एक प्रचलित कथावत है -
'ज्यों केले के पात पात में पात, त्यों हिन्दुओं की जात जात में जात'.
जो भारतीय समाज के यथार्थ को प्रदर्शित करती है. विश्व के किसी अन्य देश में संभवतः ऐसा नहीं है जहां जीवन और समाज के प्रत्येक क्षेत्र में व्यक्ति की जाति का इतना अधिक महत्व हो. अधिकाँश देशों में इस प्रकार के जातीय विष का अन्तर्जातीय विवाहों द्वारा शमन किया गया है. भारत में भी पश्चिमी बंगाल में अब कुछ ऐसा होने लगा है जिसे समाज की भी सहज स्वीकृति प्राप्त हो जाती है. अन्य क्षेत्रों में युवा प्रेमी छिपकर अन्तर्जातीय विवाह कर रहे हैं किन्तु समाज उन्हें सामान्यतः मान्यता नहीं देता है.
जातीयता भारतीय जीवन के प्रत्येक अंग को प्रदूषित कर रही है, यहाँ तक कि जनतांत्रिक चुनावों में मतदाता जातीय आधार पर ही सरकार का चुनाव कर रहे हैं, जिसे सभी राजनैतिक दल भी पुष्ट कर रहे हैं. अतः सरकारें सार्वजनिक हितों की अवहेलना कर जातीय हितों के लिए कार्य कर रही हैं.
भारत में जातीय भेद का मुख्य कारण यह है कि यहाँ अनेक प्रकार की जीवनशैलियों वाली जातियां आकर बसती रही हैं, जिनमें से अधिकाँश असभ्य थीं और यहाँ सांस्कृतिक प्रदूषण हेतु ही लाई गयी थीं. महिलाओं के अपहरण और उनके साथ दुराचार इनके प्रमुख व्यसन थे. स्थानीय लोगों को अपने सम्मान और संपदा के सुरक्षा के लिए उनसे दूर रहना आवश्यक था. इसी कारण से भारत में स्त्रियों के लिए परदे में रहना आवश्यक समझा गया जो प्रचलन अनेक क्षेत्रों में आज भी है.
बौद्धिक जनतंत्र जातीय भेद को मान्यता नहीं देता किन्तु इसके लिए यह अतीव आवश्यक है कि समाज में कठोर अनुशासन की स्थापना हो, विशेषकर भारतीय समाज में जहां आज भी अनेक जातियां अपने जंगली व्यवहार का परित्याग नहीं कर रही हैं. स्त्रियों और निस्सहाय लोगों के प्रति अपराध इन्ही जातियों के जंगली व्यवहार के कारण हो रहे हैं.
समाज को अनुशासित करने के लिए दो आवश्यक वान्छाएं हैं - न्याय व्यवस्था सुचारू हो तथा दंड विधान कठोर हो. जबकि आज के भारत की वास्तविकता यह है कि न्याय व्यवस्था पूरे तरह निष्फल है और दंड व्यवस्था अति लचर है. बौद्धिक जनतंत्र में न्याय व्यवस्था को सुचारू रखना स्वास्थ और शिक्षा के समान प्राथमिकता दी गयी है. दंड व्यवस्था को कठोर बनने के लिए मृत्यु दंड आवश्यक माना गया है जब कि विश्व भर की जंगली जातियां मृत्यु दंड का विरोध कर रही हैं.
बौद्धिक जनतंत्र दो प्रकार के अपराधों के लिए मृत्यु दंड अनिवार्य मानता है - राष्ट्रद्रोह तथा स्त्रियों के प्रति दुराचार. इसके साथ ही राजकीय पद का दुरूपयोग करते हुए भृष्ट आचरण राष्ट्रद्रोह माना गया है. स्त्री समाज के सम्मान की प्रतीक ही नहीं होती यह समाज की निर्माता भी होती है.
उक्त प्रावधानों से भारतीय समाज शीघ्र ही अनुशासित हो जाएगा, तब ही यहाँ जाति मुक्त विवाह का प्रचलन लाभकर सिद्ध हो सकता है, जो समाज के जातीय भेद को मिटाने का एकमात्र उपाय है. भारतीय समाज की वर्तमान अवस्था में अन्तर्जातीय विवाह सामान्यतः अनुमत नहीं किया जा सकता जिसके लिए समाज की शैक्षिक स्थिति स्वस्थ होनी चाहिए, जबकि आज के भारत में लगभग ७० प्रतिशत लोग अशिक्षित अथवा अर्ध-शिक्षित हैं जिनमें सामाजिक अनुशासन हेतु परिपक्वता भी विद्यमान नहीं है.
