे हमें इतिहास का कुछ ज्ञान कारन के स्थान पर भ्रम और संशयों को जन्म देते रहे हैं. इस कारण से सभी अनुवादों में भी परस्पर भारी भिन्नता पाई जाती है.

श्री अरविन्द द्वारा रचित पुस्तक के हिंदी अनुवाद 'वेद रहस्य' को पढ़ने से मुझे ज्ञात हुआ कि वेदों और शास्त्रों में उपयुक्त शब्दावली लैटिन और ग्रीक शब्दावली से बहुत अधिक मेल खाती है. इससे मेरा निष्कर्ष यह है कि इन ग्रंथों की शब्दावली लैटिन, ग्रीक आदि की देवानागारीकृत शब्दावली ही है  इसकी पुष्टि तब हुई जब मैंने अनेक अंशों के अनुवाद इस शब्दावली के आधार पर किये.

विदेशी भाषाओं के आश्रय का तीसरा कारण यह है कि भारत पर अनेक आक्रमण हुए है, अनेक जातियां यहाँ आकर बसी हैं, और इस देश को लम्बे समय तक गुलाम बनाकर रखा गया है. इन कारणों से यहाँ की संस्कृति, ग्रंथों के अनुवाद्फ़ आदि अशुद्ध किये जाने की संभावना बहुत अधिक है, जो वेदों, शास्त्रों के हिंदी अनुवादों से स्पष्ट भी है.

इन सभी कारणों से प्राचीन ग्रंथों के नए सिरे से अनुवाद करने की अतीव आवश्यकता है यदि हम अपना वास्तविक इतिहास जानना चाहें. इस संलेख के माध्यम से भारत के वास्तविक इतिहास को जानने का प्रयास किया जा रहा है. यह एक विशाल और जटिल कार्य है, संदेह और संशय होने स्वाभाविक हैं, औउर वास्तविक के उजागर होने के लिए धैर्य की अतीव आवश्यकता है.   

आर्य विवाद
इस बहु-चर्चित विवाद के बारे में मैं अभी यही कहूँगा कि इसकी सच्चाई अभी सामने आयी ही नहीं है जो इस संलेख में प्रसंग आने पर स्पष्ट रूप से दर्शाई जायेगी. अभी इस बारे में कुछ कहना अप्रासंगिक होगा और विषय-वस्तु को क्रमानुसार आगे बढाने में बाधक होगा.

वर्ण व्यवस्था
वर्ण व्यवस्था का प्रथम उल्लेख मनुस्मृति में है जो मूलतः मानव जाति के समाजीकरण और समाज में कार्य विभाजन का मार्गदर्शक है. चाणक्य महोदय ने इसी व्यवस्ठ को संक्षेप में एक सूत्र के रूप में प्रस्तुत किया. कोई भी सामाजिक सिद्धांत पूर्ण रूप से लागू होने में समय लगता है. भारत चूंकि अधिकाँश समय गुलाम रहा इसलिए यह संभव है कि यह पूरी तरह कभी लागू हुआ ही न हो. शासक वर्ग में समाज को सदैव अपने हित में ही गठित करता रहा है और भारत भी इसका अपवाद नहीं रहा है. इसलिए भारत के समाज में अत्यधिक विकृतियाँ समाहित होती चली गयीं जिन सबका दायित्व वर्ण व्यवस्था पर थोपा जाता रहा.
वर्ण व्यवस्था का केवल सूत्रीकरण ही किया गया जो एक बार ही हुआ किन्तु यह कभी पूरी तरह लागू न किया जाकर इसके स्थान पर सामजिक विकृतियाँ ही पनपायी गयीं जिनमें से अनेक आज तक प्रचलित हैं.

ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि
जैसा कि पहले स्पष्ट किया जा चुका है, ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश्वर तीन भाइयों ने भारत निर्माण कार्य आरम्भ किया और इसके लिए अपने-अपने कार्य क्षेत्र क्रमशः सृजन, अर्थ व्यवस्था, तथा रक्षा क्रमशः निर्धारित किये. इन्हीं तीनों के अनुयायी कृमशः ब्राह्मण, वैश्य और क्षत्रिय कहलाये. यदि यह कार्य विभाजन स्वेच्छा से लागू किया जाता रहता तो इसमें कोई दोष नहीं था, किन्तु स्वार्थी तत्वों ने इसे स्वेच्छाधारित न रखकर इसे जन्म आधारित बना दिया जिससे समाज में विकृतियाँ उत्पन्न हुईं.

जो समाज गुलाम बनाकर रखे जाते हैं, उनमें कुछ भी प्राकृत रूप में विकसित नहीं होने दिया जाता और शासक वर्ग उनकी जीवन शैली और संस्कृति अपने स्वार्थ पूर्ति हेतु निर्धारित करता है. भारत की सामजिक विक्रितीय यहाँ की लम्बी गुलामी की देनें हैं.

शनिवार, 16 जनवरी 2010

वर्ण व्यवस्था की सच्चाई

 भारत में समाज को व्यवस्थित करने और कार्य विभाजन के लिए वर्ण व्यवस्था लागू की गयी जिसका आरंभिक विवरण मनुस्मृति में तथा बाद में विष्णु गुप्त चाणक्य द्वारा अपने ग्रन्थ 'अर्थशास्त्र' में प्रकाशित किया गया. चाणक्य महोदय के शब्दों में -
स्वधर्मो ब्राह्मनस्याध्ययनमध्यापनं यजनं याजनं दानं प्रतिग्रहश्चेती. क्षत्रियस्याध्ययनं यजनं दानं शस्त्राजीवो भूतरक्षणं च. वैश्यस्याध्ययनं यजनं दानं कृषिपाशुपाल्ये वनिज्या च. शूद्रस्य द्विजाति शुश्रूषा वार्ता कारूकुशीलवकर्म च.
इस ग्रन्थ का प्रचलित हिंदी अनुवाद (श्री वाचस्पति गैरोला, चौखम्बा विद्याभवन) इस प्रकार है -
ब्राह्मण का धर्म अध्ययन-अध्यापन, यज्ञ-याजन, और दान देना तथा दान लेना है. क्षत्रिय का है पढ़ना, यज्ञ करना, दान देना, शास्त्रों के उपयोग से जीविकोपार्जन करना और प्राणियों की रक्षा करना. वैश्य का धर्म पढ़ना, यज्ञ करना, दान देना, कृषि कार्य एवं पशुपालन और व्यापार करना है. इसी प्रकार शूद्र का अपना धर्म है कि वह ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य की सेवा करे; पशु-पालन तथा व्यापार करे; और शिल्प (कारीगरी), गायन, वादन एवं चारण, भात आदि का कार्य करे.
इस अनुवाद की कपट-पूर्ण विकृतियों पर ध्यान दीजिये-
  1. मूल पाठ्य में दानं प्रथम तीन वर्णों का धर्म कहा गया है किन्तु हिंदी अनुवाद में केवल ब्राह्मण के लिए इसका अर्थ 'दान देना तथा दान लेना' किया गया है, शेष दो वर्णों के लिए इसका अर्थ केवल दान देना है. 
  2. मूल संस्कृत में शूद्र धर्म द्विजाति सुश्रुषा है जबकि हिंदी अनुवाद में इसके लिए तीनों वर्णों की सेवा करना कहा गया है.
  3. खेती, पशुपालन तथा व्यापार उसके लिए हिंदी अर्थों में बिना सन्दर्भ के ठूंसे गए हैं. 
इनसे स्पष्ट होता है कि अनुवादक मूल मंतव्य के अतिरिक्त अपना मत भी अनुवाद के माध्यम से अनधिकृत रूप से व्यक्त कर रहे हैं जो ब्राह्मणों को दान लेने का अधिकारी तथा शूद्रों को वैश्य धर्म में सम्मिलित करता है. शास्त्रों के साथ आधुनिक ब्राह्मण वादियों ने इसी प्रकार के छल कर उन्हें विकृत करके ही जन-साधारण के समक्ष प्रस्तुत किया है. इस प्रकार के छलों से ही भारत के इतिहास को विकृत किया गया है जिसका संशोधन किया जाना आवश्यक है. आइये हम इस विषय पर तर्कपूर्ण दृष्टिकोण से विचार करते हुए उक्त वर्ण व्यवस्था का सही अनुवाद करें.

सबसे पहले ब्राह्मण के बारे में - ब्रह्मा रचनाकार थे और उनके अनुयायी ब्राह्मण कहलाये जो रचनाकार ही थे. हिंदी शब्दावली के अनुसार अध्ययन और अध्यापन का अर्थ पढ़ना पढ़ाना है जो रचनात्मक कार्य नहीं हैं तो ये ब्राह्मण धर्म कैसे हो सकते हैं. इसी प्रकार दान देना तथा लेना किसी प्रकार भी रचनात्मक कार्य नहीं कहे जा सकते और ब्राह्मण धर्म नहीं हो सकते. यज्ञ का वर्तमान प्रचलित अर्थ अग्नि में घी एवं अन्य सामग्री जलाना लिया जाता है. ऐसा करने से यदि वातावरण शुद्ध होता है तो श्होद्र ही इससे वंचित क्यों किये गए हैं जबकि उन्हें तो वातावरण शुद्धि की सर्वाधिक आवशकता रहती है. इस सबसे यही प्रतीत होता है कि चाणक्य महोदय के शब्दों को समझाने के कोई प्रयास न किये जाकर अनुवादक ने अपने मत थोपे हैं. आइये, सही अनुवाद पाने के प्रयास करें. किन्तु पहले कुछ शब्दों की व्याख्या करें.

अध्ययन-अध्यापन
लैटिन भाषा का शब्द है aedis जिसका समतुल्य हिंदी शब्द 'भवन' हैं. लैटिन भाषा शब्दों में अंत के भागों -is, -us तथा ग्रीक भाषा के -os का उच्चारण नहीं होता. भवन बनाना उच्च कोटि का रचनात्मक कार्य है अतः यह ब्राह्मण का निर्धारित दर्म हो सकता है. इससे स्पष्ट होता है कि शास्त्रीय शब्द 'अध्य' का अर्थ 'भवन' है, जिसके आधार पर अध्ययन-अध्यापन का अर्थ 'भवनों में रहना और उनका निर्माण करना' होता है.  यहाँ यह स्पष्ट कर दें कि उस समय बहुत अल्प जन समुदाय ही भवनों में रहते थे, अधिकाँश जन-समुदाय जंगलों में भ्रमणकारी जीवन व्यतीत करते थे. इस दृष्टि से भवनों में रहने का विशेष उल्लेख किया गया है.

यजन-याजन 
दक्षिण भारतीय परम्परा में आज भी हिंदी के 'ज्ञ' को 'ज्न' उच्चारित किया जाता है, अतः यजन-याजन का हिंदी रूपांतर 'यज्ञ-याज्ञ' है. यज्ञ के बारे में बहुत भारी भ्रान्ति प्रचलित है. यज्ञ शब्द 'योग' से बना है जो जिसका अर्थ मिश्रित करना अथवा एक साथ मिलाना होता है. प्राचीन काल में अंग्रेजी भाषा का एक शब्द 'yogh था जो दो अक्षरों के योग के लिए उपयोग में लिया जाता था जो योग के उपर्युक्त अर्थ को पुष्ट करता है.
व्यक्तियों का समाज बनने के लिए बस्तियों - ग्राम और नगर - का बनाना आवश्यक होता है. उस समय समाज बनाना मानवता  विकास के लिए महत्वपूर्ण था जो केवल सभ्य जन-समुदाय ही करते थे. इस आधार पर यज्ञ-याज्ञ का अर्थ 'समाज में रहना तथा समाज बनाना' अर्थात 'बस्ती में रहना तथा बस्ती बनाना' सिद्ध होता है.

