बुधवार, 17 फ़रवरी 2010

परम्पराओं का बोझ ढोते हम

स्वतंत्र समाजों में परम्पराएं अनुभवों से उद्भूत होती हैं किन्तु लम्बे समय तक गुलाम रहे देशों में परम्पराएं कृत्रिम रूप से भी थोपी जा सकती हैं. भारत में ऐसा बहुत अधिक हुआ है. परम्पराएं कुछ सीमा तक बुद्धि उपयोग को अवरोधित करती हैं, और प्रायः हम उन्ही बातों को बिना विचारे मानते चले जाते हैं जो हमें परंपरागत रूप में प्राप्त होती हैं. वैसे भी गुलामी की मानसिकता वाले लोग स्वतंत्र चिंतन के अभ्यस्त नहीं होते इसलिए वे बहुत अधिक परंपरागत होते हैं. ऐसे लोगों को नवाचार से घृणा होती है और वे इसे अपनी भावनाओं का विरोधी होने के कारण समाज विरोधी होने का करार देने से भी नहीं चूकते.

आज संध्या लगभग ४ बजे एक बरात में गया था और अभी कुछ समय पूर्व लगभग १-३० पर लौटा हूँ. इन लगभग १० घंटों में से ७ घंटे का समय यात्रा में व्यतीत हुआ जो ग्रामीण पथ पर चलने वाली एक खटारा बस द्वारा ऊबड़-खाबड़ मार्ग पर ९० किलोमीटर आने जाने में लगा. आश्चर्य यह देख कर हुआ कि बारात का सम्बन्ध विवाह प्रक्रिया से नगण्य था - केवल जाना, खाना, और आना. विवाह प्रक्रिया इस दौरान समान्तर रूप से संचालित की जाती रही और अधिकाँश बारातियों से उसमे सम्मिलित होने की अपेक्षा भी नहीं की गयी. तथापि ऐसी निरुद्देश्य बारातों का प्रचलन है और सामाजिक संबंधों को बनाये रखने के लिए इनमें जाना पड़ता है. बारात वर पक्ष तथा कन्या पक्ष, दोनों पर आर्थिक भार होती है तथापि परंपरागत रूप में हम सब यह करते चले आ रहे हैं. कभी समय था जब बारात में जाना सामाजिकता का विस्तार होता था, आज ऐसा भी नहीं है.

ऐसी परम्पराओं को अधिकांश लोग निरर्थक मानते हैं और इनके प्रत्येक अनुपालन के बाद पछताते हैं, तथापि बार-बार ऐसा ही करते जाते हैं. ऐसा हम इसलिए करते जाते हैं क्योंकि हम सामाजिक परम्पराओं के विरोध का साहस नहीं जुटा पाते. कभी-कभी यह भी सोचकर अनुपालन करते जाते हैं कि कोई हमें क्या कहेगा. हम भारतीयों का मानस दब्बू और कायर बन गया है.
ऐसा व्यवहार केवल सामाजिक प्रचलनों तक सीमित नहीं है, ज्ञान-विज्ञानं के क्षेत्र में भी हम प्रायः ऐसा ही व्यवहार करते है. उदाहरण के लिए इतिहास, जो भावुकताविहीन एवं तथ्यपरक होना चाहिए, को भी हम अपने मनोनुकूल होने पर ही सहन करते हैं अन्यथा उसे बिना कोई तर्क दिए नकार देते हैं. वस्तुतः भारतीय जन-मानस तथ्यपरक नहीं रह गया है, उसे केवल वही सुनना या पढ़ना अच्छा लगता है जो परम्परागत रूप से कहा या लिखा जाता रहा है, चाहे वह कितना भी दूषित क्यों न हो, कितना भी तर्कविहीन क्यों न प्रतीत होता हो.