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मंगलवार, 14 सितंबर 2010
गुरुवार, 11 मार्च 2010
अज्ञानता और अचिंतन का अन्धकार
ईश्वर, धर्म, अद्यात्म, आदि, यदि हम इन शब्दों को वर्तमान में प्रचलित अर्थों में लें, मानवता में अचिंतन के सूत्रपात सिद्ध होते हैं. ये सभी शब्द भारत के प्राचीन वेदों और शास्त्रों में पाए जाते हैं किन्तु वहाँ इनके अर्थ वर्तमान में प्रचलित अर्थों से भिन्न हैं. इन शब्दों के नए अर्थ जानबूझकर भिन्न किये गए ताकि ज्ञान के अकूत भण्डार इन देव ग्रंथों के ज्ञान को सदा सदा के लिए लुप्त कर दिया जाये और लोग इनमें उन विकृत भावों को ही देख पायें जो शब्दार्थ परिवर्तन से इन पर थोपे गए हैं. इससे तीन लाभ हुए -
आज का भारतीय समाज तीन वर्गों में विभाजित देखा जा सकता है - नगण्य कर्मावलम्बी, संगठित धर्मावलम्बी और असंख्य अज्ञान और अचिंतन के अन्धकार से भ्रमित जनसाधारण. कर्मावलम्बी परिश्रम करते हैं और अपनी बुद्धि का सदुपयोग करते हुए मानवीय गुणों का विकास करते हैं, धर्मावलम्बी संगठित रूप में तीसरे वर्ग का शोषण करते हुए वैभव भोगते हैं और अपनी बुद्धि का दुरूपयोग करते हुए समाज को भ्रमित एवं ईश्वर के नाम से आतंकित करने एवं रखने हेतु नए नए मार्ग खोजते हैं. तीसरा वर्ग वस्तुतः शोषित है और असमंजस में है, वह कर्म करता है अपनी आजीविका हेतु किनता इससे प्राप्तियों का बहुलांश संगठित धर्मावलम्बी हड़प लेते हैं आजीविका के संकट से तृस्त यह वर्ग आतंकित भी है और अचिंतन के अन्धकार में निमग्न भी. चूंकि यह समाज का बहुत बड़ा अंश है, इसलिए इसी की स्थिति को समाज की सामान्य स्थिति माना जा सकता है.
समाज का शोषित तीसरा अंश पूरी तरह निर्धन नहीं है, इसमें अनेक धनवान भी सम्मिलित हैं किन्तु ये बौद्धिक कंगाल हैं क्योंकि ये तो यह भी नहीं जानते कि कितना कमाएं और किसलिए. कमाई की अनंत यात्रा पर बस चलते रहते हैं - धनवान होते हुए भी अनंत धन-सम्पदा की कामना लिए हुए अपनी कमाई कोई सदुपयोग भी नहीं कर पाते. संगठित धर्मावलम्बी इन्ही की अज्ञानता, अचिंतन और सम्पन्नता का शोषण करते हुए वैभवपूर्ण जीवन जीते हैं.
- वेदों और शास्त्रों का वास्तविक ज्ञान लुप्त हो गया,
- वेदों और शास्त्रों की प्रमाणिकता का दुरूपयोग कर षड्यंत्रकारियों ने अपना भ्रम फ़ैलाने का लक्ष्य प्राप्त किया.
- निरक्षर षड्यंत्रकारियों को अपने मंतव्य हेतु कोई नया ग्रन्थ नहीं लिखना पड़ा. परिणामस्वरूप, देवों के विज्ञानं और इतिहासपरक ग्रन्थ - वेद और शास्त्र, धर्म ग्रन्थ मने जाने लगे.