दान
आधुनिक तथाकथित ब्राह्मणों ने अपने स्वार्थ सिद्ध करने के लिए दान शब्द का दुरूपयोग बहुत अधिक किया है. हिंदी भाषा परिवार की भाषा हेब्रू में दान शब्द का अर्थ 'न्याय करना' है.जो एक अति महत्वपूर्ण धर्म होने की संभावना भी रखता है. अतः यही दान शब्द का सही अर्थ है जो ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वश्य वर्णों द्वारा अन्यों के प्रति न्यायपूर्ण व्यवहार किया जाना निर्धारित करता है.

प्रतिग्रह
लैटिन भाषा के दो शब्द 'granum ' तथा 'graes' हैं जिनके अर्थ क्रमशः 'बीज' तथा 'घास' हैं जो परंपरागत रूप में भोजन के रूप में उपयोग में लिए जाते रहे हैं. अतः प्रतिग्रह का अर्थ 'खाद्यान्न और शाक-भाजी का उपयोग करते हुए भोजन बनाना' सिद्ध होता है, जो लगभग ५० वर्ष पहले तक अनेक ब्राह्मणों का निर्धारित कार्य था.

शस्त्र 
शस्त्र शब्द का वही अर्थ है जो हिंदी में 'शब्द' का है. प्राचीन काल में शब्दों के उपयोग से आजीविका चलने वाले लोग राजाओं के आश्रित हुआ करते थे जिन्हें भात कहा जाता था. युद्ध क्षेत्र में सेना उत्साह बढ़ने में उनका विशेष योगदान हुआ करता था.


भूत 
भूत शब्द लैटिन के बोटाने से उद्भूत है जिसका अर्थ पेड़-पौधे है.
 

कृषि
वैश्यों का एक धर्म कृषि कहा गया है, किन्तु वैश्य परम्परागत रूप में कभी खेती में लिप्त नहीं रहे और ना ही आज हैं. उनकी जीवनचर्या भी खेती के योग्य नहीं रही है. अतः कृषि शब्द का अर्थ खेती नहीं है. लैटिन भाषा में कृषि के निकटस्थ शब्द cratia (उच्चारण क्रशिया) तथा crucea पाए जाते हैं जिनमें से प्रथम का अर्थ 'शासन करना' तथा दूसरे का अर्थ 'क्रोस' है जो उस समय अपराधियों को दंड देने में उपयोग किया जाता था. शासन करना तथा दंड देना सम्बंधित कार्य हैं. चाणक्य महोदय के ग्रन्थ अर्थशास्त्र लिखे जाते समय गुप्त वंश का शासन चन्द्रगुप्त मोर्य के सम्राट बनने से आरम्भ हो चुका था. अतः इस ग्रन्थ में शासन करना वैश्यों का निर्धारित धर्म कहा गया है.

पाशुपाल्य
पशुपालन खेती से निकट सम्बन्ध रखता है. इसलिए उपर्युक्त चर्चा के आधार पर पशुपालन भी वैश्यों का धर्म सिद्ध नहीं होता. लैटिन भाषा में passus शब्द का उच्चारण पाशु तथा अर्थ 'यात्रा' है जो वैश्यों के परम्परागत धर्म वाणिज्य से गहन सम्बन्ध रखता है. अतः पाशुपाल्य शब्द का अर्थ 'यात्रा करना' सिद्ध होता है न कि पशुपालन.

द्विजाति शुश्रूषा
प्राचीन काल में सुश्रुत नामक महत्वपूर्ण चिकित्सक रहे हैं जिनके चिकित्सा संबंधी ग्रन्थ आज भी प्रचलित हैं. अतः शुश्रूषा शब्द का अर्थ सेवा न होकर चिकित्सा सिद्ध होता है. इसी आधार पर द्विज शब्द का अर्थ रोगी सिद्ध होता है. रोग की चिकित्सा व्यक्ति को दूसरा जन्म देने के समान होती है क्योंकि उस समय रोग अनेक लोगों की जान ले लेते थे.

कारुकुशीलवकर्म 
लैटिन शब्द carruca का अर्थ 'हल' अथवा 'हल चलाना' है जो खेती कार्य का प्रतीक हैं. लैटिन में ही carnis तथा caro शब्दों के अर्थ 'मां'स' हैं जिसे चर्म के भाव में भी लिया जाता है. अतः उपरोक्त शब्द समूह में कारू दो भ्हवों में उपयुक्त किया गया है - एक कुशील के साथ तथा दूसरा कर्म के साथ. इस आधार पर पूरे शब्द समूह का अर्थ 'खेती करना तथा चर्म संबंधी कार्य करना' सिद्ध होता है. चर्म कार्य शूद्रों का परम्परागत कार्य रहा है.

इन सब्द व्याख्याओं के आधार पर चाणक्य महोदय के उक्त सूत्र वर्ण धर्म इस प्रकार निर्धारित करता है -

ब्राह्मण का अपना धर्म भवन में रहना तथा भवन बनाना, बस्ती (समाज) में रहना तथा बस्ती बसाना, सभी के साथ न्यायपूर्ण व्यवहार करना तथा भोजन पकाना है. क्षत्रिय धर्म भवन में रहना, बस्ती में रहना, सभी के साथ न्यायपूर्ण व्यवहार करना, तथा शब्दों के उपयोग से उत्साह वर्धन कर जीविकोपार्जन करना तथा पेड़-पौधों की रक्षा करना है. वैश्य धर्म भवन में रहना, बस्ती में रहना, सभी के साथ न्यायपूर्ण व्यवहार करना, शासन करना, यात्राएं करना तथा व्यापार करना है. शूद्र धर्म रोगियों की चिकित्सा करना, सन्देश वाहक के रूप में कार्य करना, खेती करना तथा चमड़े का कार्य करना है. 

इस आलेख के अंत में 'ब्राह्मण' का परिचय भी प्रासंगिक है. उक्त वर्ण धर्म निर्धारण यह सिद्ध करता है ब्राह्मण धर्म मुख्यतः भोजन, भवन और बस्तियों का निर्माण करना है जो सभी रचनात्मक कार्य हैं और ब्रह्मा की रचनात्मकता से सम्बन्ध रखते हैं. आधुनिक युग में जो समुदाय स्वयं को ब्राह्मण कह रहे हैं, उन्होंने भोजन पकाने के अतिरिक्त कोई अन्य निर्धारित कार्य कभी नहीं किया है. अतः ये ब्राह्मण कभी नहीं रहे हैं और न आज हैं. ग्रामीण अंचलों में इन्हें वामन कहा जाता है. दूसरी ओर कृष्ण ने छल-कपट के लिए वामन का रूप धारण किया था. यह सिद्ध करता है कि आधुनिक समुदाय जो स्वयं को ब्राह्मण कहते हैं, वस्तुतः वे 'वामन' हैं.   .     




भारत में जनतंत्र का एक नमूना

अभी-अभी उत्तर प्रदेश में विधान परिषद् के सदस्यों के चुनाव संपन्न हुए हैं जिनमें बहुजन समाज पार्टी ने लगभग सभी स्थानों पर विजय प्राप्त की है. जन संचार माध्यम का कहना है कि उत्तर प्रदेश इन चुनावों में बहुजन समाज पार्टी की अप्रत्याशित विजय उसकी जनप्रियता का प्रतीक है जबकि तथ्य इसके विपरीत हैं.


इन चुनावों में ग्रामसभा प्रधान और खंड विकास समिति सदस्य मताधिकारी थे. बहुजन समाज पार्टी के प्रत्याशियों ने इन मतों को खुले आम खरीदा है और विजय प्राप्त की है. मेरे गाँव के प्रधान और समिति सदस्य ने २५,००० प्रत्येक प्राप्त किये और बसपा प्रत्याशी को अपने मत दिए. सूचना है कि यही अन्य सभी स्थानों पर भी हुआ है.

मेरे क्षेत्र में दूसरा प्रत्याशी राष्ट्रीय लोकदल का था और धनबल में बसपा प्रत्याशी से पीछे नहीं था. उसने भी मुक्त हस्तों से धन का वितरण किया. बहुत से ऐसे मताधिकारी थे जिन्होंने विरोधी प्रत्याशी से धन लेकर भी अपने मत उसके पक्ष में नहीं दिए क्योंकि उन्होंने दोनों पक्षों से धन प्राप्त किया था. इसका एक विशेष कारण यह था कि चुनाव प्रक्रिया के दौरान राज्य शासन प्रशासन ने ग्राम प्रधानों के विरुद्ध अनियमितताओं के लिए कार्यवाही किये जाने के संकेत दिए थे जिससे ग्राम प्रधान दवाब में आ गए और बसपा के पक्ष में मत-विक्रय किये. इन परिस्थितियों में 'मतदान' शब्द का उपयोग किया जाना खुली बेईमानी होगी. 
चुनाव परिणामों पर विरोधियों ने तीखी प्रतिक्रियाएं की हैं और इसे जनतंत्र विरोधी आधी बताया है. किन्तु वे सब भी सत्ता प्राप्ति के बाद यही सब करते रहे हैं जो आज बसपा ने किया है. तो इसमें बसपा का ही क्या दोष है, यह तो भारतीय जनतंत्र की परम्परा है और इसे चुनावी विधान कहा जा सकता है.

मतों का विक्रय मताधिकारियों की विवशता भी थी क्योंकि उन्होंने भी अपने चुनावों में धन के बल पर ही विजय प्राप्त की थी जिसका बदला उन्हें लेना ही था. इस प्रकार धन के उपयोग से चुनाव जीतना एक चक्रव्यूह है जिसमें भारत का तथाकथित जनतंत्र बुरी तरह फंसा है, और किसी भी अर्थ में जनतंत्र नहीं रह गया है. जनतंत्र के नाम पर भारत में मतों का क्रय-विक्रय ग्राम-स्तर से लेकर संसद तक हो रहा है और सर्व-विदित है, तथापि सब चुप हैं और अनेक आनंदित हैं भारत में जनतंत्र की सफलता पर.

ऐसा है भारत का जनतंत्र जो पूंजीवाद से बहुत अधिक पूंजीवादी है. इसमें लिप्त राजनेता भृष्टता से अधिक भृष्ट हैं. इस खुली व्यवस्था पर भी हम भारतीय और भारतीय जन संचार माध्यम यह कहते नहीं अघाते कि भारत में जनतंत्र की जड़ें बहुत गहरी हैं. क्या इस देश की दुर्दशा इससे भी अधिक होना संभव रह गया है? फिर भी हम सुधारवादी दृष्टिकोण अपनाने से कतरा रहे हैं.

गुरुवार, 14 जनवरी 2010

बौद्धिक जनतंत्र की प्राथमिकता दो - शिक्षा

बौद्धिक जनतंत्र जन-शिक्षा को जन-स्वास्थ के बाद सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानता है, और इसके लिए समुचित व्यवस्था करता है. इन व्यवस्थाओं के पीछे लक्ष्य है - सभी को निह्शुक एवं एक-सम्मान शिक्षा पाने के अवसर प्रदान करना. लोग इसका पूरा लाभ उठाएं, इसके लिए शिक्षा की अह्वेलना करने वालों को मताधिकार से वंचित रखने का दंड.


