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सोमवार, 1 फ़रवरी 2010

पृष्ठभूमि

भारत के वेद और शास्त्र ज्ञान-विज्ञानं तथा लगभग २४०० वर्ष पूर्व के इतिहास के अकूत भण्डार हैं. तथापि इनके सही अनुवाद न होने के कारण इनसे न तो कोई ज्ञान-विज्ञानं प्राप्त हो पाया है और न ही कोई विश्वसनीय एतिहासिक तथ्य. इसका प्रमुख कारण यह है कि अभी तक इनके सभी अनुवाद आधुनिक संस्कृत शब्दावली के अर्थों के आधार पर किये गए हैं जबकि सभी विद्वान् इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि आधुनिक संस्कृत भाषा इन ग्रंथों के लिखे जाने से बहुत बाद में विकसित की गयी थी. इनकी वास्तविक भाषा को प्रायः वैदिक संस्कृत कहा जाता है. इनके वर्तमान में प्रचलित हिंदी अनुवादों से जो प्राप्त होता है वह विकृत और भ्रमित करने वाला है. इन अनुवादों के कारण ये बहुमूल्य ग्रन्थ अप्रासंगिक लगने लगते हैं.

श्री अरविन्द की प्रेरणा तथा इन ग्रंथों पर किये गए शोधों से मुझे ज्ञात हुआ कि इनकी शब्दावली का आधुनिक संस्कृत से कोई सम्बन्ध न होकर तत्कालीन विकसित लैटिन और ग्रीक भाषाओं से गहन सम्बन्ध है. इस आधार पर किये गए अनुवादों से ही इन बहुमूल्य ग्रंथों से इनके मंतव्यों का सही बोध होना संभव है. किन्तु यह ग्रंथावली इतनी विशाल है कि मैं अपने सम्पूर्ण जीवन में इनके अनुवाद प्रस्तुत करने में असमर्थ ही रहूँगा. इस कार्य में अन्य विद्वान् भी लगें, इसके लिए मैं इस संलेख के माध्यम से इनकी शब्दावली के व्याख्यात्मक अर्थ प्रस्तुत कर रहा हूँ जिससे कि अनुवाद सरल, सहज और यथार्थपरक हों.    

बुधवार, 13 जनवरी 2010

ऐतिहासिक सन्दर्भों की क्लिष्टताएं भाग 3

शब्दार्थ बदलकर किस तरह शास्त्रों के अर्थ बदले गए हैं, इसके लिए दो उदाहरण दिए जा रहे हैं -
१. एक शब्द है 'तृप्ति' जिसका अर्थ आधुनिक संस्कृत के अनुसार 'संतुष्टि' है. किन्तु वेदों और शास्त्रों में इस शब्द का अभिप्राय एकदम विपरीत है. यह शब्द लैटिन भाषा के शब्द 'turpitude ' का देवनागरी रूप है जिसका अर्थ 'अभाव' है. इस प्रकार वेद और शास्त्रों में आये इस शब्द का अर्थ 'संतुष्टि' लेने से आशय एकदम विपरीत हो जायेगा.
'तृप्ति' शब्द का ही द्रविड़ रूप 'तिरुपति' है जिसे दक्षिण भारत के एक देवता के नाम के लिए उपयोग किया जाता है जिसके दर्शन के लिए लाखों लोग तिरुपति नामक स्थान पर जाते हैं. मेरे एक सहकर्मी आन्ध्र प्रदेश के थे - श्री इ. एन. राव, वे कहा करते थे कि तिरुपति के बारे में एक किंवदंती प्रसिद्द है कि वहां कोई श्रद्धालु चाहे जितना भी धन लेकर जाये, वह वहां से खाली हाथ ही वापिस आता है. सभवतः यह किंवदंती सच न हो, किन्तु इसके प्रसिद्द होने का कुछ तो कारण होगा ही. मेरे विचार में यह किंवदंती तिरुपति शब्द का वास्तविक अर्थ प्रकट करने के लिए कभी प्रचलित की गयी होगी. जब जन-समुदाय भावावेश में सच्चाई से दूर भागता है तो उसे सत्य से परिचित कराने के लिए ऐसे मार्ग अपनाए जाते रहे हैं. इस किंवदंती से भी तिरुपति का अर्थ 'अभाव' सिद्ध होता है.
२. एक शब्द है 'शुभ' जो वेदों, शास्त्रों तथा आधुनिक संस्कृत एवं हिंदी में भी प्रचलित है. आधुनिक संस्कृत एवं हिंदी में इसका अर्थ है 'अच्छा' अथवा 'जिसकी उपस्थिति मात्र लाभकर हो' जबकि ऐसी कोई वस्तु नहीं होती जिसकी उपस्थिति लाभ या हानिकर हो. वस्तु की उपस्थिति का प्रभाव ही लाभकर या हानिकर हो सकता है.
वेदों तथा शास्त्रों में यह शब्द लैटिन भाषा के शब्द 'sophia ' से लिया गया है जिसका व्यापक अर्थ है - भाषा के उपयोग संबंधी कार्य जैसे लेखन, प्रवचन, शिक्षण, अध्ययन, चिंतन, आदि. फिलोसोफी शब्द भी इसी से बना है. अरबी और हिन्दुस्तानी में इसका समतुल्य शब्द सूफी है जिसका अर्थ भी वेदों और शास्त्रों के मूल मंतव्य से मेल खाता है. अतः वेदों एवं शास्त्रों में इसका अर्थ आधुनिक संस्कृत के अनुसार लेने से भाव में विकृति उत्पन्न होना स्वाभाविक है.