आज का भारतीय समाज तीन वर्गों में विभाजित देखा जा सकता है - नगण्य कर्मावलम्बी, संगठित धर्मावलम्बी और असंख्य अज्ञान और अचिंतन के अन्धकार से भ्रमित जनसाधारण. कर्मावलम्बी परिश्रम करते हैं और अपनी बुद्धि का सदुपयोग करते हुए मानवीय गुणों का विकास करते हैं, धर्मावलम्बी संगठित रूप में तीसरे वर्ग का शोषण करते हुए वैभव भोगते हैं और अपनी बुद्धि का दुरूपयोग करते हुए समाज को भ्रमित एवं ईश्वर के नाम से आतंकित करने एवं रखने हेतु नए नए मार्ग खोजते हैं. तीसरा वर्ग वस्तुतः शोषित है और असमंजस में है, वह कर्म करता है अपनी आजीविका हेतु किनता इससे प्राप्तियों का बहुलांश संगठित धर्मावलम्बी हड़प लेते हैं आजीविका के संकट से तृस्त यह वर्ग आतंकित भी है और अचिंतन के अन्धकार में निमग्न भी. चूंकि यह समाज का बहुत बड़ा अंश है, इसलिए इसी की स्थिति को समाज की सामान्य स्थिति माना जा सकता है.
समाज का शोषित तीसरा अंश पूरी तरह निर्धन नहीं है, इसमें अनेक धनवान भी सम्मिलित हैं किन्तु ये बौद्धिक कंगाल हैं क्योंकि ये तो यह भी नहीं जानते कि कितना कमाएं और किसलिए. कमाई की अनंत यात्रा पर बस चलते रहते हैं - धनवान होते हुए भी अनंत धन-सम्पदा की कामना लिए हुए अपनी कमाई कोई सदुपयोग भी नहीं कर पाते. संगठित धर्मावलम्बी इन्ही की अज्ञानता, अचिंतन और सम्पन्नता का शोषण करते हुए वैभवपूर्ण जीवन जीते हैं.
बुधवार, 17 फ़रवरी 2010
परम्पराओं का बोझ ढोते हम
स्वतंत्र समाजों में परम्पराएं अनुभवों से उद्भूत होती हैं किन्तु लम्बे समय तक गुलाम रहे देशों में परम्पराएं कृत्रिम रूप से भी थोपी जा सकती हैं. भारत में ऐसा बहुत अधिक हुआ है. परम्पराएं कुछ सीमा तक बुद्धि उपयोग को अवरोधित करती हैं, और प्रायः हम उन्ही बातों को बिना विचारे मानते चले जाते हैं जो हमें परंपरागत रूप में प्राप्त होती हैं. वैसे भी गुलामी की मानसिकता वाले लोग स्वतंत्र चिंतन के अभ्यस्त नहीं होते इसलिए वे बहुत अधिक परंपरागत होते हैं. ऐसे लोगों को नवाचार से घृणा होती है और वे इसे अपनी भावनाओं का विरोधी होने के कारण समाज विरोधी होने का करार देने से भी नहीं चूकते.
आज संध्या लगभग ४ बजे एक बरात में गया था और अभी कुछ समय पूर्व लगभग १-३० पर लौटा हूँ. इन लगभग १० घंटों में से ७ घंटे का समय यात्रा में व्यतीत हुआ जो ग्रामीण पथ पर चलने वाली एक खटारा बस द्वारा ऊबड़-खाबड़ मार्ग पर ९० किलोमीटर आने जाने में लगा. आश्चर्य यह देख कर हुआ कि बारात का सम्बन्ध विवाह प्रक्रिया से नगण्य था - केवल जाना, खाना, और आना. विवाह प्रक्रिया इस दौरान समान्तर रूप से संचालित की जाती रही और अधिकाँश बारातियों से उसमे सम्मिलित होने की अपेक्षा भी नहीं की गयी. तथापि ऐसी निरुद्देश्य बारातों का प्रचलन है और सामाजिक संबंधों को बनाये रखने के लिए इनमें जाना पड़ता है. बारात वर पक्ष तथा कन्या पक्ष, दोनों पर आर्थिक भार होती है तथापि परंपरागत रूप में हम सब यह करते चले आ रहे हैं. कभी समय था जब बारात में जाना सामाजिकता का विस्तार होता था, आज ऐसा भी नहीं है.
ऐसी परम्पराओं को अधिकांश लोग निरर्थक मानते हैं और इनके प्रत्येक अनुपालन के बाद पछताते हैं, तथापि बार-बार ऐसा ही करते जाते हैं. ऐसा हम इसलिए करते जाते हैं क्योंकि हम सामाजिक परम्पराओं के विरोध का साहस नहीं जुटा पाते. कभी-कभी यह भी सोचकर अनुपालन करते जाते हैं कि कोई हमें क्या कहेगा. हम भारतीयों का मानस दब्बू और कायर बन गया है.
