रविवार, 26 दिसंबर 2010

निपुणत क्या है

मैं अपने लिए एक घर बना रहा हूँ - मेरा स्वप्न महल. मेरे पास समय की उपलब्धि, धन का अभाव, स्वयं परिश्रम करने में रूचि, घर की लागत न्यूनतम रखना आदि अनेक कारण हैं जिनके लिए यथासंभव यह घर मैं स्वयं ही निर्मित कर रहा हूँ. बाहरी मिस्त्री और मजदूर केवल छत डालने और दीवारों पर प्लास्टर करने के लिए लगाये गए हैं. शेष सभी कार्य मैं स्वयं ही कर रहा हूँ - केवल दो घंटे प्रतिदिन प्रातःकाल में, जिसदिन भी मुझे कोई अधिक महत्वपूर्ण कार्य नहीं होता. निर्माण आरम्भ किये दो वर्ष से अधिक हो गए हैं, और सम्पूर्णता में एक वर्ष और लग सकता है. मुझे कोई शीघ्रता नहीं है. अब तक रहने के लिए पुराना भवन है और अब नए भवन के तैयार भाग में रहना आरम्भ करने की तैयारियों में लगा हूँ.


अभी एक सप्ताह प्लास्टर के लिए एक राज मिस्त्री और एक मजदूर से कार्य कराया. इस कार्य में इतनी अधिक सामग्री व्यर्थ की गयी जो मैंने इस भवन के निर्माण में अब तक नहीं की. इस कार्य की अपने कार्य से तुलना की तो निपुणता के बारे में कुछ चिंतन हुआ, जिसे यहाँ अंकित कर रहा हूँ.

निपुणता का सम्बन्ध हाथों से किये गए कार्य अर्थात शारीरिक श्रम से होता है न कि मानसिक श्रम अथवा बौद्धिक कार्य से. व्यक्ति द्वारा अपने कार्य को अंतिम रूप में उत्तम स्वरुप देना प्रायः निपुणता कहा जाता है. किन्तु निपुणता की यह परिभाषा पर्याप्त नहीं है. इसके अन्य महत्वपूर्ण अवयव कार्य में न्यूनतम लागत और न्यूनतम समय लगाना भी हैं.

लागत विचार
प्रत्येक कार्य अनेक प्रकार से किया जा सकता है जो परिस्थितियों के अतिरिक्त व्यक्ति की अपनी आवश्यकता और मानसिकता पर भी निर्भर करता है. दी गयी परिस्थितियों के अंतर्गत आवश्यकताओं की आपूर्ति न्यूनतम लागत पर होनी चाहिए, जो  निपुणता का प्राथमिक अवयव है. लागत के दो भाग होते हैं - सामग्री और श्रम. दोनों में ही मितव्ययता निपुणता की परिचायक होती है.

कार्य में सामग्री की खपत दो प्रकार से होती है - कार्य में समाहित और कार्य के दौरान सामग्री की अपव्ययता. कार्य में संतुलित  आवश्यकता से अधिक सामग्री झोंक देना भी सामग्री की अपव्ययता ही है जो हमारे कार्यों में प्रायः हो रही है. यहाँ संतुलित आवश्यकता का तात्पर्य कार्य के सभी अवयवों की एक समान सामर्थ्य बनाये रखने से है. ऐसा न होने पर कार्य का निर्बलतम अवयव उपयोग में अन्य अवयवों का साथ नहीं दे पायेगा, स्वयं नष्ट होगा और शेष को भी व्यर्थ कर देगा. यह संतुलन ही कार्य की न्यूनतम लागत का महत्वपूर्ण सूत्र है.

श्रम का मूल्य भी सामग्री के मूल्य जैसा ही महत्व रखता है, इसलिए कार्य में लगे समय को भी न्यूनतम रखा जाना चाहिए. प्रत्येक व्यक्ति के लिए समय के उपयोग के लिए अनेक विकल्प होते हैं. इसलिए समय का वहीं उपयोग किया जाए जाहाँ उसका महत्व सर्वाधिक हो. इसके विपरीत, कार्य पर वही व्यक्ति लगाया जाए जिसकी उस समय की लागत न्यूनतम हो अर्थात उसके पास समय के उपयोग के लिए बेहतर विकल्प न हों.
Interpersonal Skills at Work, Second Edition

कार्य की सम्पन्नता
न्यूनतम लागत के साथ कार्य गुणवत्ता की दृष्टि से प्रशंसनीय हो जो मुख्यता उसके बाहरी स्वरुप से मापा जाता है. इसमें भी कार्य के आतंरिक सौन्दर्य और गुणता पर पूरा ध्यान दिया जाना चाहिए. यद्यपि उत्कृष्टता सदीव वांछित होती है तथापि इसे सदैव सर्वोपरि नहीं माना जा सकता, इसका पारिस्थितिकी से सम्मिलन आवश्यक होता है. जिस प्रकार एक मंजिले भवन को सौ मंजिले भवन जैसी सामर्थ्य नहीं दी जानी चाहिए, उसी प्रकार एक धूल-भरे पिछड़े गाँव में शुभ्रता के स्थान पर सरलता से मैले न होने वाले रंग ही दिए जाने चाहिए.    

मंगलवार, 21 दिसंबर 2010

मंतव्य, भय और नियति

गाँव में समाज-कंटक विरोधियों द्वारा राजनैतिक सत्ता हथियाने के बाद लोगों ने मुझे सार्वजनिक हितों के रक्षण हेतु ग्राम सभा का सदस्य बनाया. इससे जहां मैं प्रमुख विरोधी स्वर के रूप में स्थापित हुआ हूँ, वहीं सत्ता पक्ष में सन्नाटा छा गया है. ग्राम सभा के सदस्यों का बहुमत मेरे साथ है और उनके सहयोग के बिना ग्राम प्रधान विकास हेतु आबंटित सार्वजनिक धन का दुरूपयोग नहीं कर सकेगा. ग्राम प्रधान ने इस पद पर चुने जाने के लिए अनैतिक रूप से लगभग ३ लाख रुपये व्यय किये थे. इसके अतिरिक्त उसकी कृषि आय भी लापरवाही के कारण नगण्य है. इसलिए उसके लिए यह पद ही आय का स्रोत बनाना था, जो अब संभव नहीं रह गया है.


९ दिसम्बर को ग्राम पंचायत की सभा में ग्राम विकास हेतु विभिन्न समितियों का गठन होना था जिससे सदस्यों को दायित्व भार प्रदान होने थे. किन्तु भयभीत प्रधान ने इसमें रोड़ा लगाने के लिए स्वयं को अन्यत्र व्यस्त कहते हुए इसे टला दिया जिससे ग्राम विकास का कोई कार्य आरम्भ नहीं हो पाया है. अब उसने घोषित करना आरम्भ कर दिया है कि चूंकि वह ग्राम विकास से कोई आय नहीं कर सकता वह ग्राम विकास का कोई कार्य भी नहीं करेगा. सदस्य अगला कदम उठाने से पूर्व उसे लम्बा समय देना चाहते हैं ताकि उसके विरुद्ध प्रशासनिक कदम उठाये जा सकें.

