शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010

व्यक्तिपरक एवं लक्ष्यपरक विचार

किसी भी विषय पर कोई व्यक्ति दो प्रकार से विचार कर सकता है - स्वयं के सापेक्ष अथवा लक्ष्य के सापेक्ष. उदाहरण के लिए मान लीजिये कि आपको निर्णय लेना है कि आगामी चुनाव में किस प्रत्याशी को अपना मत देना है. इसका निर्णय आप दो आधारों पर कर सकते हैं - स्वयं के हिताहित पर विचार करके, अथवा प्रत्याशियों के सद्गुणों तथा दुर्गुणों पर विचार करके. प्रथम विचार को व्यक्तिपरक एवं द्वितीय विचार को लक्ष्यपरक  कहा जाता है.

साधारणतः लक्ष्यपरक विचार को ही श्रेष्ठ माना जाता है क्योंकि व्यक्तिपरक विचार व्यक्ति के निजी स्वार्थों पर आधारित होता है. इस दृष्टि से बहुधा कहा जाता है कि व्यक्ति को व्यक्तिपरक न होकर लक्ष्य्परक ही होना चाहिए. सैद्धांतिक रूप में यह सही है किन्तु व्यवहारिक रूप में गहन चिंतन से ज्ञात होता है कि कोई भी व्यक्ति व्यक्तिपरक होने से मुक्त नहीं हो सकता चाहे वह कितना भी लक्ष्यपरक होने का प्रयास करे. उसके निर्णय में सदैव उसके अपने व्यक्तित्व की छाप अवश्य उपस्थित रहती है. उपरोक्त चुनाव संबंधी उदाहरण को ही देखें और मान लें कि व्यक्ति पूर्ण रूप से लक्ष्यपरक होने का प्रयास करता है और मतदान के लिए प्रत्याशियों के गुणों पर विचार करता है. चूंकि व्यक्ति गुणों का आकलन स्वयं की बुद्धि से ही करता है, इसलिए इस विषयक उसका चिंतन व्यक्तिपरक होने से मुक्त नहीं हो सकता.

इसका तात्पर्य यह है कि लक्ष्यपरक होना एक आदर्श अवधारणा है और व्यक्ति को यथासंभव निजी स्वार्थों से मुक्त होकर ही निर्णय लेने चाहिए विशेषकर ऐसी स्थितियों में जब निर्णय व्यक्तिगत विषय पर न हो. इसका अर्थ यह भी है कि व्यक्ति कदापि अपने बौद्धिक स्तर से मुक्त नहीं हो सकता, उसके प्रत्येक कार्य-कलाप पर उसकी बुद्धि का प्रभाव पड़ता ही है. इसी आधार पर व्यक्ति की बुद्धि को ही उसका सर्वोपरि एवं अपरिहार्य संसाधन माना जाता है.

इसी से यह निष्कर्ष भी निकलता है कि व्यक्ति का बौद्धिक विकास ही उसके और मानव समाज के लिए सर्वाधिक महत्व रखता है और इसी के कारण मनुष्य अन्य जीवधारियों से श्रेष्ठ स्थिति में है. बुद्धिसम्पन्न व्यक्ति का व्यक्तिपरक होना भी कोई दुष्प्रभाव नहीं रखता, जब कि बुद्धिहीन व्यक्ति लक्ष्य्परक हो ही नहीं सकता. अतः व्यक्तिपरक अथवा लक्ष्य्परक होना इतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना व्यक्ति का बुद्धिसम्पन्न होना होता है.

इन्ही अवधारानाओं से सम्बंधित एक अन्य अवधारणा पर विचार करना भी यहाँ प्रासंगिक है, और वह है व्यक्ति का स्वकेंद्रित होना, जो व्यक्तिपरक होने से भिन्न भाव रखता है. व्यक्तिपरक विचार में व्यक्ति स्वयं के हितों के अनुसार निर्णय लेता है, जबकि स्वकेंद्रित व्यक्ति प्रत्येक विषय वस्तु में स्वयं को ही केंद्र मानता है. इसे एक व्यवहारिक उदाहरण से स्पष्ट किया जा सकता है. मेरा एक मित्र है - बहुत अधिक संवेदनशील किन्तु पूर्णतः स्वकेंद्रित. एक दिन मैं अपने उद्यान से कुछ आलूबुखारा फल लेकर उसके घर पहुंचा. फलों का आकार व्यावसायिक फलों से बहुत छोटा था. उन्हें देखते ही वह बोला - 'ये तो बहुत छोटे हैं, हमारे उद्यान में तो बहुत बड़े फल लगते हैं'. जबकि मुझे यह जानने में कोई रूचि नहीं थी कि उसके उद्यान के फल छोटे हैं या बड़े, क्योंकि मैं यह जानता हूँ कि उसने जो एक-दो वृक्ष लगा रखे हैं उनमें आलूबुखारा फल के वृक्ष हैं ही नहीं. वह भी यह जानता है किन्तु उसने उपरोक्त झूंठ इसीलिये बोला क्योंकि वह अपनी आदत के अनुसार इस विषय में भी स्वयं को ही केंद्र में रखना चाहता था.

स्वकेंद्रित व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति का विषयवस्तु के केंद्र में होना सहन नहीं कर पाता और वह भरसक प्रयत्न करता है कि वह विषयवस्तु को स्वयं पर ही केन्द्रित करे, चाहे उसे विषयवस्तु में परिवर्तन करना पड़े अथवा झूंठ बोलना पड़े. इस प्रकार व्यक्तिपरकता का गुण व्यक्ति की विचारशीलता का विषय होता है जबकि स्वकेंद्रण व्यक्ति के व्यक्तित्व का एक दोष होता है.  

समुद्र

House on Island of Samothraki (Samothrace), Greece Photographic Poster Print by Oliviero Olivieri, 18x24शास्त्रों में समुद्र शब्द आधुनिक संस्कृत के समुद्र से भिन्न अर्थ रखता है. ग्रीस के एक टापू का नाम लैटिन में 'samothrace' तथा  ग्रीक भाषा में 'samothraki' है जिसके लिए शास्त्रों में 'समुद्र' कहा गया है. तदनुसार शास्त्रों की 'समुद्र मंथन' जैसी घटनाएं इसी द्वीप के बारे में हैं. 

दक्षिण

Can't You See [Explicit]शास्त्रों में दक्षिण शब्द सामान्यतः जाने जाने वाली दक्षिण दिशा के लिए नहीं किया जाकर 'कहने' के लिए किया गया है.  इस शब्द के समतुल्य  लैटिन भाषा का शब्द 'dicere' है जिसका अर्थ 'कहना' है.

गुरुवार, 29 अप्रैल 2010

स्वाद, प्रस्वाद

The Psychology of Persuasion: How To Persuade Others To Your Way Of Thinkingस्वाद एवं प्रस्वाद शब्द लैटिन भाषा के  शब्दों  suadere   तथा  persuadere  से बने हैं जिनके अर्थ 'किसी दूसरे व्यक्ति को अपने मतानुसार सहमत करना है. आधुनिक संस्कृत में इनके अर्थ जिह्वा के कार्य चखने से संबध रखते हैं जिनका शास्त्रीय भासा से कोई सम्बन्ध नहीं है.

सेतु

The Whale: In Search of the Giants of the Seaआधुनिक संस्कृत में सेतु शब्द का अर्थ 'पुल' है, तदनुसार शास्त्रों के भ्रांत अनुवाद प्रस्तुत किये गए हैं. वस्तुतः यह शब्द लैटिन भाषा के शब्द cetus से बनाया गया है जिसका अर्थ 'व्हेल मछली'  है. यह शब्द लैटिन के शब्द 'setosus' से भी बना है जिसका अर्थ 'ब्रुश का तंतु' है जो सफाई के काम आता है.

बुधवार, 28 अप्रैल 2010

राम आर कृष्ण की समकालीनता

मैंने अपने इस ऐतिहासिक संलेख में अनेक स्तनों पर जोर देकर कहा है कि राम और कृष्ण समकालीन थे और इन दोनों के नेतृत्व में हुए संघर्ष को ही महाभारत कहा जाता है, यद्यपि शस्त्र युद्ध के पूर्व ही राम की हत्या किये जाने के कारण वे युद्ध में सम्मिलित नहीं थे. इसके प्रमाण स्वरुप 'राम' शब्द महाभारत ग्रन्थ के मूल वैदिक संस्कृत पाठ्य में अनेक स्थानों पर पाया जाता है  किन्तु हिंदी अनुवादों में 'राम' के स्थान पर 'बलराम', 'परशुराम', आदि नाम देकर राम को महाभारत से पूर्णतः अनुपस्थित किया गया है, जो भारतीय जनमानस के विरुद्ध एक षड्यंत्र के अंतर्गत किया गया है.

इस षड्यंत्र का विशेष कारण यह है कि कृष्ण चरित्र की तुलना में राम का चरित्र अतिश्रेष्ठ रहा है और दोनों की तलना करने पर कोई भी व्यक्ति कृष्ण को ईश्वर का स्वरुप स्वीकार नहीं कर सकता था. इसलिए कृष्ण भक्तों ने, जो बहुल संख्या में थे, राम को महाभारत से अनुपस्थित कर दिया और सभी अनुवाद इसी षड्यंत्र के अंतर्गत किये गए.

महाभारत ग्रन्थ में ही एक प्रसंग राम और कृष्ण के समकालीन होने की स्पष्ट पुष्टि करता है. यहाँ महाभारत ग्रन्थ के गीताप्रेस गोरखपुर द्वार प्रकाशित हिंदी-अनुवाद सहित संस्करण संवत २०६५, चौदहवाँ पुनर्मुद्रण के प्रथम खंड, पृष्ठ ७५४ से आरम्भ, अध्याय ३१, 'सहदेव के द्वारा दक्षिण दिशा की विजय' प्रकरण में  पृष्ठ ७५९ पर दिए गए श्लोक समूह ७३ में सहदेव के घटोत्कच के प्रति शब्दों का हिंदी अनुवाद प्रस्तुत है -

'वत्स! तुम मेरी आज्ञा से कर लेने के लिए लंकापुरी में जाओ और वहां राक्षसराज महात्मा विभीषण से मिल कर राजसूय यज्ञ के लिए भांति-भांति के बहुत से रत्न प्राप्त करो. महाबली वीर! उनकी ओर से भेंट में मिली हुई सब वस्तुएं लेकर शीघ्र यहाँ लौट आओ. बेटा! यदि विभीषण तुम्हें भेंट न दें, तो उन्हें अपनी शक्ति का परिचय इस प्रकार कहना - 'कुबेर के छोटे भाई लंकेश्वर! कुंतीकुमार युधिष्ठिर ने भगवान् श्रीकृष्ण के बाहुबल को देखकर भाइयों सहित राजसूय यज्ञ आरम्भ किया है. आप इस समय इन बातों को अच्छी तरह जान लें. आपका कल्याण हो, अब मैं यहाँ से चला जाऊंगा.' इतना कहकर तुम शीघ्र लौट आना, अधिक विलम्ब मत करना.

इससे आगे के विवरण में विभीषण द्वारा घटोत्कच का स्वागत और उसे अनेक बहुमूल्य उपहार दिए जाने सम्मिलित हैं. इसी प्रसंग में यह भी उल्लिखित है कि सहदेव के पास द्रविड़ सेना थी. यद्यपि यह हिंदी अनुवाद दोषपूर्ण हो सकता है तथापि प्रसंग की उपस्थिति ही यह सिद्ध करती है कि महाभारत काल में विभीषण लंका के राजा थे जिनका राजतिलक राम द्वारा किया गया था. अतः राम और कृष्ण का समकालीन होना सिद्ध होता है.

यहाँ यह भी बाते दें कि इसी गीताप्रेस गोरखपुर के अनेक प्रकाशनों में राम को लाखों वर्ष पूर्व के त्रेता युग में, और कृष्ण को द्वापर युग में कहा गया है. यह सब सिद्ध करता है तथाकथित भारतीय विद्वान् केवल लकीर के फ़कीर हैं और वे तथ्यपरक शोध करने में असक्षम हैं.      

राम आर कृष्ण की समकालीनता

मैंने अपने इस ऐतिहासिक संलेख में अनेक स्तनों पर जोर देकर कहा है कि राम और कृष्ण समकालीन थे और इन दोनों के नेतृत्व में हुए संघर्ष को ही महाभारत कहा जाता है, यद्यपि शस्त्र युद्ध के पूर्व ही राम की हत्या किये जाने के कारण वे युद्ध में सम्मिलित नहीं थे. इसके प्रमाण स्वरुप 'राम' शब्द महाभारत ग्रन्थ के मूल वैदिक संस्कृत पाठ्य में अनेक स्थानों पर पाया जाता है  किन्तु हिंदी अनुवादों में 'राम' के स्थान पर 'बलराम', 'परशुराम', आदि नाम देकर राम को महाभारत से पूर्णतः अनुपस्थित किया गया है, जो भारतीय जनमानस के विरुद्ध एक षड्यंत्र के अंतर्गत किया गया है.

इस षड्यंत्र का विशेष कारण यह है कि कृष्ण चरित्र की तुलना में राम का चरित्र अतिश्रेष्ठ रहा है और दोनों की तलना करने पर कोई भी व्यक्ति कृष्ण को ईश्वर का स्वरुप स्वीकार नहीं कर सकता था. इसलिए कृष्ण भक्तों ने, जो बहुल संख्या में थे, राम को महाभारत से अनुपस्थित कर दिया और सभी अनुवाद इसी षड्यंत्र के अंतर्गत किये गए.