ऐसा व्यवहार केवल सामाजिक प्रचलनों तक सीमित नहीं है, ज्ञान-विज्ञानं के क्षेत्र में भी हम प्रायः ऐसा ही व्यवहार करते है. उदाहरण के लिए इतिहास, जो भावुकताविहीन एवं तथ्यपरक होना चाहिए, को भी हम अपने मनोनुकूल होने पर ही सहन करते हैं अन्यथा उसे बिना कोई तर्क दिए नकार देते हैं. वस्तुतः भारतीय जन-मानस तथ्यपरक नहीं रह गया है, उसे केवल वही सुनना या पढ़ना अच्छा लगता है जो परम्परागत रूप से कहा या लिखा जाता रहा है, चाहे वह कितना भी दूषित क्यों न हो, कितना भी तर्कविहीन क्यों न प्रतीत होता हो.
सहमति के लिए किसी साहस की आवश्यकता नहीं होती, किन्तु परम्पराओं और परंपरागत ज्ञान के विरोध के लिए अदम्य साहस की आवश्यकता होती है जो प्रायः भारतीय लोगों में नहीं है. परम्पराओं को इसी प्रकार ढोते रहने के कारण ही भारत लगभग २००० वर्ष गुलाम रहा. अब स्वतंत्र कहा जाता है किन्तु स्थिति गुलामी से भी बदतर है, विशेषकर जन-साधारण के लिए. किन्तु विरोध का स्वर न पहले कभी बुलंद हुआ और न अब हो रहा है. केवल स्वतंत्रता संग्राम इसका अपवाद रहा जो अभूतपूर्व रूप से सफल भी रहा. किसी ने साहस जगाया आर हम जागृत हो गए. किन्तु ऐसा सदैव नहीं हुआ है और न अब हो रहा है.
साहस का अभाव हमें सतत डस रहा है, परम्पराएं हमें निगल रही हैं और हम निश्चिन्त भाव से वही कहते और करते चले जा रहे हैं जो समाज में परंपरागत रूप से व्याप्त है. विरोध का साहस केवल बुद्धिजीवी कर सकते हैं किन्तु भारत में वे भी बुद्धिवादी न रहकर परम्परावादी बन गए हैं और बनी बनाई लकीर से टस से मस होने को तैयार नहीं हैं. परंपरा-विरोधी स्वरों का दमन करने में ही ये अपनी पूरी शक्ति लगा रहे हैं और इसी को बुद्धिमत्ता समझ रहे हैं. यथार्थ से ये कोई वास्ता रखना ही नहीं चाहते जबकि जानते हैं कि गुलामी के कारण भारतीय समाज यथार्थ से बहुत अधिक दूर चला गया है.
आज संध्या लगभग ४ बजे एक बरात में गया था और अभी कुछ समय पूर्व लगभग १-३० पर लौटा हूँ. इन लगभग १० घंटों में से ७ घंटे का समय यात्रा में व्यतीत हुआ जो ग्रामीण पथ पर चलने वाली एक खटारा बस द्वारा ऊबड़-खाबड़ मार्ग पर ९० किलोमीटर आने जाने में लगा. आश्चर्य यह देख कर हुआ कि बारात का सम्बन्ध विवाह प्रक्रिया से नगण्य था - केवल जाना, खाना, और आना. विवाह प्रक्रिया इस दौरान समान्तर रूप से संचालित की जाती रही और अधिकाँश बारातियों से उसमे सम्मिलित होने की अपेक्षा भी नहीं की गयी. तथापि ऐसी निरुद्देश्य बारातों का प्रचलन है और सामाजिक संबंधों को बनाये रखने के लिए इनमें जाना पड़ता है. बारात वर पक्ष तथा कन्या पक्ष, दोनों पर आर्थिक भार होती है तथापि परंपरागत रूप में हम सब यह करते चले आ रहे हैं. कभी समय था जब बारात में जाना सामाजिकता का विस्तार होता था, आज ऐसा भी नहीं है.
ऐसी परम्पराओं को अधिकांश लोग निरर्थक मानते हैं और इनके प्रत्येक अनुपालन के बाद पछताते हैं, तथापि बार-बार ऐसा ही करते जाते हैं. ऐसा हम इसलिए करते जाते हैं क्योंकि हम सामाजिक परम्पराओं के विरोध का साहस नहीं जुटा पाते. कभी-कभी यह भी सोचकर अनुपालन करते जाते हैं कि कोई हमें क्या कहेगा. हम भारतीयों का मानस दब्बू और कायर बन गया है.