बौद्धिक जनतंत्र शिक्षा के व्यवसायीकरण का घोर विरोधी है क्योंकि इसके माध्यम से देश का धनिक वर्ग ही शिक्षा गृहण कर पाता है और आगे बढ़ता रहता है, जबकि निर्धन-पिछड़ा वर्ग और अधिक पीछे की ओर धकेला जाता रहता है. इस प्रकार देश में अमीर-गरीब की खाई और अधिक गहरी होती जाती है जो सामाजिक कटुता और अपराधों का कारण बनाती है. यही भारत के तथाकथित जनतंत्र में किया जा रहा है.

समाज के प्रत्येक सदस्य को शिक्षा पाने के समान अवसर उपलब्ध कराने के लिए उच्चतम स्तर तक की शिक्षा जनता के लिए निःशुल्क व्यवस्था करना बौद्धिक जनतंत्र का दायित्व है. इसके लिए कक्षा ८ तक की शिक्षा प्रत्येक ग्राम स्तर पर, कक्षा १२ तक की शिक्षा ३ किलोमीटर के अंतर्गत, तथा स्नातकोत्तर शिक्षा प्रत्येक विकास खंड स्तर पर उपलब्ध  होगी, इसी प्रकार व्यावसायिक एवं तकनीकी शिक्षाओं के डिप्लोमा तक के स्तर के संस्थानं प्रत्येक जनपद मुख्यालय पर उपलब्ध होंगे. इससे उच्चतर शिक्षा के केंद्र विश्वविद्यालयों में होंगे जो ग्रामांचलों एवं उपनगरों में स्थापित किये जायेंगे त्ताकी छात्रों को प्राकृतिक वातावरण में शिक्षा पाने के अवसर प्राप्त हों.

बौद्धिक जनतंत्र समाज के किसी भी वर्ग के लिए शिक्षा के क्षेत्र में आरक्षण का पक्षधर नहीं है. किसी भी वर्ग को शिक्षा पाने में कठिनाई इसलिए नहीं होगी क्योंकि समाज के प्रत्येक वर्ग को रोजगार और आय के समुचित अवसर प्रदान करना भी बौद्धिक जनतंत्र का निर्धारित दायित्व है ताकि सभी सम्मानपूर्वक जीवनयापन कर सकें. इसमें इतना संशोधन अवश्य किया जा सकता है कि जो शिक्षाएं राष्ट्रीय उत्पादकता के लिए अनिवार्य हैं. उनमें छात्रों की रूचि बनाए रखने के लिए निःशुल्क हॉस्टल आदि की सुविधाएं प्रदान की जा सकती हैं, किन्तु ये सभी वर्गों को एक समान प्रदान की जायेंगी.

बुधवार, 13 जनवरी 2010

ऐतिहासिक सन्दर्भों की क्लिष्टताएं भाग 3

शब्दार्थ बदलकर किस तरह शास्त्रों के अर्थ बदले गए हैं, इसके लिए दो उदाहरण दिए जा रहे हैं -
१. एक शब्द है 'तृप्ति' जिसका अर्थ आधुनिक संस्कृत के अनुसार 'संतुष्टि' है. किन्तु वेदों और शास्त्रों में इस शब्द का अभिप्राय एकदम विपरीत है. यह शब्द लैटिन भाषा के शब्द 'turpitude ' का देवनागरी रूप है जिसका अर्थ 'अभाव' है. इस प्रकार वेद और शास्त्रों में आये इस शब्द का अर्थ 'संतुष्टि' लेने से आशय एकदम विपरीत हो जायेगा.
'तृप्ति' शब्द का ही द्रविड़ रूप 'तिरुपति' है जिसे दक्षिण भारत के एक देवता के नाम के लिए उपयोग किया जाता है जिसके दर्शन के लिए लाखों लोग तिरुपति नामक स्थान पर जाते हैं. मेरे एक सहकर्मी आन्ध्र प्रदेश के थे - श्री इ. एन. राव, वे कहा करते थे कि तिरुपति के बारे में एक किंवदंती प्रसिद्द है कि वहां कोई श्रद्धालु चाहे जितना भी धन लेकर जाये, वह वहां से खाली हाथ ही वापिस आता है. सभवतः यह किंवदंती सच न हो, किन्तु इसके प्रसिद्द होने का कुछ तो कारण होगा ही. मेरे विचार में यह किंवदंती तिरुपति शब्द का वास्तविक अर्थ प्रकट करने के लिए कभी प्रचलित की गयी होगी. जब जन-समुदाय भावावेश में सच्चाई से दूर भागता है तो उसे सत्य से परिचित कराने के लिए ऐसे मार्ग अपनाए जाते रहे हैं. इस किंवदंती से भी तिरुपति का अर्थ 'अभाव' सिद्ध होता है.
२. एक शब्द है 'शुभ' जो वेदों, शास्त्रों तथा आधुनिक संस्कृत एवं हिंदी में भी प्रचलित है. आधुनिक संस्कृत एवं हिंदी में इसका अर्थ है 'अच्छा' अथवा 'जिसकी उपस्थिति मात्र लाभकर हो' जबकि ऐसी कोई वस्तु नहीं होती जिसकी उपस्थिति लाभ या हानिकर हो. वस्तु की उपस्थिति का प्रभाव ही लाभकर या हानिकर हो सकता है.
वेदों तथा शास्त्रों में यह शब्द लैटिन भाषा के शब्द 'sophia ' से लिया गया है जिसका व्यापक अर्थ है - भाषा के उपयोग संबंधी कार्य जैसे लेखन, प्रवचन, शिक्षण, अध्ययन, चिंतन, आदि. फिलोसोफी शब्द भी इसी से बना है. अरबी और हिन्दुस्तानी में इसका समतुल्य शब्द सूफी है जिसका अर्थ भी वेदों और शास्त्रों के मूल मंतव्य से मेल खाता है. अतः वेदों एवं शास्त्रों में इसका अर्थ आधुनिक संस्कृत के अनुसार लेने से भाव में विकृति उत्पन्न होना स्वाभाविक है.

इस प्रकार शब्दार्थ परिवर्तन कर वेदों और शास्त्रों के मंतव्यों को विकृत किया गया है. यहाँ आश्चर्य यह है कि सभी मानते और जानते हैं कि वेदों और शास्त्रों की भाषा आधुनिक संस्कृत से भिन्न है तथापि जब इनके अनुवाद करते हैं तो आधुनिक संस्कृत के आधार पर ही करते हैं. यह या तो बुद्धिहीनता है अथवा जानबूझकर वेदों और शास्त्रों के मंतव्यों में विकृति उत्पन्न करना है. अभी तक मैंने कोई ऐसा अनुवाद नहीं देखा है जो आधुनिक संस्कृत के उपयोग पर आधारित न हो. इसलिए अब तक किये गए सभी अनुवादों को टाक पर रखकर इस कार्य को नए सिरे से की जाने की आवश्यकता है. इस कार्य के लिए मैं एक शब्दकोष भी तैयार कर रहा हूँ जिसमें लगभग ५००० शब्दों के अर्थ संकलित भी किये जा चुके हैं.

इन कारणों से इस संलेख में सन्दर्भ देना संभव नहीं है, तथापि कुछ स्थानों पर मूल लिपि को सही ढंग से अनुवाद करके नए अर्थ दर्शाए जायेंगे.


ऐतिहासिक सन्दर्भों की क्लिष्टताएं भाग 3

शब्दार्थ बदलकर किस तरह शास्त्रों के अर्थ बदले गए हैं, इसके लिए दो उदाहरण दिए जा रहे हैं -
१. एक शब्द है 'तृप्ति' जिसका अर्थ आधुनिक संस्कृत के अनुसार 'संतुष्टि' है. किन्तु वेदों और शास्त्रों में इस शब्द का अभिप्राय एकदम विपरीत है. यह शब्द लैटिन भाषा के शब्द 'turpitude ' का देवनागरी रूप है जिसका अर्थ 'अभाव' है. इस प्रकार वेद और शास्त्रों में आये इस शब्द का अर्थ 'संतुष्टि' लेने से आशय एकदम विपरीत हो जायेगा.
'तृप्ति' शब्द का ही द्रविड़ रूप 'तिरुपति' है जिसे दक्षिण भारत के एक देवता के नाम के लिए उपयोग किया जाता है जिसके दर्शन के लिए लाखों लोग तिरुपति नामक स्थान पर जाते हैं. मेरे एक सहकर्मी आन्ध्र प्रदेश के थे - श्री इ. एन. राव, वे कहा करते थे कि तिरुपति के बारे में एक किंवदंती प्रसिद्द है कि वहां कोई श्रद्धालु चाहे जितना भी धन लेकर जाये, वह वहां से खाली हाथ ही वापिस आता है. सभवतः यह किंवदंती सच न हो, किन्तु इसके प्रसिद्द होने का कुछ तो कारण होगा ही. मेरे विचार में यह किंवदंती तिरुपति शब्द का वास्तविक अर्थ प्रकट करने के लिए कभी प्रचलित की गयी होगी. जब जन-समुदाय भावावेश में सच्चाई से दूर भागता है तो उसे सत्य से परिचित कराने के लिए ऐसे मार्ग अपनाए जाते रहे हैं. इस किंवदंती से भी तिरुपति का अर्थ 'अभाव' सिद्ध होता है.
२. एक शब्द है 'शुभ' जो वेदों, शास्त्रों तथा आधुनिक संस्कृत एवं हिंदी में भी प्रचलित है. आधुनिक संस्कृत एवं हिंदी में इसका अर्थ है 'अच्छा' अथवा 'जिसकी उपस्थिति मात्र लाभकर हो' जबकि ऐसी कोई वस्तु नहीं होती जिसकी उपस्थिति लाभ या हानिकर हो. वस्तु की उपस्थिति का प्रभाव ही लाभकर या हानिकर हो सकता है.
वेदों तथा शास्त्रों में यह शब्द लैटिन भाषा के शब्द 'sophia ' से लिया गया है जिसका व्यापक अर्थ है - भाषा के उपयोग संबंधी कार्य जैसे लेखन, प्रवचन, शिक्षण, अध्ययन, चिंतन, आदि. फिलोसोफी शब्द भी इसी से बना है. अरबी और हिन्दुस्तानी में इसका समतुल्य शब्द सूफी है जिसका अर्थ भी वेदों और शास्त्रों के मूल मंतव्य से मेल खाता है. अतः वेदों एवं शास्त्रों में इसका अर्थ आधुनिक संस्कृत के अनुसार लेने से भाव में विकृति उत्पन्न होना स्वाभाविक है.

इस प्रकार शब्दार्थ परिवर्तन कर वेदों और शास्त्रों के मंतव्यों को विकृत किया गया है. यहाँ आश्चर्य यह है कि सभी मानते और जानते हैं कि वेदों और शास्त्रों की भाषा आधुनिक संस्कृत से भिन्न है तथापि जब इनके अनुवाद करते हैं तो आधुनिक संस्कृत के आधार पर ही करते हैं. यह या तो बुद्धिहीनता है अथवा जानबूझकर वेदों और शास्त्रों के मंतव्यों में विकृति उत्पन्न करना है. अभी तक मैंने कोई ऐसा अनुवाद नहीं देखा है जो आधुनिक संस्कृत के उपयोग पर आधारित न हो. इसलिए अब तक किये गए सभी अनुवादों को टाक पर रखकर इस कार्य को नए सिरे से की जाने की आवश्यकता है. इस कार्य के लिए मैं एक शब्दकोष भी तैयार कर रहा हूँ जिसमें लगभग ५००० शब्दों के अर्थ संकलित भी किये जा चुके हैं.

