बुधवार, 2 जून 2010

समरथ को नहीं दोष गुसाईं

तुलसीदास ने अपने महाकाव्य 'रामायण' में लिखा है 'समरथ को नहीं दोष गुसाईं' जिसका अर्थ यह लिया जा रहा है कि समर्थ व्यक्ति पर दोषारोपण नहीं किया जा सकता. देखने-सुनने में यह कुछ अटपटा सा लगता है किन्तु यदि इसे इस प्रकार समझा जाये कि 'समर्थ व्यक्ति में दोष नहीं होता' तो इसका भाव यह हो जाता है कि दोषपूर्ण व्यक्ति को समर्थ नहीं कहा जा सकता. तुलसी उपरोक्त शब्द चाहे किसी मंतव्य से लिखे हों, मैं इसकी व्याख्या कुछ इस प्रकार करना चाहता हूँ - समर्थ व्यक्ति के कन्धों पर विशिष्ट दायित्व भर होते हैं, जिनके निर्वाह हेतु उसे कुछ ऐसे कार्य करने पड़ सकते हैं जो दूसरों को दोषपूर्ण प्रतीत होते हों, क्योंकि वे समर्थ व्यक्ति के दायित्व बोध को नहीं समझ सकते. इसलिए समर्थ व्यक्ति के कार्य-कलाप अन्य व्यक्तियों के कार्य-कलापों से भिन्न हो सकते हैं जिनका सही आकलन जन-साधारण द्वारा नहीं किया जा सकता. अतः उन पर दोषारोपण नहीं किया जाना चाहिए. अथवा उन्हें समर्थ न मानते हुए उन पर विशिष्ट दायित्व भी नहीं दिए जाने चाहिए.

बात सन १९९२ की है जब मैं ४४ वर्ष का था. उन दिनों कुछ समाचार पत्रों में विषयों के उद्धार की चर्चा चली थी, कुछ ने इस व्यवसाय को वैधानिक मान्यता की मांग की थी तो कुछ ने इसे नारी जाति पर कलंक कहकर इसके उन्मूलन की वकालत की थी. मेरी जानकारी में यह व्यवसाय स्त्री जाति का आदि कालिक व्यवसाय रहा है जो समाज की एक मांग को पूरी करता है. तथापि परिस्थितियों से विवश नारियां ही इसे अपनाती रहीं हैं जिसके लिए उन पर दोषारोपण नहीं किया जा सकता. यदि इस व्यवसाय के लिए कोई दोषी है तो वह है हमारी समाज व्यवस्था. इसी प्रकार की उलझनों का उत्तर खोजने के लिए मैं एक दिन एक वैश्यालय में गया और एक सुन्दरी से मिला जो शिक्षित भी प्रतीत होती थी. मैंने मिलते ही उसे अपना मंतव्य स्पष्ट कर दिया कि मैं उसके साथ लम्बी बातचीत करना चाहता हूँ, जिसके लिए यदि वह चाहे तो मैं पुनः किसी अन्य समय पर भी आ सकता हूँ. 


युवती शिक्षित ही नहीं सभ्य भी थी, उसने मेरे साथ सहयोग करने का वचन दिया बिना किसी लोभ-लालच के. मैं एक वैश्य के मनोविज्ञान को समझना चाहता था. उसके स्थान पर कुछ देर बातचीत के बाद मैंने उसे पास के एक रेस्तरां में चलने की दावत दी जहा हम बैठकर एकांत में आगे की बातें कर सकें. वह सहमत हो गयी और मैं उसे साथ लेकर उसके कोठे से उतरा. उसी समय वहां से मेरा एक मित्र गुजरा और मुझे वैश्य के साथ कोठे से उतरते देख लिया किन्तु उसने मुझसे कोई बातचीत करना उचित नहीं समझा. 


अगले दिन मेरा मित्र मुझसे मिला और मुझसे कहा कि उसने मुझे एक ऐसे स्थान पर देखा था जहां मेरे होने की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी. मैंने उसे पूरी स्थिति बतायी किन्तु उसके उत्तर से मैं यह नहीं समझ सका कि वह मेरे स्पष्टीकरण से संतुष्ट है अथवा नहीं और वह चला गया. संभवतः वह मुझे वेश्यागमन का दोषी मानता हो किन्तु मैंने इस बारे मैं अतिरिक्त स्पष्टीकरण देने का कोई प्रयास नहीं किया. साथ ही यह भी सच है कि बाद में मैंने उसी वैश्या के साथ उसी के आमंत्रण पर उसकी मैथुन कला के प्रदर्शन हेतु उसके साथ सम्भोग का आनंद भी लिया था, और मैं इसे भी अपने सामाजिक अध्ययन का अंग मानता हूँ. तथापि यह मात्र  अध्ययन न होकर मेरे लिए आनंद की प्राप्ति भी थी. 

 उपरोक्त विवरण देने का मेरा तात्पर्य यह है कि मैंने एक विशेष दायित्व निर्वाह हेतु ऐसा कार्य किया जो समाज की दृष्टि में अनुचित है जिसके लिए मुझे दोषी ठहराया जा सकता है. विशिष्ट दायित्व निर्वाह का यह एक नगण्य उदाहरण है, क्योंक मेरा उक्त दायित्व भी नगण्य ही था. वस्तुतः सामर्थ्यवान लोगों को अपने दायित्व-निर्वाहों हेतु इससे भी कहीं अधिक जघन्य कार्य करने पड़ सकते हैं. यथा सीमा पर तैनात सिपाही को अपने दायित्व निर्वाह हेतु हत्याएं भी करनी पड़ती हैं जो सामान्य परिस्थितियों में दुष्कर्म माना जाता है.
Breach of Trust 
इसी कारण से विशिष्ट रूप से सामर्थ्यवान व्यक्ति अपने दायित्व निर्वाह में कभी यह परवाह नहीं करते कि लोग क्या कहेंगे. उनकी चिंता बस यह होती है कि उन्हें अपने कर्म से बौद्धिक संतुष्टि हो. ऐसा करते समय कार्य-कलाप महत्वहीन हो जाते हैं और जिसका महत्व होता है वह है कर्मी का मंतव्य. इससे यहे भी स्वतः सिद्ध हो जाता है कि किसी भी व्यक्ति मंतव्य उसके कर्म से सदैव अधिक महत्वपूर्ण होता है.      

1 टिप्पणी:

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