ऐसा व्यवहार केवल सामाजिक प्रचलनों तक सीमित नहीं है, ज्ञान-विज्ञानं के क्षेत्र में भी हम प्रायः ऐसा ही व्यवहार करते है. उदाहरण के लिए इतिहास, जो भावुकताविहीन एवं तथ्यपरक होना चाहिए, को भी हम अपने मनोनुकूल होने पर ही सहन करते हैं अन्यथा उसे बिना कोई तर्क दिए नकार देते हैं. वस्तुतः भारतीय जन-मानस तथ्यपरक नहीं रह गया है, उसे केवल वही सुनना या पढ़ना अच्छा लगता है जो परम्परागत रूप से कहा या लिखा जाता रहा है, चाहे वह कितना भी दूषित क्यों न हो, कितना भी तर्कविहीन क्यों न प्रतीत होता हो.
सहमति के लिए किसी साहस की आवश्यकता नहीं होती, किन्तु परम्पराओं और परंपरागत ज्ञान के विरोध के लिए अदम्य साहस की आवश्यकता होती है जो प्रायः भारतीय लोगों में नहीं है. परम्पराओं को इसी प्रकार ढोते रहने के कारण ही भारत लगभग २००० वर्ष गुलाम रहा. अब स्वतंत्र कहा जाता है किन्तु स्थिति गुलामी से भी बदतर है, विशेषकर जन-साधारण के लिए. किन्तु विरोध का स्वर न पहले कभी बुलंद हुआ और न अब हो रहा है. केवल स्वतंत्रता संग्राम इसका अपवाद रहा जो अभूतपूर्व रूप से सफल भी रहा. किसी ने साहस जगाया आर हम जागृत हो गए. किन्तु ऐसा सदैव नहीं हुआ है और न अब हो रहा है.
साहस का अभाव हमें सतत डस रहा है, परम्पराएं हमें निगल रही हैं और हम निश्चिन्त भाव से वही कहते और करते चले जा रहे हैं जो समाज में परंपरागत रूप से व्याप्त है. विरोध का साहस केवल बुद्धिजीवी कर सकते हैं किन्तु भारत में वे भी बुद्धिवादी न रहकर परम्परावादी बन गए हैं और बनी बनाई लकीर से टस से मस होने को तैयार नहीं हैं. परंपरा-विरोधी स्वरों का दमन करने में ही ये अपनी पूरी शक्ति लगा रहे हैं और इसी को बुद्धिमत्ता समझ रहे हैं. यथार्थ से ये कोई वास्ता रखना ही नहीं चाहते जबकि जानते हैं कि गुलामी के कारण भारतीय समाज यथार्थ से बहुत अधिक दूर चला गया है.
रविवार, 7 फ़रवरी 2010
भारतीय समाज - विषमताओं का दंगल
आज का भारतीय समाज अनेक विषमताओं में निमग्न है किन्तु उनसे जूझने का दम उसमें कहीं दिखाई नहीं दे रहा है. व्यक्ति को सबसे पहले रोटी चाहिए बिना संघर्ष के, तभी वह आगे की सोच सकता है. जिस वर्ग को रोटी उपलब्ध नहीं है वह इसे पाने के प्रयासों में तल्लीन हैं और यह उस की विवशता है. जिन्हें यह उपलब्ध है वह प्रथम वर्ग के शोषण से ही उपलब्ध हो रही है, इसलिए वे इस स्थिति में परिवर्तन कदापि नहीं चाहते. बस इस विषय पर यदा-कदा अपनी बौद्धिक श्रेष्ठता दर्शाकर अपना कर्तव्य पूरा समझ लेते हैं. शेष समय वे विविध माध्यमों से अपने मनोरंजन में व्यतीत करते हैं. दोनों वर्गों की जनसँख्या लगातार बढ़ रही है जिसके कारण दोनों को रोटी के नए नए स्रोत खोजना भी आवश्यक हो गया है. अतः प्रथम वर्ग के कुछ लोग छलांग लगाकर दूसरे वर्ग में सम्मिलित होने का प्रयास करते हैं जिससे प्रथम वर्ग को कुछ रहत मिलती है. शेष आवश्यकता पूर्ति के लिए यह वर्ग अधिक परिश्रम करता है अथवा दूसरे वर्ग से छीना-झपटी करता है. दूसरा वर्ग अपनी आवश्यकताओं की आपूर्ति के लिए शोषण के नए माध्यम खोजता है और उन्हें विकसित करता है.दोनों वर्गों के मध्य अंतराल निरंतर बढ़ता जा रहा है. सब मिलाकर यह कहा जा सकता है कि बढ़ती आवश्यकताओं की आपूर्ति के लिए सामान्य विधि - उत्पादन में वृद्धि, पर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा.