इन कारणों से इस संलेख में सन्दर्भ देना संभव नहीं है, तथापि कुछ स्थानों पर मूल लिपि को सही ढंग से अनुवाद करके नए अर्थ दर्शाए जायेंगे.


सोमवार, 11 जनवरी 2010

दुर्दशा हिंदी की

हिंदी हमारे देश भारत की घोषित राष्ट्र-भाषा है. किन्तु देश में जो सम्मान अभी भी अंग्रेज़ी को प्राप्त है, हिंदी उससे बहुत दूर है. इसके लिए भाषा या उपयोक्ता जिम्मेदार न होकर वे सब जिम्मेदार हैं जो हिंदी को अपना व्यवसाय बनाए बैठे हैं और इसे विकसित नहीं होने देते. इन व्यवसायियों में हिंदी के लेखक, प्रकाशक तथा राज्य-पोषित हिंदी विशेषग्य सम्मिलित हैं.


भारत के हिंदी-भाषी क्षेत्रों में जन-साधारण को पढने का शौक नहीं है, यह शिकायत हिंदी लेखकों तथा प्रकाशकों को है जो वर्तमान में सच भी है. किन्तु मैं पूछता हूँ कि हिंदी के लेखक या प्रकाशक भी पढने के कितने शौक़ीन हैं. लेखक केवल अपनी बात कहते हैं, किसी अन्य को सुनना या पढ़ना वे अपनी क्षुद्रता समझते हैं. और प्रकाशक तो बिलकुल भी नहीं पढ़ते और अपना व्यवसाय भी केवल राजकीय पुस्तकालयों के लिए चलाते हैं जिसके लिए पुस्तकों के मूल्य जनसाधारण की सीमा से कई गुना रखते हैं और राजकीय पुस्तकालयों में अधिकारियों को रिश्वत देकर अपनी पुस्तकें बेचते हैं. इस कारण से हिंदी प्रकाशन व्यवसाय में जन-साधारण के लिए साधारण मूल्य के पेपर-बेक संस्करणों का प्रचलन नहीं है.

इस विश्व-संजोग पर यदि हिंदी संलेखकों के पठन का अध्ययन करने से पता चलता है कि कोई भी संलेखक दूसरों के संलेखों को न देखता है और न पढ़ता है. गूगल ने दूसरों के संलेखों को पढने के लिए अद्भुत सुविधा प्रदान की हुई है उनके अनुसरण की, किन्तु इसका उपयोग चंद संलेखक ही करते हैं. प्रयोग के रूप में, मैंने अनेकानेक संलेखों का अनुसरण करके देखा है किन्तु इसकी प्रतिक्रिया स्वरुप ही सही, कुछ अपवादों के अतिरिक्त, किसी ने भी मेरे संलेख देखने का कष्ट नहीं किया. इसमें इन संलेखकों के अहंकार भी एक महत्वपूर्ण कारण हैं. जबकि यदि आप किसी अंग्रेजी संलेख का अनुसरण करते हैं तो उसका लेखक आपके संलेख को देखेगा अवश्य, और पसंद आने पर उसका अनुसरण भी करेगा.  

हिंदी के इन व्यवसायी लेखकों ने हिंदी को केवल एक भाषा के रूप में जाना और माना है, कभी इसे ज्ञान-विज्ञानं के प्रचार-प्रसार का माध्यम नहीं बनाया. इसलिए हिंदी साहित्य अभी तक तोता-मैना के कृत्रिम किस्सों से ऊपर नहीं उठ पाया है. अंग्रेजी भाषा में जहां ८० प्रतिशत पुस्तकें ज्ञान-विज्ञानं के यथार्थ को समर्पित होती हैं, वहीं हिंदी पुस्तकों का नगण्य अंश ही ज्ञान-विज्ञानं के प्रसार में लगता है. इस पर भी शिकायत यह कि हिंदी क्षेत्रों में पुस्तकें नहीं पढी जातीं. तो क्या लोग केवल तोता-मैना के किस्सों में ही सदा-सदा के लिए अटके रहें. इसका भान किसी लेखक या प्रकाशक को नहीं है.

उदहारण के लिए विश्व-संजोग पर हिंदी संलेखों को ही देखिये, जो लगभग २० की सख्या में प्रतिदिन बढ़ रहे हैं, जिनमें लगभग ५० प्रतिशत प्रेम या विरह के गीतों अथवा कविताओं को समर्पित हैं. शेष में से अधिकाँश कहानी, किस्से, च्ताकले, फुल्झादियों आदि में लगे हैं. इस देश के नागरिक सनातन काल से समस्याओं से पीड़ित हैं, आज़ादी के बाद भी इन समस्याओं से कोई राहत नहीं मिल पायी है जब कि ऐसी अपेक्षाएं बढ़ी हैं. किन्तु हिंदी साहित्य और संलेखों को इन विकराल होती समस्याओं से कोई सरोकार नहीं है. तो फिर क्यों कोई पढ़े इस साहित्य को या इन संलेखों को. लोग वही पढ़ते हैं जो उनकी समस्याओं को सुलझाने का प्रयास करे थवा इन्हें उजागर करे.

हिंदी संलेखों पर टिप्पणी करना भी विशेष रूप धारण कर रहा है. वैसे तो गंभीर पाठक ही नहीं है तो टिप्पणीकार कहाँ से होगा? इस पर भी जो पेशेवर टिप्पणीकार उदित हुए हैं, वे चंद शब्दों को संलेखों पर च्पकाते जाते हैं जिनका संलेखों की विषय-वस्तु से कोई सरोकार नहीं होता. अंग्रेज़ी संलेखों पर टिप्पणी करने वाले ८० प्रतिशत टिप्पणीकार संलेखों को पढ़ते हैं और प्रासंगिक टिप्पणी करते हैं.

हिंदी और केवल हिंदी की यह विशेषता रही है कि इसमे जैसा बोला जाता है वैसा ही लिखा भी जाता है. विगत २० वर्षों में सरकारी दफ्तरों में बैठे हिंदी क्लर्कों ने हिंदी की इस विशेषता को भी ठिकाने लगा दिया. वर्तनी के ऐसे नियम बना दिए जिनमे अनुस्वार को अनेक उपयोगों में लिया जाने लगा है. इससे कोई सुविधा तो उत्पन्न नहीं हुई, केवल लिपि में विकृतियाँ उत्पन्न हुई हैं.

रविवार, 10 जनवरी 2010

बौद्धिक जनतंत्र की प्राथमिकताएं एक - स्वास्थ


प्रत्येक प्राणी के लिए स्वास्थ सर्वोपरि होता है और यह स्वस्थ समाज के निर्माण के लिए भी एक अनिवार्यता है. चूंकि बौद्धिक जनतंत्र स्वस्थ समाज के लिए लक्ष्यित है, इसलिए इसमें नागरिकों के स्वास्थ को सर्वोच्च प्राथमिकता दी गयी है. नागरिकों का स्वास्थ राष्ट्र की सर्वोत्तम संपदा होती है इसका दायित्व भी राष्ट्र का ही होना चाहिए. इस मत के अनुसार बौद्धिक जनतंत्र में समस्त राष्ट्र में सभी नागरिकों के लिए सभी प्रकार की स्वास्थ परामर्श एवं सेवाएं सार्वजनिक क्षेत्र में निःशुल्क उपलब्ध कराने का प्रावधान है.साथ ही चिकित्सा सेवाएँ निजी क्षेत्र में रहेंगी और नागरिकों को उनका भुगतान करना होगा ताकि नागरिकों में स्वस्थ बने रहने के लिए निरंतर जागरूकता बनी रहे.

स्वास्थ के लिए रोगों की चिकित्सा से अधिक उनकी रोकथाम करना अधिक महत्वपूर्ण होता है, जिसके लिए निम्नांकित उपाय निर्दिष्ट हैं -

स्वच्छता एवं शुद्धता : स्वास्थ के लिए स्वच्छता अनिवार्य है इसलिए शासन एवं प्रशासन ग्राम स्तर तक सार्वजनिक स्थलों एवं मार्गों की सफाई के लिए उत्तरदायी होंगे एवं इसकी व्यवस्था संचालित करेंगे..खाद्य सामग्रियों में मिलावट रोकने के लिए यह राष्ट्रद्रोह माना जाएगा जिसके लिए मृत्युदंड का प्रावधान है.साथ ही समस्त देश में उत्पादित सभी वस्तुओं की गुणवत्ता का नियमन सरकारी क्षेत्र के गुणवत्ता एवं मूल्य निर्धारण आयोग द्वारा किया जायेगा जिसके अंतर्गत प्रत्येक वस्तु के लिए केवल तीन गुणवत्तावर्ग निर्धारित होंगे ताकि देश में किसी घटिया वस्तु का उत्पादन ही न हो. बौद्धिक जनतंत्र में घटिया वस्तु का उत्पादन राष्ट्र के संसाधनों का दुरूपयोग मन गया है.

मादक द्रव्य वर्जित : राष्ट्र में कहीं भी किसी भी मादक द्रव्य का उत्पादन अथवा वितरण अवैध घोषित होगा जिनमें तम्बाकू, मदिरा, अफीम, गांजा, भांग आदि सम्मिलित हैं. इस प्रावधान का उल्लंघन राष्ट्र-द्रोह होगा जिसके लिए मृत्युदंड दिया जाएगा. औषधि के रूप में भी केवल फलों के रसों के किण्वन से उत्पादित मदिराएं अनुमत होंगी जिनपर अन्य औषधियों की भांति ही कोई कर लागू नहीं किया जाएगा.

खाद्योत्पादन : मनुष्यों के स्वास्थ में फलों का बहुत महत्व होता है इस दृष्टि से देश में फलों के उत्पादन के लिए विशेष प्रोत्साहन दिए जायेंगे ताकि उचित मूल्य पर फल सभी को उपलब्ध हो सकें. इसके अतिरिक्त गन्ने के उत्पादन को निरुत्साहित किया जाएगा, क्योंकि इससे उत्पादित शक्कर मनुष्य के शरीर में मोटापा, मधुमेह, आदि अनेक रोगों को जन्म देती है. दलहन तथा तिलहनों का उत्पादन संवर्धित किया जाएगा जिससे नागरिकों को प्रोटीन तथा प्राकृत वसायुक्त खाद्य उपलब्ध हो सकें. उदाहरण के लिए, जई एक ऐसा खाद्यान्न है जो मनुष्यों के लिए बहुत महत्व रखता है किन्तु भारत में अभी तक इसे लोकप्रिय नहीं बनाया गया है तथा इसे केवल पशुओं को खिलाया जाता है. बौद्धिक जनतंत्र ऐसे खाद्यान्नों पर शोध करा इनके उत्पादन एवं संधानन को प्रोत्साहित करेगा.

परिवार नियोजन : स्वस्थ समाज के लिए सीमित परिवार आवश्यक होता है जिससे कि स्त्रियों पर मातृत्व का अनुचित भार ना पड़े तथा वे परिवार के स्वास्थ पर अपना ध्यान केन्द्रित कर सकें. परिवार नियोजन नीति का उल्लंघन दंडनीय है, साथ ही नियोजन के सभी सेवाएं सार्वजनिक क्षेत्र में निःशुल्क उपलब्ध होंगी.


चिकित्सा बीमा : रोगों की चिकित्सा के लिए नागरिक अपना बीमा करा सकेंगे ताकि दुर्घटना आदि कि अवस्था में चिकित्सा व्यय का वहन बीमा करने वाला प्रतिष्ठान कर सके. ये प्रतिष्ठान भी निजी क्षेत्र में होंगे क्योंकि सरकार किसी व्यावसायिक गतिविधि में लिप्त नहीं होगी.
    