ग्राम प्रधान का मंतव्य स्पष्ट है - अवैध आय अथवा ग्राम विकास ठप्प. इसके साथ ही उसे भय है कि उसकी अनियमितताओं के कारण उसे सदस्यों द्वारा अधिकारों से वंचित किया जा सकता है इसलिए वह सदस्यों को निष्क्रिय कर देना चाहता है जिसके लिए वह अवैध र्रोप से और भी धन व्यय करने के लिए तत्पर है. किन्तु ऐसा होना असंभव है, और उसे निरंतर भय में ही अपना ५ वर्ष का कार्यकाल पूरा करना है अथवा मध्य में ही अधिकारों से वंचित हो जाना है. यही उसकी नियति है.
Corruption in India

यह स्थिति केवल मेरे गाँव की न होकर समस्त भारत की है, जहां पदासीन राजनेता अपने दूषित मंतव्यों में लिप्त रहते हैं, साथ ही कुछ निष्ठावान लोगों से भयभीत रहते हैं, पदमुक्त होते रहते हैं अथवा सशक्त विरोध न होने पर सार्वजनिक संपदा को हड़पते रहते हैं. आज देश की लगभग ३० प्रतिशत संपदा के स्वामी राजनेता ही हैं जिनकी संख्या देश की कुल जनसँख्या का केवल ५ प्रतिशत है. अपने मंतव्यों को पूरा करने के लिए वे राज्यकर्मियों को भी भृष्टाचार में लिप्त करते है, जो उनके साथ सार्वजनिक संपदाओं को हड़पते रहते हैं. देश की यह लगभग १० प्रतिशत जनसँख्या लगभग ३० प्रतिशत सार्वजनिक संपदा की स्वामी बनी हुई है. देश की शेष ४० प्रतिशत संपदा पर देश की ८५ प्रतिशत जनसँख्या निर्भर है.

भक्ति का ढकोसला

भक्ति, ईश्वर की अथवा अन्य किसी महापुरुष की, भारत में दीर्घ काल से प्रचलित है, बिना इसका वास्तविक अर्थ समझे अथवा बिना इसे सार्थक बनाए. इसका अर्थ बस यह लिया जाता है कि इष्टदेव पर यदा-कदा कुछ फूल समर्पित कर दिए जाएँ अथवा उसके नाम पर कुछ लाभ कमा लिया जाए भक्ति की इस कुरूपता का मूल कारण यह है कि भक्ति का आरम्भ ही स्वार्थी लोगों ने अपने हित-साधन हेतु किया. अन्यथा किसी भी व्यक्ति को किसी की भक्ति की कोई आवश्यकता नहीं है. उसे तो बस निष्ठावान रहते हुए अपना कर्म करना चाहिए. भक्ति ईश्वर की परिकल्पना की एक व्युत्पत्ति है और उसी प्रकार निरर्थक है जिस प्रकार कि ईश्वर की परिकल्पना. किन्तु ये दोनों एक दूसरे के पूरक और पोषक होने के कारण स्वार्थी समाज द्वारा निरंतर पनापाये जा रहे हैं.

भारत में केवल भक्ति ही है जो निरंतर पनप रही है क्योंकि यह मनुष्य को दीनहीन बनाती है, जो इसे पनपाने वालों के लिए वरदान सिद्ध होता है, वे लोगों पर सरलता से अपना मनोवैज्ञानिक साम्राज्य बनाए रखते हैं. भक्ति की सदैव विशेषता रही है इसका पोषण करने वाले स्वयं कभी किसी के लिए भक्ति भाव नहीं रखते, क्योंकि वे इसकी निरर्थकता जानते हैं. वे इसे बस एक व्यवसाय के रूप में विकसित करते रहते हैं.

भारत में भक्ति का आरम्भ देवों और यवन-समूह के मध्य महाभारत संघर्ष के समय हुआ जो यवन-समूह द्वारा किया गया. तभी ईश्वर के वर्तमान अर्थ की परिकल्पना की गयी और कृष्ण को ईश्वर का अवतार घोषित किया गया और लोगों को उसकी भक्ति में लीं रहने के लिए प्रोत्साहित किया गया. कृष्ण ने भी बढ़-चढ़ कर स्वयं को विश्व का सृष्टा और न जाने क्या-क्या कहा. उसी समय राम की महिमा भी थी किन्तु राम ने कभी कहीं स्वयं को दिव्य शक्ति आदि कुछ नहीं कहा. यही विशेष अंतर है जो नकली और असली महापुरुषों में होता है.

राम देव जाति के प्रमुख थे और लोगों को परिश्रम करने के लिए प्रोत्साहित करते थे, काल्पनिक दिव्य शक्तियों की भक्ति आदि उनके जीवन में कहीं नहीं पायी जाती. वे निष्ठापूर्वक सम्मान करते थे वह भी पार्थिव व्यक्तित्वों का. यही उनके लिए श्रेष्ठ मानवीय मार्ग था.

भारत में भक्ति के प्रचार-प्रसार का परिणाम देश और समाज के लिए अनेक रूपों में घातक सिद्ध हुआ - लोग अकर्मण्य बने, शत्रुओं ने आक्रमण किये और लोग उनके अत्याचारों को दीन-हीन बने सहते रहे, देश हजारों वर्ष गुलाम बना रहा - वह भी चोर-लुटेरी जातियों का.
How History Made the Mind: The Cultural Origins of Objective Thinking

भक्ति में आस्था होने से व्यक्ति की कर्मठता दुष्प्रभावित होती है क्योंकि वह अपने कर्म से अधिक ईश्वर की कृपा पर आश्रित हो जाता है. जन-मानस पर भक्ति का सर्वाधिक घातक प्रहार निष्काम-कर्म की परिकल्पना द्वारा हुआ, जिसमें लोगों को परिणाम से निरपेक्ष रहते हुए और सर्वस्व को ईश्वर को समर्पित करते हुए कर्म करने का उपदेश दिया गया. जबकि व्यवहार में कभी भी किसी भी व्यक्ति ने बिना परिणाम की आशा के कोई कर्म नहीं किया है. यदि कोई करता भी है तो कर्म में उसकी आस्था क्षीण ही रहती है और वह अपने कर्म को उत्तम तरीके से नहीं कर पाता. 

सोमवार, 20 दिसंबर 2010

आस्तिकता, नास्तिकता और अज्ञता

तीन प्रचलित वाद - आस्तिवाद, नास्तिवाद, और अज्ञवाद, मानवता में प्रचलित हैं. आस्तिवाद मनुष्य के कर्म और उसके अस्तित्व की अवहेलना करता है और सब कुछ ईश्वर के अधीन मानते हुए उसी के ऊपर छोड़ने के पक्ष में है. इसके विपरीत नास्तिवाद है जो ईश्वर के अस्तित्व को नहीं स्वीकारता और मनुष्य के कर्म और अस्तित्व को ही महत्व देता है. तीसरा वाद बहुत अधिक प्रचलित नहीं है क्योंकि इसे समझने में विरोधाभास हैं. आस्तिवाद और नास्तिवाद दोनों ही इसे अपने-अपने पक्ष में मानते हैं. इसलिए इस विषय पर कुछ विशेष चर्चा वांछित है. यहीं स्पष्ट कर दूं कि मैं निश्चित रूप से सुविचारित नास्तिवादी हूँ.


अज्ञवाद भारत के एक प्राचीन ऋषि अगस्त्य की दें है जिसके अनुसार सृष्टि और इसके रचयिता के बारे में जानना असंभव है क्योंकि यह इतनी पुरानी है कि इसके उदय के समय के बारे में मनुष्य जाति को कोई ज्ञान होना असंभव है. अज्ञवाद की इस धारणा को आस्तिवाद और नास्तिवाद दोनों ही स्वीकारते हैं किन्तु इसकी व्युत्पत्तियों पर एक दूसरे के विरोधी हैं.

आस्तिवादियों का मत है कि अनंत सृष्टि और सृष्टा के बारे में मनुष्य की सीमित बुद्धि द्वारा ज्ञान प्राप्त करना असंभव है इसलिए मनुष्य को स्वयं को तुच्छ स्वीकारते हुए सब कुछ ईश्वर को समर्पित कर देना चाहिए. आस्तिवाद के मत के विपरीत नास्तिवाद का मत है कि जिस सृष्टि और सृष्टा के बारे में कुछ जाना नहीं जा सकता, मनुष्य ने उसकी परिकल्पना कैसे और क्यों की. वस्तुतः उसके बारे में तो मनुष्य को निश्चिन्त और निरपेक्ष ही रहना चाहिए. एक ऐसी समस्या को अपने समक्ष खडी करना जिसका वह समाधान नहीं कर सकता, मूर्खता ही है.