कुछ सीमा तक यह वर्ग संघर्ष विश्व स्तर पर भी हो रहा है किन्तु कुछ दूसरे प्रकार का. यहाँ का धनिक वर्ग उत्पादन और इस के साधनों का विकास कर चुका है और आगे कर रहा है. इससे कारण यह वर्ग संपन्न है. कुछ सीमा तक यह निर्धन वर्ग का शोषण भी करता है - विशेषकर उससे सस्ते मूल्य पर जनशक्ति प्राप्त करके. किन्तु इसमें दोनों वर्गों के हित समाहित हैं. विश्व स्तर पर निर्धन वर्ग मानवीय भावुकता के आधार पर धनिक वर्ग का शोषण करता है - ऋण, दान, भिक्षा, सहायता, सुरक्षा, आदि की सतत मांग करता हुआ. यहाँ भी दोनों वर्गों के मध्य अंतराल निरंतर बढ़ता जा रहा है.
भारतीय समाज एकदम स्पष्ट रूप में दो वर्गों में विभाजित है - शासक और शासित, शोषणकर्ता और शोषित,.धनाढ्य और निर्धन, आदि. इसमें कभी कभी वर्गान्तर उत्पन्न हो जाता है, जिस वर्ग के हाथ में राजनैतिक सत्ता की बागडोर आ जाती है वही शोषण करने लगता है दूसरे वर्ग का.
स्वतंत्रता, जिसका सपना देशभक्तों ने स्वतंत्रता संग्राम के समय देखा था, अब स्वच्छन्दता अथवा उद्दंडता में परिवर्तित हो गयी है जहाँ प्रत्येक व्यक्ति तथा वर्ग कुछ भी कभी भी कर सकता है बिना किसी मर्यादा का ध्यान रखे. इसे कभी अनुशासनहीनता कहा जाता था किन्तु अब यह अनुशासनहीनता से भी बहुत आगे है. इस स्वच्छन्दता ने भारतीय समाज को एक सजीव अखाड़े में परिवर्तित कर दिया है जिसके कोई नियम अथवा विधान नहीं हैं. इस विधान-हीनता का एक मात्र कारण है न्यायपालिका की न्याय प्रदान करने में असफलता.
क्यों है शासन इतना लापरवाह लोगों को न्याय जैसी मूलभूत सुविधा प्रदान करने में? इस कारण का विशेष विश्लेषण करना ही लक्ष्य है इन आलेख का. यही कारण साल रहा है और छल रहा है हम सब भारतीयों को. आइये झांके अपने समाज में और इसकी मानसिकता में ताकि कोई हल खोजा जा सके.
भारत लंबे समय तक गुलामी की जंजीरों में जकड़ा रहा है और यहाँ का जनमानस सब कुछ चुपचाप सहन करता रहा है. यहाँ तक कि जंगली जातियां, घुमक्कड़, चोर लुटेरे भी यहाँ अपना शासन ज़माने और बनाये रखने में सफल रहे हैं. क्या है इस सब का कारण? कहीं ऐसा तो नहीं कि ऊपर के प्रश्न और इस प्रश्न का उत्तर एक ही हो. जी हाँ, निश्चित रूप से उत्तर एक ही है.
भारतीय समाज की मानसिकता ही इसका कारण है जिसमें चिंतन की क्षमता शून्यस्थ हो गयी है, बस जो परोसा जाता है, किसी ऊपर वाले द्वारा चाहे वह स्वयं को ईश्वर कहे अथवा शासक, बस उसी को सहर्ष स्वीकार कर लिया जाता है, पूरे सहिष्णु भाव के साथ. यह मानसिकता जन-जन में अन्दर तक पैठ गयी है और यह जिज्ञासा भी कभी नहीं होती कि ऊपर वाले ने जो आदेश दिया है वह उचित भी है अथवा नहीं. इसी मानसिकता का लाभ उठाया जाता रहा है यहाँ के उत्पीड़क शासकों द्वारा विगत २००० वर्षों से आज तक.