महाभारत ग्रन्थ में ही एक प्रसंग राम और कृष्ण के समकालीन होने की स्पष्ट पुष्टि करता है. यहाँ महाभारत ग्रन्थ के गीताप्रेस गोरखपुर द्वार प्रकाशित हिंदी-अनुवाद सहित संस्करण संवत २०६५, चौदहवाँ पुनर्मुद्रण के प्रथम खंड, पृष्ठ ७५४ से आरम्भ, अध्याय ३१, 'सहदेव के द्वारा दक्षिण दिशा की विजय' प्रकरण में  पृष्ठ ७५९ पर दिए गए श्लोक समूह ७३ में सहदेव के घटोत्कच के प्रति शब्दों का हिंदी अनुवाद प्रस्तुत है -

'वत्स! तुम मेरी आज्ञा से कर लेने के लिए लंकापुरी में जाओ और वहां राक्षसराज महात्मा विभीषण से मिल कर राजसूय यज्ञ के लिए भांति-भांति के बहुत से रत्न प्राप्त करो. महाबली वीर! उनकी ओर से भेंट में मिली हुई सब वस्तुएं लेकर शीघ्र यहाँ लौट आओ. बेटा! यदि विभीषण तुम्हें भेंट न दें, तो उन्हें अपनी शक्ति का परिचय इस प्रकार कहना - 'कुबेर के छोटे भाई लंकेश्वर! कुंतीकुमार युधिष्ठिर ने भगवान् श्रीकृष्ण के बाहुबल को देखकर भाइयों सहित राजसूय यज्ञ आरम्भ किया है. आप इस समय इन बातों को अच्छी तरह जान लें. आपका कल्याण हो, अब मैं यहाँ से चला जाऊंगा.' इतना कहकर तुम शीघ्र लौट आना, अधिक विलम्ब मत करना.

इससे आगे के विवरण में विभीषण द्वारा घटोत्कच का स्वागत और उसे अनेक बहुमूल्य उपहार दिए जाने सम्मिलित हैं. इसी प्रसंग में यह भी उल्लिखित है कि सहदेव के पास द्रविड़ सेना थी. यद्यपि यह हिंदी अनुवाद दोषपूर्ण हो सकता है तथापि प्रसंग की उपस्थिति ही यह सिद्ध करती है कि महाभारत काल में विभीषण लंका के राजा थे जिनका राजतिलक राम द्वारा किया गया था. अतः राम और कृष्ण का समकालीन होना सिद्ध होता है.

यहाँ यह भी बाते दें कि इसी गीताप्रेस गोरखपुर के अनेक प्रकाशनों में राम को लाखों वर्ष पूर्व के त्रेता युग में, और कृष्ण को द्वापर युग में कहा गया है. यह सब सिद्ध करता है तथाकथित भारतीय विद्वान् केवल लकीर के फ़कीर हैं और वे तथ्यपरक शोध करने में असक्षम हैं.      

मंगलवार, 27 अप्रैल 2010

हिन्दू मुस्लिम मानसिकताएं और सामंजस्य

भारत में प्रमुखतः हिन्दू और मुस्लिम दो ऐसे समुदाय निवास करते हैं जिनकी मानसिकताओं में भारी अंतराल हैं जिसके कारण इनके परस्पर सामंजस्य में बहुधा समस्याएँ उत्पन्न होती रहती हैं. इनके अतिरिक्त ईसाई धर्मावलम्बी भी भारत में बसते हैं किन्तु ये मूलतः हिन्दुओं में से परिवर्तित होने के कारण हिन्दू मानसिकता ही रखते हैं और किसी दूसरे समुदाय से टकराव की स्थिति उत्पन्न नहीं करते. अतः इनकी उपस्थिति सामाजिक सौहार्द में बाधक नहीं है.

भारत राष्ट्र की संकल्पना मूलतः देवों की थी जिसमें धर्म के आधुनिक भाव के लिए कोई स्थान नहीं था. बाद में यहाँ यहूदी आये और उन्होंने यहाँ धर्म की स्थापना की जिसे अनेक कारणों से हिन्दू धर्म कहा गया जिसमें देव जाति भी सम्मिलित हो गयी या कर ली गयी. इसी अवधि में यहाँ यवन आये जो इस्लामिक परम्पराओं के स्रोत बने जिसे बाद में एक धर्म का रूप दे दिया गया.

देव मूलतः वैज्ञानिक विचारधारा के पोषक थे और मानव सभ्यता का विकास ही उनका उद्येश्य था. यहूदी मूलतः जनसामान्य को ईश्वर के नाम से आतंकित कर उन पर मनोवैज्ञानिक शासन के मार्ग से राजनैतिक शासन कराने हेतु नियोजित थे. इसी उद्येश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने धर्म की स्थापना की और समाज को अल्पसंख्यक शासक और बहुसंख्यक शासित वर्गों में विभाजित कर दिया. शासक शासितों के शोषण से उन पर अपनी राज्य सत्ता बनाये रखते हैं. शासकों का शोषण के अतिरिक्त कोई धर्म नहीं होता.  इस प्रकार जो बहुसंख्यक शोषित समाज बना उसे हिन्दू नाम दे दिया गया.  देव भी हिन्दुओं में सम्मिलित हो गए अथवा कर लिए गए.

यवनों और देवों में कई मौलिक अंतर थे. जब देव बस्तियां बसाकर सुनिश्चित स्थानों पर रहने लगे थे तब भी यवन जंगली घुमक्कड़ जीवन के अभ्यस्त थे जिसमें उनके निहित स्वार्थ थे. वे देव बस्तियों में घुसकर लूट-पाट करते और देवों की अर्जित संपदा ले जंगलों में अदृश्य हो जाया करते थे. बाद में उन्होंने कुछ देव बस्तियों को अपने अधिकार में ले लिया और उन्हें अपनी बस्तियां घोषित कर दिया. देव बस्तियों में जब जनसँख्या बढ़ती तो कुछ देव निर्जन स्थलों पर नयी बस्तियां बसाते और वहीं रहने लगते. दूसरी ओर यवन बस्तियों में जनसँख्या बढ़ने से वे देव बस्तियों को बलात अपने अधिकार में ले लेते थे जिससे उन्हें देवों की संपदाओं के साथ-साथ बस्तियां भी बिना श्रम किये मिल जाती थीं.  इसी क्रम में इस्लाम धर्म का उदय हुआ और इस्लाम लूट-पाट का पर्याय बना जिसे धार्मिक जेहाद का नाम दे दिया गया.  भारत में मुस्लिमों का आगमन भी इसी प्रकार हुआ.

हिन्दू और मुस्लिम मानसिकताओं में ध्रुवीय अंतराल है इसलिए भारत में उनके सहजीवन परस्पर संघर्ष के रहे हैं. मुस्लिमों का मांसाहार और हिन्दुओं का शाकाहार भी उनके इस अंतराल को गहन करता रहा है. मांसाहार सामान्यतः शरीर को पुष्ट करता है, जिससे व्यक्ति में कामुकता और आक्रामकता विकसित होती हैं. शाकाहार शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार से विकास करता है जिसके कारण मांसाहार की तुलना में शरीर को उतनी पौष्टिकता प्राप्त नहीं होती. साथ ही बौद्धिक विकास से चिन्तनशीलता, और चिंतन से आपराधिक आक्रामकता का हनन होता है.  

शाब्दिक दृष्टि से देखा जाये तो भी मुसलमान का अर्थ अंग्रेज़ी का muscleman है जिसका अर्थ शारीरिक रूप से बलशाली है जबकि हिन्दू शब्द hind अर्थात पिछलग्गू का द्योतक है. तदनुसार प्रत्येक हिन्दू धर्म-सम्प्रदायों, गुरुओं, साधू-संतों, जीव-जंतुओं, पेड़-पौधों, ईंट-पत्थरों आदि अनेक वस्तुओं का पिछलग्गू होता है और जब तक उसे कोई आश्रय नहीं मिल जाता वह स्वयं को असहाय अनुभव करता रहता है. वर्तमान काल में जो हिन्दू आक्रामकता दिखाई देती है वह केवल मुस्लिम आक्रामकता की प्रतिक्रिया है, मौलिक रूप से आक्रामकता नहीं है.  

अब चूंकि दोनों समुदायों को एक साथ ही रहना है इसलिए सामाजिक सौहार्द के लिए शासन स्तर पर ही कुछ कारगर उपाय किये जाने चाहिए अन्यथा यह अंतराल सदैव गहराता ही रहेगा और वर्ग संघर्ष होते ही रहेंगे.

समान नागरिक संहिता 
नागरिक संहिता राष्ट्रीय स्तर पर सभी वर्गों के लिए एक समान निर्धारित की जानी चाहिए जिससे सामाजिक स्तर पर प्रत्येक नागरिक केवल भारतीय बने, वह हिन्दू, मुस्लिम अथवा ईसाई न रहे. इस संहिता में विवाह, पालन-पोषण, आजीविका, संपत्ति-अधिकार, आदि के विधि-विधान निर्धारित हों. 

धर्मों का सार्वजनिक प्रदर्शन निषिद्ध 
धर्म-सम्प्रदाय ही समाज का वर्गीकरण करते हैं जबकि ये विशुद्ध रूप में व्यक्तिगत आस्था के विषय होते हैं. इसलिए प्रत्येक नागरिक को जहां व्यक्तिगत आस्था की पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त हो वहीं इस आस्था के सार्वजनिक प्रदर्शन पर पूरी तरह प्रतिबन्ध लगा दिए जाने चाहिए.  इस दृष्टि से देश में किसी मंदिर, मस्जिद अथवा गिरजाघर की कोई आवश्यकता नहीं होगी. वर्तमान के इस प्रकार के सभी स्थलों को कला और राष्ट्रीय संस्कृति के विकास केन्द्रों में परिवर्तित कर दिया जाना चाहिए. 

अन्तर्जातीय विवाह 
कुछ लोग हिन्दू तथा मुस्लिम सम्प्रदायों के मध्य वैवाहिक संबंधों को भी सामाजिक सौहार्द का एक माध्यम मान सकते हैं, किन्तु यह एक भ्रांत धारणा है. हिन्दू और मुस्लिम दो समान्तर किन्तु विरोधाभासी जीवन-शैलियाँ एवं विचारधाराएं हैं जिनमें वर्तमान परिस्थितियों में वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करना आने वाली पीढ़ियों के व्यक्तित्वों में विरोधाभास उत्पन्न होने की संभावना है. उपरोक्त दो माध्यमों से दोनों के मध्य कुछ सामंजस्य स्थापना के बाद ही इस प्रकार के वैवाहिक सम्बन्ध निरापद हो सकते हैं.  

सोमवार, 26 अप्रैल 2010

संवेदनशीलता एवं सार्थकता

बहुधा ऐसा होता है कि जब मैं किसी गंभीर विषय पर लिखने बैठता हूँ तो हिंदी में उपयुक्त शब्दों का अभाव पाता हूँ. भावुक हिन्दीभाषी इसे मेरी भाषाई निर्बलता कहेंगे अथवा मुझसे रुष्ट होंगे. किन्तु सत्य यही है कि हिंदी में अभी भी शब्दों का नितांत अभाव है. अभी मैं जो लिखना चाहता हूँ उसे कोई हिंदी शीर्षक देना चाहता हूँ जिसका भाव अंग्रेज़ी के sensitivity and sensibility के समतुल्य हो किन्तु sensibility के लिए हिंदी समतुल्य शब्द नहीं पा रहा हूँ और इसके लिए 'सार्थकता' शब्द से काम चला रहा हूँ. आशा है प्रबुद्ध पाठक मुझे क्षमा करेंगे अथवा मुझे कोई उपयुक्त शब्द सुझायेंगे.

जनसाधारण की हिन्दुस्तानी भाषा में कहा जाता है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने दिल, दिमाग अथवा इनके सामंजस्य के अधीन कार्य करता है.  विशुद्ध दिल के अधीन कार्य कराने को मैं यहाँ 'संवेदनशीलता' कहना चाहूँगा और विशुद्ध दिमाग के अधीन कार्य करने को 'सार्थकता'.  तकनीकी स्तर पर इन दो विधाओं को चिंतन-शून्यता तथा चिन्तनशीलता कहा जा सकता है.  इसी संलेख के एक अन्य आलेख में मैंने इन्हें मन और मस्तिष्क के अधीन कार्य कहा है, जहां मैंने प्रतिपादित किया है कि मनुष्य का मन चिंतन-शून्य होता है और केवल इच्छाओं के अधीन होता है, जब कि उसका मस्तिष्क चिंतन का केंद्र होता है और सार्थकता के आधार पर शरीर से कार्य कराता है.
Science in the Age of Sensibility: The Sentimental Empiricists of the French Enlightenment
Ideal Embodiment: Kant's Theory of Sensibility (Studies in Continental Thought)
संवेदनशील व्यक्ति प्रसंग की सार्थकता को अनदेखी कर सकता है और वह अत्यधिक भावुक होता है. छोटा सा दुःख उसे विचलित कर देता है और वह जीवन से मोह भी त्याग सकता है. इनकी भावुकता दो प्रकार की होती है - ऋणात्मक जिसमें इनें अत्यधिक क्रोध अथवा द्वेष उत्पन्न हो जाता है और ऐसे आवेश में व्यक्ति हत्या जैसे सामाजिक अपराध भी कर बैठते हैं. इनकी ये प्रतिक्रियाएं प्रायः तत्क्षण होती हैं जिससे इन्हें चिंतन का समय नहीं मिलता. तीव्र कामेच्छा भी इसी प्रकार के ऋणात्मक आवेश के कारण होती है, जिसके अधीन व्यक्ति बलात्कार जैसे अपराध कर बैठता है. संवेदन व्यक्ति की धनात्मक  भावुकता में व्यक्ति प्रेम, मोह, आदि के वशीभूत हो जाता है और उसमें आत्मबलिदान की भावना अति प्रबल हो जाती है. ऐसे व्यक्ति विरक्त सन्यासी हो सकते हैं और ऐसे व्यक्ति ही आत्महत्या भी कर लेते हैं.

दूसरी ओर चिंतनशील व्यक्ति प्रसंग की सार्थकता पर इतना अधिक चिंतन करते हैं कि वे उसके मानवीय पक्ष की अनदेखी कर देते हैं. ऐसे व्यक्ति निर्मोही अथवा निष्ठुर कहे जा सकते हैं क्योंकि वे सभी दूसरों को एक समान मानने के कारण किसी को भी अपना नहीं मान पाते. इस कारण ये सभी से एक समान व्यवहार करते हैं. इतना निश्चित है कि ऐसे व्यक्ति कभी कोई अपराध नहीं कर सकते.  रचनात्मकता इस प्रकार के व्यक्तियों की विशेषता होती है जिसके कारण ये व्यक्ति लेखक, चित्रकार, आदि हो सकते हैं. ऐसे व्यक्तियों से सम्बन्ध रखने वाले व्यक्तियों को प्रायः ऐसा प्रतीत होता है कि इन व्यक्तियों में मानवीय भावनाएं शून्य अथवा नगण्य होती हैं, जो एक ब्रंती मात्र है. वस्तुतः इन व्यक्तियों में मानवीय भावनाएं अति उच्च कोटि की होती हैं किन्तु इनमें अपने-पराये की भावना नहीं होती. आन, यदि अपने-पराये की भावना को ही मानवीय भावना माना जाये तो कहा जा सकता है कि ये व्यक्ति मानवीय भावना शून्य होते हैं.  