उपरोक्त में जो कुछ भी कहा गया है वह वर्तमान में प्रचलित है, किन्तु पूरी तरह सच नहीं है. आस्तिक, नास्तिक और अज्ञ शब्द जिन स्रोतों से लिए गए हैं वे वेद और शास्त्र हैं. उनकी रचना के समय मनुष्य जाति ने ईश्वर के वर्तमान में मान्य स्वरुप की कोई कल्पना नहीं की थी. इसलिए ये शब्द ईश्वर के अस्तित्व से निरपेक्ष हैं. इसका अर्थ यह भी नहीं है कि उस समय मनुष्य जाति नास्तिवादी थी. वस्तुतः उसे नास्तिवादी होने की कोई आवश्यकता ही नहीं थी क्योंकि उस समय तक आस्तिवाद उपस्थित नहीं था. मनुष्य बस मनुष्य था और उसका कोई धर्म था तो वही था जिसे आज मानवतावाद कहा जाता है, जिसमें मनुष्य को बस नैतिक होने की आवश्यकता थी और अपने समाज के साथ सहयोग करना था.

इसलिए 'आस्ति' शब्द का मूल अर्थ 'ईश्वर का अस्तित्व' न होकर केवल 'अस्तित्व' है जिसका आधुनिक अर्थ 'शरीर' अथवा 'भौतिक स्वरुप' है. इसी प्रकार 'नास्ति; शब्द का अर्थ 'अस्तित्वहीनता' अथवा 'कल्पना' है. इसी आधार पर 'स्वास्ति' का अर्थ वही है जो आज 'स्वास्थ' का है.

मानवता का विभाजन तब आरम्भ हुआ जब कुछ मनुष्यों ने बस्ती बनाकर समाज के रूप में संगठित रहना आरम्भ किया. यह देव जाति थी. शेष सभी आदिमानव की तरह जंगलों में विचरण करते हुए अपना जीवन व्यतीत करते थे. ये जंगली अपनी आवश्यकताओं को पूरी करने के लिए देव बस्तियों में लूट-पाट करने लगे जिससे वे देवों के शत्रु बन गए. यहाँ से मनुष्य जाति में प्रतिस्पर्द्धा की भावना विकसित हुई.
Co-Opetition : A Revolution Mindset That Combines Competition and Cooperation : The Game Theory Strategy That's Changing the Game of Business

प्रतिस्पर्द्धा देवों की शत्रु जातियों के हित में थी इसलिए उन्होंने इस को आगे विकसित करने के लिए ईश्वर के आधुनिक अर्थ की कल्पना की और उसके आधार पर विभिन्न धर्म बनाए. धर्मों ने मनुष्य जाति को और भी अधिक विभाजित किया और प्रतिस्पर्द्धा मनुष्य का एक प्रमुख गुण बन गया. 'आस्ति' शब्द को नया अर्थ 'ईश्वर का अस्तित्व' दिया गया जिससे 'आस्तिवाद' विकसित हुआ, और इसका विरोध करने के लिए 'मानवतावादियों ने 'नास्तिवाद' प्रचलित किया. वस्तुतः 'नास्तिवाद' और कुछ न होकर विशुद्ध 'मानवतावाद' ही है.

बुधवार, 15 दिसंबर 2010

उत्तर प्रदेश की राजनैतिक हलचल

 उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनाव लगभग १४ महीने दूर रह गए हैं, इसलिए राजनैतिक दलों और संभावित प्रत्याशियों ने अपनी तैयारियां आरम्भ कर दी हैं. प्रत्याशियों की घोषणा में बहुजन समाज पार्टी सबसे आगे रहती है जिससे कि प्रत्याशियों को अपने चुनाव प्रचार के लिए लम्बा समय प्राप्त हो जाता है. अभी यह सत्ता में भी है, इसका नैतिक-अनैतिक लाभ भी इसके प्रत्याशियों को प्राप्त होगा. आशा है १-२ महीने में बसपा के प्रत्याशी मैदान में होंगे. कांग्रेस प्रत्याशियों की घोषणा में सबसे पीछे रहती है. उत्तर प्रदेश में चुनाव प्रत्याशियों का चयन जातीय आधार पर किया जाता है जिसमें प्रबुद्ध जातियों और प्रत्याशियों की अवहेलना होनी स्वाभाविक है. 


बिहार में हाल के विधान सभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को अप्रत्याशित विजय प्राप्त हुई है, इसका प्रभाव उत्तर प्रदेश में भी पड़ेगा जिससे भारतीय जनता पार्टी को कुछ लाभ होने की आशा है. बसपा को जहां एक ओर सत्ता का लाभ प्राप्त होगा वहीं इसे सत्ता में रहते हुए कुछ विशेष न करने के कारण हानि भी होगी. तथापि यही एक दल है जिसके पास अपना मतदाता समाज है. कांग्रेस की केंद्र में सरकार है और देश में निरंतर बढ़ती महंगाई के लिए उत्तरदायी होने के कारण मतदाता इससे रुष्ट हैं. केंद्र सरकार के कांग्रेस नेताओं के भृष्टाचार में लिप्त होने के प्रचार-प्रसार से भी इस दल को भारी हानि होगी. प्रदेश में इसके पास कोई सक्षम नेता भी नहीं है. मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी केवल एक परिवार और उसकी जाति की पार्टी होने के कारण लुप्त होती जा रही है जिसकी वापिसी के कोई आसार नहीं हैं.


इस प्रकार आगामी चुनाव में प्रमुख मुकाबला भारतीय जनता पार्टी और बसपा के मध्य होना निश्चित है. राजनैतिक दलों के पारस्परिक गठबन्धनों का प्रभाव भी चुनाव परिणामों पर होगा जिसके बारे में तभी कहा जा सकता है जब कोई गठबंधन हो पाए. भारतीय जनता पार्टी के पुराने नेता कल्याण सिंह ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अपनी जाति की बहुलता के आधार पर अपना नया दल बना लिया है जिससे भारतीय जनता पार्टी को कुछ हानि होगी. इस दल को उत्तर प्रदेश में कुछ हानि इस तथ्य से भी होगी कि इसके राष्ट्रीय अध्यक्ष की छबि एक राष्ट्रीय नेता की नहीं है. जब कि बसपा की नेता मायावती उत्तर प्रदेश की ही हैं और अछोत जाते की होने के कारण अन्य प्रदेशों में भी इस दल का प्रसार हो रहा है. यह दल मायावती को देश के भावी प्रधान मंत्री के रूप में प्रस्थापित करने के प्रयास करता रहा है और इसका लाभ उठाता रहा है. तथापि भारत में दलित राजनीति सदैव अल्पकालिक रही है और इस में संदेह किया जा सकता है कि मायावती कभी देश की प्रधान मंत्री बन पाएंगी. 


यदि भारतीय जनता पार्टी उत्तर प्रदेश में बिहार जैसी स्थिति में आ जाए तो निकट भविष्य में यह केंद्र में सत्ता प्राप्त करने में सफल हो सकती है. इसके लिए इसे अन्य सहयोगी दलों के साथ विनम्रता का व्यवहार करना होगा. इस दल को एक बड़ा लाभ इसके अनुशासित कार्यकर्ताओं का भी प्राप्त होता है जो राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ द्वारा प्रशिक्षित होते हैं. इसके विपरीत इस दल को कट्टर हिंदूवादी माना जाने के कारण मुस्लिम मतदाताओं का सहयोग प्राप्त नहीं होता. यदि ये मतदाता बहुल रूप में बसपा को समर्थन दे दें तो भारतीय जनता पार्टी को कठिनाई में डाल सकते हैं. 
Planet India: The Turbulent Rise of the Largest Democracy and the Future of Our World


फिर भी आज देश की राजनैतिक स्थिति ऐसी है कि निष्ठावान इमानदार व्यक्ति के लिए कहीं कोई स्थान नहीं है. कुछ आशा की किरण दिखाई देती है तो भारतीय जनता पार्टी में ही है. 

