मनुष्य जो भी करता है उसके पीछे उसके मन अथवा मस्तिष्क का मार्गदर्शन होता है. मन शारीरिक इच्छाओं और आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उत्प्रेरित करता है, तथा इसमें उचितानुचित पर चिंतन करने की सामर्थ्य नहीं होती. मनुष्य के मस्तिष्क में उसके भूतकाल के अनुभवों की स्मृतियाँ तथा उनके उपयोग की सामर्थ्य होती है जिससे वह उचितानुचित पर चिंतन कर अपने कार्य करता है. उचितानुचित के चिंतन की सामर्थ्य ही मनुष्य का विवेक कहलाता है.
शरीर से कार्यों हेतु सञ्चालन की सामर्थ्य भी मस्तिष्क में ही होती है अतः कार्य चाहे मन के मार्गदर्शन में हो अथवा मस्तिष्क के, मस्तिष्क शरीर के सञ्चालन हेतु सदैव सक्रिय रहता है. इस प्रकार कहा जा सकता है कि मनुष्य का मन भी मस्तिष्क के माध्यम से कार्य कराता है जिसमें मनुष्य के विवेक का सक्रिय होना आवश्यक नहीं होता. किसी कार्य में विवेक की निष्क्रियता का एक बड़ा कारण यह होता है कि विवेक की क्रियाशीलता में कुछ समय लगना अपेक्षित होता है. इसलिए शरीर को जब किसी क्रिया की तुरंत आवश्यकता होती है तो वह विवेक की क्रियाशीलता की प्रतीक्षा किये बिना ही शरीर को सक्रिय कर देता है. मन के मार्गदर्शन के अनुसार कार्य करने का एक अन्य कारण शरीर की इच्छा की प्रबलता होती है. इस स्थिति में भी मनुष्य का विवेक सक्रिय नहीं होता.
चिंतन करना मनुष्य के अभ्यास पर भी निर्भर करता है. जो मनुष्य अधिकाँश समय चिंतन करते हैं उनका मस्तिष्क प्रायः सक्रिय रहता है जो मन पर अपना नियंत्रण बनाए रखता है. इस कारण से बुद्धिजीवी अपने सभी कार्य विवेक के अनुसार करते हैं, जब कि श्रमजीवी विवेक का यदा-कदा ही उपयोग करते हैं. इन दो वर्गों के मध्यवर्ती लोग कभी मन के तो कभी विवेक के मार्गदर्शन में कार्य करते हैं. इसके कारण उनके मन और मस्तिष्क में प्रायः संघर्ष की स्थिति बनी रहती है.
मनुष्य के शरीर की आवश्यकताएं यथा भूख, प्यास, काम, आदि प्राकृत होती हैं उन्हें समाप्त नहीं किया जा सकता किन्तु इनकी आपूर्ति के माध्यम भिन्न हो सकते हैं. ये आवश्यकताएं सभी जीवधारियों में होती हैं और यही उनके जावन का लक्ष्य भी होती हैं यदि मनुष्य अपना जीवन इन्ही की आपूर्ति तक सीमित कर देता है तो पशुतुल्य ही होता है. मनुष्यता पशुता से बहुत आगे है - अपनी चिंतन शक्ति, बुद्धि और संस्कारों के कारण. व्यक्ति के संस्कार उसके व्यवहार को संचालित करते हैं जो अच्छे अथवा बुरे दोनों प्रकार के हो सकते हैं. उसकी चिंतन शक्ति उसके जीवन की समस्याओं के निवारण के लिए महत्वपूर्ण होती है तथा उसकी बुद्धि मानव सभ्यता को और आगे ले जाने में उपयोग की जाती है. व्यक्ति द्वारा अपनी बुद्धि और चिंतन शक्ति के उक्त सदुपयोगों के अतिरिक्त व्यक्ति इनका दुरूपयोग भी कर सकता है.
मनुष्य का मस्तिष्क बहुत अधिक विकसित होता है जिसमें अथाह स्मृति, चिंतन शक्ति और बुद्धि का समावेश होता है, इसके सापेक्ष अन्य जीवों के मस्तिष्क उनके मन को समर्थन प्रदान करने के लिए ही होते हैं और अधिकाँश में बुद्धि और चिंतन शक्ति का अभाव होता है. इसके कारण मनुष्य ही पृथ्वी का सर्वश्रेष्ठ जीव है, और इसकी विशिष्ट पहचान है - मन और मस्तिष्क का सतत संघर्ष, जिसमें मस्तिष्क प्रायः विजयी रहता है. यही मानव सभ्यता के विकास का मार्ग है.