मस्तिष्क व्यक्ति के ज्ञान का केंद्र होता है जिसके आधार पर वह चिंतन करता है. किन्तु ज्ञान के सतत प्रसार के कारण न तो मानवीय ज्ञान कभी पूर्ण हो सकता है और न ही किसी एक व्यक्ति को पूर्ण मानवीय ज्ञान हो सकता है. इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को सीमित ज्ञान ही होता है इसलिए उसका चिंतन भी सीमित ही रहता है. इसलिए केवल ज्ञान अथवा चिंतन के आदार पर भी कोई व्यक्ति पूर्ण नहीं हो सकता. तथापि प्रत्येक व्यक्ति का ज्ञान ही उसकी सर्वोपरि निधि होती है.

न तो मन पूरी तरह दूषित होता है जिससे उसके अधीन कार्य करना त्याज्य हो, और न ही मस्तिष्क पूरी तरह शुद्ध होता है जिसके अधीन कार्य करना श्रेष्ठ हो. अतः वांछनीय यही है कि व्यक्ति मन और मस्तिष्क के सामंजस्य से कार्य करे.

संवेदनाविहीन शासन-प्रशासन

जनतंत्र वस्तुतः जनता द्वारा जनता के लिए जनता का शासन कहा जाता है, किन्तु भारत में यह ऐसा प्रतीत नहीं होता. वर्तमान भारतीय शासन यद्यपि जनतांत्रिक कहा जाता है किन्तु इसमें ऐसा कोई तत्व विद्यमान नहीं है जिसके आधार पर इसे जनता द्वारा जनता के लिए जनता का शासन कहा जा सके.


यह शासन जनता द्वारा इसलिए नहीं है क्योंकि यहाँ की जनता जानती ही नहीं कि इस समय देश पर उसका शासन है. ऐसा मानने में जनता की दास मानसिकता आड़े आती है जो उसमें विगत २००० वर्ष की दासता में विकसित एवं परिपक्व हुई है. सर्वकार बनने के लिए जनता अपना मत तो देती है किन्तु इसे राष्ट्रीय भावना से परे निजी क्षुद्र स्वार्थों के लिए देती है जिससे चुने गए जन प्रतनिधि जनता के निजी स्वार्थों के प्रतिनिधि होते हैं, राष्ट्रीयता से उनका कोई सरोकार नहीं होता. चुनावों में मत देने के तीन विशेष आधार पाए जाते हैं - जातीय, धनप्राप्ति, तथा बलशाली का भय. ऐसे प्रतिनिधि सर्वकार बनाकर केवल अपने स्वार्थों के लिए कार्य करते हैं, जनता अथवा राष्ट्र उनकी दृष्टि में कहीं दूर तक भी स्थान नहीं रखते.

भारतीय शासन जनता के लिए इसलिए नहीं होता क्योंकि इसके लिए उसका चुनाव ही नहीं किया जाता. उसे चुना जाता है - जाति के आधार पर, धन प्राप्ति के लिए तथा बलशालियों के भय के कारण. ऐसे शासन में जनता पिसती रहती है और शासक वर्ग अपने वैभव-पूर्ण जीवन में जनता की समस्याओं के प्रति पूर्णतः उदासीन बना रहता है.

यह शासन जनता का इसलिए नहीं है क्योंकि जनता अपने प्रतिनिधि नहीं चुनती अपितु राजनेता अपनी जाति, धन अथवा बल के आधार पर जनता के मत बटोर कर चुने जाते हैं और वे सदैव सत्ता में बने रहने के उद्येश्य से अपने जातीय आधार, अपने धनाधार अथवा अपने बलाधार को ही पुष्ट करते रहते हैं.

इन सब कारणों से भारतीय शासन पूरी तरह जनता की समस्याओं के प्रति संवेदनाविहीन बना रहता है. प्रशासन चूंकि शासकों द्वारा निर्देशित किया जाता है इसलिए वह भी राज्नाताओं के निजी हितो के पोषण हेतु ही कार्य करता रहता है और जन समस्याओं के प्रति पूरी तरह उदासीन बना रहता है.  इस बारे में मेरे गाँव का एक उदाहरण प्रस्तुत है.

गाँव के मध्य एक राजकीय हैण्ड-पम्प लगभग ३० निर्धन परिवारों के लिए पेय जल का एकमात्र साधन ता जो विगत २ माह से खराब पडा हुआ है. इन दो महीनों से गर्मी अपने भीषणतम  रूप में पड रही है और लोग बूँद-बूँद पानी के लिए तरस रहे हैं. इस हैण्ड-पम्प को सुचारू करने के लिए गाँव के प्रधान, खंड विकास अधिकारी ऊंचागांव, उप जिलाधिकारी स्याना, अधिशाषी अभियंता जल निगम बुलंदशहर, से लगातार शिकायतें की जाती रही हैं किन्तु किसी के कान पर कोई जूँ नहीं रेंगी है. हाँ, अधिशाषी अभियंता जल निगम बुलंदशहर से एक उत्तर अवश्य मिला है जिसमें लिखा है कि उक्त कार्य के लिए अभी धन उपलब्ध नहीं है.

अंततः इस बारे में मैंने एक पत्र उत्तर प्रदेश की मुख्य मंत्री महोदया को बी लिखा जिन्होंने भी उसे रद्दी की टोकरी के हवाले कर दिया प्रतीत होता है.  यहाँ यह बताना प्रासंगिक है प्रदेश की वर्तमान सर्वकार दलितों की सर्वकार कही जाती है जो दलित नेताओं की प्रतिमाओं पर जनता का २,३०० करोड़ रूपया खर्च करने के लिए उद्यत है. इसी सर्वकार ने अभी कुछ दिन पूर्व ही अपने विधायकों के वेतन भत्ते २५,००० रुपये से बढ़ाकर ५०,००० रुपये प्रति माह किये हैं. इस सबसे यही सिद्ध होता है कि प्रदेश सर्वकार के पास राजनेताओं के महिमा-मंडन के लिए धन का कोई अभाव नहीं है. धन का अभाव है तो बस निर्धन लोगों को पेय जल उपलब्ध कराने लिए ही है.

रविवार, 25 अप्रैल 2010

ब्रुवन, ब्रीवि

Hoffman #15503 10QT Sphagnum Peat Mossब्रुवन
शास्त्रों में 'ब्रुवन' शब्द ग्रीक भाषा के शब्द bryon से बनाया गया है जिसका अर्थ 'काई' है जो ठहरे हुए पानी में प्रायः उग आती है. आधुनिक संस्कृत में इस शब्द का अर्थ 'बोलना' लिया गया है जो शास्त्रीय अनुवाद में विकृति उत्पन्न करता है. 

Aluminum Notebook Laptop Computer Travel Briefcase Executive Attacheब्रीवि
आधुनिक संस्कृत में ब्रीवि शब्द भी 'बोलने' के भाव में लिया जाता है, किन्तु इसका वास्तविक अर्थ 'छोटा' या संक्षेप' है क्योंकि यह शब्द लैटिन भाषा के शब्द brevis से उद्भूत है. अंग्रेज़ी भाषा का शब्द brief भी लैटिन के इसी शब्द से बनाया गया है.

पर्व

The Power of Small: Why Little Things Make All the Differenceशास्त्रों में 'पर्व' सब्द के दो भाव संभव हैं, क्योंकि यह शब्द लैटिन भाषा के दो शब्दों पर्विस तथा पर्वुस से उद्भूत किया गया है जिनके अर्थ क्रमशः 'आँगन' तथा 'छोटा' हैं. आधुनिक संस्कृत में 'पर्व' का अर्थ 'त्यौहार' है जो शब्द के मौलिक आशयों से कोई सम्बन्ध नहीं रखता है, इसलिए इस आधार पर किये गए शास्त्रीय अनुवाद विकृत होते हैं.

सत्य, सत्व

Lust, Caution (Widescreen, R-Rated Edition)शास्त्रों में सत्य और सत्व शब्द लैटिन भाषा के satyrus से बनाए गए हैं जिसका अर्थ 'विलासी' है. आधुनिक संस्कृत में इनके अर्थ सच्चाई के भाव में लिए गए है जो 'विलासिता' से विपरीत भाव हैं. इस प्रकार शास्त्रों के आधुनिक संस्कृत के आधार पर किये गए अनुवाद मूल आशय के विपरीत भाव व्यक्त करते हैं जिससे शात्रीय भावों में विकृति उत्पन्न होती है.  

रविवार, 18 अप्रैल 2010

आर्यों का भारत आगमन

सिकंदर के भारत पर आक्रमण और उसके कृष्ण के सानिध्य में दक्षिण भारत में बस कर एक बड़े युद्ध की तैयारियों में जुट जाने से देवों में चिंता व्याप्त हो गयी. कृष्ण और पांडवों ने उन के योद्धाओं की एक-एक करके पहले ही हत्या कर दी थी इसलिए उनकी क्षीण हो चुकी थी, जिसके कारण वे स्वयं युद्ध करने में असमर्थ थे. उनमें से जो प्रमुख व्यक्ति जीवित थे उनमें विष्णु, जीसस ख्रीस्त, विश्वामित्र, भरत और कर्ण आदि सम्मिलित थे.

उधर सिकंदर ने पर्शिया के शासक डराय्स-द्वितीय को पराजित कर दिया था और वह महान योद्धा जंगलों में भटक रहा था. पर्शिया का साम्राज्य ही आर्य साम्राज्य था और उस समय उनका प्रमुख डराय्स ही था. यह जाति देवों की तरह ही एक सभ्य जाति थी और यवनों से आतंकित थी. विष्णु ने डराय्स-द्वितीय से संपर्क स्थापित किया और उसे भारत में सेना संगठित कर यवनों का मुकाबला करने को राजी कर लिया. डराय्स-द्वितीय का भारतीय नाम दुर्योधन रखा गया जो कौरव प्रमुख के रूप में विख्यात है. इस प्रकार आर्य जाति का भारत में आगमन हुआ. यह जाति मूल रूप से यूरोप में क्यूरा नदी पर बसती थी जिसके कारण इसे कुरु वंश भी कहा गया है. वहीं से आकर इस जाति ने पर्शिया में अपना साम्राज्य स्थापित किया और बेबीलोन को अपनी राजधानी बनाकर विश्व के सुन्दरतम नगर के रूप में विकसित किया था. पर्शिया का एक अन्य नाम आर्यणाम था जिससे आधुनिक शब्द ईरान बना है.  स्वयं के साम्राज्य की स्थापना हेतु आर्य जाति ने अनेक युद्ध किये थे जिसके कारण इन्हें युद्ध का अच्छा अनुभव था.

दुर्योधन के बारे में एक और ऐतिहासिक तथ्य प्रासंगिक है. उसके एक पूर्वज सायरस ने हिन्दुकुश पार करके सिन्धु घाटी के नगरों के समूह को गांधार नाम दिया था. इस प्रकार गान्धार, दुर्योधन और शकुनी का गुप्त सम्बन्ध स्थापित होता है.

विष्णु स्वयं यवन आतंक के निशाने पर थे और वे अकेले खुले रूप में नहीं रह सकते थे. इसलिए उन्होंने शकुनी का छद्म रूप धारण किया और दुर्योधन के मामा बनकर कौरव पक्ष के नीतिकार के रूप में कार्य करते रहे. इस विषयक सन्दर्भ भावप्रकाश नामक शास्त्र में गुप्त रूप में उपलब्ध है. क्योंकि महाभारत में यवन समूह की विजय के बाद कोई भी तथ्य स्पष्ट रूप में नहीं लिखा जा सकता था, जबकि भाव प्रकाश नामक ग्रन्थ स्वस्तिका, लक्ष्मी और सरस्वती देवियों ने महाभारत युद्ध के बाद उडीसा के तितलागढ़ नामक स्थान पर एक गुफा में गुप्त वास में लिखा था. तित्लागढ़ विष्णु की माँ देवी सुमित्रा का मायका था जिसके निकट के विशाल घोडार नामक ऐतिहासिक स्थल की प्राचीनता अब दम तोड़ रही है तथापि आसपास की पहाड़ियों पर अनेक भित्तिचित्र आज भी विद्यमान हैं.  

आर्यों का भारत आगमन

सिकंदर के भारत पर आक्रमण और उसके कृष्ण के सानिध्य में दक्षिण भारत में बस कर एक बड़े युद्ध की तैयारियों में जुट जाने से देवों में चिंता व्याप्त हो गयी. कृष्ण और पांडवों ने उन के योद्धाओं की एक-एक करके पहले ही हत्या कर दी थी इसलिए उनकी क्षीण हो चुकी थी, जिसके कारण वे स्वयं युद्ध करने में असमर्थ थे. उनमें से जो प्रमुख व्यक्ति जीवित थे उनमें विष्णु, जीसस ख्रीस्त, विश्वामित्र, भरत और कर्ण आदि सम्मिलित थे.

उधर सिकंदर ने पर्शिया के शासक डराय्स-द्वितीय को पराजित कर दिया था और वह महान योद्धा जंगलों में भटक रहा था. पर्शिया का साम्राज्य ही आर्य साम्राज्य था और उस समय उनका प्रमुख डराय्स ही था. यह जाति देवों की तरह ही एक सभ्य जाति थी और यवनों से आतंकित थी. विष्णु ने डराय्स-द्वितीय से संपर्क स्थापित किया और उसे भारत में सेना संगठित कर यवनों का मुकाबला करने को राजी कर लिया. डराय्स-द्वितीय का भारतीय नाम दुर्योधन रखा गया जो कौरव प्रमुख के रूप में विख्यात है. इस प्रकार आर्य जाति का भारत में आगमन हुआ. यह जाति मूल रूप से यूरोप में क्यूरा नदी पर बसती थी जिसके कारण इसे कुरु वंश भी कहा गया है. वहीं से आकर इस जाति ने पर्शिया में अपना साम्राज्य स्थापित किया और बेबीलोन को अपनी राजधानी बनाकर विश्व के सुन्दरतम नगर के रूप में विकसित किया था. पर्शिया का एक अन्य नाम आर्यणाम था जिससे आधुनिक शब्द ईरान बना है.  स्वयं के साम्राज्य की स्थापना हेतु आर्य जाति ने अनेक युद्ध किये थे जिसके कारण इन्हें युद्ध का अच्छा अनुभव था.