इस कलुषित मानसिकता को मैं नाम देना चाहूँगा - मनोवैज्ञानिक शासन कराये जाने की सतत अतृप्त इच्छा. स्वयं बस शासित बने रहना ही यहाँ समाज का धर्म है क्योंकि शासन से मुक्त होने का अर्थ होता है स्वयं अपने पैरों पर खड़े होकर अपने जीवन दायित्वों का निर्वाह करना. यह भारतीय मानसिकता के लिए दुष्कर लगता है, इसलिए यह सदैव किसी ऊपर वाले के आश्रय में बने रहना चाहती है. इस आश्रय के लिए आत्मसम्मान, स्वाभिमान, आत्मविश्वास आदि सभी प्राकृत मानवीय गुणों को तिलांजलि दे दी जाती है.
इसी आश्रित मानसिकता का लाभ उठाया है अनेक राजनेताओं ने जो स्वयं को कभी ईश्वर के अवतार घोषित कर शासन करते रहे हैं तो कभी ईश्वर पाने के माध्यम, कभी धर्मगुरु बनकर सामने आते हैं तो कभी कर्मकांड करने वाले वामन. ये बस आश्रय प्रदान कर दायित्वों से मुक्ति का आश्वासन देते रहे हैं और शासन करते रहे है जन-मानस पर - कभी राजनैतिक तो कभी मनोवैज्ञानिक. ये चाहे कितने भी अत्याचार करें, कितने भी व्यभिचार और दुष्कर्म करें, जनमानस इनके विरुद्ध कोई स्वर सुनने को प्रस्तुत नहीं होता क्योंकि ये ही इसके मनोवैज्ञानिक खोखलेपन में आश्रयदाता होते हैं.
जनमानस में स्वयं चिंतन की क्षमता नहीं है उसे चिन्तक करने के लिए किसी न किसी ऊपर वाले की अपरिहार्य आवश्यकता होती है. यही इस समाज की परंपरा बन गयी है और इस या अन्य किसी परंपरा के विरुद्ध यह निर्बल जनमानस कुछ सुनने को तैयार नहीं होता. बस परम्पराओं का अनुपालन हे यहाँ का धर्म है जिसने इस देश में घोर विषमताएं उत्पन्न की हैं और वे सब एक दंगल के रूप में चारों ओर फ़ैली दिखाई दे रही हैं.
कुछ सीमा तक यह वर्ग संघर्ष विश्व स्तर पर भी हो रहा है किन्तु कुछ दूसरे प्रकार का. यहाँ का धनिक वर्ग उत्पादन और इस के साधनों का विकास कर चुका है और आगे कर रहा है. इससे कारण यह वर्ग संपन्न है. कुछ सीमा तक यह निर्धन वर्ग का शोषण भी करता है - विशेषकर उससे सस्ते मूल्य पर जनशक्ति प्राप्त करके. किन्तु इसमें दोनों वर्गों के हित समाहित हैं. विश्व स्तर पर निर्धन वर्ग मानवीय भावुकता के आधार पर धनिक वर्ग का शोषण करता है - ऋण, दान, भिक्षा, सहायता, सुरक्षा, आदि की सतत मांग करता हुआ. यहाँ भी दोनों वर्गों के मध्य अंतराल निरंतर बढ़ता जा रहा है.
भारतीय समाज एकदम स्पष्ट रूप में दो वर्गों में विभाजित है - शासक और शासित, शोषणकर्ता और शोषित,.धनाढ्य और निर्धन, आदि. इसमें कभी कभी वर्गान्तर उत्पन्न हो जाता है, जिस वर्ग के हाथ में राजनैतिक सत्ता की बागडोर आ जाती है वही शोषण करने लगता है दूसरे वर्ग का.
स्वतंत्रता, जिसका सपना देशभक्तों ने स्वतंत्रता संग्राम के समय देखा था, अब स्वच्छन्दता अथवा उद्दंडता में परिवर्तित हो गयी है जहाँ प्रत्येक व्यक्ति तथा वर्ग कुछ भी कभी भी कर सकता है बिना किसी मर्यादा का ध्यान रखे. इसे कभी अनुशासनहीनता कहा जाता था किन्तु अब यह अनुशासनहीनता से भी बहुत आगे है. इस स्वच्छन्दता ने भारतीय समाज को एक सजीव अखाड़े में परिवर्तित कर दिया है जिसके कोई नियम अथवा विधान नहीं हैं. इस विधान-हीनता का एक मात्र कारण है न्यायपालिका की न्याय प्रदान करने में असफलता.