मंगलवार, 14 दिसंबर 2010

शुक्रवार, 10 दिसंबर 2010

अभ्यस्त होने की स्वायत्तता और विवशता

जीव के अवचेतन मन में जो समाहित होता है, वह स्वतः होता रहता है अथवा किया जाता रहता है. जो स्वतः होता रहता है वह शरीर के संतुलित सञ्चालन के लिए आवश्यक होता है इसलिए प्राकृत रूप से इस हेतु अवचेतन मन में समाहित होता है. जो कुछ व्यक्ति के अभ्यस्त होने के कारण किया जाता है वह भी उसके अवचेतन मन में समाहित होता है किन्तु इसे स्वयं व्यक्ति द्वारा ही प्रविष्ट कराया जाता है.

शरीर में पाचन, रक्त प्रवाह, आदि अनेक क्रियाएँ स्वतः संचालित होती रहती हैं जो एक श्रंखला द्वारा एक दूसरे से जुडी होती हैं और प्रकृति के कारण-प्रभाव सिद्धांत के अनुसार संचालित होती रहती हैं. किन्तु इनमें कोई अवरोध उत्पन्न होने से व्यक्ति का अवचेतन मन इन्हें नियमित करने का प्रयास करता है और असफल होने पर शरीर में अस्वस्थता के माध्यम से इसकी सूचना प्रदान करता है. अवचेतन मन में इस प्रकार की सूचनाओं की प्रविष्टि अंतर्चेतना से, माता-पिता से प्राप्त जींस के माध्यम से, अथवा व्यक्ति की पारिस्थितिकी के कारण होती है. यद्यपि इनका संचालन आदतों की तरह ही होता है किन्तु इनकी अनिवार्यता के कारण इन्हें आदत नहीं कहा जाता.

जो व्यक्ति बाइसाइकिल चलाने का अभ्यस्त है, उसे पैडल मारने पर ध्यान देने की आवश्यकता नहीं रहती, यह क्रिया उसके अवचेतन मन द्वारा स्वतः संचालित की जाती रहती है. इस स्वतः संचालन के लिए व्यक्ति को इस क्रिया में कृत्रिम रूप से अभ्यस्त होने की आवश्यकता होती है. किन्तु इस क्रिया के लिए व्यक्ति विवश अथवा लालायित नहीं रहता अथवा बाइसाइकिल देखते ही उसके पैर पैडल मारने के लिए उद्यत नहीं हो जाते. मिट्टी खाने के अभ्यस्त बच्चे का मन मिट्टी देखते ही उसे खाने के लिए ललचा उठता है और वह अवसर पाते ही उसे मुख में डाल लेता है. यह भी उसके अवचेतन मन द्वारा संचालित होता है और इसके लिए भी बच्चे को कृत्रिम रूप से अभ्यस्त होने की आवश्यकता होती है. .

इस प्रकार से कृत्रिम रूप से अभ्यस्त होने के दो प्रभाव होते हैं - एक, जिसमें व्यक्ति लालायित अथवा विवश नहीं होता, और दूसरा, जिसमें व्यक्ति विवश अथवा लालायित हो जाता है. सामान्यतः, दूसरी प्रकार की अभ्यस्तता का प्रभाव ही व्यक्ति की आदत कहा जाता है, जो अच्छी अथवा बुरी दोनों प्रकार की हो सकती हैं. जो आदतें व्यक्ति अथवा मानव समाज के हित में नहीं होतीं उन्हें बुरी तथा इसके विपरीत जो आदतें व्यक्ति एवं सम्माज के हित में होती हैं उन्हें बुरी आदतें कहा जाता है. स्वाभाविक है कि समाज व्यक्ति में बुरी आदतों को छुडाने तथा अच्छी आदतें डालने के प्रयास करता है जिसके लिए मनोवैज्ञानिक उपाय अपनाए जाते हैं.
The Now Habit: A Strategic Program for Overcoming Procrastination and Enjoying Guilt-Free Play

व्यक्ति में अपने पारिस्थितिकी के बारे में जिज्ञासा एक अंतर्चेतना के रूप में प्राकृत रूप से विद्यमान होती है, जिसके कारण वह कर्म करने के लिए उद्यत होता है. इसके अतिरिक्त व्यक्ति की कामनाएं तथा हित-साधन भी उसे कर्म के लिए अथवा इसके विपरीत विवश करते हैं. कर्म करने अथवा न करने का तीसरा बड़ा कारण व्यक्ति का अपना संकल्प होता है जो उसकी जिज्ञासा, कामना अथवा हित साधन से निर्लिप्त हो सकता है. इस प्रकार व्यक्ति उक्त चार कारणों से कोई क्रिया करता है अथवा उसके विमुख होता है. इन्हीं के माध्यम से व्यक्ति को बुरी आदतों से मुक्त किया जा सकता है अथवा उसमें अच्छी आदतों का समावेश किया जा सकता है.

बुधवार, 8 दिसंबर 2010

वृद्धावस्था और सामाजिक-भावुकता का अर्थशास्त्र

धर्मात्मा और धर्मोपदेशक प्रायः लोगों को मृत्यु का स्मरण कराकर उन्हें भयभीत करते रहते हैं ताकि वे उनके माध्यम से भगवान् के शरणागत बने रहें और उनका धर्म और ईश्वर का व्यवसाय फलता फूलता रहे. ज्यों-ज्यों व्यक्ति की आयु वृद्धित होती जाती है उसे मृत्यु का आतंक अधिकाधिक सताने लगता है. यह है इस कृत्रिम मानवता का तथ्य. किन्तु वास्तविक मानव का सत्य इसके एक दम विपरीत है.


मनोवैज्ञानिक शोधों से पाया गया है कि ज्यों-ज्यों व्यक्ति की आयु वृद्धित होती जाती है वह भावुक रूप में अधिकाधिक स्थिर और प्रसन्नचित्त रहने लगता है. इसके पीछे वह सिद्धांत है जिसे मैं 'सामाजिक-भावुकता का अर्थशास्त्र' कहना चाहूँगा. इसके अनुसार आयु में वृद्धि के साथ व्यक्ति को बोध होने लगता है कि अब उसके पास व्यर्थ करने योग्य पर्याप्त समय नहीं है. व्यक्ति अपनी सामान्य बुद्धि के आधार पर उसके पास जिस वस्तु का अभाव होता है, वह उसका अधिकाधिक सदुपयोग करता है. इस कारण से व्यक्ति वृद्धावस्था में समय का अधिकाधिक सदुपयोग करने के प्रयास करने लगता है. इस सदुपयोग में वह अधिकाधिक प्रसन्न रहने के प्रयास करता है, व्यर्थ की चिंताओं से दूर रहने लगता है, और समाज में सौहार्द स्थापित करना अपना धर्म समझने लगता है. जिसे कहा जा सकता है कि वह समाज के प्रति अधिक संवेदनशील हो जाता है.

जनसंख्यात्मक अध्ययनों से ज्ञात होता है कि जन्म और मृत्यु दरों में कमी आने के कारण आगामी समय में विश्व में वृद्धों की संख्या बच्चों की संख्या से अधिक होगी. यहाँ तक कि कुछ लोगों का मत है कि ऐसे समय में वृद्धों की देखभाल करने के लिए युवाओं की संख्या भी पर्याप्त नहीं होगी. यह भय सच नहीं है क्योंकि वृद्धों की संख्या अधिक होने से मानव समाज भावुकता स्तर पर अधिक स्थिर, प्रसन्न और सामाजिक दायित्वों के प्रति अधिक संवेदनशील होगा.