शनिवार, 9 जनवरी 2010

ऐतिहासिक सन्दर्भों की क्लिष्टताएं - भाग दो

इस संलेख में प्रकाशित भारत के इतिहास में सन्दर्भ प्रदान करने की सबसे बड़ी क्लिष्टता यह है कि यह इतिहास किसी ग्रन्थ से यथावत न लिया जाकर अनेक ग्रंथों के मेरे अनुवादों के कणों को संगृहीत करके बनाया गया है जिसमें बौद्धिक तर्कों का भी समावेश है. यदि इतिहास किसी ग्रन्थ में सीधे-सीधे समावेशित होता तो इस सम्बन्ध में अभी तक फ़ैली भ्रांतियां उत्पन्न ही नहीं होतीं और मुझे यह इतिहास नए सिरे से लिखने की आवश्यकता ही नहीं होती. किसी ग्रन्थ में प्राचीन इतिहास को समावेशित करने में जटिलताएं थीं जिनका अवलोकन यहाँ किया जा रहा है.


भारत राष्ट्र के विकास के बारे में सबसे पहले वेड लिखे गए जो आरम्भ में किसी अन्य लिपि में लिखे गए होंगे किन्तु बाद में इन्हें देवनागरी में लिपिबद्ध किया गया. इनकी शब्दावली लातिन तथा ग्रीक भाषाओं की शब्दावली है क्योंकि उस समय तक ये भाषाएँ ही विकसित हुई थीं. यह भाषा आधुनिक संस्कृत से एकदम भिन्न है और इसके आधार पर वेदों का अनुवाद करना मूर्खतापूर्ण तथा अतार्किक है. इस तथ्य को सभी मानते हैं तथापि सभी अनुवाद आधुनिक संस्कृत के आधार पर ही किये गए  है जो वेदों के बारे में भ्रांत धारणाएं उत्पन्न करते हैं.वेदों में पूर्णतः तत्कालीन वैज्ञानिक ज्ञान निहित है किन्तु काल अंतराल के कारण इनके अनुवाद करनी अति क्लिष्ट है.

यवनों एवं अन्य जंगली जातियों के भारत में आने और उन के द्वारा देवों द्वारा किये जा रहे विकास कार्यों में धर्म प्रचार के माध्यम से बाधा उत्पन्न किये जाने के अंतर्गत उन्होंने वेदों तथा अन्य ग्रन्थों के गलत अनुवाद प्रसारित करने आरम्भ किये  जिनमें धर्म और अध्यात्म प्रचार पर बल दिया गया जो पूरी तरह देवों तथा वेदों के मंतव्य से भिन्न था. इस उद्देश्य से इन जंगली जातियों ने आधुनिक संस्कृत विकसित की जिसमें शब्दार्थ मूल शब्दार्थ से बहुत भिन्न हैं. शास्त्रों के प्रचलित अनुवाद इसी आधुनिक संस्कृत शब्दार्थों पर आधारित होने के कारण दोषपूर्ण हैं.

ऐसी स्थिति में यदि देव उसी प्रकार अन्य ग्रन्थ भी लिखते तो उससे कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता. अतः देवों ने एक नयी लेखन शैली का विकास किया जिसे शास्त्रीय शैली कहा जा सकता है. इस शैली में शब्दावली को इस प्रकार बदला जाता है कि उसमें वास्तविक अर्थ तो छिपा रहे किन्तु प्रतीत अर्थ धर्म एवं अध्यात्मा परक लगे. इस आशय के संकेत प्रत्येक ग्रन्थ के आरम्भ में गूढ़ रूप में दे दिए गए ताकि गंभीर पाठक इस शैली में लिखे ग्रंथों के सही अनुवाद पा सकें. साथ ही अध्यात्मवादी भी इन ग्रंथों से प्रसन्न रहें और इन्हें नष्ट करने के स्थान पर इन्हें सुरक्षित रखें. इस कारण से अधकांश ग्रंथों की मूल भाषा आज तक सुरक्षित है किन्तु उनके उलटे-सीधे अनुवाद प्रचलित हैं जिसके कारण इन ग्रंथों में अतार्किक वर्णन प्रतीत होते हैं.

इस शास्त्रीय शैली में पुराण लिखे गए जिनमें पुरु वंश एवं इसके प्रमुख व्यक्तियों के इतिहास निहित हैं. किन्तु इस इतिहास को आधुनिक संस्कृत के आधार पर किये गए अनुवादों में प्राप्त नहीं किया जा सकता. इसके कारण इस इतिहास के सीधे सन्दर्भ देना संभव नहीं है. मूल भाषा में सन्दर्भ प्रदान करने से उसके अनुवादों की जटिलता सामने आती है. इसलिए इस इतिहास को कण-कण करके बनाया गया है, शास्त्रीय शैली में सबसे बाद में लिखा गया ग्रन्थ भाव प्रकाश है जिसमें आयुर्वेद के अतिरिक्त इतिहास का भी समावेश है.

ऐतिहासिक सन्दर्भों की क्लिष्टताएं - भाग दो

इस संलेख में प्रकाशित भारत के इतिहास में सन्दर्भ प्रदान करने की सबसे बड़ी क्लिष्टता यह है कि यह इतिहास किसी ग्रन्थ से यथावत न लिया जाकर अनेक ग्रंथों के मेरे अनुवादों के कणों को संगृहीत करके बनाया गया है जिसमें बौद्धिक तर्कों का भी समावेश है. यदि इतिहास किसी ग्रन्थ में सीधे-सीधे समावेशित होता तो इस सम्बन्ध में अभी तक फ़ैली भ्रांतियां उत्पन्न ही नहीं होतीं और मुझे यह इतिहास नए सिरे से लिखने की आवश्यकता ही नहीं होती. किसी ग्रन्थ में प्राचीन इतिहास को समावेशित करने में जटिलताएं थीं जिनका अवलोकन यहाँ किया जा रहा है.


भारत राष्ट्र के विकास के बारे में सबसे पहले वेड लिखे गए जो आरम्भ में किसी अन्य लिपि में लिखे गए होंगे किन्तु बाद में इन्हें देवनागरी में लिपिबद्ध किया गया. इनकी शब्दावली लातिन तथा ग्रीक भाषाओं की शब्दावली है क्योंकि उस समय तक ये भाषाएँ ही विकसित हुई थीं. यह भाषा आधुनिक संस्कृत से एकदम भिन्न है और इसके आधार पर वेदों का अनुवाद करना मूर्खतापूर्ण तथा अतार्किक है. इस तथ्य को सभी मानते हैं तथापि सभी अनुवाद आधुनिक संस्कृत के आधार पर ही किये गए  है जो वेदों के बारे में भ्रांत धारणाएं उत्पन्न करते हैं.वेदों में पूर्णतः तत्कालीन वैज्ञानिक ज्ञान निहित है किन्तु काल अंतराल के कारण इनके अनुवाद करनी अति क्लिष्ट है.

यवनों एवं अन्य जंगली जातियों के भारत में आने और उन के द्वारा देवों द्वारा किये जा रहे विकास कार्यों में धर्म प्रचार के माध्यम से बाधा उत्पन्न किये जाने के अंतर्गत उन्होंने वेदों तथा अन्य ग्रन्थों के गलत अनुवाद प्रसारित करने आरम्भ किये  जिनमें धर्म और अध्यात्म प्रचार पर बल दिया गया जो पूरी तरह देवों तथा वेदों के मंतव्य से भिन्न था. इस उद्देश्य से इन जंगली जातियों ने आधुनिक संस्कृत विकसित की जिसमें शब्दार्थ मूल शब्दार्थ से बहुत भिन्न हैं. शास्त्रों के प्रचलित अनुवाद इसी आधुनिक संस्कृत शब्दार्थों पर आधारित होने के कारण दोषपूर्ण हैं.

ऐसी स्थिति में यदि देव उसी प्रकार अन्य ग्रन्थ भी लिखते तो उससे कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता. अतः देवों ने एक नयी लेखन शैली का विकास किया जिसे शास्त्रीय शैली कहा जा सकता है. इस शैली में शब्दावली को इस प्रकार बदला जाता है कि उसमें वास्तविक अर्थ तो छिपा रहे किन्तु प्रतीत अर्थ धर्म एवं अध्यात्मा परक लगे. इस आशय के संकेत प्रत्येक ग्रन्थ के आरम्भ में गूढ़ रूप में दे दिए गए ताकि गंभीर पाठक इस शैली में लिखे ग्रंथों के सही अनुवाद पा सकें. साथ ही अध्यात्मवादी भी इन ग्रंथों से प्रसन्न रहें और इन्हें नष्ट करने के स्थान पर इन्हें सुरक्षित रखें. इस कारण से अधकांश ग्रंथों की मूल भाषा आज तक सुरक्षित है किन्तु उनके उलटे-सीधे अनुवाद प्रचलित हैं जिसके कारण इन ग्रंथों में अतार्किक वर्णन प्रतीत होते हैं.

इस शास्त्रीय शैली में पुराण लिखे गए जिनमें पुरु वंश एवं इसके प्रमुख व्यक्तियों के इतिहास निहित हैं. किन्तु इस इतिहास को आधुनिक संस्कृत के आधार पर किये गए अनुवादों में प्राप्त नहीं किया जा सकता. इसके कारण इस इतिहास के सीधे सन्दर्भ देना संभव नहीं है. मूल भाषा में सन्दर्भ प्रदान करने से उसके अनुवादों की जटिलता सामने आती है. इसलिए इस इतिहास को कण-कण करके बनाया गया है, शास्त्रीय शैली में सबसे बाद में लिखा गया ग्रन्थ भाव प्रकाश है जिसमें आयुर्वेद के अतिरिक्त इतिहास का भी समावेश है.

शनिवार, 2 जनवरी 2010

एतिहासिक सन्दर्भों की क्लिष्टताएं - भाग एक

विश्व-संजोग पर लिखे जा रहे इस इतिहास के आलेखों पर अनेक विद्वानों ने टिप्पड़ियों द्वारा सन्दर्भ गिये जाने की मांग की है जो सर्वथा उचित है. किसी भी परम्परा को तोड़ने अथवा सुधारने के लिए नयी स्थापनाओं को प्रमाणित किया जाना आवश्यक होता है, जो दो प्रकार से किया जा सकता है - नयी स्थापनाओं के साक्ष्य प्रदान किये जा सकते हैं, अथवा परम्परागत स्थापना की विशंगताओं को प्रकाशित करते हुए उन्हें दोषपूर्ण सिद्धकर नयी निर्दोष एवं तर्कपूर्ण स्थापनाएं दी जा सकती हैं. प्रथम भौतिक, सीधा एवं परम्परागत तरीका है जिसकी अपेक्षा की जाती है. दूसरा  बौद्धिक, तिर्यक एवं अपराम्परागत तरीका है जिसे अल्प बौद्धिक जन ही स्वीकार करते हैं. किन्तु प्रथम तरीके में क्लिष्टताएं होने पर दूसरा तरीका अपनाया जा सकता है जो मैं अपना रहा हूँ. अपने पक्ष को पुष्ट करने के लिए मैं सर्वप्रथम प्रचलित इतिहास की उन विशंगताओं को प्रस्तुत करना चाहूंगा जिनके कारण मुझे भारत के प्राचीन इतिहास को नए सिरे लिखना पड़ रहा  है.