दुर्योधन के बारे में एक और ऐतिहासिक तथ्य प्रासंगिक है. उसके एक पूर्वज सायरस ने हिन्दुकुश पार करके सिन्धु घाटी के नगरों के समूह को गांधार नाम दिया था. इस प्रकार गान्धार, दुर्योधन और शकुनी का गुप्त सम्बन्ध स्थापित होता है.

विष्णु स्वयं यवन आतंक के निशाने पर थे और वे अकेले खुले रूप में नहीं रह सकते थे. इसलिए उन्होंने शकुनी का छद्म रूप धारण किया और दुर्योधन के मामा बनकर कौरव पक्ष के नीतिकार के रूप में कार्य करते रहे. इस विषयक सन्दर्भ भावप्रकाश नामक शास्त्र में गुप्त रूप में उपलब्ध है. क्योंकि महाभारत में यवन समूह की विजय के बाद कोई भी तथ्य स्पष्ट रूप में नहीं लिखा जा सकता था, जबकि भाव प्रकाश नामक ग्रन्थ स्वस्तिका, लक्ष्मी और सरस्वती देवियों ने महाभारत युद्ध के बाद उडीसा के तितलागढ़ नामक स्थान पर एक गुफा में गुप्त वास में लिखा था. तित्लागढ़ विष्णु की माँ देवी सुमित्रा का मायका था जिसके निकट के विशाल घोडार नामक ऐतिहासिक स्थल की प्राचीनता अब दम तोड़ रही है तथापि आसपास की पहाड़ियों पर अनेक भित्तिचित्र आज भी विद्यमान हैं.  

जमींदारी प्रथा की वापिसी और प्रतिकार उपाय

विश्व भर में औद्योगिक क्रांति और वैज्ञानिक विकास कार्यों के होते हुए भी भारत की अर्थ-व्यवस्था की मेरु आज भी कृषि ही है, साथ ही इसी से यहाँ की लगातार बढ़ती जनसँख्या जीवित बनी हुई है. कृषि भूमि के स्वामियों को दो वर्गों में रखा जा सकता है - कृषक और कृषि-स्वामी. कृषि व्यवसाय में उपज के आधार पर हानिकर स्थिति के कारण कृषकों की रूचि इसमें कम होती जा रही है, केवल विवशता शेष रह गयी है. दूसरी ओर भूमि के तीव्र गति से बढ़ते मूल्यों के कारण अन्य व्यवसायियों की रुच कृषि भूमि के क्रय में बढ़ रही है जिसके कारण भूमि कृषकों के हाथों से खिसकती जा रही है.

कृषकों के पास कृषि भूमि के अभाव का दूसरा बड़ा कारण यह है भूमि स्वामित्व में कृषक के सभी पुत्रों का समान अधिकार होता है चाहे वे कृषि कार्य करते हों अथवा किसी अन्य व्यवसाय अथवा आजीविका साधन में लगे हुए हों. जो पुत्र कृषि कार्य न कर रहे होते हैं, इस प्रकार उन्हें आय के दो साधन उपलब्ध हो जाते हैं - उनका अपना व्यवसाय तथा कृषि भूमि से आय. इस कारण से कृषक सापेक्ष रूप में निरंतर निर्धन होते जा रहे हैं जबकि भूमि के अन्य स्वामी धनवान बनते जा रहे हैं. ये लोग अपनी सम्पन्नता का उपयोग प्रायः कृषि भूमि क्रय के लिए करते हैं. निर्धन कृषक भी इसका विरोध करने में असक्षम होते हैं और वे अपनी भूमि इन कृषि न करने वाले भू स्वामियों को अपनी भूमि विक्रय करते रहते हैं. इससे भी कृषि भूमि के स्वामित्व उन लोगों के हाथों में जा रहा है जो स्वयं कृषि नहीं करते और उसे कृषकों के माध्यम से मजदूरी पर करते हैं.

इस नयी पनपती व्यवस्था से शीघ्र ही कृषि क्षेत्र में जमींदारी व्यवस्था पुनः स्थापित हो जायेगी जो स्वतन्त्रता के बाद सन १९५० में उन्मूलित की गयी थी. जमींदारी उन्मूलन का मुख्य उद्येश्य कृषकों को भू स्वामित्व प्रदान करना था किन्तु स्वतंत्र देश की शासन व्यवस्था ही इसके प्रतिकूल परिस्थितियां उत्पन्न कर रही है. देश की स्वतन्त्रता और व्यवस्था की यह सबसे बड़ी विडम्बना है कि कृषि व्यवस्था अपने वांछित रूप में ६० वर्षों में ही दम तोड़ती प्रतीत हो रही है.

स्वतंत्र भारत के संविधान में कृषि बूमि के स्वामित्व में उत्पन्न इस विकृति के दोनों कारणों का प्रतिकार करने के प्रावधान नहीं हैं  जो इसके खोखलेपन को उजागर करता है. जमींदारी व्यवस्था की वापिसी से देश की सामाजिक व्यवस्था चरमरा जायेगी और कृषि क्षेत्र के दुरावस्था से देश की अर्थ व्यवस्था भी दुष्प्रभावित होगी. समाज में निर्धनों और धनवानों के मध्य खाई गहरी होती जायेगी जिससे सामाजिक अपराधों में वृद्धि होगी. रक्त रंजित क्रांति भी नकारी नहीं जा सकती. इसलिए भूमि प्रबंधन में उक्त विकृति के प्रति तुरंत कारगर उपाय करने की आवश्यकता है.

भूमि राष्ट्र की जल, वायु खनिज, आदि की तरह ही प्राकृत संपदा होती है, इस पर व्यक्तिगत स्वामित्व इसकी मूल प्राकृतिक व्यवस्था के प्रतिकूल है. इसलिए बौद्दिक जनतंत्र में समस्त भूमि को राष्ट्र के स्वामित्व में रखे जाने का प्रावधान है जो प्रत्येक उपयोक्ता को उसकी वास्तविक आवश्यकता के अनुसार समुचित कराधान पर उपलब्ध काराई जायेगी.

शनिवार, 17 अप्रैल 2010

शासन व्यवस्था के तीन उद्भव और उनकी समीक्षा

ईसा से लगभग ४०० वर्ष पूर्व से विश्व के सभ्य समाजों ने स्वयं को व्यवस्थित करना आरम्भ कर दिया था. तब से उत्तरोत्तर काल में प्रमुखतः ३ प्रकार शासन व्यवस्थाएं उद्भूत हुईं.
 
परम ज्ञान का सिद्धांत 
विश्व की प्रथम जनतांत्रिक व्यवस्था एथेंस नगर राज्य में लगभग ४०० ईसापूर्व में लागू की गयी थी जिसके प्रतिपादक देमोक्रितु थे. यह एक शासन न होकर व्यवस्था थी जिसमें नगर के सभी लोग अथेना नामक भवन में एकत्र होकर सार्वजनिक हित के निर्णय लिया करते थे. तब ये निर्णय नगर राज्य के प्रशासकों को क्रियान्वयन हेतु सौंप दिए जाते थे..

इस व्यवस्था के प्रतिपादक पूर्णतः उपयोगितावादी थे जो सामाजिक व्यवस्था में उग्र भावावेश के प्रबल विरोधी थे और ब्रह्माण्ड और व्यक्तिगत जीवन के स्वतः उद्भवन में आस्था रखते थे. सामाजिक व्यवस्था में वे सभी की भागीदारी के पक्षधर थे, यहाँ तक कि उस समय प्रचलित दासप्रथा के अंतर्गत दासों को भी वे भागीदार बनाते थे. इन्होने परम ज्ञान का सिद्धांत प्रतिपादित किया जिसके अनुसार मानवीय बुद्धि ही सर्वोपरि है जिसके सापेक्ष ही अन्य संकल्पनाओं का आकलन किया जाना चाहिए. अतः प्रत्येक काल में तात्कालिक मानवीय बुद्धि ही उस काल के परम सत्य को जान सकती है.

इस सिद्धांत के अनुसार ही सामाजिक व्यवस्था के निर्णय सामूहिक विवेक के माध्यम से लिए जाते थे जिसे परम बुद्धिमत्तापूर्ण मना जाता था. यह समाज में सौहार्द और सामंजस्य विकास हेतु व्यवस्था थी और केवल ऐसे समाज पर लागू की जा सकती थी जिसमें समाज वर्गीकृत न हो और विशेषतः प्रदूषित संस्कारों वाले व्यक्ति समाज के अंग न हों. समाज में विरोधाभास न होने के कारण ऐसी व्यवस्था में किसी चुनाव की आवश्यकता नहीं होती थी. अतः परस्पर विरोधाभासों वाले समाजों में यह व्यवस्था लागू नहीं की जा सकती.

प्लेटो का सापेक्षतावाद सिद्धांत
एथेंस नगर राज्य के प्रबल विरोधी स्पार्टा राज्य द्वारा दैमोक्रितु से लगभग ३० वर्ष छोटे प्लेटो को एथेंस में वहां की व्यवस्था को भंग करने हेत भेजा गया था जिसने वहां जाकर अकादेमी नामक स्कूल की स्थापना की और वहां के शीर्ष विद्वान् सुकरात के शिष्य होने का आडम्बर किया. वह दैमोक्रितु के परम ज्ञान के सिद्धांत और जनतंत्र का घोर विरोधी था जिसके लिए उसने अपनी पुस्तक रिपब्लिक में सापेक्षतावाद सिद्धांत और एक-क्षत्र शासन तंत्र का प्रतिपादन किया

इस सिद्धांत के अनुसार बौद्धिक ज्ञान परम ज्ञान न होकर केवल सापेक्ष ज्ञान होता है जो ज्ञान और विचारों की की प्रतीति मात्र होता है. वास्तविक ज्ञान परिस्थिति एवं काल-निरपेक्ष होता है जो मानवीय बुद्धि द्वारा ग्रहण नहीं किया जा सकता. यह केवल चुनिन्दा व्यक्तियों को प्राप्त होता है जो शासन करने हेतु ही जन्म लेते हैं.

लोके का सापेक्षता सिद्धांत
इस सिद्धांत के अनुसार सभी मनुष्य अपनी-अपनी परिस्थितियों के अनुसार ज्ञान प्राप्त करते हैं अतः कोई भी परम ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता. इस कारण से सभी मानव आदर्श मानव के सापेक्ष आधे-अधूरे होते हैं. विश्व के सभी समुदाय ऐसे आधे-अधूरे व्यक्तियों के समुच्याय होते हैं. इस कारण से किसी भी मनुष्य को दूसरों पर शासन करने का अधिकार प्राप्त नहीं होता. इसलिए सभी मनुष्यों को एक समान अधिकार प्राप्त होने चाहिए और प्रत्येक को एक दूसरे के प्रति सहिष्णु होना चाहिए. आधुनिक जनतंत्र इसी सिद्धांत पर आधारित हैं.

समीक्षा
प्लेटो का सापेक्षता सिद्धांत और उसके अंतर्गत एक-क्षत्र शासन तंत्र एक कृत्रिम एवं कपट-पूर्ण संकल्पना थी जो जन-सामान्य को पशुतुल्य और चुनिन्दा व्यक्तियों को महामानव घोषित करती थी. भारत में प्रचलित अवतारवाद, भाग्यवाद, आदि संकल्पनाएँ भी इसी प्लेटो और उसकी अकादेमी की देनें थीं. इन्हें किसी भी दृष्टि से मानवीय नहीं कहा जा सकता.

लोके के सापेक्षता सिद्धांत में अपूर्णता को समानता का आधार माना गया है, जो एक ऋणात्मक दर्शन है. इस आधार पर स्थापित शासन व्यवस्था के अंतर्गत समाज में अप्पोर्नता का ऋणात्मक बोध जागृत होना स्वाभाविक है. इस कारण से बेन्त्रेन्द रसेल जैसे आधुनिक दार्शनिकों ने आधुनिक जनतांत्रिक व्यवस्था के पक्ष में धनात्मक बिंदु खोजने के निष्फल प्रयास किये. इस कारण से वर्तमान जनतांत्रिक व्यवस्थाएं सफल नहीं हो पा रही हैं.

ज्ञान-विज्ञानं सतत संवर्धित होता रहर है इसलिए किसी भी समय मानवीय ज्ञान परम स्थिति में नहीं कहा जा सकता, तथापि मानवीय गयम तत्कालीन अवस्था में पूर्ण हो सकता है. इसके अतिरिक्त मानवता के पास ज्ञान प्राप्त करने का बुद्धि ही सर्वश्रेष्ठ साधन है, जिसके आधार पर ही दैमोक्रितु ने मानवीय ज्ञान को ही परम ज्ञान कहा था यद्यपि उसे तात्कालिक परम ज्ञान कहना चाहिए था. इसलिए, दैमोक्रितु का परम क्यां का सिद्धांत ही मानव जाति के लिए सर्वाधिक उपयुक्त सिद्धांत है.