इस प्रकार शब्दार्थ परिवर्तन कर वेदों और शास्त्रों के मंतव्यों को विकृत किया गया है. यहाँ आश्चर्य यह है कि सभी मानते और जानते हैं कि वेदों और शास्त्रों की भाषा आधुनिक संस्कृत से भिन्न है तथापि जब इनके अनुवाद करते हैं तो आधुनिक संस्कृत के आधार पर ही करते हैं. यह या तो बुद्धिहीनता है अथवा जानबूझकर वेदों और शास्त्रों के मंतव्यों में विकृति उत्पन्न करना है. अभी तक मैंने कोई ऐसा अनुवाद नहीं देखा है जो आधुनिक संस्कृत के उपयोग पर आधारित न हो. इसलिए अब तक किये गए सभी अनुवादों को टाक पर रखकर इस कार्य को नए सिरे से की जाने की आवश्यकता है. इस कार्य के लिए मैं एक शब्दकोष भी तैयार कर रहा हूँ जिसमें लगभग ५००० शब्दों के अर्थ संकलित भी किये जा चुके हैं.

इन कारणों से इस संलेख में सन्दर्भ देना संभव नहीं है, तथापि कुछ स्थानों पर मूल लिपि को सही ढंग से अनुवाद करके नए अर्थ दर्शाए जायेंगे.