महाभारत भारत का प्राचीन इतिहास है, इससे सभी विद्वान् सहमत होंगे. इसके प्रचलित स्वरुप को यदि तार्किक दृष्टि से विश्लेषित किया जाए तो हम पाते हैं कि जो घटनाएं बुद्धि और तर्क दोनों दृष्टियों पर खरी नहीं उतरतीं उन्हें दिव्यता के आवरण में लपेट कर प्रस्तुत किया गया है जिससे कि उनपर बौद्धिक बहस न हो. मेरी दृष्टि में यह इस इतिहास लेखाकारों के एक छल है और हमारे द्वारा इसे स्वीकार किया जाना हमारी बुद्धिहीनता का परिचायक. अतः मेरा विद्वान् जनों से आग्रह है कि वे प्रचलित इतिहास को केवल दिव्यता के बहाने स्वयं-सिद्ध न स्वीकारें और उसे तार्किक दृष्टि से परखें.

इस विषय में मेरा प्रमुख मंतव्य कृष्ण के चरित्र से है जिसमें उसके द्वारा १२ वर्ष की अवस्था में महाबली कंस  की ह्त्या किया जाना, गोवर्धन पर्वत को सर पर उठाया जाना, ह्त्या हेतु जरासंध के शरीर को चीरा जाना, रक्तबीज की परिकल्पना, अपना विश्व-रूप प्रदर्शित करना, विवाहित राधा को मोह-जाल में फंसाकर उसका यौन-शोषण कर उसे त्यागा जाना तथापि भारतीय परम्परागत एवं संकीर्ण समाज में अविवाहित राधा-कृष्ण युगल को पूजनीय स्वीकार किया जाना, स्वयं को ईश्वर घोषित करते रहना, आदि आदि अनेक ऐसे घटनाक्रम हैं जो केवल दिव्यता के आधार पर स्वीकार किये जा रहे हैं और बुद्धि को परे धकेला जा रहा है. इसके साथ-साथ वे राम को भी दिव्य विभूति स्वीकारते हैं जिनके चरित्र कहीं भी कोई इस प्रकार का दंभ अथवा भोंडा प्रदर्शन नहीं है. इस प्रकार दोनों में व्यासीय अंतराल है और कृष्ण को छलिया सिद्ध करता है जो संज्ञा उसे प्रदान भी की जाती रही है, तथापि उसके सब दोष और छल-कपट उसकी दिव्यता के भय से स्वीकारे जा रहे हैं. इस पर भी कोई भी अनुयायी अपनी पुत्री अथवा अपनी वधु को किसी पर-पुरुष के साथ प्रेमालाप में लिप्त नहीं देखना चाहता जबकि यही समाज आज भी अनेकानेक व्यक्तियों को दिव्य विभूति स्वीकार कर रहा है और उनकी वन्दना की जा रही है. क्या कोई अनुयायी किसी ऐसी दिव्य विभूति को अपनी कन्या अथवा वधु प्रेमालाप हेतु प्रस्तुत करेगा?

अब आते हैं हम पांडवों के प्रचलित चरित्र पर - यह सभी स्वीकारते हैं कि वे अज्ञात पिताओंकी संतानें थे किन्तु कुंती की दिव्य शक्तियों के आवरण में उसके व्याभिचार को सहज रूप में स्वीकार लेते हैं. तथापि ऐसे अनुयायी अपनी तुच्छ पारिवारिक संपदा में किसी अवैधसंतान को हिस्सा देना नहीं स्वीकारते. जबकि कौरव-पांडव संग्राम केवल पारिवारिक संपदा का प्रश्न न होकर देश को कुशल शासन प्रदान करने का था. क्या अपने शौक के लिए अपनी वधु को जुए में दांव पर लगाने वाले पांडवों से कुशल शासन व्यवस्था प्रदान करने की अपेक्षा की जा सकती थी? तो फिर दोष दुर्योधन को क्यों दिया जा रहा है? इस के बाद भी कृष्ण के पांडवों को शासन में भागीदारी प्रदान किये जाने  के नाम पर महाभारत विजय के बाद पांडवों को वनों में भटकने के लिए प्रेरित किया और उन्हें राज्य में हिस्सा नहीं दिया, जबकि अर्जुन कदापि युद्ध नहीं चाहता था और केवल कृष्ण द्वारा ही उसे विवश किया गया था.

अब आते हैं हम मर्यादा-पुरुषोत्तम राम पर जो वस्तुतः महाभारत के आरभिक काल के नायक थे और महाभारत की मूल संस्कृत में अनेक स्थानों पर उनका उल्लेख है किन्तु इस ग्रन्थ के हिंदी अनुवादकों ने जहां भी राम शब्द आया है उसे बलराम, परशुराम, आदि शब्दों से विस्थापित कर दिया है. क्या यह एतिहासिक छल नहीं है? मेरा विद्वान् जनों से अनुरोध है कि वे स्वयं महाभारत में राम को पायें और इस छल को समझें. अनुवादकों के छल का स्पष्ट कारण है - वे राजनैतिक कारणों से कृष्ण को स्थापित करने के लिए राम को विलुप्त करने के लिए प्रतिबद्ध थे अन्यथा राम की तुलना में कृष्ण को महान दिव्य विभूति सिद्ध नहीं किया जा सकता था. वस्तुतः महाभारत का आरंभिक काल राम और कृष्ण का संघर्ष था.

गंभीर शोध करने वाले सभी भाषाविद एक मत हैं कि रामायण ग्रन्थ महाभारत के बाद लिखा गया, जबकि रामायण काल महाभारत काल से लाखों वर्ष पूर्व का स्वीकार जाता है. रामायण में राम की मृत्यु का कोई उल्लेख नहीं है जिसे विस्फोटक होने के कारण लुप्त किया गया है. संकेत के लिए इतना बता दें कि 'राम' शब्द का एक अर्थ 'बकरा' है, ईद में बकरे की बलि दी जाती है, और किसी निर्दोष व्यक्ति की की ह्त्या के लिए बलि के बकरे की उपमा चिर काल से दी जाती रही है. यह एक अति संवेदनशील और गंभीर प्रश्न है इसलिए इस पर चर्चा फिर कभी विस्तार से की जायेगी.

महाभारत काल के बारे में भी भ्रांत धारणाएं प्रचलित हैं. महाभारत में ही गजेन्द्र और हेलिउकस चरित्र उपस्थित हैं. अरबी भाषा में विशेष उल्लेख के लिए 'अल' शब्द का प्रचलन रहा है. इस विषय में विस्तृत शोध करने पर मुझे ज्ञात हुआ कि अल-गजेंदर ही अलगजेंदर अर्थात अलेक्संदर अर्थात सिकंदर है, तथा 'सेलयूकस' नाम 'हेलयूकस' में इसी प्रकार परिवर्तित है जैसे 'सिन्धु' से 'हिन्दू' बना हुआ है. अतः महाभारत काल वही काल है जो सिकंदर के भारत पर आक्रमण का काल है. इसे छिपाने का उद्देश्य केवल यही है कि सिकंदर को भारत पर आक्रमण के लिए कृष्ण द्वारा आमंत्रित किया गया था जो कृष्ण-अनुयायी स्वीकार नहीं करना चाहते. महाभारत स्थल के बारे में मेरी चर्चा कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के इंडोलोजी विभाग के विशेषज्ञों से हुई जिन्होंने कुरुक्षेत्र में युद्ध के संकेत खोजने के लिए व्यापक प्रयास किये हैं और उनके हाथ एक भी प्रमाण नहीं लगा है. कुरुक्षेत्र में ही महाभारत अभिलेखागार के विशेषग्य भी इसी मत के पाए गए. अतः मैंने तत्कालीन सरस्वती नदी के मार्ग और महाभारत स्थल खोजने के लिए पंजाब, हरियाणा और राजस्थान की व्यापक पदयात्राएं कीं और उन्हें पाया जिसका उल्लेख में फिर कभी इसी संलेख में करूंगा. इस सम्बन्ध में यह भी उल्लेखनीय है कि भारत के प्रचलित इतिहास में महाभारत युद्ध का उल्लेख नहीं किया जाता जो एक विश्व-युद्ध था. अयोध्या के पास एक नदी की लगभग ५ किलोमीटर की लम्बाई को सरयू नदी कहा जाता है, शेष भाग के अन्य नाम हैं.

इसी प्रकार की भ्रान्ति वैदिक काल के बारे में है जिसे लाखों वर्ष पूर्व से लेकर हजारों वर्ष पूर्व का बताया जाता है जबकि ३,००० वर्ष से  पूर्व पृथ्वी पर किसी भाषा अथवा मानव सभ्यता के विकसित होने के कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं. भारत में पाए गए सिक्कों के आधार पर भी यहाँ का इतिहास २५०० से अधिक पुराना नहीं पाया जाता. यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि कार्बन पद्यति जो काल निर्धारण के लिए उपयोग की जाती है, अभी तक प्रमाणित नहीं मानी जाती. आर्यों के बारे में भी इतिहास विशेषग्य अभी तक एकमत नहीं हो पाए हैं. देवों के बारे में भी भारतीय इतिहास में कोई अवधारणा नहीं है जबकि वेदों और शास्त्रों में उनके विस्तृत उल्लेख हैं.

ऐसे ही अनेकानेक कारणों से भारत के इतिहास को विश्व स्तर पर भ्रांतियों का पिटारा माना जाता है जो हमारे लिए शर्मनाक है. मेरा निवेदन है कि इतिहास का अध्ययन भावुकता और आस्था को दूर करके ही यथार्थपरक किया जा सकता है.  

एतिहासिक सन्दर्भों की क्लिष्टताएं - भाग एक

विश्व-संजोग पर लिखे जा रहे इस इतिहास के आलेखों पर अनेक विद्वानों ने टिप्पड़ियों द्वारा सन्दर्भ गिये जाने की मांग की है जो सर्वथा उचित है. किसी भी परम्परा को तोड़ने अथवा सुधारने के लिए नयी स्थापनाओं को प्रमाणित किया जाना आवश्यक होता है, जो दो प्रकार से किया जा सकता है - नयी स्थापनाओं के साक्ष्य प्रदान किये जा सकते हैं, अथवा परम्परागत स्थापना की विशंगताओं को प्रकाशित करते हुए उन्हें दोषपूर्ण सिद्धकर नयी निर्दोष एवं तर्कपूर्ण स्थापनाएं दी जा सकती हैं. प्रथम भौतिक, सीधा एवं परम्परागत तरीका है जिसकी अपेक्षा की जाती है. दूसरा  बौद्धिक, तिर्यक एवं अपराम्परागत तरीका है जिसे अल्प बौद्धिक जन ही स्वीकार करते हैं. किन्तु प्रथम तरीके में क्लिष्टताएं होने पर दूसरा तरीका अपनाया जा सकता है जो मैं अपना रहा हूँ. अपने पक्ष को पुष्ट करने के लिए मैं सर्वप्रथम प्रचलित इतिहास की उन विशंगताओं को प्रस्तुत करना चाहूंगा जिनके कारण मुझे भारत के प्राचीन इतिहास को नए सिरे लिखना पड़ रहा  है.