विश्लेषण के लिए हम तीन क्षेत्रों की वर्तमान जनसँख्या के आंकड़ों पर दृष्टिपात करते हैं -
संयुक्त राज्य अमेरिका -
स्त्री : (आशान्वित आयु - ८०.८ वर्ष)
० से १४ वर्ष आयु समूह  - १९.६%,
१४ से ६५ वर्ष आयु समूह - ६६.२%,
६५ वर्ष से अधिक आयु समूह - १४.३%,

पुरुष : (आशान्वित आयु - ७५.० वर्ष)
० से १४ वर्ष आयु समूह  - २१.२%
१४ से ६५ वर्ष आयु समूह - ६८.२%
६५ वर्ष से अधिक आयु समूह - १०.३%

यूरोप -
स्त्री : (आशान्वित आयु - ८१.६  वर्ष)
० से १४ वर्ष आयु समूह  - १५.३ %, 
१४ से ६५ वर्ष आयु समूह - ६५.३ %, 
६५ वर्ष से अधिक आयु समूह - १९.४ %, 

पुरुष : (आशान्वित आयु - ७५.१ वर्ष)
० से १४ वर्ष आयु समूह  - १६.८ %
१४ से ६५ वर्ष आयु समूह - ६९.१ %
६५ वर्ष से अधिक आयु समूह - पुरुष १४.१ %

भारत -
स्त्री : (आशान्वित आयु - ६५.६ वर्ष)
० से १४ वर्ष आयु समूह  - ३०.९ %, 
१४ से ६५ वर्ष आयु समूह - ६४.१ %, 
६५ वर्ष से अधिक आयु समूह - ५.० %, 

पुरुष : (आशान्वित आयु - ६३.९ वर्ष)
० से १४ वर्ष आयु समूह  - ३३.७ %
१४ से ६५ वर्ष आयु समूह - ६४.४ %
६५ वर्ष से अधिक आयु समूह - ४.८ %

Population and Society: An Introduction to Demographyउपरोक्त जनसंख्यात्मक आंकड़ों से निम्नांकित तथ्य सामने आते हैं -

  • यूरोप में वृद्धों की संख्या बच्चों की संख्या से अभी भी अधिक है जो इस तथ्य का प्रमाण है कि वहां लोग अधिक स्वस्थ और दीर्घजीवी हैं. इसका अर्थ यह भी है कि वृद्धों की संख्या की अधिकता का जन स्वास्थ पर अनुकूल प्रभाव होता है. 
  • भारत में वृद्धों की संख्या बच्चों की संख्या से बहुत कम है जिससे जन-स्वास्थ की बुरी स्थिति का आभास मिलता है. 
अतः हम निश्चित रूप से कह सकते हैं कि भारत जैसे देशों में वृद्धों की अधिकता से जन-स्वास्थ पर अनुकूल प्रभाव पड़ेगा और इससे कोई समस्या उठ खडी होने की संभावना नहीं है. वृद्धों के भावुक स्तर पर अधिक स्थिर होने का यही अर्थशास्त्र है. इसके विपरीत किशोरों और युवाओं में अवसाद, चिंताएं, व्यग्रता और निराशा जैसे ऋणात्मक भावों की अधिकता से सामाजिक भावुकता के अर्थशास्त्र पर ऋणात्मक प्रभाव पड़ता है. अतः जहां तक वयता का प्रश्न है भावी मानव समाज अधिक साधन-संपन्न, विनम्र और बुद्धिमान सिद्ध होगा.

गुरुवार, 2 दिसंबर 2010

स्वप्न दृष्टा

हम सभी स्वप्न देखते हैं - सोयी अवस्था में, और जागृत अवस्था में भी. किन्तु सच यह है कि हम स्वप्नों में कुछ भी नहीं देखते हैं क्योंकि देखा तो आँखों से जाता है जो स्वप्नावस्था में उन दृश्यों को नहीं देखतीं. तथापि हमें लगता है कि हम स्वप्नावस्था में देख रहे होते हैं. वस्तुतः स्वप्नावस्था में हमारे मस्तिष्क का वही भाग देख रहा होता है जो आँखों द्वारा देखे जाते समय उपयोग में आता है. यह भी निश्चित है कि मस्तिष्क की अधिकाँश गतिविधियों में हमारी स्मृति भी सक्रिय होती है. स्वप्नावस्था में यह स्मृति उन दृश्यों को ही प्रस्तुत करती है जो हम कभी देख चुके होते हैं, अथवा जिनकी हमने कभी कल्पना की होती है, किन्तु अनियमित और अक्रमित रूप में. इस अनियमितता और अक्रमितता के कारण ही हमारे स्वप्न यथार्थ से परे के घटनाक्रमों पर आधारित होते हैं.

जब हम जागृत अवस्था में अपने कल्पना लोक में निमग्न रहते हैं तब भी हम आँखों के माध्यम से देखी जा रही वस्तुओं के अतिरिक्त भी बहुत कुछ देख रहे होते हैं. इस प्रकार हम देखने की क्रिया दो तरह से कर रहे होते हैं - आँखों से तथा मस्तिष्क से. किन्तु हमारे अनुभव हमें बताते हैं कि जब हम आँखों से देखने की क्रिया पर पूरी तरह केन्द्रित करते हैं, उस समय हमारी मस्तिष्क की देखने की क्रिया शिथिल हो जाती है और जब हम अपने कल्पनाओं के माध्यम से दिवा-स्वप्नों में लिप्त होते हैं तब हमारी आँखों से देखने की क्रिया क्षीण हो जाती है. इससे सिद्ध यह होता है कि दोनों प्रकार की देखने की क्रियाओं में मस्तिष्क का एक ही भाग उपयोग में आता है जो एक समय एक ही प्रकार से देखने में लिप्त होता है.

हमारा आँखों के माध्यम से देखना भी दो प्रकार का होता है - वह जो हमें स्वतः दिखाई पड़ता है, और वह जो हम ध्यान से देखते हैं. स्वतः दिखाई पड़ने वाली वस्तुओं में हमारा मस्तिष्क लिप्त नहीं होता इसलिए यह हमारी स्मृति में भी संचित नहीं होता जब कि जो भी हम ध्यान से से देखते हैं वह हमारी स्मृति में भी संचित होता रहता है और भविष्य में उपयोग में लिया जाता है.

जो हमें बिना ध्यान दिए स्वतः दिखाई देता रहता है वह भी दो प्रकार का होता है - एक वह जिससे हम कोई सम्बन्ध नहीं रखते, और दूसरा वह जो हमारी स्मृति में पूर्व-समाहित होता है किन्तु ध्यान न दिए जाने के कारण नवीन रूप में स्मृति में प्रवेश नहीं करता. इस दूसरे प्रकार के देखने में हमारा अवचेतन मन सक्रिय होता है और हमारा मार्गदर्शन करता रहता है. जब हम कोई ऐसा कार्य करते हैं जिसके हम अभ्यस्त होते हैं तो हमें उस क्रिया पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता नहीं होती, तब हमारा अवचेतन मन हमारे शरीर का सञ्चालन कर रहा होता है. ऐसी अवस्था में हम अपने चेतन मन को अन्य किसी विषय पर केन्द्रित कर सकते हैं.
The Complete Dream Book, 2nd edition: Discover What Your Dreams Reveal about You and Your Life

वैज्ञानिकों में मतभेद है कि स्वप्नावस्था में दृश्य तरंग मस्तिष्क के किस अंग से आरम्भ होती है - दृष्टि क्षेत्र से अथवा स्मृति से किन्तु उनकी मान्यता है कि यह आँख से होकर मस्तिष्क में न जाकर मस्तिष्क में ही उठाती है. उनका ही मानना है कि व्यक्ति स्वप्न तभी देखता है जब उसकी सुषुप्त अवस्था में उसकी आँखों में तीव्र गति होती है. इस अवस्था को आर ई एम् (REM ) निद्रा कहा जाता है.