इस सिद्धांत में ज्ञान को ही सर्वाधिक महत्व दिया गया है. जिस समय और जिस स्थान पर यह सिद्धांत प्रतिपादित और लागू किया गया था, तब अथेन्स की समस्त जनसँख्या बौद्धिक थी और उनमें बौद्धिक अंतराल नगण्य थे. इसलिए जनतांत्रिक व्यवस्था सफल सिद्ध्हो रही थी. आज, विशेषकर विकास-शील और अविकसित विश्व में लोगों में बौद्धिक समानता नहीं है इसलिए मानव-मानव में बौद्धिक अंतराल के कारण सभी को अपेक्षित ज्ञान होना संभव नहीं हो पा रहा है. इसलिए दैमोक्रितु के सिद्धांत के अनुपालन के लिए राजनैतिक सत्ता बौद्धिक वर्ग के हाथों में होनी चाहिए. इसी में समस्त मानव जाति का कल्याण निहित है. बौद्धिक जनतंत्र की परिकल्पना इसी उद्येश्य को समर्पित है.
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शुक्रवार, 16 अप्रैल 2010

लोक नेतृत्व की पात्रता

राम और कृष्ण के दो उदाहरण हमारे समक्ष हैं जिनमें से प्रथम ने यह कदापि नहीं कहा कि वह परमेश्वर है और लोक नेतृत्व हेतु सुयोग्य है जब कि दूसरे ने ऐसा कोई अवसर नहीं छोड़ा जब उसने न कहा हो कि वही सर्व जगत का संचालक है और उसी को सभी कुछ समर्पित किया जाना चाहिए - नेतृत्व भी. प्रथम इतने लोकप्रिय हुए कि दूसरे को उन्हें अपने मार्ग से हटाना पड़ा. यहाँ तक कि उनके अनुयायियों ने महाभारत ग्रन्थ के अनुवाद करते समय मूल पथ में जहाँ-जहाँ 'राम' शब्द आया है हिंदी पाठ में उसके स्थान पर 'बलराम' अथवा 'परसुराम' कर दिया.ताकि लोग राम और कृष्ण को आमने सामने पाकर कहीं उनके चरित्रों की तुलना न करने लगें. इस प्रकार राम को लाखों वर्ष पहले के त्रेता युग में होना दर्शा दिया. यह तो रहा आपके शोध के लिए नेतृत्व संबंधी एक प्रसंग. अब आते हैं हम आधुनिक युग में यह जानने के लिए कि लोग किसे अपना नायक बनते हैं.

लोक नेतृत्व का प्रथम पक्ष यह है कि लोग उसी को अपना नायक चुनते हैं जो वह प्रदान कर सके जो वे स्वयं प्राप्त नहीं कर सकते. प्रत्येक उपलब्धि के लिए सर्व परहम आवश्यक होता है पाने का साहस, जो सभी में नहीं होता. सभी कुछ और पाना चाहते हैं किन्तु साहस नहीं बटोर पाते. अतः जो उनके साहसिक अभाव की पूर्ति करता है, लोग उसी को अपना नायक बनते हैं.

साहस का सदुपयोग किया जा सकता है और दुरूपयोग भी. स्वयं की उपलब्धि के लिए साहस करना दुरूपयोग है और लोक हित में इसका उपयोग करना इसका सदुपयोग है. सदुपयोग के लिए आवश्यक होती है न्यायप्रियता, अर्थात जो जिसके सुयोग्य है उसे वह प्राप्त कराया जाये. इस प्रकार साहस के साथ साथ न्यायप्रियता लोक नेतृत्व की पात्रता के आवश्यक तत्व हैं. न्याय प्रियता को सत्य निष्ठा के भाव में भी लिया जा सकता है.

लोग सबसे पहले अपनी तात्कालिक आवश्यकताओं की आपूर्ति चाहते हैं, तत्पश्चात वे दीर्घकालिक आवश्यकताओं की ओर ध्यान देते हैं. किन्तु उससे आगे कदापि नहीं जाते क्योंकि उनका दृष्टिकोण वहीं तक सीमित होता है. नायक से वे इन सबसे अधिक कुछ अपेक्षा नहीं कर सकते. किन्तु यह नेतृत्व की पराकाष्ठा नहीं है.

जीवन जैसे दृष्ट भविष्य से आगे भी हो सकता है, उसी प्रकार उपलब्धियां तात्कालिक और दीघकालिक आवश्यकताओं की आपूर्ति से भी और अधिक हो सकती है. नायक का कर्तव्य है कि वह लोगों को वह भी प्रदान कराये जो लोगों के लिए कल्पनातीत हो. ऐसे नायक को कभी यह कहना नहीं पड़ता कि वह उनका नायक है, लोग स्वयं ही उसे अपना नायक घोषित कर देते हैं. इस प्रकार लोक नेतृत्व की तीसरी पात्रता लोगों को कल्पनातीत उपलब्धियों के मार्ग पर अग्रसर करना है.

वस्तुतः जिस वस्तु अथवा सुविधा की लोग अपेक्षा अथवा आकांक्षा करें, उस पाना कोई विकास कार्य नहीं है, केवल आवश्यकताओं की आपूर्ति है. इससे मानव सभ्यता का विकास नहीं होता. विकास वही है जो वर्तमान में कल्पनातीत हो किन्तु निकट भविष्य में उसकी उपलब्धि का मार्ग प्रशस्त हो. इसके लिए नायक में अध्ययनशीलता, शोधपरकता एवं दूरदर्शिता की आवश्यकता तो होती ही है, उसका प्रयोगधर्मी होना भी आवश्यक होता है. .   .

नेतृत्व का अभाव

स्वतंत्रता संग्राम ने भारत को अनेक नेता प्रदान किये थे जिनमें से महात्मा गाँधी और सुभाष चन्द्र बोस शीर्षस्थ रहे हैं  स्वतन्त्रता के बाद भी सरदार पटेल ने देश के गृहमंत्री के रूप में जो कर दिखाया था नेहरु जैसे तथाकथित नेता उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते थे. सादगी की प्रतिमूर्ति लाल बहादुर शास्त्री ने कलुषित राजनीति में देश के हितों की रक्षा में अपने प्राण त्याग दिए. ये दोनों भी स्वतन्त्रता संग्राम की ही देन थे.

देश की उस पीढी के बाद नहरू ने अपने परिवार के हितों की रक्षा करते हुए देश में कुशल नेतृत्व का विकास अवरुद्ध कर दिया और नेहरु, इंदिरा आदि के षड्यंत्रों से देश की बागडोर स्वार्थी तत्वों के हाथ में चली गयी, जिसके कारण भारतीयता का अर्थ स्वार्थपरता माना जाने लगा है जिससे आज का भारत पीड़ित है.

गाँव देश की मौलिक इकाई होता है, अतः जो देश में होता है, कुछ वैसा ही गाँव-गाँव में भी होता रहता है. जैसे देश के नेता धनबल के माध्यम से सत्ता हथियाते रहे हैं, कुछ वैसा ही गाँवों में भी होता रहा है. यहाँ स्पष्ट कर दूं कि आदर्श स्थिति में देश का नेतृत्व गाँव-गाँव के नेतृत्व से प्रभावित होना चाहिए, किन्तु भृष्ट राजनीति में गाँव-गाँव का नेतृत्व देश के नेतृत्व से प्रभावित होता है. इसका मूल कारण है कि सदाचार सदैव लघुतम स्तर से विशालता के ओर अग्रसर होता है जबकि भृष्टाचार सदैव उच्चतम स्तर से निम्न स्तर की ओर बढ़ता है. भारत को भृष्टाचार पूरी तरह निगल चुका है.और इसका आरम्भसत्ता के उच्चतम स्तर से आरम्भ हुआ था.

१९४० से लेकर १९८० तक पिताजी श्री करन लाल गाँव तथा क्षेत्र के निर्विवादित नेता थे. उस समय तक लोगों में स्वार्थ भावना जागृत नहीं हुई थी और वे सुयोग्यता और कर्मठता पर सहज विश्वास करते थे. इसलिए गाँव के सभी प्रमुख कार्य पिताजी पर छोड़ दिए जाते थे और वे गाँव के विकास के लिए यथासंभव प्रयास करते रहते थे. सन १९५२ में उन्होंने गाँव के जूनियर हाई स्कूल की नींव डॉक्टर राम मनोहर लोहिया के हाटों से रखवाई. सन १९५६ में जब गाँव के जमींदारों ने प्राथमिक विद्यालय को उजाड़ दिया था, उस समय गाँव में प्राथमिक विद्यालय के लिए नया भवन बनवाया.

१९६२ में मेरे एक ताउजी श्री नंदराम गुप्त गाँव आये जो उससे पूर्व प्रतापगढ़ जनपद की कुंडा तहसील से समाजवादी विधायक रह चुके थे. पिताजी के बाहर के कामों में व्यस्त रहने के कारण गाँव वालों ने प्रधान पद पर उन्हें विराजित कर दिया. १९६४ में उन्होंने गाँव का विद्युतीकरण करा दिया जब आसपास के किसी गाँव में विद्युतीकरण नहीं हुआ था. उसी काल में उन्होंने गाँव में एक कन्या पाठशाला की स्थापना की. जमींदारों द्वारा उजड़े गए जूनियर हाई स्कूल को पुनः आरम्भ कराया.

Breaking Her Willगाँव में आज भी विकास के नाम पर पिताजी और ताउजी की ही उक्त चार देनें हैं. इसके बाद गाँव की राजनैतिक सत्ता उन तत्वों के हाथ में खिसक गयी जो गाँव-वासियों का शोषण ही करते रहे हैं. और विगत ४० वर्षों में गाँव में कोई विशेष विकास कार्य नहीं हुआ है. निर्बलों पर अत्याचार, विकास हेतु प्राप्त धन का हड़पा जाना, गाँव सभा की संपदाओं पर व्यक्तिगत अधिकार करना, गाँव के रास्तों पर घर बनाना, खेतों के रास्तों को खेतों में मिलाना, और विद्युत् की चोरी करते रहना आदि ही गाँव की संस्कृति बन गए हैं जिसके लिए गाँव के सबल सत्ताधारी पूरी तरह सक्रिय रहते हैं. इस अवस्था में गाँव का नेतृत्व भृष्ट लोगों द्वारा हथिया लिया गया है.
 
सन २००० से मैंने गाँव से कुछ सम्बन्ध स्थापित किया है, और २००५ से यहीं स्थाई रूप से रह रहा हूँ. इस अवधि में एक बलात्कार के अपराध में गाँव के सबल लोगों को दंड दिलाया है, प्राथमिक विद्यालय को बचाया है, और गाँव की विद्युत् स्थिति में गुणात्मक सुधार कराये हैं, साथ ही लोगों को विद्युत् चोरी न करने के लिए समझाया है. इस सबसे लोग पुनः जाग्रति की ओर बढ़ रहे हैं और वे दुराचारियों  का मुकाबला करने के लिए तैयार हो रहे हैं.    

सोमवार, 12 अप्रैल 2010

संवाद की विलक्षणता

भाषा विकास द्वारा मनुष्य जाति ने अपना मंतव्य स्पष्ट रूप से व्यक्त करने की विशिष्टता पायी है. इसके लिए दो माध्यम विशेष हैं - वाणी और लेखन. चित्रांकन और भाव प्रदर्शन भी इसके सशक्त माध्यम हैं. प्रत्येक मनुष्य किसी न किसी रूप में इन चारों माध्यमों का उपयोग करता है किन्तु प्रत्येक की सक्षमता दूसरों से भिन्न हो सकती है.
सांवादिक कौशल के निम्नांकित विशेष लक्षण होते हैं -

संक्षिप्त
लम्बे संवाद सुनते समय श्रोता वर्तमान को तो ग्रहण करता जाता है किन्तु विगत तथ्यों को विस्मृत करता जता है. इससे संवाद की सार्ताकता नष्ट हो जाती है. इसलिए प्रत्येक संवाद चाहे मौखिक हो अथवा लिखित, संक्षिप्त होना चाहिए ताकि श्रोता अथवा पाठक एक ही समय पर पूरे संवाद को ग्रहण कर सके.   .  

पुनरावृत्ति न्यूनतम
किसी संवाद की संक्षिप्ति के लिए यह भी वांछित है कि उसमें बावों की पुनरावृत्ति न्यूनतम हों, तथापि इनकी उपस्थिति किसी भाव पर विशेष बल देने के लिए आवश्यक हो सकती है.  

प्रासंगिक
प्रसंग के बाहर जाने पर संवाद का अनावश्यक विस्तार हो जाता है और श्रोता उससे संलग्न नहीं रह पाता. श्रोता की इस अरुचि से संवाद निरर्थक हो जाता है.  

बिन्दुवार  
किसी वृहत प्रसंग को व्यक्त करने के लिए उसे क्रमित बिन्दुओं में विभाकित किया जाता है  इसके बाद संवाद को बिन्दुवार व्यक्त किया जाता है. . 

लक्ष्य्परक
प्रत्येक संवाद में दो पक्ष होते हैं - वक्ता तथा श्रोता. प्रत्येक श्रोता किसी संवाद को ग्रहण करने के लिए अपनी विशिष्ट सुयोग्यता रखता है. अतः कोई भी संवाद सभी श्रोताओं के लिए ग्रहणीय नहीं होता  और न ही कोई श्रोता सभी संवादों को समान रूप से ग्रहणीय माँ सकता है. अतः प्रत्येक संवाद लक्षित श्रोता वर्ग की योग्यता के अनुसार रचा जाना चाहिए.

कुछ वक्ता संवाद का लक्ष्य-परक निर्धारण न करके उसे अपनी बुद्धिमत्ता के परिचायक के रूप में प्रस्तुत करने की भूल करते हैं जिससे संवाद श्रोता को ग्रहणीय न होने के कारण वक्ता की बुद्धि का परिचायक भी नहीं हो पाता.

शिक्षाप्रद
प्रत्येक संवाद किसी विषय पर केन्द्रित होता है और उसका लक्ष्य श्रोता के उस विषय में ज्ञान को संवर्धित करना ओता है. अत संवाद श्रोता को उस के मूल ज्ञान से आगे की ओर ले जाने में समर्थ होना चाहिए. अन्यथा संवाद में श्रोता की रूचि समाप्त हो जाती है और वह उसे ग्रहण नहीं करता. विषय के अतिरिक्त संवाद यदि श्रोता के भाषा ज्ञान को भी संपुष्ट अथवा संवर्धित करता है तो यह श्रोता के लिए और अधिक लाभकर सिद्ध होता है.  
 
जिज्ञासापरक
संवाद श्रोता में जिज्ञासा जागृत करने वाला तो होना ही चाहिए साथ ही आगे बढ़ता हुआ संवाद श्रोता में जागृत जिज्ञासाओं को संतुष्ट भी करता हुआ होना चाहिए. इससे संवाद में श्रोता की रूचि सतत बनी रहती है. 
 