महाभारत भारत का प्राचीन इतिहास है, इससे सभी विद्वान् सहमत होंगे. इसके प्रचलित स्वरुप को यदि तार्किक दृष्टि से विश्लेषित किया जाए तो हम पाते हैं कि जो घटनाएं बुद्धि और तर्क दोनों दृष्टियों पर खरी नहीं उतरतीं उन्हें दिव्यता के आवरण में लपेट कर प्रस्तुत किया गया है जिससे कि उनपर बौद्धिक बहस न हो. मेरी दृष्टि में यह इस इतिहास लेखाकारों के एक छल है और हमारे द्वारा इसे स्वीकार किया जाना हमारी बुद्धिहीनता का परिचायक. अतः मेरा विद्वान् जनों से आग्रह है कि वे प्रचलित इतिहास को केवल दिव्यता के बहाने स्वयं-सिद्ध न स्वीकारें और उसे तार्किक दृष्टि से परखें.

इस विषय में मेरा प्रमुख मंतव्य कृष्ण के चरित्र से है जिसमें उसके द्वारा १२ वर्ष की अवस्था में महाबली कंस  की ह्त्या किया जाना, गोवर्धन पर्वत को सर पर उठाया जाना, ह्त्या हेतु जरासंध के शरीर को चीरा जाना, रक्तबीज की परिकल्पना, अपना विश्व-रूप प्रदर्शित करना, विवाहित राधा को मोह-जाल में फंसाकर उसका यौन-शोषण कर उसे त्यागा जाना तथापि भारतीय परम्परागत एवं संकीर्ण समाज में अविवाहित राधा-कृष्ण युगल को पूजनीय स्वीकार किया जाना, स्वयं को ईश्वर घोषित करते रहना, आदि आदि अनेक ऐसे घटनाक्रम हैं जो केवल दिव्यता के आधार पर स्वीकार किये जा रहे हैं और बुद्धि को परे धकेला जा रहा है. इसके साथ-साथ वे राम को भी दिव्य विभूति स्वीकारते हैं जिनके चरित्र कहीं भी कोई इस प्रकार का दंभ अथवा भोंडा प्रदर्शन नहीं है. इस प्रकार दोनों में व्यासीय अंतराल है और कृष्ण को छलिया सिद्ध करता है जो संज्ञा उसे प्रदान भी की जाती रही है, तथापि उसके सब दोष और छल-कपट उसकी दिव्यता के भय से स्वीकारे जा रहे हैं. इस पर भी कोई भी अनुयायी अपनी पुत्री अथवा अपनी वधु को किसी पर-पुरुष के साथ प्रेमालाप में लिप्त नहीं देखना चाहता जबकि यही समाज आज भी अनेकानेक व्यक्तियों को दिव्य विभूति स्वीकार कर रहा है और उनकी वन्दना की जा रही है. क्या कोई अनुयायी किसी ऐसी दिव्य विभूति को अपनी कन्या अथवा वधु प्रेमालाप हेतु प्रस्तुत करेगा?

अब आते हैं हम पांडवों के प्रचलित चरित्र पर - यह सभी स्वीकारते हैं कि वे अज्ञात पिताओंकी संतानें थे किन्तु कुंती की दिव्य शक्तियों के आवरण में उसके व्याभिचार को सहज रूप में स्वीकार लेते हैं. तथापि ऐसे अनुयायी अपनी तुच्छ पारिवारिक संपदा में किसी अवैधसंतान को हिस्सा देना नहीं स्वीकारते. जबकि कौरव-पांडव संग्राम केवल पारिवारिक संपदा का प्रश्न न होकर देश को कुशल शासन प्रदान करने का था. क्या अपने शौक के लिए अपनी वधु को जुए में दांव पर लगाने वाले पांडवों से कुशल शासन व्यवस्था प्रदान करने की अपेक्षा की जा सकती थी? तो फिर दोष दुर्योधन को क्यों दिया जा रहा है? इस के बाद भी कृष्ण के पांडवों को शासन में भागीदारी प्रदान किये जाने  के नाम पर महाभारत विजय के बाद पांडवों को वनों में भटकने के लिए प्रेरित किया और उन्हें राज्य में हिस्सा नहीं दिया, जबकि अर्जुन कदापि युद्ध नहीं चाहता था और केवल कृष्ण द्वारा ही उसे विवश किया गया था.

अब आते हैं हम मर्यादा-पुरुषोत्तम राम पर जो वस्तुतः महाभारत के आरभिक काल के नायक थे और महाभारत की मूल संस्कृत में अनेक स्थानों पर उनका उल्लेख है किन्तु इस ग्रन्थ के हिंदी अनुवादकों ने जहां भी राम शब्द आया है उसे बलराम, परशुराम, आदि शब्दों से विस्थापित कर दिया है. क्या यह एतिहासिक छल नहीं है? मेरा विद्वान् जनों से अनुरोध है कि वे स्वयं महाभारत में राम को पायें और इस छल को समझें. अनुवादकों के छल का स्पष्ट कारण है - वे राजनैतिक कारणों से कृष्ण को स्थापित करने के लिए राम को विलुप्त करने के लिए प्रतिबद्ध थे अन्यथा राम की तुलना में कृष्ण को महान दिव्य विभूति सिद्ध नहीं किया जा सकता था. वस्तुतः महाभारत का आरंभिक काल राम और कृष्ण का संघर्ष था.

गंभीर शोध करने वाले सभी भाषाविद एक मत हैं कि रामायण ग्रन्थ महाभारत के बाद लिखा गया, जबकि रामायण काल महाभारत काल से लाखों वर्ष पूर्व का स्वीकार जाता है. रामायण में राम की मृत्यु का कोई उल्लेख नहीं है जिसे विस्फोटक होने के कारण लुप्त किया गया है. संकेत के लिए इतना बता दें कि 'राम' शब्द का एक अर्थ 'बकरा' है, ईद में बकरे की बलि दी जाती है, और किसी निर्दोष व्यक्ति की की ह्त्या के लिए बलि के बकरे की उपमा चिर काल से दी जाती रही है. यह एक अति संवेदनशील और गंभीर प्रश्न है इसलिए इस पर चर्चा फिर कभी विस्तार से की जायेगी.

महाभारत काल के बारे में भी भ्रांत धारणाएं प्रचलित हैं. महाभारत में ही गजेन्द्र और हेलिउकस चरित्र उपस्थित हैं. अरबी भाषा में विशेष उल्लेख के लिए 'अल' शब्द का प्रचलन रहा है. इस विषय में विस्तृत शोध करने पर मुझे ज्ञात हुआ कि अल-गजेंदर ही अलगजेंदर अर्थात अलेक्संदर अर्थात सिकंदर है, तथा 'सेलयूकस' नाम 'हेलयूकस' में इसी प्रकार परिवर्तित है जैसे 'सिन्धु' से 'हिन्दू' बना हुआ है. अतः महाभारत काल वही काल है जो सिकंदर के भारत पर आक्रमण का काल है. इसे छिपाने का उद्देश्य केवल यही है कि सिकंदर को भारत पर आक्रमण के लिए कृष्ण द्वारा आमंत्रित किया गया था जो कृष्ण-अनुयायी स्वीकार नहीं करना चाहते. महाभारत स्थल के बारे में मेरी चर्चा कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के इंडोलोजी विभाग के विशेषज्ञों से हुई जिन्होंने कुरुक्षेत्र में युद्ध के संकेत खोजने के लिए व्यापक प्रयास किये हैं और उनके हाथ एक भी प्रमाण नहीं लगा है. कुरुक्षेत्र में ही महाभारत अभिलेखागार के विशेषग्य भी इसी मत के पाए गए. अतः मैंने तत्कालीन सरस्वती नदी के मार्ग और महाभारत स्थल खोजने के लिए पंजाब, हरियाणा और राजस्थान की व्यापक पदयात्राएं कीं और उन्हें पाया जिसका उल्लेख में फिर कभी इसी संलेख में करूंगा. इस सम्बन्ध में यह भी उल्लेखनीय है कि भारत के प्रचलित इतिहास में महाभारत युद्ध का उल्लेख नहीं किया जाता जो एक विश्व-युद्ध था. अयोध्या के पास एक नदी की लगभग ५ किलोमीटर की लम्बाई को सरयू नदी कहा जाता है, शेष भाग के अन्य नाम हैं.

इसी प्रकार की भ्रान्ति वैदिक काल के बारे में है जिसे लाखों वर्ष पूर्व से लेकर हजारों वर्ष पूर्व का बताया जाता है जबकि ३,००० वर्ष से  पूर्व पृथ्वी पर किसी भाषा अथवा मानव सभ्यता के विकसित होने के कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं. भारत में पाए गए सिक्कों के आधार पर भी यहाँ का इतिहास २५०० से अधिक पुराना नहीं पाया जाता. यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि कार्बन पद्यति जो काल निर्धारण के लिए उपयोग की जाती है, अभी तक प्रमाणित नहीं मानी जाती. आर्यों के बारे में भी इतिहास विशेषग्य अभी तक एकमत नहीं हो पाए हैं. देवों के बारे में भी भारतीय इतिहास में कोई अवधारणा नहीं है जबकि वेदों और शास्त्रों में उनके विस्तृत उल्लेख हैं.

ऐसे ही अनेकानेक कारणों से भारत के इतिहास को विश्व स्तर पर भ्रांतियों का पिटारा माना जाता है जो हमारे लिए शर्मनाक है. मेरा निवेदन है कि इतिहास का अध्ययन भावुकता और आस्था को दूर करके ही यथार्थपरक किया जा सकता है.  

शुक्रवार, 1 जनवरी 2010

बौद्धिक जनतंत्र में मताधिकार

बौद्धिक जनतंत्र सभी वयस्क नागरिकों को एक समान मताधिकार नहीं देता अपितु यह अधिकार नागरिकों की शैक्षिक योग्यता एवं अनुभव पर निर्भर करता है. इस विषय में सर्व प्रथम हम उन वर्गों का उल्लेख करते हैं जिन्हें बौद्धिक जनतंत्र कोई मताधिकार नहीं देता.


मताधिकार से वंचित वर्ग
१. २५ वर्ष से कम आयु के नागरिक
भारत में कुछ समय पहले तक मताधिकार की न्यूनतम सीमा २१ वर्ष थी और पुरुष विवाह की न्यूनतम सीमा थी १८ वर्ष. विश्वनाथ प्रताप सिंह ने प्रधानमंत्री बनने पर मताधिकार की न्यूनतम आयु सीमा १८ वर्ष कर दी क्योंकि १८ वर्ष के बालक को राष्ट्रीय दायित्व निर्वाह के योग्य समझा गया. इसके साथ ही २१ वर्ष के बालक को व्यक्तिगत दायित्व निर्वाह के अयोग्य माना गया और विवाह की न्यूनतम सीमा २१ वर्ष कर दी गयी. ऐसा है स्वतंत्र भारत की राजनीती का खेल जिसमें १८ से २१ वर्ष आयु वर्ग को व्यक्तिगत दायित्व के योग्य और राष्ट्रीय दायित्व के योग्य बना दिया गया, क्योंकि राष्ट्रीय दायित्व के निर्वाह की किसी को कोई चिंता नहीं है. इस परिपेक्ष्य में बौद्धिक जनतंत्र में मताधिकार की न्यूनतम सीमा २५ वर्ष निर्धारित की गयी है क्योंकि राष्ट्रीय दायित्व को व्यक्तिगत दायित्व से कहीं अधिक महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है जिसके निर्वाह के लिए मताधिकारी का परिपक्व होना अनिवार्य है.