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बुधवार, 11 अगस्त 2010
गुरुवार, 25 फ़रवरी 2010
मस्तिष्क और मन का अंतर
सामान्यतः शब्द मस्तिष्क और मन एक दूसरे के पर्याय के रूप में उपयुक्त कर लिए जाते हैं, किन्तु वास्तव में ये पर्याय नहीं हैं. मस्तिष्क मन का एक अंग होता है ठीक उसी प्रकार हैसे मन शरीर का एक अंग होता है अथवा व्यक्ति समाज का एक अंग होता है.
मनुष्य की खोपड़ी के अन्दर स्थित मांस के बहु-अंगी लोथड़े को उसका मस्तिष्क कहा जाता है जिसके तीन प्रमुख कार्य होते हैं -
मनुष्य के शरीर में अनेक गतिविधियों के संचालन हेतु स्वयं-सिद्ध अनेक तंत्र होते हैं, यथा - पाचन, रक्त प्रवाह, रक्त शोधन, रक्त संरचना, श्वसन, अनेक सूचना गृहण तंत्र जैसे आँख, कान, नासिका, आदि, अनेक क्रिया तंत्र जैसे हस्त, पाद, आदि. प्रत्येक तंत्र में उसके संचालन हेतु एक लघु-मस्तिष्क होता है जो शरीर के मुख्य मस्तिष्क से नाडियों के संजोग से सम्बद्ध होता है. ये प्रायः ग्रंथियों के रूप में होते हैं. प्रत्येक लघु-मस्तिष्क अपने तंत्र की प्रत्येक कोशिका से नाडियों के माध्यम से सम्बद्ध होता है. इस प्रकार मनुष्य का मस्तिष्क लघु-नस्तिश्कों एवं नाडियों के माध्यम से सरीर की प्रत्येक कोशिका से सम्बद्ध होता है.
लघु-मस्तिष्क केवल नियंत्रण केंद्र होते हैं, चिंतन और स्मृति की क्षमता इनमें नहीं होती. इस नियंत्रण क्षमता में सम्बद्ध तंत्र की इच्छाओं एवं आवश्यकताओं के ज्ञान एवं तदनुसार उसके संचालन की क्षमता समाहित होती है जिसके लिए लघु-मस्तिष्क अपने विवेकानुसार मुख्य मस्तिष्क की यथावश्यकता सहायता एवं दिशा निर्देश प्राप्त करता है. इस प्रकार प्रत्येक लघु-मस्तिष्क मस्तिष्क के अंतर्गत एक स्वायत्त संस्थान के रूप में कार्य करता है. मनुष्य की इच्छाओं का उदय इन्ही लघु-मस्तिष्कों में होता है, किन्तु ये उनके औचत्य पर चिंतन करने में असमर्थ होते हैं. इसी बिंदु से मानव और महामानव का अंतर आरम्भ होता है.
मानव लघु-मस्तिष्कों को उनकी इच्छानुसार कार्य करने की अनुमति देते हैं और अपने मस्तिष्क को इस क्रिया में चिंतन करने का अवसर नहीं देते. इसलिए उनके शारीरिक तंत्रों की स्वतंत्र इच्छाएँ ही उनके कार्य-कलापों को नियंत्रित करती हैं - उनके औचित्यों पर चिंतन किये बिना. इस प्रकार मानवों में उनके विविध तंत्रों में उगी इच्छाएँ ही सर्वोपरि होती हैं.
महामानव लघु-मस्तिष्कों को स्वायत्त रूप में कार्य करने देते हैं, किन्तु अपनी पैनी दृष्टि उनपर रखते हैं, यथावश्यकता उनपर चिंतन करते हैं, एवं विवेकानुसार उनके क्रिया-कलापों का निर्धारण करते हैं. इन में मस्तिष्क शारीरिक गतिविधियों का प्रमुख नियंत्रक होता है, और चिंतन उसका प्रमुख धर्म.
सारांश रूप में महामानव की गतिविधियाँ चिंतन केन्द्रित होती हैं जबकि मानवों में चिंतन का अभाव होता है और उपयोग में न लिए जाने के कारण उनकी चिंतन क्षमता क्षीण होती जाती है. मानवों की गतिविधियाँ उनके अंग-प्रत्यंगों की इच्छाओं पर केन्द्रित होती हैं. इस प्रकार मानवों में मन तथा महामानवों में मस्तिष्क प्रधान होता है. मनुष्य जाति के वर्ण वितरण के मानव और महामानव दो चरम बिंदु होते हैं और प्रत्येक मनुष्य की स्थिति इन दो चरम बिन्दुओं के मध्य ही होती है.