क्यों है शासन इतना लापरवाह लोगों को न्याय जैसी मूलभूत सुविधा प्रदान करने में? इस कारण का विशेष विश्लेषण करना ही लक्ष्य है इन आलेख का. यही कारण साल रहा है और छल रहा है हम सब भारतीयों को. आइये झांके अपने समाज में और इसकी मानसिकता में ताकि कोई हल खोजा जा सके.
भारत लंबे समय तक गुलामी की जंजीरों में जकड़ा रहा है और यहाँ का जनमानस सब कुछ चुपचाप सहन करता रहा है. यहाँ तक कि जंगली जातियां, घुमक्कड़, चोर लुटेरे भी यहाँ अपना शासन ज़माने और बनाये रखने में सफल रहे हैं. क्या है इस सब का कारण? कहीं ऐसा तो नहीं कि ऊपर के प्रश्न और इस प्रश्न का उत्तर एक ही हो. जी हाँ, निश्चित रूप से उत्तर एक ही है.
भारतीय समाज की मानसिकता ही इसका कारण है जिसमें चिंतन की क्षमता शून्यस्थ हो गयी है, बस जो परोसा जाता है, किसी ऊपर वाले द्वारा चाहे वह स्वयं को ईश्वर कहे अथवा शासक, बस उसी को सहर्ष स्वीकार कर लिया जाता है, पूरे सहिष्णु भाव के साथ. यह मानसिकता जन-जन में अन्दर तक पैठ गयी है और यह जिज्ञासा भी कभी नहीं होती कि ऊपर वाले ने जो आदेश दिया है वह उचित भी है अथवा नहीं. इसी मानसिकता का लाभ उठाया जाता रहा है यहाँ के उत्पीड़क शासकों द्वारा विगत २००० वर्षों से आज तक.
इस कलुषित मानसिकता को मैं नाम देना चाहूँगा - मनोवैज्ञानिक शासन कराये जाने की सतत अतृप्त इच्छा. स्वयं बस शासित बने रहना ही यहाँ समाज का धर्म है क्योंकि शासन से मुक्त होने का अर्थ होता है स्वयं अपने पैरों पर खड़े होकर अपने जीवन दायित्वों का निर्वाह करना. यह भारतीय मानसिकता के लिए दुष्कर लगता है, इसलिए यह सदैव किसी ऊपर वाले के आश्रय में बने रहना चाहती है. इस आश्रय के लिए आत्मसम्मान, स्वाभिमान, आत्मविश्वास आदि सभी प्राकृत मानवीय गुणों को तिलांजलि दे दी जाती है.
इसी आश्रित मानसिकता का लाभ उठाया है अनेक राजनेताओं ने जो स्वयं को कभी ईश्वर के अवतार घोषित कर शासन करते रहे हैं तो कभी ईश्वर पाने के माध्यम, कभी धर्मगुरु बनकर सामने आते हैं तो कभी कर्मकांड करने वाले वामन. ये बस आश्रय प्रदान कर दायित्वों से मुक्ति का आश्वासन देते रहे हैं और शासन करते रहे है जन-मानस पर - कभी राजनैतिक तो कभी मनोवैज्ञानिक. ये चाहे कितने भी अत्याचार करें, कितने भी व्यभिचार और दुष्कर्म करें, जनमानस इनके विरुद्ध कोई स्वर सुनने को प्रस्तुत नहीं होता क्योंकि ये ही इसके मनोवैज्ञानिक खोखलेपन में आश्रयदाता होते हैं.
जनमानस में स्वयं चिंतन की क्षमता नहीं है उसे चिन्तक करने के लिए किसी न किसी ऊपर वाले की अपरिहार्य आवश्यकता होती है. यही इस समाज की परंपरा बन गयी है और इस या अन्य किसी परंपरा के विरुद्ध यह निर्बल जनमानस कुछ सुनने को तैयार नहीं होता. बस परम्पराओं का अनुपालन हे यहाँ का धर्म है जिसने इस देश में घोर विषमताएं उत्पन्न की हैं और वे सब एक दंगल के रूप में चारों ओर फ़ैली दिखाई दे रही हैं.
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