आधिकारिक 

वक्ता को ऐसे ही विषय पर संवाद स्थापित करना चाहिए जिस पर उसका अधिकार हो और वह उसे श्रोता के समक्ष अपनी प्रस्तुति से सिद्ध भी कर सके. तभी श्रोता में वक्ता के प्रति श्रद्धा उगती है और संवाद अधिक सफल सिद्ध होता है.

बहु-माध्यमी
जैसा कि ऊपर का जा चुका है संवाद के चार माध्यम होने संभव होते हैं - वाणी, लेखन, चित्रांकन तथा भाव प्रदर्शन. मौखिक संवाद में वक्ता का भाव प्रदर्शन संवाद तो सशक्त बनता है जब कि लिखित संवाद में चित्रांकन संवाद को सशक्त एवं रुचिकर बनाता है. आधुनिक कम्पुटर की सहायता से स्थापित संवादों में मौखिक संवादों को भी चित्रांकन से संपुष्ट किया जा सकता है.  अतः प्रत्येक संवाद में एक से अधिक माध्यमों का उपयोग करना लाभकर सिद्ध होता है. 

पारस्परिक संवाद 
पारस्परिक संवाद, जिसे साधारंतायाह बातचीत कहा जाता है, प्रत्येक सहभागी के लिए दूसरे व्यक्ति के संवाद का श्रवण उसकी अपनी अभिव्यक्ति से अधिक महत्वपूर्ण होता है. इसी से संवाद पूरे समय तक सार्थक रह सकता है.  

सार रूप में कहा जा सकता है कि प्रत्येक संवाद मंतव्य को स्पष्ट व्यक्त करता हो, तथा सारगर्भित हो.

विष्णु-मरियम विवाह और जीसस का गणेश रूप

कृष्ण और यवनों द्वारा छल-कपट अपनाते हुए देवों की एक-एक करके हत्या की जा रही थी, जिनमें ब्रह्मा (राम), कीचक, कंस, जरासंध, आदि सम्मिलित थे. इससे  देवों की संख्या निरंतर कम हो रही थी. विष्णु उस समय तक अविवाहित थे, इसलिए वंश वृद्धि के प्रयोजन हेतु उन्होंने मरियम के साथ विवाह किया, जिसके कारण वे विष्णुप्रिया कहलाने लगीं. वे दूध की तरह गोरी थीं इसलिए उन्हें लक्ष्मी अर्थात दूध जैसी (lactum = दूध) कहा जाने लगा और उनके पति विष्णु लक्ष्मण के नाम से भी जाने जाते थे.

देवी लक्ष्मी अत्यंत बलशाली थीं और युद्ध कला में पारंगत, इसलिए विष्णु शत्रु विनाश के लिए भी उनका उपयोग किया करते थे. अपने दुर्गा और काली के छद्म रूपों में भी वे शत्रुओं का विनाश करती रहती थीं. उस समय देवों की संख्या अल्प थी इसलिए प्रत्येक जीवित देव को शत्रुओं में भ्रम और भय फैलाने के लिए अनेक रूप धारण करने होते थे ताकि शत्रुओं को उनकी अल्प संख्या का बोध न हो सके. देवी लक्ष्मी भी इसी कारण से कभी दुर्गा तो कभी काली का रूप धारण किया करती थीं. विष्णु से विवाह के बाद ही विष्णुप्रिया लक्ष्मी ने चन्द्र गुप्त मोर्य को जन्म दिया था, जो गुप्त वंश के प्रथम सम्राट बने थे.

अल्प संख्यक देवों की सुरक्षा के लिए भी उनका छद्म रूपों में रहना आवश्यक था. भरत छद्म रूप धारण करने और इसके लिए साधन निर्माण में निपुण थे. उन्होंने स्वयं भी नौ रूप धारण किये थे.

जीसस अत्यंत मेधावी व्यक्ति थे किन्तु उनमे शारीरिक बल का अभाव था. उधर यवन उन्हें पकड़ने के प्रयासों में लगे रहते थे. इसलिए देवों को उनकी सुरक्षा की विशेष चिंता रहती थी. यवनों के भारत में बसने से पूर्व वे किसी भी स्थान पर एक रात्री से अधिक नहीं ठहरते थे जिसके कारण वे अपने शोध और लेखन कार्य नहीं कर पाते थे. उन्हें गुप्त रूप में एक स्थान पर रखने के लिए भरत ने उन्हें गणेश जी का छद्म रूप प्रदान किया.

गणेश जी का रूप प्रदान करने के लिए अगर की नरम काष्ठ से हाथी की सूंड सहित एक मुखौटा बनाया गया जिससे जीसस के सिर और मुख को आवृत किया गया. इसके बाद वे एक स्थान पर रहकर लेखन कार्य करते रहते थे. जीसस को अनेक नामों से भी जाना जाता था जिनमें श्री, प्रथम, गणेश, सृष्टा आदि प्रमुख थे. भाई बहेन गणेश तथा लक्ष्मी की प्रायः एक साथ पूजा अर्चना की जाती है.          

विष्णु-मरियम विवाह और जीसस का गणेश रूप

कृष्ण और यवनों द्वारा छल-कपट अपनाते हुए देवों की एक-एक करके हत्या की जा रही थी, जिनमें ब्रह्मा (राम), कीचक, कंस, जरासंध, आदि सम्मिलित थे. इससे  देवों की संख्या निरंतर कम हो रही थी. विष्णु उस समय तक अविवाहित थे, इसलिए वंश वृद्धि के प्रयोजन हेतु उन्होंने मरियम के साथ विवाह किया, जिसके कारण वे विष्णुप्रिया कहलाने लगीं. वे दूध की तरह गोरी थीं इसलिए उन्हें लक्ष्मी अर्थात दूध जैसी (lactum = दूध) कहा जाने लगा और उनके पति विष्णु लक्ष्मण के नाम से भी जाने जाते थे.

देवी लक्ष्मी अत्यंत बलशाली थीं और युद्ध कला में पारंगत, इसलिए विष्णु शत्रु विनाश के लिए भी उनका उपयोग किया करते थे. अपने दुर्गा और काली के छद्म रूपों में भी वे शत्रुओं का विनाश करती रहती थीं. उस समय देवों की संख्या अल्प थी इसलिए प्रत्येक जीवित देव को शत्रुओं में भ्रम और भय फैलाने के लिए अनेक रूप धारण करने होते थे ताकि शत्रुओं को उनकी अल्प संख्या का बोध न हो सके. देवी लक्ष्मी भी इसी कारण से कभी दुर्गा तो कभी काली का रूप धारण किया करती थीं. विष्णु से विवाह के बाद ही विष्णुप्रिया लक्ष्मी ने चन्द्र गुप्त मोर्य को जन्म दिया था, जो गुप्त वंश के प्रथम सम्राट बने थे.

अल्प संख्यक देवों की सुरक्षा के लिए भी उनका छद्म रूपों में रहना आवश्यक था. भरत छद्म रूप धारण करने और इसके लिए साधन निर्माण में निपुण थे. उन्होंने स्वयं भी नौ रूप धारण किये थे.

जीसस अत्यंत मेधावी व्यक्ति थे किन्तु उनमे शारीरिक बल का अभाव था. उधर यवन उन्हें पकड़ने के प्रयासों में लगे रहते थे. इसलिए देवों को उनकी सुरक्षा की विशेष चिंता रहती थी. यवनों के भारत में बसने से पूर्व वे किसी भी स्थान पर एक रात्री से अधिक नहीं ठहरते थे जिसके कारण वे अपने शोध और लेखन कार्य नहीं कर पाते थे. उन्हें गुप्त रूप में एक स्थान पर रखने के लिए भरत ने उन्हें गणेश जी का छद्म रूप प्रदान किया.

गणेश जी का रूप प्रदान करने के लिए अगर की नरम काष्ठ से हाथी की सूंड सहित एक मुखौटा बनाया गया जिससे जीसस के सिर और मुख को आवृत किया गया. इसके बाद वे एक स्थान पर रहकर लेखन कार्य करते रहते थे. जीसस को अनेक नामों से भी जाना जाता था जिनमें श्री, प्रथम, गणेश, सृष्टा आदि प्रमुख थे. भाई बहेन गणेश तथा लक्ष्मी की प्रायः एक साथ पूजा अर्चना की जाती है.          

रविवार, 11 अप्रैल 2010

विकार, विकृति

News, Nudity & Nonsense: The Best of Vice Magazine Vol. II 2003-2008विकार
शास्त्रों में 'विकार' शब्द का उपयोग किसी व्यक्ति अथवा वस्तु के स्थान पर कार्य करने दूसरे व्यक्ति अथवा वस्तु के लिए उपयोग किया गया जो लैटिन भासा के शब्द 'vicarius' से उद्भूत है. आधुनिक संस्कृत में इसका अर्थ 'दोष'  है, जो शास्त्रों के हिंदी अनुवाद हेतु उपयुक्त नहीं है.  

 
विकृति
The Emperor's New Grooveचूंकि शास्त्रीय शब्द कृति का अर्थ 'शासक' है, इसलिए 'विकृति' शब्द का अर्थ 'शासक के स्थान पर कार्य करने वाला व्यक्ति' है. आधुनिक संस्कृत में इसका अर्थ बिगड़ी स्थिति लिया जाता है.

कल्प, विकल्प

National Geographic - In the Wombकल्प
In the Womb: Witness the Journey from Conception to Birth through Astonishing 3D Imagesशास्त्रीय शब्द 'कल्प' ग्रीक भाषा के शब्द 'कोल्पोस' का देवनागरी स्वरुप है जिसका अर्थ 'गर्भ' अथवा 'गर्भाशय' है. आधुनिक संस्कृत में इस शब्द को अनक भावों में उपयुक्त किया जाता रहा है जो इसके बारे में अज्ञानता का द्योतक है. चूंकि खडी भी गर्भाशय के रूप में होती है इसलिए शास्त्रों में इसके लिए भी 'कल्प' शब्द का उपयोग किया गया है.  
 
विकल्प
वैदिक संस्कृत में 'वि' प्रत्यत बाद के शब्द द्वारा इंगित वस्तु के समान अथवा उसके स्थान पर उप्युल्ट वस्तु को इंगित करने ले लिए उपयुक्त किया जाता है. इस प्रकार 'विकल्प' का अर्थ 'गर्भ जैसा कोई आवरण' है अथवा ऐसी वस्तु जिसका उपयोग गर्भ के स्थान पर किया जा सकता हो..

नक्सल हिंसा का मूल

अभी कुछ दिन पूर्व छत्तीसगढ़ राज्य में नाक्साल्वादियों ने ७६ सुरक्षाकर्मियों को मौत के घात उतार दिया. देश में और विशेषकर सत्ताधारी राजनेताओं में इस पर भारी चिंता दर्शाई है और मृतकों के परिवारों को सार्वजनिक कोष से मालामाल किया गया है. गृह मंत्री और प्रधान मंत्री ने इस हिंसा पर घडियाली आंसू बहाए हैं और एक दूसरे को पद पर बनाये रखने का गुप्त समझौता कर गृहमंत्री ने त्यागपत्र की इच्छा दर्शाई जिसे प्रधान मंत्री ने तुरंत अस्वीकार कर दिया. यदि गृह मंत्री इस बारे में गंभीर हैं तो वे त्यागपत्र देन, उन्हें पद पर बने रहने के लिए कोई बाध्य नहीं कर सकता.

देश के तथाकथित बुद्धिजीवियों में लम्बे समय से इस विषय पर चर्चाएँ चलती रही हैं.किन्तु ऐसी अधिकाँश चर्चाएँ सत्ताधारी राजनेताओं को प्रसन्न करने के उद्देश्य से ही प्रेरित होती हैं. और समस्या समाधान में निरर्थक ही सिद्ध होती रही हैं. समस्या के मूल पर कोई प्रकाश नहीं डाला जाता. निश्चित रूप से हिंसा पाशविकलक्षण है और मानवीय कारणों से इसकी प्रशंसा नहीं की जा सकती. इसलिए हमें विचार करना होगा कि मनुष्यों को इस पाशविक गुण को अपनाने की प्रेरणा अथवा विवशता क्यों हुई और कौन इसके लिए उत्तरदायी हैं.

१९३८ की फ्रांसीसी क्रांति में सभी भद्र लोगों को जन क्रांति में मौत के गात उतार दिया गया था और शोषित समाज को उनके द्वारा संचालित स्वार्थपरक शासन व्यवस्था को उखड फैंका गया था. यह क्रांति सफल रही थी और विश्व के प्रबुद्ध वर्ग ने इसकी आलोचना नहीं की थी. उस क्रांति का मूल शासक-प्रशासकों द्वारा जन-सामान्य का शोषण था जिसके कारण जन सम्मान्य को पशु स्तर पर जीवित बने रहने की विवशता हो गयी थी. अतः उन्होंने पाशविक गुण हिंसा को अपनाया और एक शोषण-विहीन समाज की स्थापना की.

शोषण भारतीय समाज को अति दीर्घ समय से डसता रहा है किन्तु १९४७ में स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद समाज ने मुल्त वातावरण में सांस ली और आशा की कि लोग शोषण से भी मुक्त हो जायेंगे. किन्तु शासकों ने इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया और अपना शोषण का शिकंजा जन सामान्य पर कसते चले गए. अतः जन-सामान्य की पशु स्तर पर जीवन-यापन करने की विवशता यथावत बनी रही जबकि उसकी आशाएं इसके विपरीत थीं. जो पशु स्तर पर जीने के लिए विवश है, उसे पशु धर्म अपनाने में हिचक भी क्यों हो, इसलिए हिंसा उसका स्वाभाविक गुण है जिसका प्रदर्शन वह नक्सल हिंसा जैसे घटनाक्रमों से करता रहा है.