दिवास्वप्न देखना और कल्पना लोक में विचारना एक ही क्रिया के दो नाम हैं. व्यतीत काल की स्मृतियों में निमग्न रहना यद्यपि यदा-कदा सुखानुभूति दे सकता है किन्तु इसका जीवन में कोई विशेष महत्व नहीं होता. सुषुप्तावस्था के स्वप्न प्रायः भूतकाल की स्मृतियों पर आधारित होते हैं इस लिए ये भी प्रायः निरर्थक ही होते हैं.

मानवता एवं स्वयं के जीवन के लिए वही दिवास्वप्न महत्वपूर्ण होते हैं जो भविष्य के बारे में स्वस्थ मन के साथ देखे जाते हैं. ऐसे स्वप्नदृष्टा ही विश्व के मार्गदर्शक सिद्ध होते हैं. प्रगति सदैव व्यवहारिक क्रियाओं से होती है और प्रत्येक व्यवहारिक क्रिया से पूर्व उसका भाव उदित होता है जो दिवास्वप्न में ही उदित होता है. अतः प्रत्येक प्रगति कू मूल स्रोत एक दिवास्वप्न होता है.

आरम्भ एक नयी चुनौती का

मेरे गाँव खंदोई का प्रधान एक ऐसे व्यक्ति की पत्नी बन गयी है जिसे अधिकाँश लोग नहीं चाहते - उसके आपराधिक चरित्र के कारण. चूंकि वर्तमान भारतीय जनतंत्र की परम्परा के अनुसार, स्त्री प्रधानों के पति ही प्रधान पद का दायित्व एवं कार्यभार संभालते हैं, इसलिए उक्त आपराधिक चरित्र वाला व्यक्ति ही प्रधान माना जा रहा है.


उसे चुनाव में पड़े १५०० मतों में से केवल ४२२ मत पड़े, शेष चार विरोधियों में बँट गए जिसके कारण वह चुना गया. यह भारतीय जनतंत्र और संविधान की निर्बलता है जो अल्पमत प्राप्तकर्ता को भी विजयी बनाती है. ग्राम प्रधान विकास के लिए उत्तरदायी होता है जिसके लिए उसे सार्वजनिक धन प्रदान किया जाता है. इस धन के उपयोग में भारी हेरफेर की जाती है. इसी के लिए अधिकाँश प्रधान पद प्रत्याशी मतदाताओं पर भारी धन व्यय करके यह पद प्राप्त करने के प्रयास करते हैं.

इस व्यक्ति को प्रधान बनने से रोकने के सभी प्रयास असफल होने के बाद, निराश, निस्सहाय, निर्धन ग्रामवासियों ने मुझे दायित्व दिया है कि मैं सार्वजनिक धन के दुरूपयोग को न होने दूं. किसी पद या प्रतिष्ठा की लालसा न होते हुए भी मैं इस दायित्व से पीछे नहीं हट सकता. इस दायित्व के लिए ग्राम के निर्धनतम और दलित लोगों ने मुझे अपने मोहल्ले से अपने प्रतिनिधि के रूप में ग्राम पंचायत का सदस्य चुना है. मेरे सदस्य पद पर चुने जाने की अनेक विशेषताएं रही हैं.

सत्ता पक्ष ने मेरा भरपूर विरूद्ध - नैतिक एवं अनैतिक, किया. यहाँ तक कि मतदाताओं को नकद धन के प्रलोभन भी दिए गए. ये अधिकाँश मतदाता भूमिहीन मजदूर हैं और बहुत से प्रधान समूह के यहाँ मजदूरी करके अपने आजीविका चलाते हैं. इसलिए उन्हें मजदूरी न दिए जाने की धमकियां भी दी गयीं. तथापि मतदाता मेरे समर्थन पर अडिग रहे. ऐसा विरल ही होता है, विशेषकर तब जब मतदाता अशिक्षित एवं निर्धन हों. इसका एक विशेष कारण यह था कि मतदाता अपने हितों की रक्षा के लिए स्वयं मुझे अपना प्रतिनिधि चुनना चाहते थे जब कि मुझे इसमें कोई रूचि नहीं थी. उन्हें मुझ पर भरोसा है कि मैं उन्हें कोई हानि नहीं होने दूंगा तथा मेरे कारण ग्राम विकास कार्यों में भी भृष्टाचार नहीं होगा. 

इससे उक्त नए दायित्व का भार मेरे कन्धों पर आ गया है. इसके साथ ही उक्त प्रधान पति के आपराधिक गिरोह से मेरी शत्रुता भी प्रबल होगी, क्योंकि वे अपने दुश्चरित्रता से बाज नहीं आने वाले और मैं अपने विरोध से. ग्राम पंचायत के कार्य क्षेत्र विकास कार्यालय से संचालित होते हैं. इसलिए मैंने ग्राम पंचायत का सदस्य चुने जाने के तुरंत बाद क्षेत्र विकास अधिकारियों से दो निवेदन किये हैं -
    Aristotle on Political Enmity and Disease: An Inquiry into Stasis (S U N Y Series in Ancient Greek Philosophy)
  • ग्राम खंदोई से सम्बंधित सभी बैठकों में केवल विधिवत चुने गए व्यक्ति ही उपस्थित हों न कि उनके पति अथवा अन्य संबंधी. 
  • ग्राम खंदोई में आपराधिक चरित्र के लोगों का बोलबाला है इसलिए ग्राम संबंधी सभी अनुलेखों की जांच-पड़ताल ध्यान से की जाये. इसमें कोई भी भूल अथवा धांधली होने पर मैं उसका डटकर विरोध करूंगा. 
इस सबसे ग्राम कार्यों में मेरी व्यस्तता और भी अधिक बढ़ जायेगी. 

सोमवार, 22 नवंबर 2010

आदर्श और वास्तविकता में सामंजस्य स्थापन

अधिकाँश लोग अपनी वास्तविकताओं से दूर भागने के प्रयासों में अपने आदर्श की कल्पनाओं में निमग्न रहते हैं. यही उनके दुखों का कारण बनता है. शोधों में पाया गया है कि पुरुषों की तुलना में स्त्रियाँ अपनी वास्तविकता से अधिक असंतुष्ट रहती हैं. साथ ही यह भी पाया गया है कि पुरुषों के आदर्शों में स्त्रियों के आदर्शों की तुलना में अधिक भिन्नता होती है, जिसका अर्थ यह है कि पुरुष भिन्न प्रकार से सोचते हैं जब कि सभी स्त्रियाँ लगभग एक जैसा  सोचती हैं. इसका अर्थ यह भी है कि पुरुष अपनी वास्तविकताओं से समझौता करने में अधिक निपुण होते हैं. फलस्वरूप पुरुषों की तुलना में स्त्रियाँ अधिक दुखी रहती हैं. 


इसके निराकरण के दो उपाय हैं - अपनी वास्तविकता को ही अपना आदर्श बनाएं अथवा अपने आदर्श को अपनी वास्तविकता बनायें. सीधे रूप में ये दोनों प्रक्रियाएं ही दुष्कर प्रतीत होती हैं. इसका दूसरा उपाय अधिक व्यवहारिक है जो हमें पुरुष प्रकृति से प्राप्त होता है - अपने आदर्श को अधिकतम व्यापक बनाएं जिससे कि अधिकतर वास्तविकताएं इसके घेरे में आ जाएँ. प्राकृत रूप से पुरुष इसमें अधिक समर्थ होते हैं, स्त्रियों के लिए कुछ दुष्कर है. इसका कारण है स्त्रियों की सुकोमलता और उनमें समर्पण भाव का आधिक्य, जो दोनों ही सकारात्मक गुण हैं. अतः इन्हें भी निर्बल नहीं किया जाना चाहिए. 