सहमति के लिए किसी साहस की आवश्यकता नहीं होती, किन्तु परम्पराओं और परंपरागत ज्ञान के विरोध के लिए अदम्य साहस की आवश्यकता होती है जो प्रायः भारतीय लोगों में नहीं है. परम्पराओं को इसी प्रकार ढोते रहने के कारण ही भारत लगभग २००० वर्ष गुलाम रहा. अब स्वतंत्र कहा जाता है किन्तु स्थिति गुलामी से भी बदतर है, विशेषकर जन-साधारण के लिए. किन्तु विरोध का स्वर न पहले कभी बुलंद हुआ और न अब हो रहा है. केवल स्वतंत्रता संग्राम इसका अपवाद रहा जो अभूतपूर्व रूप से सफल भी रहा. किसी ने साहस जगाया आर हम जागृत हो गए. किन्तु ऐसा सदैव नहीं हुआ है और न अब हो रहा है.

साहस का अभाव हमें सतत डस रहा है, परम्पराएं हमें निगल रही हैं और हम निश्चिन्त भाव से वही कहते और करते चले जा रहे हैं जो समाज में परंपरागत रूप से व्याप्त है. विरोध का साहस केवल बुद्धिजीवी कर सकते हैं किन्तु भारत में वे भी बुद्धिवादी न रहकर परम्परावादी बन गए हैं और बनी बनाई लकीर से टस से मस होने को तैयार नहीं हैं. परंपरा-विरोधी स्वरों का दमन करने में ही ये अपनी पूरी शक्ति लगा रहे हैं और इसी को बुद्धिमत्ता समझ रहे हैं. यथार्थ से ये कोई वास्ता रखना ही नहीं चाहते जबकि जानते हैं कि गुलामी के कारण भारतीय समाज यथार्थ से बहुत अधिक दूर चला गया है.   

2 टिप्‍पणियां:

  1. परम्पराओं को भी 'अच्छी' और 'बुरी' दो वर्गों में बांटकर उन पर विचार करना आवश्यक है। सरलीकरण करके कह देना कि "सभी परम्पराएँ हमारे लिये 'बोझ' हैं", ठीक नहीं है।

    'परम्पराओं को इसी प्रकार ढोते रहने के कारण ही भारत लगभग २००० वर्ष गुलाम रहा.' - इस अति-सरलीकृत कथन में कम से कम दो गलतियाँ हैं-
    १) तथ्यात्मक गलती (भारत २००० वर्ष गुलाम रहा? आपकी 'गुलामी' की परिभाषा क्या है?)

    २) केवल परम्पराओं के कारण गुलामी आयी? ऐसे में तकनीकी पिछड़ापन, युद्धनीतिक-रणनीतिक नीति की विफलता, इस्लाम का उदय, छल-कपट आदि की भूमिका कुछ रह ही नहीं जाती।

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  2. @ अनुनाद सिंह
    तर्कपूर्ण सार्थक चर्चा के लिए धन्यवाद.
    परंपराएँ अच्छी या बुरी हो सकती हैं किंतु इसका ज्ञान तो तभी होगा जब हम उन्हें समीक्षात्मक दृष्टि से देखेंगे. किसी भी परंपरा को अच्च्छा मानकर उसे समीक्षा से बचाए रखना निश्चित रूप से उसमें एक दिन विकृति उत्पन्न करेगा. मेरा मूल मंतव्य परंपराओं की समीक्षा की आदत विकसित करने से है.
    किसी देश के लिए गुलामी का अर्थ उस पर विदेशी शासन ही होता है. गुप्त वंश के शासन के बाद यहाँ अनेक जातियाँ बाहर से आती रही हैं और अपने शासन स्थापित करती रही हैं. यदि वे जातियाँ आज यहाँ बस भी गयी हों तब भी हम यह नहीं कह सकते कि देश उस समय विदेशी शासन के अधीन नहीं था.
    निश्चित रूप से गुलामी परंपराओं के कारण नहीं आई, तथापि परंपराओं में दबे रहने की आदत के कारण हम उसका विरोध नहीं कर पये.गुलमी भी हमारी परंपरा बन गयी.

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