२.  ७० वर्ष से अधिक आयु के नागरिक
बौद्धिक जनतंत्र ७० वर्ष से अधिक आयु के प्रत्येक नागरिक के ससम्मान जीवनयापन का दायित्व अपने ऊपर लेता है जिसके ऐसे सभी नागरिकों को एक समान सम्मानजनक पेंशन प्रदान की जायेगी. राजनेताओं को इस वर्ग के नागरिकों के मत पाने की लालसा से मुक्त करने के लिए बौद्धिक जनतंत्र इस वर्ग को कोई मताधिकार नहीं देता. स्वतंत्र भारत का स्पष्ट अनुभव है कि राजनेता मतों के लोभ में वर्गों को अनुचित लाभ प्रदान करने से नहीं चूकते.

३.  अशिक्षित व्यक्ति
आधुनिक युग में किसी व्यक्ति का अशिक्षित होना शर्मनाक है - व्यक्तियों तथा शासन व्यवस्था दोनों के लिए. व्यक्ति का अशिक्षित होना सिद्ध करता है कि व्यक्ति अपने, समाज के तथा राष्ट्र के प्रति संवेदनशील नहीं है और न ही इसके योग्य है. भारत में न्यूनतम सुप्रमाणित शिक्षा हाईस्कूल अथवा कक्षा दस है. इससे कम शिक्षित व्यक्ति को अशिक्षित वर्ग में रखते हुए बौद्धिक जनतंत्र ऐसे किसी नागरिक को मताधिकार नहीं देता.

४. अपराधी व्यक्ति
बौद्धिक जनतंत्र समाज एवं राजनीति के शोधन के लिए अपराधियों को जनतांत्रिक प्रक्रिया से दूर रखने के उद्देश्य से ऐसे किसी व्यक्ति को मताधिकार नहीं देता जो किसी न्यायालय द्वारा अपराधी घोषित किया जा चुका है जब तक कि वह उच्चतर न्यायालय द्वारा आरोप से मुक्त नहीं कर दिया जाता.  अपराधों की रोकथाम तथा राजनीति में अपराधियों की घुसपैठ रोकने के लिए यह आवश्यक समझा गया है.

५. राज्यकर्मी
राज्यकर्मी शासन-प्रशासन का अंग होने के कारण सत्ता में भागीदार होते हैं और राज्य से वेतन पाते हैं. स्वतंत्र भारत में यही वर्ग राजनेताओं की सर्वाधिक अनुकम्पा का पात्र बना रहा है क्योंकि प्रत्येक राजनेता इस वर्ग के मत पाने के लिए इन्हें प्रसन्न करता रहता है क्योंकि ये संगठित होते हैं तथा जनमत को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं. इन दोनों दृष्टियों से बौद्धिक जनतंत्र राज्यकर्मियों को मताधिकार प्रदान नहीं करता.

६. मानसिक रोगी
मानसिक रोगी उचित-अनुचित का निर्णय करने में असक्षम होता है इसलिए राष्ट्र के प्रति अपने दायित्व को भी नहीं समझ सकता. इसलिए बौद्धिक जनतंत्र में ऐसे प्रमाणित व्यक्तियों को मताधिकार से वंचित रखने का प्रावधान है.


७. तीन अथवा अधिक संतान उत्पन्न करने वाले युगल
भारत की अनेक समस्याओं में से सर्वाधिक विकराल समस्या निरंतर बढ़ती हुई जनसँख्या है. यक प्राकृत तथा कृत्रिम दोनों कारणों से बढ़ रही है. ध्यान देने योग्य कृत्रिम कारण यह है कि कुछ जातियां तथा वर्ग जनतंत्र में राजनैतिक सत्ता हथियाने के लिए अपने मतों की संख्या बहुत तेजी से बढ़ा रही हैं और इस कारण से इन्हें अधिकाधिक राजनैतिक शक्ति एवं संरक्षण प्राप्त होने लगा है. अत्यधिक जनसंख्या देश के विकास को भी दुष्प्रभावित कर रही है. इस समस्या के निदान के लिए बौद्धिक जनतंत्र ऐसे प्रत्येक युगल को मताधिकार से वंचित करता है जो ३ या अधिक संतानों को उत्पन्न करता है.

८. भिक्षु

भिक्षा मांगकर जीवन यापन करने वाले व्यक्ति समाज के लिए अभिशाप होते हैं तथा बौद्धिक जनतंत्र उन्हें किसी सामाजिक अथवा राष्ट्रीय दायित्व निर्वाह के योग्य नहीं मानता. साधू, सन्यासी, संत, भिखारी, पुजारी, धर्म-प्रचारी, आदि को इसी वर्ग में रखा गया है.

मत-मान
इसके बाद हम आते हैं शिक्षा एवं अनुभव के आधार पर मताधिकार प्रदान करने के प्रावधान पर. बौद्धिक जनतंत्र शिक्षित व्यक्तियों को तीन वर्गों में रखता है - हाईस्कूल तथा इंटर शिक्षित अथवा समकक्ष, स्नातक तथा स्नातकोत्तर शिक्षित अथवा समकक्ष, एवं व्यावसायिक रूप से शिक्षित अथवा समकक्ष. अनुभव के आधार पर २५-४५ आयु वर्ग तथा ४६-७० आयु वर्ग.  बौद्धिक जनतंत्र इन वर्गों को निम्न प्रकार से अंक निर्धारित करता है -
हाईस्कूल तथा इंटर शिक्षित अथवा समकक्ष : ०.५ अंक,
स्नातक तथा स्नातकोत्तर शिक्षित अथवा समकक्ष : १.० अंक,
व्यावसायिक रूप से शिक्षित अथवा समकक्ष : १.५ अंक,
२५-४५ आयु वर्ग : ०.५ अंक, तथा
४६-७० आयु वर्ग : १.० अंक

इस प्रकार प्रत्येक मताधिकारी को १, १.५, २ अथवा २.५ अंक प्राप्त होते हैं जो उसके मत का मान होगा. बौद्धिक जनतांत्रिक चनाव प्रक्रिया में प्रत्याशियों को प्राप्त मतों में उनके प्रत्येक मतदाता के मत में इस मान का गुणन किया जाकर ही उन्हें प्राप्त मतों की गणना की जायेगी. इस प्रावधान से शिक्षा को बढ़ावा मिलाने के साथ-साथ शासन संचालन में बौद्धिक गुणता का बीजारोपण होगा जिससे देश को अच्छे व्यक्तियों की सरकार प्राप्त होगी.

इस  सबका स्पष्ट उद्देश्य यह है कि बौद्धिक जन्तर में सरकार चुने जाने की प्रक्रिया जनतंत्र की तरह केवल संख्या-आधारित न रहकर गुण-आधारित होगी. यही इस देश की समस्याओं के समाधान का मार्ग है.

महेश्वर का आक्रोश

महेश्वर को जब उसके जन्म की कथा बताई गयी तो वे बहुत क्रोधित हुए. भरत एक शक्तिशाली योद्धा होने के साथ-साथ रूप परिवर्तन की कला में भी निपुण थे. उन्होंने अपने जीवन काल में विशेष प्रयोजनों के लिए अलग अलग समयों पर नौ प्रकार के रूप धारण किये थे. उनका सर्वाधिक भयानक रूप परशुराम का था जो उन्होंने अपने जन्म की कथा जानने के बाद धारण किया.इस कथा के कारण सबसे पहले उन्हें अपनी माता के चरित्र पर संदेह हुआ.

परशुराम के रूप में सबसे पहले भरत अपनी माताश्री के पास गए और उनसे उनके चरित्र संबंधी अपने संदेह व्यक्त किये और उन्हें भला-बुरा कहा. माता द्वारा स्पष्टीकरण दिए जाने पर उन्होंने अपनी माता के साथ किये गए छल का बदला लेने की ठानी. सबसे पहले उन्होंने उन सभी कुलों को नष्ट करने का संकल्प किया जो विदेशों से आकर भारत के पश्चिमी क्षेत्र में अपने राज्य स्थापित कर लोगों का शोषण कर रहे थे. इस अभियान में उन्होंने २१ कुलों को नष्ट किया.


इसके बाद महेश्वर ने उस कुल की कन्या की खोज की जिसके सदस्य ने उनकी माताश्री के साथ विवाहपूर्व छल किया था और उन्हें मिली पृथा नामक एक कन्या. महेश्वर ने तब सूर्यावतार का वेश धारण किया और पृथा को उसी प्रकार छला जिस प्रकार दुष्यंत ने उनकी माता को छला था. परिणामस्वरूप पृथा गर्भवती हो गयी और महेश्वर का आक्रोश शांत हुआ.

पृथा बाल्यकाल के इस यौनाभिचार से अत्यधिक प्रभावित हुई और वह सदैव यौनाभिचार की कामना करने लगी. स्त्री योनि के लिए एक शब्द कुंत है, सदैव अपनी कुंत के बारे में चिंतन करते रहने के कारण पृथा का गुणवाचक नाम कुंती हो गया. कुंती ने अविवाहित अवस्था में ही एक पुत्र को जन्म दिया जिसका उसने लोकलाज के कारण परित्याग कर गंगा नदी में बहा दिया. कुंती का यही पुत्र महाभारत का सुप्रसिद्ध योद्धा और दानवीर कर्ण नाम से विख्यात हुआ.  

महेश्वर का आक्रोश

महेश्वर को जब उसके जन्म की कथा बताई गयी तो वे बहुत क्रोधित हुए. भरत एक शक्तिशाली योद्धा होने के साथ-साथ रूप परिवर्तन की कला में भी निपुण थे. उन्होंने अपने जीवन काल में विशेष प्रयोजनों के लिए अलग अलग समयों पर नौ प्रकार के रूप धारण किये थे. उनका सर्वाधिक भयानक रूप परशुराम का था जो उन्होंने अपने जन्म की कथा जानने के बाद धारण किया.इस कथा के कारण सबसे पहले उन्हें अपनी माता के चरित्र पर संदेह हुआ.

परशुराम के रूप में सबसे पहले भरत अपनी माताश्री के पास गए और उनसे उनके चरित्र संबंधी अपने संदेह व्यक्त किये और उन्हें भला-बुरा कहा. माता द्वारा स्पष्टीकरण दिए जाने पर उन्होंने अपनी माता के साथ किये गए छल का बदला लेने की ठानी. सबसे पहले उन्होंने उन सभी कुलों को नष्ट करने का संकल्प किया जो विदेशों से आकर भारत के पश्चिमी क्षेत्र में अपने राज्य स्थापित कर लोगों का शोषण कर रहे थे. इस अभियान में उन्होंने २१ कुलों को नष्ट किया.


इसके बाद महेश्वर ने उस कुल की कन्या की खोज की जिसके सदस्य ने उनकी माताश्री के साथ विवाहपूर्व छल किया था और उन्हें मिली पृथा नामक एक कन्या. महेश्वर ने तब सूर्यावतार का वेश धारण किया और पृथा को उसी प्रकार छला जिस प्रकार दुष्यंत ने उनकी माता को छला था. परिणामस्वरूप पृथा गर्भवती हो गयी और महेश्वर का आक्रोश शांत हुआ.

पृथा बाल्यकाल के इस यौनाभिचार से अत्यधिक प्रभावित हुई और वह सदैव यौनाभिचार की कामना करने लगी. स्त्री योनि के लिए एक शब्द कुंत है, सदैव अपनी कुंत के बारे में चिंतन करते रहने के कारण पृथा का गुणवाचक नाम कुंती हो गया. कुंती ने अविवाहित अवस्था में ही एक पुत्र को जन्म दिया जिसका उसने लोकलाज के कारण परित्याग कर गंगा नदी में बहा दिया. कुंती का यही पुत्र महाभारत का सुप्रसिद्ध योद्धा और दानवीर कर्ण नाम से विख्यात हुआ.