आदर्श प्रमुखतः दो प्रकार के होते हैं - मुझे कैसा बनना है, और मुझे क्या चाहिए. किन्तु दोनों का मूल पारस्परिक अनुकूलता है. अतः प्रत्येक व्यक्ति का आदर्श उसकी दूसरों से अनुकूलता द्वारा निर्धारित होता है. इसलिए आदर्श की व्यापकता के लिए हम सोचें कि हम किस-किस के अनुकूल हैं न कि हमारे अनुकूल कौन है और साथ ही हम अपनी अनुकूलता को अधिकाधिक व्यापक करें. अनुकूलता की व्यापकता चारित्रिक लचक प्रतीत होती है किन्तु यह उससे से भिन्न है. व्यक्ति अपने चरित्र और स्वभाव पर अडिग रहते हुए भी अपनी अनुकूलता को व्यापक कर सकता है, अधिकाधिक अध्ययन से - लोगों का, समाज का, वस्तुओं का, और सर्वोपरि स्वयं के व्यक्तित्व, जीवन शैली और बाहरी प्रस्तुति का.  
Personality: Theory and Research



व्यक्ति क्या है - एक शरीर और तदनुसार उसका मन, एक बुद्धि और तदनुसार उसका व्यवहार, एक संकल्प और तदनुसार उसके कार्य-कलाप, एक रूप और तदनुसार उसकी प्रभाविता, और एक सार्वभौमिक इच्छाशक्ति - जीवन का आनंद, आदि, आदि.. स्वयं का अध्ययन करें, अन्वेषण करें और अपने परिभाषा को व्यापक स्वरुप दें. आदर्श की व्यापकता के लिए इनमें से किसी को भी लचकदार बनाने की आवश्यकता नहीं है अपितु इन सभी के समावेश की आवश्यकता होती है. 

शनिवार, 20 नवंबर 2010

भारतीय समाज में अवसरवादिता का विष

भारत में मानवीय चरित्र का संकट है और गन्तार होता जा रहा है. इस चरित्र की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि लोगों के किसी भी विषय पर अपने मत नहीं होते, इसलिए वे सभी मतों से सामयिक तौर पर सरलता से सहमत प्रतीत होने लगते हैं. साथ ही दृष्टि से ओझल होते ही अपनी सहमति को भूल जाते हैं तथा किसी विरोधी मत से भी तुरंत सहमत हो सकते हैं. इसका मूल कारण बुद्धिहीनता है किन्तु इस प्रकार के लोग इसे कूटनीति अथवा डिप्लोमेसी कहते हैं जिसमें व्यक्ति जो कहता है उसका मंतव्य वह नहीं होता अपितु कुछ और होता है. अर्थात कूटनीति में मानवीय मौलिकता एवं नैतिकता के लिए कोई स्थान नहीं होता. इसका अर्थ यह हुआ कि जो लोग किसी विषय में अपना कोई मत नहीं रखते, वे कूटनीतिज्ञ हो सकते हैं.

व्यवसाय प्रबंधन की पुस्तकों में सफल व्यवसाय का मूल मन्त्र पढ़ा है - अवसरों का शोषण व्यवसायिक सफलता की कुंजी है. यह सच है किन्तु केवल व्यवसाय के लिए, क्योंकि व्यवसाय व्यक्ति नहीं होता, उसमें भावनाएं नहीं होतीं. इसके दोनों शब्द 'अवसर' तथा 'शोषण' मानवीयता शब्दकोष के बाहर के हैं. मानव जीवन अवसरों का लाभ उठाने के लिए नहीं, उनकी रचना करने के लिए अभिकल्पित है, और शोषण तो 'कोरी स्वार्थपरता है जबकि मानवीयता शोषणविहीन समाज के सपने को व्यवहार में लाने के लिए विकसित हुई. किन्तु ये दोनों ही भूतकाल की बातें हैं.

अभी जनतांत्रिक चुनाव हुए, उनमें अधिकाँश लोगों का विचार था कि वे उसी प्रत्याशी को अपना मत देंगे जो विजयी होता प्रतीत होगा. कितनी बड़ी मूर्खता है यह. वस्तुतः विजय मतों से होती है किन्तु यहाँ तो विजय के कारण मत प्राप्त होते हैं. ऐसे मतदाता आधुनिक समाज के अग्रणी हैं, जिनका कोई अपना मत नहीं है प्रत्याशियों के पक्ष अथवा विपक्ष में. इनके यहाँ अच्छे- बुरे, योग्य-अयोग्य, चतुर-चालाक, बुद्धिमान-मूर्ख, आदि विरोधाभासी शब्द युगलों का कोई महत्व नहीं है. यही अवसरवाद है जो पूरी तरह अमानवीय है. मैं इससे भिन्न मत रखता हूँ - एकनिष्ठ, किसी एक प्रत्याशी के पक्ष में - उसके गुणों के आधार पर, चाहे वह जीते अथवा हारे. उसको मत देकर मुझे संतुष्टि प्राप्त होती है - उसके हारने पर भी. किन्तु आधुनिक समाज के मानदंड के अनुसार पराजित प्रत्याशी को डाला गया मत व्यर्थ चला गया. इसी मूर्खतापूर्ण अवसरवादिता के कारण भारत के जनतांत्रिक चुनावों में मूर्ख विजयी होते रहे हैं और बुद्धिमान पिछड़ते जा रहे हैं. उदाहरण सामने हैं - मेरे क्षेत्र का संसद सदस्य निरक्षर है जो एक सेवानिवृत प्रशासनिक अधिकारी को पराजित करके विजयी हुआ. मेरा जिला पंचायत सदस्य एक जाने माने अपराधी की पत्नी है. भारत में महिला आरक्षण ने महिलाएं चुनी जाती हैं और उनके पति पदासीन होते हैं - हम जनतांत्रिक न होकर जनतंत्र की लाश ढो रहे हैं.

मूर्खों के किसी भी विषय में अपने कोई विचार नहीं होते, वे अवसरानुसार किसी से भी सहमत अथवा असहमत हो सकते हैं, इसलिए ये शीघ्र ही और अकारण ही एकता के सूत्र में बंध जाते हैं. जबकि बुद्धिमान अपने-अपने विचार रखने के कारण उनपर तर्क-वितर्क करते हुए बिखरे हुए रह जाते हैं. यही समाज और यही अवसरवादिता जनतंत्र को मूर्खों का शासन सिद्ध करता है.
Opportunism(s) kills
एक सभा हुई समाज को एकता के सूत्र में बांधने के लिए. कुछ बुद्धिसम्पन्न लोगों ने अपने-अपने विचार रखे और उनमें आपस में बहस छिड़ गयी. एक मूर्ख उठा और बोला एकता के लिए हमें केवल हुआ-हुआ पुकारना है. जो ऐसा करेंगे वे सब एकता के सूत्र में बंधे माने जायेंगे, उनमें कभी कोई मतभेद नहीं होगा क्योंकि उनमें से किसी का कोई विचार नहीं होगा, बस हुआ-हुआ का शोर करना होगा. ऐसा ही हुआ और सभी मूर्ख अकारण ही एक स्वर से हुआ-हुआ करने लगे और एक हो गए. इस शोरगुल में बुद्धिसम्पन्न लोगों के विचार तिरोहित हो गए. यही है भारतीय समाज का सच, और यही है भारतीय जनतंत्र की वस्तुस्थिति, और यही है हमारी प्रगति की दिशा,. और यही है हमारी महान भारतीय संस्कृति.

जोर से बोलो, शोर से बोलो - 'हुआ-हुआ'. इति शुभम.

