शनिवार, 6 फ़रवरी 2010

दो बुद्धों की कथा

 देव-यवन संघर्ष के समय कुछ अन्य लोग भी देवों के विरुद्ध यवनों के साथ मिल गए जिनमें एक सिद्धार्थ भी था जो एक प्रतिष्ठित देव शुद्धोधन का पुत्र था. उस समय देवों की परंपरा में बुद्ध एक उपाधि थी जो शीर्ष न्यायाधिपति को दी जाती थी. इस परंपरा में प्रथम बुद्ध शाक्य सिंह थे. उनके बाद यह पड ऋषि गौतम को दिया गया. संघर्ष के समय गौतम ही वास्तविक बुद्ध थे.

गौतम की पत्नी अहिल्या अप्रतिम रूपवती थी जिसे गौतम की पत्नी होने के कारण गौतमी भी कहा जाता था. उस पर सिद्धार्थ की कुदृष्टि पड गयी. एक बार जब ऋषि गौतम घर से बाहर गए हुए थे उस समय सिद्धार्थ गौतम का वेश धारण कर अहिल्या के पास पहुंचा और उसे भ्रमित कर उसके साथ सम्भोग किया. इससे अहिल्या गर्भवती हो गयी. बाद में जब अहिल्या को इसका ज्ञान हुआ तो वह सदमे में जडवत हो गयी. ब्रह्मा के समझाने-बुझाने और उसे निर्दोष माना जाने पर ही वह सामान्य अवस्था में आयी.

अपने पुत्र के इस अपराध के लिए शुद्धोधन ने सिद्धार्थ को अपने नगर से निष्कासित कर दिया.और वह कृष्ण की शरण में चला गया. कृष्ण ने उसे अब श्रीलंका कहे जाने वाले द्वीप पर बसा दिया जो उस समय निर्जन था और कृष्ण के अधिकार क्षेत्र में था. श्रीलंका का अब ज्ञात इतिहास भी इसी प्रकार कहता है कि यह द्वीप भारत से निष्कासित एक राजकुमार द्वारा बसाया गया था. यहाँ बसने के बाद उसने साधना करने का छल किया और बोधगया में साधना पर कुछ समय बैठने के बाद स्वयं को बुद्ध घोषित कर दिया. उसने अपने बारे में वैसी ही उदघोषणाएँ  कीं जैसी कि कृष्ण अपने बारे में किया करता था. इसी सिद्धार्थ ने बाद में बोद्ध धर्म का प्रतिपादन किया जिसमें लाखों युवक बोद्ध भिक्षु बनकर बिना परिश्रम किये वैभव भोगने लगे थे और देश में अकर्मण्यता का रोग लग लग गया था.   

बोद्ध धर्म का प्रमुख ग्रन्थ तिपिटक है जिसमें सिद्धार्थ को बुद्ध न कहकर सम्बुद्ध - बुद्ध के समान - कहा गया है. इसी ग्रन्थ के अम्बत्थ सुत्त में कहा गया है -
यदि वा सो भवं गोतमो तादिसो, यदि वा न तादिसो.

जो तत्कालीन विद्वानों की मनोस्थिति के बारे में है और जिसका अर्थ - 'क्या वह गौतम जैसा ही हैं, या वैसा नहीं हैं'. इसी प्रकार के अनेक उद्धरणों से स्पष्ट है कि सिद्धार्थ गौतम नहीं था किन्तु गौतम जैसा ही था.

इस बारे में यह भी ध्यातव्य है कि ऐसा कहा जाता है कि सिद्धार्थ ने गृहत्याग रोगों, वृद्धावस्था और मृत्यु के दुखों से दुखी होने के कारण किया था और वह इन दुखों से मुक्ति मार्ग खोजने घर से निकला था. इसके बाद उसने स्वयं को बोधिसत्व घोषित किया जिसका तात्पर्य होता है कि उसे उक्त दुखों से मुक्ति का मार्ग मिल गया था. किन्तु इस पर भी उसने इन दुखों से मुक्ति का कोई मार्ग नहीं दिखाया और ये दुःख उसी प्रकार आज तक बने हुए हैं जैसे कि पहले थे. इससे सिद्ध यही होता है कि सिद्धार्थ का बोधिसत्व होना केवल एक आडम्बर था. 

3 टिप्‍पणियां:

  1. क्या आप वाकई समझते हैं कि आप यह इतिहास और मानवजाति की सेवा कर रहे हैं?

    हमारी पौराणिक अभिकल्पनाओं मे सिर्फ़ नये रंग भर रहे हैं। एकदम ऊलजलूल और ऐतिहासिक दृष्टि से बेहद फ़ूहड़। पुराणकथाओं में तात्कालिक समाज और इतिहास के चिह्न खोजे जा सकते हैं, उनके हिसाब से सही इतिहास की पुनर्रचना की जा सकती है।

    पर आप अजीब गाथाएं रच रहे हैं।

    आपने पिछली बार कहा था, ‘भक्ति प्रदूषित भ्रमों का कोई उपचार मेरे पास नहीं है. विगत २००० वर्षों की गुलामी ने इस देश के जनमानस को इतना भ्रष्ट कर दिया है की कोई सच्ची बात सुनने का साहस ही नहीं रह गया है.’

    वाकई हमारा साहस भी चुक रहा है।

    शुक्रिया आपका।

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  2. @समय
    २००० वर्षों से जो मल लोगों के दिल और दिमाग़ में भरा गया है, उसे निकालने में समय लगेगा. अभी आरंभ हुआ है, धैर्य रखिए अथवा निमग्न रहिए अंधकार में.

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  3. इस संलेख पर विरोधी टिप्पणी करने वाले सज्जनों से मेरा निवेदन है कि वे शास्त्रों का कोई एक ऐसा अनुवाद बताएँ जिस पर वे विश्वास करते हों और वह आधुनिक संस्कृत पर आधारित ना हो. यदि आपको ग्यात ना हो तो मैं बता डून कि शस्त्रों की भाषा का आधुनिक संस्कृत से कोई वास्ता नहीं है.
    दूसरे तर्कों और संदर्भों के उत्तर तर्कों और संदर्भों से ही दें तो आपकी बुद्धि का परिचय भी आकलन हो सकेगा. अश्लील और भद्दी टिप्पणियाँ द्योतक हैं कि आप स्वस्थ चर्चा से बचते हुए मेरे प्रयास को दबाना चाहते हैं. यह कितना शोभनीय है इस प्र विचार करें.

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