स्वतात्रता के बाद लोगों के जीवन स्तर में सुधार हुआ है किन्तु इसके साथ  ही शोषण का संवर्धन भी हुआ है. मानुष की संतुष्टि कदापि जीवन स्तर पर निर्भर नहीं करती अपितु परस्पर समानता पर आधारित होती है. तथाकथित स्वतंत्र भारत में शासकों द्वारा शोषण ब्रिटिश शासकों द्वारा शोषण से कई गुणित अधिक है.जिससे जन-सामान्य में रोष व्याप्त है. ब्रिटिश साम्राज्य में शासक वर्ग शोषण करता था किन्तु उद्दंड नहीं था, अनुशासन की लगाम उस पर कसी रहती थी. किन्तु आज के भारतीय शासक और प्रशासक पूरी तरह उद्दंड हो गए हैं और जन सामान्य के किसी भी शोषण में कोई कसर नहीं उठा रखते. साक्ष्य रूप में कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं -
  1. स्वतंत्र भारत में जनता के प्रतिनिधियों ने, जो स्वयं को लोकसेवक कहते हैं,  अपने वेतन भत्ते १०० से अधिक बार बढाकर औसतन 5०० गुणित कर लिए हैं. जबकि जन सामान्य की आय केवल २०० गुणित बढ़ी है. इसी अवधि में उपभोक्ता वस्तुओं के मूल्यों में लगभग ३०० गुणित वृद्धि हुई है. इस  प्रकार जन सामान्य के सापेक्ष जीवन स्तर में गिरावट आयी है. 
  2. वर्त्तमान में एक साधारण व्यक्ति १,००० रुपये प्रति माह पर १२ घंटे प्रतिदिन कठोर परिश्रम के लिए विवश है जबकि उससे कम योग्यता रखने वाले जन-प्रतिनिधि सार्वजनिक कोष से बिना कोई श्रम किये औसतन १,००.००० रुपये प्रति माह पा रहे हैं. साथ ही उसके तथाकथित सेवक, राज्य-नियोजित कर्मी, भी न्यूनतम स्तर पर औसतन दो गनते साधारण श्रम करते हुए १०,००० रुपये प्रति माह पा रहे हैं.  
  3. शिक्षा का व्यवसायीकरण कर शासक-प्रशासकों ने इसे जन-साधारण के लिए दुर्लभ बना दिया है जिससे कि वे सदैव सत्ताधारी बने रहें और जन-साधारण उनके समक्ष अपना सर कदापि न उठा सके. 
  4. ब्रिटिश साम्राज्य में लोगों को न्याय उपलब्ध था जो आज उपलब्ध नहीं है. इससे समाज में अपराधों की वृद्धि हुई है और अराजकता जन-सामान्य के समक्ष खडी रहती है. .        
ऐसे ही अनेक कारणों से जन-सामान्य में रोष व्याप्त है जिसका प्रदर्शन नक्सल हिंसा जैसे घतानाक्रोमों के माध्यम से किया जाता रहता है. आज नक्सल हिंसा की आलोचना केवल इसलिए की जाती है क्यों कि यह क्रांति परिवर्तन लाने में अभी सफल नहीं हो रही है. जिस दिन यह फ्रांसीसी कृंति की तरह सफल हो जायेगी इसकी भी सराहना ही की जायेगी.

देश के ये क्रांतिकारी, जो आज आतंकवादी कहे जाते हैं, भी दिशाविहीन हैं. ये वास्तव में दोषी व्यक्तियों को दंड न देकर निर्दोषों की बलि चढ़ा रहे हैं. हाल की हिंसा में मारे गए ७६ सुरक्षाकर्मी जन-सामान्य की तरह ही विवश थे अतः उनकी हया की सराहना नहीं की जा सकती. इसके स्थान पर यदि एक भी शीर्षस्थ राजनेता की हत्या कर दी जाती तो इस क्रांति का प्रभाव व्यापक होता और देश का जन-सामान्य इससे प्रसन्न ही होता.  

विद्युत् संकट और संघर्ष

 उत्तर प्रदेश के अन्य गाँवों की तरह ही एक वर्ष पहले तक मेरे गाँव खंदोई में भी विद्युत् संकट अपने कैरम पर था - ग्र्रेश्म में विद्युत् वोल्तागे २३० के स्थान पर ५० वोल्ट तक गिरा रहता था, तथा सर्दी में भी १५० वोल्ट से अधिक अपवादस्वरूप ही प्राप्त होता था. कहने को तो प्रदेश सरकार गाँवों को १० घंटे प्रतिदिन बिजली देने का प्रचार करती रही किन्तु यह औसतन ४ घंटे प्रतिदिन ही उपलब्ध होती टी.

जब में २००३ में गाँव में स्थायी रूप से रहने के उद्देश्य से आया, तब मैंने अपने बड़े भाई के साथ रहने आया था..तब  मेरा कंप्यूटर आरम्भ भी नहीं हो सका और मुझे जनपद मुख्यालय बुलंदशहर जाकर रहना पड़ा. वान रहते हुए मैं गाँव में आता रहता और अपना जन संपर्क आसपास के गाँवों तक बढाता रहा.

सन २००५ में में पुनः गाँव में आया और स्वतंत्र रूप से रहने लगा और विद्युत् संकट के विरुद्ध संघर्ष आरम्भ कर दिया. इसके लिए सबसे पहले मैंने विद्युत् कनेक्शन के लिए प्रार्थना पत्र लेकर विद्युत् उपग्रह ऊंचागांव पहुंचा. वहां एक विद्युत्-कर्मी ने मुझे बताया कि वह इस कार्य में सहायता कर सकता है जिसके लिए मुझसे वैध व्यय के लिए लगभग १००० रुपये के अतिरिक्त २००० रुपये सुविधा शुल्क के रूप में देना था. जब वैध व्यय के अतिरिक्त मैंने कुछ भी देने से इंकार कर दिया तो उसने कहा कि मुझे स्वयं जहांगीराबाद स्थित कार्यालय में उपखंड अधिकारी से संपर्क करना चाहिए.

जहांगीराबाद में जाने पर एक कार्यालय सहायक ने मुझे बताया गया कि उपखंड अधिकारी जनपद मुख्यालय बुलंदशहर में रहते हैं और यदा-कदा ही कार्यालय में आते हैं. वह मेरी सहायता के लिए तत्पर था जिसके लिए उसने ३००० रुपये की मांग रखी जो मुझे अस्वीकार्य थी. मैं वापिस आ गया और अगली सुबह उपखंड अधिकारी से टेलेफोन द्वारा जहांगीराबाद में उसके मिलाने का समय पूछा तो उसके बताया कि वह जहांगीराबाद में ही है और मैं दो घंटे तक उससे मिल सकता ता. गाँव से जहांगीराबाद १२ किलोमीटर दूर है और मैं तुरंत वहां के लिए अपनी बाईसाइकिल द्वारा चल दिया और एक घंटे मैं उपखंड अधिकारी कार्यालय में पहुँच गया. वहां ज्ञात हुआ कि उपखंड अधिकारी तब तक कार्यालय में आया ही नहीं था किन्तु उसके आने की संभावना थी. दो घंटे की प्रतीक्षा के बाद वहां अधिकारी आया. मैंने उसे अपनी समस्या बतायी तो उसने मेरे आवेदन पर जूनियर इंजीनियर को अपनी टिप्पणी लिख दी और मुझे उससे मिलने को कहा.

अगले दिन जूनियर इंजीनियर ने अपनी औपचारिक टिप्पणी दे दी और मुझे उपखंड अधिकारी के पास जाने को कहा. इसके बाद मैं अनेक बार उपखंड अधिकारी कार्यालय जहांगीराबाद गया किन्तु अधिकारी को सदैव अनुपस्थित पाया जबकि प्रत्येक बार फ़ोन पर वह मुझे बताता कि वह जहांगीराबाद कार्यालय से ही बोल रहा था. मैं समझ गया कि मुझे रिश्वत न देने के कारण परेशान किया जा रहा है. इसलिए मैंने एक-एक महीने के अंतराल से क्रमशः उच्चतर अधिकारियों को पत्र लिखने आरम्भ कर दिए.किन्तु विद्युत् वितरण निगम के प्रबंध निदेशक तक से मेरे किसी पत्र का उत्तर नहीं दिया गया. इस सब में लगभग ६ महीने का समय व्यतीत हो गया.

इसके बाद मैंने सम्पूर्ण विवरण सहित एक परिवाद पत्र उत्तर प्रदेश विद्युत् नियामक आयोग को लिखा जिसका दायित्व प्रदेश में विद्युत् सेवाओं को नियमित करना है. वहां से मुझे दो महीने बाद एक पंक्ति का उत्तर मिला कि मेरा पत्र आवश्यक कार्यवाही के लिए प्रबंध निदेशक को भेज दिया गया है. प्रबंध निदेशक से अगले दो माह तक मुझे कोई कार्यवाही की जाने की सूचना नहीं मिली.तो मैंने स्वयं उसे लिखा. इसका भी कोई उत्तर नहीं दिया गया. इस सब में ४ महीने और व्यतीत हो गए. इस दौरान मेरा लेखन कार्य बंद रहा और मैं अपना समय बागवानी में लगाता रहा.


अंततः मैंने प्रबंध निदेशक तथा विद्युत् नियामक आयोग को इस लापरवाही के लिए उत्तरदायी ठहराते हुए कानूनी नोटिस दिए लिसमें दोनों के विरुद्ध न्यायालय में जाने की चेतावनी दी. इसके लगभग दो महीने बाद दो विद्युत् कर्मी, जूनियर इंजीनियर और एक नया उपखंड अधिकारी मेरे पास पहुंचे और मुझसे ८८० रुपये देने को कहा ताकि मुझे तुरंत विद्युत् कनेक्शन दिया जा सके. मेरे भुगतान की मुझे रसीद दे दी गयी और मुझे कनेक्शन दे दिया गया. गाँव के इतिहास की यह अभूतपूर्व घटना थी.


विद्युत् कनेक्शन लेने के बाद न्यून वोल्टेज की समस्या मेरे सामने खडी टी और वोल्टेज संवर्धक उपकरण होने पर भी मेरा कंप्यूटर कभी कभी ही चल पाता था. मैंने पाया कि न्यून वोल्टेज होने के अनेक कारण थे -
  1. गाँव में केवल २-३ वैध कनेक्शन थे, लगभग १५ कनेक्शन ऐसे थे जिनपर विद्युत् वितरण निगम ३०,००० रुपये तक कि धनराशी बकाया थी, इसके अतिरिक्त लगभग ४०० कनेक्शन अवैध रूप से चल रहे थे. इस प्रकार १०० किलोवाट के ट्रांसफार्मर पर अपरिमित भार था. गाँव वाले तथा निगम अधिकारी इस सब के प्रति पूरी तरह उदासीन थे - न कोई अधिकार थे और न कोई कर्तव्यपालन.
  2. ट्रांसफार्मर तथा लाइनें बहुत बुरी स्थिति में थी, लाइन में कहीं एक तार था, कहीं दो, तो कहीं तीन.तार थे. न्यूट्रल तथा अर्थ के तार पूरी तरह अनुपस्थित थे. यह लाइन ४० वर्ष पुरानी थी जिसकी कभी कोई देखरेख नहीं की गयी टी. न ही किसी गाँव वाले ने इसे ठीक रखने की मांग की थी. पूरा द्रश्य खंडहर जैसा था जिससे       
कनेक्शन के बाद वोल्टेज के न्यून होने की समस्या समाधान के लिए मैंने पुनः पत्राचार आरम्भ किये किन्तु कोई संतोषजनक हल नहीं निकला. विवशता में मैंने विद्युत् उपभोक्ता व्यथा निवारण फोरम में अपनी शिकायत की. वहां भी पाया कि फोरम दोषी निगम के अधीन कार्य कर रही है और उपभोक्ताओं को कोई विशेष लाभ नहीं हो रहा है. इस पर भी मैं लगभग ६ महीने तक मुकदमे की दर्जन भर तारीखों में उपस्थित हुआ और फोरम ने आधे दिल से औपचारिकता का निर्वाह करते हुए मेरे तकनीक बिन्दुओं पर एक आदेश दिया जिसे वितरण निगम ने कार्यान्वित नहीं किया. फोरम ने भी इसे कार्यान्वित कराने में अपनी असमर्थता दर्शाई. मेरा यह प्रयास भी निष्फल गया.

इस पर मैंने उत्तर प्रदेश के राज्यपाल महोदय को एक पत्र लिखा जिसका उत्तर मिला और सम्बद्ध अधिकारियों से स्पष्टीकरण माँगा गया. पूरा अधिकारी वर्ग राज्यपाल महोदय को संतुष्ट करने में जुट गया और मुझे कोई लाभ प्रदान नहीं किया गया. इसके कुछ सने बाद राह्य्पाल महोदय की ईमेल सुविधा शासन द्वारा बंद कर दी गयी.

इसी दौरान एक पत्र मैंने उत्तर प्रदेश पावर कारपोरेशन को लिखा हहाँ मेरा एक मित्र मुख्य अभियंता पड पर कार्यरत है. उसने मेरी सहायता की और गाँव में विद्युत् स्थिति सुधार के अनेक कार्य किये गए. अब स्थिति ठीक कही हा सकती है. किन्तु यह सब मेरे संघर्ष से न होकर मेरे निजी संपर्क के कारण हुआ है. इस से यही सिद्ध होता है कि देश के शासक-प्रशासक केवल निजी संबंधों के आधार पर ही कार्य कर रहे हैं, जन-सामान्य की समस्याओं के प्रति वे पूरी तरह उदासीन बने हुए हैं.

यह सब सार्वजनिक रूप में प्रकाशित करने का मेरा उद्देश्य अपना गौरव बढ़ाना न होकर जन-सामान्य को यह सन्देश देना है कि देश के शासक-प्रशासक किस प्रकार कार्य कर रहे हैं. अभी नक्सल हिंसा में ७६ सिपाहियों की हत्या पर कुछ लोगों ने मेरी राय जाननी चाही जिसका मेरा उतार नक्सल हिंसा के पक्ष में रहा है क्योंकि शासक-प्रशासकों को जन-समस्याओं के प्रति संवेदनशील बनने के लिए हमारे सभी प्रयास असफल हो रहे हैं. 

    सोमवार, 5 अप्रैल 2010

    भाग्य और लक्ष्य

    अंग्रेज़ी के दो शब्द हैं 'फेट' और 'डेस्टिनी' जिन्हें प्रायः पर्याय के रूप में उपयोग किया जाता है. किन्तु इन दोनों में उतना ही विशाल अंतर है जितना एक साधारण मानव और महामानव में होता है. ये दोनों भी एक जैसे ही दिखते हैं. फेट शब्द लैटिन भाषा के शब्द fatum से बना है तथा इसी से बना है अंग्रेज़ी शब्द फेटल अर्थात हिंदी में 'घातक'. स्पष्ट है भाग्य की परिकल्पना ही मानवता के लिए घातक है.