ऐतिहासिक सन्दर्भों की क्लिष्टताएं भाग 3

शब्दार्थ बदलकर किस तरह शास्त्रों के अर्थ बदले गए हैं, इसके लिए दो उदाहरण दिए जा रहे हैं -
१. एक शब्द है 'तृप्ति' जिसका अर्थ आधुनिक संस्कृत के अनुसार 'संतुष्टि' है. किन्तु वेदों और शास्त्रों में इस शब्द का अभिप्राय एकदम विपरीत है. यह शब्द लैटिन भाषा के शब्द 'turpitude ' का देवनागरी रूप है जिसका अर्थ 'अभाव' है. इस प्रकार वेद और शास्त्रों में आये इस शब्द का अर्थ 'संतुष्टि' लेने से आशय एकदम विपरीत हो जायेगा.
'तृप्ति' शब्द का ही द्रविड़ रूप 'तिरुपति' है जिसे दक्षिण भारत के एक देवता के नाम के लिए उपयोग किया जाता है जिसके दर्शन के लिए लाखों लोग तिरुपति नामक स्थान पर जाते हैं. मेरे एक सहकर्मी आन्ध्र प्रदेश के थे - श्री इ. एन. राव, वे कहा करते थे कि तिरुपति के बारे में एक किंवदंती प्रसिद्द है कि वहां कोई श्रद्धालु चाहे जितना भी धन लेकर जाये, वह वहां से खाली हाथ ही वापिस आता है. सभवतः यह किंवदंती सच न हो, किन्तु इसके प्रसिद्द होने का कुछ तो कारण होगा ही. मेरे विचार में यह किंवदंती तिरुपति शब्द का वास्तविक अर्थ प्रकट करने के लिए कभी प्रचलित की गयी होगी. जब जन-समुदाय भावावेश में सच्चाई से दूर भागता है तो उसे सत्य से परिचित कराने के लिए ऐसे मार्ग अपनाए जाते रहे हैं. इस किंवदंती से भी तिरुपति का अर्थ 'अभाव' सिद्ध होता है.
२. एक शब्द है 'शुभ' जो वेदों, शास्त्रों तथा आधुनिक संस्कृत एवं हिंदी में भी प्रचलित है. आधुनिक संस्कृत एवं हिंदी में इसका अर्थ है 'अच्छा' अथवा 'जिसकी उपस्थिति मात्र लाभकर हो' जबकि ऐसी कोई वस्तु नहीं होती जिसकी उपस्थिति लाभ या हानिकर हो. वस्तु की उपस्थिति का प्रभाव ही लाभकर या हानिकर हो सकता है.
वेदों तथा शास्त्रों में यह शब्द लैटिन भाषा के शब्द 'sophia ' से लिया गया है जिसका व्यापक अर्थ है - भाषा के उपयोग संबंधी कार्य जैसे लेखन, प्रवचन, शिक्षण, अध्ययन, चिंतन, आदि. फिलोसोफी शब्द भी इसी से बना है. अरबी और हिन्दुस्तानी में इसका समतुल्य शब्द सूफी है जिसका अर्थ भी वेदों और शास्त्रों के मूल मंतव्य से मेल खाता है. अतः वेदों एवं शास्त्रों में इसका अर्थ आधुनिक संस्कृत के अनुसार लेने से भाव में विकृति उत्पन्न होना स्वाभाविक है.

इस प्रकार शब्दार्थ परिवर्तन कर वेदों और शास्त्रों के मंतव्यों को विकृत किया गया है. यहाँ आश्चर्य यह है कि सभी मानते और जानते हैं कि वेदों और शास्त्रों की भाषा आधुनिक संस्कृत से भिन्न है तथापि जब इनके अनुवाद करते हैं तो आधुनिक संस्कृत के आधार पर ही करते हैं. यह या तो बुद्धिहीनता है अथवा जानबूझकर वेदों और शास्त्रों के मंतव्यों में विकृति उत्पन्न करना है. अभी तक मैंने कोई ऐसा अनुवाद नहीं देखा है जो आधुनिक संस्कृत के उपयोग पर आधारित न हो. इसलिए अब तक किये गए सभी अनुवादों को टाक पर रखकर इस कार्य को नए सिरे से की जाने की आवश्यकता है. इस कार्य के लिए मैं एक शब्दकोष भी तैयार कर रहा हूँ जिसमें लगभग ५००० शब्दों के अर्थ संकलित भी किये जा चुके हैं.

इन कारणों से इस संलेख में सन्दर्भ देना संभव नहीं है, तथापि कुछ स्थानों पर मूल लिपि को सही ढंग से अनुवाद करके नए अर्थ दर्शाए जायेंगे.


शनिवार, 9 जनवरी 2010

ऐतिहासिक सन्दर्भों की क्लिष्टताएं - भाग दो

इस संलेख में प्रकाशित भारत के इतिहास में सन्दर्भ प्रदान करने की सबसे बड़ी क्लिष्टता यह है कि यह इतिहास किसी ग्रन्थ से यथावत न लिया जाकर अनेक ग्रंथों के मेरे अनुवादों के कणों को संगृहीत करके बनाया गया है जिसमें बौद्धिक तर्कों का भी समावेश है. यदि इतिहास किसी ग्रन्थ में सीधे-सीधे समावेशित होता तो इस सम्बन्ध में अभी तक फ़ैली भ्रांतियां उत्पन्न ही नहीं होतीं और मुझे यह इतिहास नए सिरे से लिखने की आवश्यकता ही नहीं होती. किसी ग्रन्थ में प्राचीन इतिहास को समावेशित करने में जटिलताएं थीं जिनका अवलोकन यहाँ किया जा रहा है.