मनुष्य की खोपड़ी के अन्दर स्थित मांस के बहु-अंगी लोथड़े को उसका मस्तिष्क कहा जाता है जिसके तीन प्रमुख कार्य होते हैं -
- चिंतन - समस्याओं के समाधानों के प्रयास हेतु सोचना,
- स्मृति - ज्ञानेन्द्रियों से सूचनाएं गृहण, भंडारण एवं आवश्यकतानुसार उनकी उपलब्धि कराना,
- नियंत्रण - कर्मेन्द्रियों का यथावश्यकता संयमन.
मनुष्य के शरीर में अनेक गतिविधियों के संचालन हेतु स्वयं-सिद्ध अनेक तंत्र होते हैं, यथा - पाचन, रक्त प्रवाह, रक्त शोधन, रक्त संरचना, श्वसन, अनेक सूचना गृहण तंत्र जैसे आँख, कान, नासिका, आदि, अनेक क्रिया तंत्र जैसे हस्त, पाद, आदि. प्रत्येक तंत्र में उसके संचालन हेतु एक लघु-मस्तिष्क होता है जो शरीर के मुख्य मस्तिष्क से नाडियों के संजोग से सम्बद्ध होता है. ये प्रायः ग्रंथियों के रूप में होते हैं. प्रत्येक लघु-मस्तिष्क अपने तंत्र की प्रत्येक कोशिका से नाडियों के माध्यम से सम्बद्ध होता है. इस प्रकार मनुष्य का मस्तिष्क लघु-नस्तिश्कों एवं नाडियों के माध्यम से सरीर की प्रत्येक कोशिका से सम्बद्ध होता है.
लघु-मस्तिष्क केवल नियंत्रण केंद्र होते हैं, चिंतन और स्मृति की क्षमता इनमें नहीं होती. इस नियंत्रण क्षमता में सम्बद्ध तंत्र की इच्छाओं एवं आवश्यकताओं के ज्ञान एवं तदनुसार उसके संचालन की क्षमता समाहित होती है जिसके लिए लघु-मस्तिष्क अपने विवेकानुसार मुख्य मस्तिष्क की यथावश्यकता सहायता एवं दिशा निर्देश प्राप्त करता है. इस प्रकार प्रत्येक लघु-मस्तिष्क मस्तिष्क के अंतर्गत एक स्वायत्त संस्थान के रूप में कार्य करता है. मनुष्य की इच्छाओं का उदय इन्ही लघु-मस्तिष्कों में होता है, किन्तु ये उनके औचत्य पर चिंतन करने में असमर्थ होते हैं. इसी बिंदु से मानव और महामानव का अंतर आरम्भ होता है.
मानव लघु-मस्तिष्कों को उनकी इच्छानुसार कार्य करने की अनुमति देते हैं और अपने मस्तिष्क को इस क्रिया में चिंतन करने का अवसर नहीं देते. इसलिए उनके शारीरिक तंत्रों की स्वतंत्र इच्छाएँ ही उनके कार्य-कलापों को नियंत्रित करती हैं - उनके औचित्यों पर चिंतन किये बिना. इस प्रकार मानवों में उनके विविध तंत्रों में उगी इच्छाएँ ही सर्वोपरि होती हैं.
महामानव लघु-मस्तिष्कों को स्वायत्त रूप में कार्य करने देते हैं, किन्तु अपनी पैनी दृष्टि उनपर रखते हैं, यथावश्यकता उनपर चिंतन करते हैं, एवं विवेकानुसार उनके क्रिया-कलापों का निर्धारण करते हैं. इन में मस्तिष्क शारीरिक गतिविधियों का प्रमुख नियंत्रक होता है, और चिंतन उसका प्रमुख धर्म.
सारांश रूप में महामानव की गतिविधियाँ चिंतन केन्द्रित होती हैं जबकि मानवों में चिंतन का अभाव होता है और उपयोग में न लिए जाने के कारण उनकी चिंतन क्षमता क्षीण होती जाती है. मानवों की गतिविधियाँ उनके अंग-प्रत्यंगों की इच्छाओं पर केन्द्रित होती हैं. इस प्रकार मानवों में मन तथा महामानवों में मस्तिष्क प्रधान होता है. मनुष्य जाति के वर्ण वितरण के मानव और महामानव दो चरम बिंदु होते हैं और प्रत्येक मनुष्य की स्थिति इन दो चरम बिन्दुओं के मध्य ही होती है.
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