    डेस्टिनी शब्द से ही उदय हुआ है अंग्रेज़ी शब्द 'डेस्टिनेशन' जो स्वयं निर्धारित नहीं होता, इसे मनुष्य द्वारा निर्धारित किया जाता है, जबकि फेट स्वयमेव निर्धारित कहा जाता है. इस प्रकार दोनों शब्दों के भावों में विशाल अंतराल है. हमारी भाषा देवनागरी में इन अंग्रेज़ी शब्दों के समतुल्य शब्द 'भाग्य' तथा 'लक्ष्य' हैं.
    Fate and Destiny

    आत्मविश्वास और स्वाभिमान के अभाव में व्यक्ति अपना लक्ष्य निर्धारित नहीं करता, उसे चाहिए सदैव एक आश्रयदाता जो उसका भाग्य निर्धारित करता रहे. किन्तु इन दो सद्गुणों से संपन्न व्यक्ति अपना लक्ष्य स्वयं निर्धारित करता है और उस की ओर बढ़ता जाता है. कहते हैं भाग्य इश्वर द्वारा निर्धारित किया जाता है जिसकी संकल्पना भी मनुष्य द्वारा ही की गयी है, और मनुष्य ही इस संकल्पना को जीवंत बनाये हुए हैं..इसका अर्थ यह हुआ कि भाग्य पर आश्रित मनुष्य के भाग्य का निर्धारक भी कोई अन्य मनुष्य ही होता है. जिस मनुष्य का भविष्य कोई अन्य मनुष्य अथवा उसके द्वारा कल्पित ईश्वर करे, वह दूसरे मनुष्य के अधीन सिद्ध हुआ - स्वयं अपने पैरों पर खड़ा होने में असमर्थ. ऐसा मनुष्य जंगली जंतुओं से भी क्षुद्र है. वह स्वयं की इश्वर में आस्था के माध्यम से दूसरे व्यक्तियों को अपना आश्रयदाता स्वीकार करता है, जबकि जंगली जंतु स्वतंत्र होते हैं.

    मनुष्य की सबसे अधिक महत्वपूर्ण संपदा उसकी बुद्धि होती है जो उसकी स्मृति में संचित अनुभवों का विश्लेषण एवं सदुपयोग करते हुए लक्ष्य की ओर आगे बढ़ने का मार्ग प्रशस्त करती है. बुद्धि लगभग सभी व्यक्तियों के पास होती है किन्तु सभी उसका भरपूर उपयोग नहीं करते. इस उपयोग के परिमाण में अंतराक से ही अंतर-मानव अंतराल उत्पन्न होते हैं. बुद्धि के उपयोग को उसका भाग्य पर विस्वास दुष्प्रभावित करता है. जो व्यक्ति सदैव अपनी बुद्धि पर निर्भर करता है, उसे भाग्य अथवा ईश्वरीय सकल्पना पर निर्भर होने की कोई आवश्यकता नहीं होती. ऐसा व्यक्ति ही महामानव बनने की संभावना रखता हैं.

    अतः ईश्वरीय संकल्पना पर आश्रित भाग्य पर आस्था मनुष्य को साधारण मानव पथ का अनुसरण करने से भी भटकाती है. जबकि उसकी बुद्धि उसे स्वतंत्र बने रहने में सक्षम बनाती है किन्तु वह उसका कोई उपयोग नहीं कर पाता. ऐसे मनुष्य का अपना कोई लक्ष्य नहीं होता. वह रस्ते पर पड़े एक पत्थर के समान निष्क्रिय होता है, बौद्धिक व्यक्ति उसको पड-दलित करते हुए आगे बढ़ते जाते हैं और वह भाग्य की प्रतीक्षा में वहीं पडा ही नहीं रहता है,दूसरों का मार्ग भी अवरोधित करता रहता है. इस प्रकार इश्वर और भाग्य की संकल्पनाएँ उनमें आस्था रखने वालों को ही पथ्भ्रिष्ट नहीं करतीं, वे समस्त मानव जाति के ठन में रोड़े भी बनती हैं. बौद्धिक व्यक्ति की विवशता होती है कि वह इन्हें पड-दलित करता हुआ आगे बढ़ता जाये.

    इश्वर और भाग्य की संकल्पनाएँ मानव जजाती को पथ भृष्ट करने हेतु रची गयीं, और इन्हें सतत प्रशस्त भी किया जाता रहा है. ये संकल्पनाएँ धर्म और अध्यात्म की संकल्पनाओं की सहोदर हैं और सभी साथ मिलकर मानव का अहित करती रही हैं. वस्तुतः इनके सूत्रधारों का यही लक्ष्य था और यही लक्ष्य इनके प्रशास्तिकारों का है. इसी में इनके निहित स्वार्थ हैं, क्योंकि इन्ही के माध्यम से ये चतुर व्यक्ति भोले-भाले मानव समुदायों पर अपना मनोवैज्ञानिक शासन बनाये रखते हैं. अनेक समाजों में राजनैतिक शासनों की नींव भी इसी मनोवैज्ञानिक शासन पर निर्मित होती है. अतः चतुर व्यक्ति इन संकल्पनाओं का उपयोग मानव समुदायों पर शासन हेतु करते रहे हैं.  

    रविवार, 4 अप्रैल 2010

    सिकंदर का आक्रमण

    प्रचलित विश्व इतिहास के अनुसार सिकंदर, जिसे यूरोपीय भाषाओँ में अलग्जेंदर कहा जाता है, मिश्र और पर्शिया को विजित करता हुआ ३२३ ईसापूर्व में भारत पहुंचा. वस्तुतः सिकंदर को भारत पर आक्रमण के लिए कृष्ण ने आमंत्रित किया था जिसके लिए संदेशवाहक के रूप में विदुर को भेजा गया था.
    Alexander - Director's Cut (Full Screen Edition)

    भारत के प्रवेश पर ही सिकंदर का सामना भरत ने किया था जिन्हें पुरु वंशी होने के कारण इतिहास में पोरस कहा गया है.इस युद्ध के बारे में बड़ी भ्रांतियां प्रचारित की गयी हैं - कि सिकंदर विजयी हुआ था और उसने भरत को क्षमा कर दिया था. यह सर्व विदित ई कि भारत में आगमन पर सिकंदर की सेना ने विद्रोह कर दिया था. यदि विद्रोह युद्ध से पूर्व किया गया था तो सिकंदर विजयी नहीं हो सकता था, और सिकंदर के विजयी होने बाद सेना को विद्रोह की आवश्यकता ही नहीं थी. यद्यपि सिकंदर की सेना भारतीय सेना की तुलना में अधिक अनुभवी और अस्त्र-शास्त्रों से सुसज्जित थी, किन्तु भरत को युद्ध की आशंका थी और इसके लिए पूरी तैयारियां की गयीं थीं. युद्ध के प्रथम दिन के परिणाम देखते हुए ही सिकंदर के सेना-नायकों ने और आगे युद्ध करने में अपनी असक्षमता दर्शाई थी जिसे विद्रोह कहा गया है. इस पराजय और विद्रोह के बाद ही सिकंदर ने भरत से संझौता किया था और सीमा से ही वापिस लौट जाने का वचन दिया था. युद्ध तो थम गया किन्तु सिकंदर उसी समय वापिस नहीं लौटा. कृष्ण ने उसे और उसकी सेना को दक्षिण भारत मदुरै के पास बसा दिया था.

    सिकंदर की सेना में यद्यपि अनेक जातियों के सैनिक थे किन्तु मूल सेना में अधिकाँश डोरियन होने के कारण सभी को डोरियन कहा जाता था. 'डोरियन' शब्द का आधुनिक स्वरुप ;द्रविड़' है. अतः दक्षिण भारत के द्रविड़ सिकंदर के सैनिकों के रूप में भारत आये थे. यहाँ यह भी महत्वपूर्ण है कि मलयाली और कन्नड़ मूलतः द्रविड़ नहीं हैं यद्यपि इन्हें भी अब द्रविड़ ही माना जाता है.

    यूरोपीय इतिहासकारों का अनुसतन करते हुए भारत के राजकीय वेतनभोगी तथाकथित इतिहासकार भी सिकंदर को 'महान' कहते हैं जब कि उसमें महानता का कोई लक्षण नहीं था. इंटरपोल के आधुनिक शोधों के अनुसार वह अत्यधिक शराबी था और मामूली की नाराजगी पर ही अपने प्रियजनों की हत्या कर देता था. उसके शरीर में पाशविक शक्ति थी जिसके कारण वह घायल अवस्था में भी युद्ध में सक्रिय रहता था. इसी पाशविकता के कारण वह युद्धों में विजयी रहा.न कि किसी मानवीय गुण के कारण. हौलीवूद से अभी बनी फिल्म के अनुसार समलैंगिक मैथुन का शौक़ीन था और उसके पुरुष प्रेमी का नाम हाइलास था जो युद्धों में भी उसका शौक पूरा करता था.

    भारत में बसने के बाद उसके सैनिकों ने भारतीय स्त्रियों का अपहरण कर अपने घर बसाये जिसके लिए उन्हें क्तिष्ण का अभयदान प्राप्त ता. उसको समर्पित कर वे कुछ भी अनैतिक करने के लिए स्वतंत्र थे. इसी पड़ाव में सिकंदर ने अपनी सेना को पुनर्संगठित किया और लगभग १५ माह बाद हुए महाबारत युद्ध में 'शिखंडी' नाम से भाग लिया.समस्त आशिया का विजयी सिकंदर महाभारत में एक नगण्य योद्धा रहा, अतः भारतीय दृष्टिकोण से उसे महान नहीं कहा जा सकता.  

    सिकंदर का आक्रमण

    प्रचलित विश्व इतिहास के अनुसार सिकंदर, जिसे यूरोपीय भाषाओँ में अलग्जेंदर कहा जाता है, मिश्र और पर्शिया को विजित करता हुआ ३२३ ईसापूर्व में भारत पहुंचा. वस्तुतः सिकंदर को भारत पर आक्रमण के लिए कृष्ण ने आमंत्रित किया था जिसके लिए संदेशवाहक के रूप में विदुर को भेजा गया था.
    Alexander - Director's Cut (Full Screen Edition)

    भारत के प्रवेश पर ही सिकंदर का सामना भरत ने किया था जिन्हें पुरु वंशी होने के कारण इतिहास में पोरस कहा गया है.इस युद्ध के बारे में बड़ी भ्रांतियां प्रचारित की गयी हैं - कि सिकंदर विजयी हुआ था और उसने भरत को क्षमा कर दिया था. यह सर्व विदित ई कि भारत में आगमन पर सिकंदर की सेना ने विद्रोह कर दिया था. यदि विद्रोह युद्ध से पूर्व किया गया था तो सिकंदर विजयी नहीं हो सकता था, और सिकंदर के विजयी होने बाद सेना को विद्रोह की आवश्यकता ही नहीं थी. यद्यपि सिकंदर की सेना भारतीय सेना की तुलना में अधिक अनुभवी और अस्त्र-शास्त्रों से सुसज्जित थी, किन्तु भरत को युद्ध की आशंका थी और इसके लिए पूरी तैयारियां की गयीं थीं. युद्ध के प्रथम दिन के परिणाम देखते हुए ही सिकंदर के सेना-नायकों ने और आगे युद्ध करने में अपनी असक्षमता दर्शाई थी जिसे विद्रोह कहा गया है. इस पराजय और विद्रोह के बाद ही सिकंदर ने भरत से संझौता किया था और सीमा से ही वापिस लौट जाने का वचन दिया था. युद्ध तो थम गया किन्तु सिकंदर उसी समय वापिस नहीं लौटा. कृष्ण ने उसे और उसकी सेना को दक्षिण भारत मदुरै के पास बसा दिया था.

    सिकंदर की सेना में यद्यपि अनेक जातियों के सैनिक थे किन्तु मूल सेना में अधिकाँश डोरियन होने के कारण सभी को डोरियन कहा जाता था. 'डोरियन' शब्द का आधुनिक स्वरुप ;द्रविड़' है. अतः दक्षिण भारत के द्रविड़ सिकंदर के सैनिकों के रूप में भारत आये थे. यहाँ यह भी महत्वपूर्ण है कि मलयाली और कन्नड़ मूलतः द्रविड़ नहीं हैं यद्यपि इन्हें भी अब द्रविड़ ही माना जाता है.

    यूरोपीय इतिहासकारों का अनुसतन करते हुए भारत के राजकीय वेतनभोगी तथाकथित इतिहासकार भी सिकंदर को 'महान' कहते हैं जब कि उसमें महानता का कोई लक्षण नहीं था. इंटरपोल के आधुनिक शोधों के अनुसार वह अत्यधिक शराबी था और मामूली की नाराजगी पर ही अपने प्रियजनों की हत्या कर देता था. उसके शरीर में पाशविक शक्ति थी जिसके कारण वह घायल अवस्था में भी युद्ध में सक्रिय रहता था. इसी पाशविकता के कारण वह युद्धों में विजयी रहा.न कि किसी मानवीय गुण के कारण. हौलीवूद से अभी बनी फिल्म के अनुसार समलैंगिक मैथुन का शौक़ीन था और उसके पुरुष प्रेमी का नाम हाइलास था जो युद्धों में भी उसका शौक पूरा करता था.

    भारत में बसने के बाद उसके सैनिकों ने भारतीय स्त्रियों का अपहरण कर अपने घर बसाये जिसके लिए उन्हें क्तिष्ण का अभयदान प्राप्त ता. उसको समर्पित कर वे कुछ भी अनैतिक करने के लिए स्वतंत्र थे. इसी पड़ाव में सिकंदर ने अपनी सेना को पुनर्संगठित किया और लगभग १५ माह बाद हुए महाबारत युद्ध में 'शिखंडी' नाम से भाग लिया.समस्त आशिया का विजयी सिकंदर महाभारत में एक नगण्य योद्धा रहा, अतः भारतीय दृष्टिकोण से उसे महान नहीं कहा जा सकता.