भारत राष्ट्र के विकास के बारे में सबसे पहले वेड लिखे गए जो आरम्भ में किसी अन्य लिपि में लिखे गए होंगे किन्तु बाद में इन्हें देवनागरी में लिपिबद्ध किया गया. इनकी शब्दावली लातिन तथा ग्रीक भाषाओं की शब्दावली है क्योंकि उस समय तक ये भाषाएँ ही विकसित हुई थीं. यह भाषा आधुनिक संस्कृत से एकदम भिन्न है और इसके आधार पर वेदों का अनुवाद करना मूर्खतापूर्ण तथा अतार्किक है. इस तथ्य को सभी मानते हैं तथापि सभी अनुवाद आधुनिक संस्कृत के आधार पर ही किये गए  है जो वेदों के बारे में भ्रांत धारणाएं उत्पन्न करते हैं.वेदों में पूर्णतः तत्कालीन वैज्ञानिक ज्ञान निहित है किन्तु काल अंतराल के कारण इनके अनुवाद करनी अति क्लिष्ट है.

यवनों एवं अन्य जंगली जातियों के भारत में आने और उन के द्वारा देवों द्वारा किये जा रहे विकास कार्यों में धर्म प्रचार के माध्यम से बाधा उत्पन्न किये जाने के अंतर्गत उन्होंने वेदों तथा अन्य ग्रन्थों के गलत अनुवाद प्रसारित करने आरम्भ किये  जिनमें धर्म और अध्यात्म प्रचार पर बल दिया गया जो पूरी तरह देवों तथा वेदों के मंतव्य से भिन्न था. इस उद्देश्य से इन जंगली जातियों ने आधुनिक संस्कृत विकसित की जिसमें शब्दार्थ मूल शब्दार्थ से बहुत भिन्न हैं. शास्त्रों के प्रचलित अनुवाद इसी आधुनिक संस्कृत शब्दार्थों पर आधारित होने के कारण दोषपूर्ण हैं.

ऐसी स्थिति में यदि देव उसी प्रकार अन्य ग्रन्थ भी लिखते तो उससे कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता. अतः देवों ने एक नयी लेखन शैली का विकास किया जिसे शास्त्रीय शैली कहा जा सकता है. इस शैली में शब्दावली को इस प्रकार बदला जाता है कि उसमें वास्तविक अर्थ तो छिपा रहे किन्तु प्रतीत अर्थ धर्म एवं अध्यात्मा परक लगे. इस आशय के संकेत प्रत्येक ग्रन्थ के आरम्भ में गूढ़ रूप में दे दिए गए ताकि गंभीर पाठक इस शैली में लिखे ग्रंथों के सही अनुवाद पा सकें. साथ ही अध्यात्मवादी भी इन ग्रंथों से प्रसन्न रहें और इन्हें नष्ट करने के स्थान पर इन्हें सुरक्षित रखें. इस कारण से अधकांश ग्रंथों की मूल भाषा आज तक सुरक्षित है किन्तु उनके उलटे-सीधे अनुवाद प्रचलित हैं जिसके कारण इन ग्रंथों में अतार्किक वर्णन प्रतीत होते हैं.

इस शास्त्रीय शैली में पुराण लिखे गए जिनमें पुरु वंश एवं इसके प्रमुख व्यक्तियों के इतिहास निहित हैं. किन्तु इस इतिहास को आधुनिक संस्कृत के आधार पर किये गए अनुवादों में प्राप्त नहीं किया जा सकता. इसके कारण इस इतिहास के सीधे सन्दर्भ देना संभव नहीं है. मूल भाषा में सन्दर्भ प्रदान करने से उसके अनुवादों की जटिलता सामने आती है. इसलिए इस इतिहास को कण-कण करके बनाया गया है, शास्त्रीय शैली में सबसे बाद में लिखा गया ग्रन्थ भाव प्रकाश है जिसमें आयुर्वेद के अतिरिक्त इतिहास का भी समावेश है.

ऐतिहासिक सन्दर्भों की क्लिष्टताएं - भाग दो

इस संलेख में प्रकाशित भारत के इतिहास में सन्दर्भ प्रदान करने की सबसे बड़ी क्लिष्टता यह है कि यह इतिहास किसी ग्रन्थ से यथावत न लिया जाकर अनेक ग्रंथों के मेरे अनुवादों के कणों को संगृहीत करके बनाया गया है जिसमें बौद्धिक तर्कों का भी समावेश है. यदि इतिहास किसी ग्रन्थ में सीधे-सीधे समावेशित होता तो इस सम्बन्ध में अभी तक फ़ैली भ्रांतियां उत्पन्न ही नहीं होतीं और मुझे यह इतिहास नए सिरे से लिखने की आवश्यकता ही नहीं होती. किसी ग्रन्थ में प्राचीन इतिहास को समावेशित करने में जटिलताएं थीं जिनका अवलोकन यहाँ किया जा रहा है.


भारत राष्ट्र के विकास के बारे में सबसे पहले वेड लिखे गए जो आरम्भ में किसी अन्य लिपि में लिखे गए होंगे किन्तु बाद में इन्हें देवनागरी में लिपिबद्ध किया गया. इनकी शब्दावली लातिन तथा ग्रीक भाषाओं की शब्दावली है क्योंकि उस समय तक ये भाषाएँ ही विकसित हुई थीं. यह भाषा आधुनिक संस्कृत से एकदम भिन्न है और इसके आधार पर वेदों का अनुवाद करना मूर्खतापूर्ण तथा अतार्किक है. इस तथ्य को सभी मानते हैं तथापि सभी अनुवाद आधुनिक संस्कृत के आधार पर ही किये गए  है जो वेदों के बारे में भ्रांत धारणाएं उत्पन्न करते हैं.वेदों में पूर्णतः तत्कालीन वैज्ञानिक ज्ञान निहित है किन्तु काल अंतराल के कारण इनके अनुवाद करनी अति क्लिष्ट है.

यवनों एवं अन्य जंगली जातियों के भारत में आने और उन के द्वारा देवों द्वारा किये जा रहे विकास कार्यों में धर्म प्रचार के माध्यम से बाधा उत्पन्न किये जाने के अंतर्गत उन्होंने वेदों तथा अन्य ग्रन्थों के गलत अनुवाद प्रसारित करने आरम्भ किये  जिनमें धर्म और अध्यात्म प्रचार पर बल दिया गया जो पूरी तरह देवों तथा वेदों के मंतव्य से भिन्न था. इस उद्देश्य से इन जंगली जातियों ने आधुनिक संस्कृत विकसित की जिसमें शब्दार्थ मूल शब्दार्थ से बहुत भिन्न हैं. शास्त्रों के प्रचलित अनुवाद इसी आधुनिक संस्कृत शब्दार्थों पर आधारित होने के कारण दोषपूर्ण हैं.

ऐसी स्थिति में यदि देव उसी प्रकार अन्य ग्रन्थ भी लिखते तो उससे कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता. अतः देवों ने एक नयी लेखन शैली का विकास किया जिसे शास्त्रीय शैली कहा जा सकता है. इस शैली में शब्दावली को इस प्रकार बदला जाता है कि उसमें वास्तविक अर्थ तो छिपा रहे किन्तु प्रतीत अर्थ धर्म एवं अध्यात्मा परक लगे. इस आशय के संकेत प्रत्येक ग्रन्थ के आरम्भ में गूढ़ रूप में दे दिए गए ताकि गंभीर पाठक इस शैली में लिखे ग्रंथों के सही अनुवाद पा सकें. साथ ही अध्यात्मवादी भी इन ग्रंथों से प्रसन्न रहें और इन्हें नष्ट करने के स्थान पर इन्हें सुरक्षित रखें. इस कारण से अधकांश ग्रंथों की मूल भाषा आज तक सुरक्षित है किन्तु उनके उलटे-सीधे अनुवाद प्रचलित हैं जिसके कारण इन ग्रंथों में अतार्किक वर्णन प्रतीत होते हैं.

इस शास्त्रीय शैली में पुराण लिखे गए जिनमें पुरु वंश एवं इसके प्रमुख व्यक्तियों के इतिहास निहित हैं. किन्तु इस इतिहास को आधुनिक संस्कृत के आधार पर किये गए अनुवादों में प्राप्त नहीं किया जा सकता. इसके कारण इस इतिहास के सीधे सन्दर्भ देना संभव नहीं है. मूल भाषा में सन्दर्भ प्रदान करने से उसके अनुवादों की जटिलता सामने आती है. इसलिए इस इतिहास को कण-कण करके बनाया गया है, शास्त्रीय शैली में सबसे बाद में लिखा गया ग्रन्थ भाव प्रकाश है जिसमें आयुर्वेद के अतिरिक्त इतिहास का भी समावेश है.