रविवार, 14 नवंबर 2010

चरित्र, आम भारतीय का

कुछ परेशान हूँ - क्या होगा इस देश का, क्या होगा हम सब का, कुछ भी तो पसंद आने लायक नहीं दीखता अपने आस-पास. भारतीय चरित्रहीनता के गहनतम सागर में डूब चुके हैं, और आनंदित हैं. सामर्थ्यवान अपने पदों का दुरूपयोग करते हैं तो समझ में आता है, यह मानवीय निर्बलता है. किन्तु आम आदमी, जिसमें कोई सामर्थ नहीं है, वह भी चतुराई के मार्ग खोजने में इतना तल्लीन रहता है कि कुछ भी मानवीय नहीं कर पाता. सामर्थवान अपनी सामर्थ्य के कारण चतुराई करता है और सामर्थ्हीं अपनी निर्बलताओं को चतुराई से ढकता है. यहाँ तक कि चतुराई ही भारतीयता का प्रतीक बन गयी है और इसी को नोर्मल होना स्वीकार जा चुका है.

किसी को कोई रोग लग जाये तो उससे मिलने वाला कोई भी व्यक्ति उसे तुरंत कोई न कोई अचूक उपचार बताये बिना नहीं रहेगा, जब कि ऐसा प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी रोग से पीड़ित होता है. गाँव में अभी एक व्यक्ति की मृत्यु हुई है जो अपने बचपन से ही रोगी होने कारण शरीर और बुद्धि से अविकसित था, किन्तु वही व्यक्ति जीवनभर अपनी तथाकथित अलौकिक शक्तियों से बच्चों की चिकित्सा करता था - केवल बच्चों पर दृष्टिपात करके. स्त्रियाँ अपने बच्चों को ठीक कराने के लिए उसके पास जाती रहती थीं. कभी किसी को कोई लाभ हुआ या नहीं, इस पर किसी ने कोई विचार नहीं किया. एक मूर्ख की चतुराई भी जीवन-पर्यंत चलती रही.

जीवन में कोई भी समस्या हो, अपना दुःख हल्का करने के उद्येश्य से किसी मित्र से कहिये. तुरंत ही अचूक हल दे दिया जायेगा जब कि मित्र भी अनेक समस्याओं में उलझा होगा और समाधान न पा रहा होगा. विगत १० वर्षों से गाँव में रहता हूँ, सरल, शुद्ध, तनाव-मुक्त जीवन जीने के लिए क्योंकि पैसा कमाते रहने की मेरी विवशताएँ समाप्त हो गयी हैं, सभी बच्चे प्रतिष्ठित कार्यों में लगे हैं, पर्याप्त कमाते हैं और आनंदित हैं. मुझे उनकी चिंता नहीं है और वे मेरी ओर से निश्चिन्त हैं.

गाँव में यथासंभव लोगों की सहायता करता हूँ, उनके दुःख-दर्द में उनके काम आता हूँ, इसलिए कोई न कोई मेरे पास आता ही रहता है, बहुधा अपनी समस्या में मेरी सहायता लेने के लिए. तथापि जो भी आता है मुझे परामर्श अवश्य देता है कि मुझे अपने बच्चों का ध्यान रखना चाहिए, उन्ही के पास रहना चाहिए, आदि, आदि. अपना काम निकालने के बाद लोगों की मुझसे शिकायत रहती है कि मुझे अपने बच्चों से भी मोह नहीं है  तो मैं किसी दूसरे के क्या काम आऊँगा. कुछ लोग इसे मेरे विरुद्ध एक षड्यंत्र के रूप में भी उपयोग करते हैं - मुझे बदनाम करने के लिए.

जब भी मुझसे किसी का कोई काम पड़ता है, वह मुझसे मेरी विद्वता की प्रशंसा करता है और अपनी समस्या में मेरी सहायता की याचना करता है. सहायता मिलते ही वह बुद्धिमान हो जाता है और मुझे मूर्ख समझते हुए कुछ उपदेश एकर चला जाता है. गाँव के विकास, स्वच्छता, कार्यशैली, आदि के बारे में किसी से कुछ कहता हूँ तो तुरंत उत्तर मिलता है कि मैं अभी गाँव में नया आया हूँ और यहाँ के तौर-तरीकों से अनभिग्य हूँ जबकि वह इस मामले में चिरपरिचित है. इस प्रकार किसी को भी मेरे परामर्श की आवश्यकता नहीं होती.

अभी-अभी ग्राम पंचायत के चुनाव संपन्न हुए हैं. ग्राम विकास की दृष्टि से मैंने किसी सुयोग्य और इमानदार व्यक्ति को ग्राम-प्रधान पद के लिए चुनने का परामर्श दिया तो मुझे ग्राम-राजनीति से अनभिग्य कहकर नकार दिया गया. पांच प्रत्याशी मैदान में उतरे, सभी सार्वजनिक धन और संपदा को हड़पने के लिए लालायित थे. मतदाताओं को प्रसन्न करने के लिए सभी ने ग्रामवासियों को निःशुल्क शराब पिलाई, तरह-तरह के लालच दिए और अंततः कुछ ने मत पाने के लिए नकद धन भी वितरित किया. परिणाम यह हुआ कि सबसे अधिक भृष्ट व्यक्ति ग्राम-प्रधान चुना गया जिसके लिए उसे लगभग २८ प्रतिशत मिले. इससे शेष ७२ प्रतिशत मतदाता परेशान हैं और उन्हें परेशान किये जाने की आशंका है.

अब लोगों को मेरी सहायता की आवश्यकता पद रही है तो मेरी बुद्धिमत्ता और कार्यकुशलता की प्रशंसा होने लगी है. मुझसे ग्राम पंचायत का सदस्य बनकर ग्राम-प्रधान के कार्य-कलापों पर कड़ी दृष्टि रखने का आग्रह किया जा रहा है जिससे कि उसपर लगाम कसी रहे, अनियमितताएं न कर सके और ग्रामवासियों को परेशान न करे.
Handbook For Living A Natural Lifestyle

चूंकि गाँव में रहने का मेरा एक लक्ष्य लोगों की सहायता करना भी है इसलिए मैं उक्त दायित्व से इनकार भी नहीं कर सकता किन्तु इसके लिए आवश्यक स्थिति की मांग करता हूँ तो मेरी नहीं सुनी जाती. सभी अपने स्वार्थपरक मार्ग पर चलते रहना चाहते हैं किन्तु मेरे संरक्षण में. यह विरोधाभास है जिसमें मैं आजकल उलझा हुआ हूँ.

अपनी त्रुटियाँ स्वीकारें और उन से सीखें

जो व्यक्ति कार्य करते हैं, उन सभी से त्रुटियाँ भी होती हैं - यह एक सार्वभौमिक सत्य है. किन्तु इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि त्रुटियाँ करना हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है और हमें इनके प्रति निरपेक्ष रहना चाहिए. वस्तुतः त्रुटियाँ सदुपयोग द्वारा व्यक्तिगत और संगठनात्मक सुधारों की माध्यम सिद्ध होती हैं. त्रुटियाँ वही कही जाती हैं जो मनुष्य से अनजाने में हो जाती हैं. इसके विपरीत जो दोषपूर्ण कार्य जान-बूझकर किये जाते हैं, उन्हें त्रुटियाँ नहीं कहकर अपराध अथवा दोष कहा जाता है. इस आलेख में हम त्रुटियों पर केन्द्रित करेंगे.

अधिकाँश व्यक्ति त्रुटि करके उस पर पाश्चाताप करते हैं, और उससे हुई हानि का आकलन करके उन्हें छिपाने के प्रयास करते हैं और अपने अन्दर हीनता का भाव विकसित करते हैं. इससे उनकी उत्पादकता कुप्रभावित होती है. अंततः यह हीनभाव बहुत हानिकर सिद्ध होता है.  

अपनी त्रुटि को स्वीकार कर लेने से उनके भविष्य में दोहराया जाना प्रतिबंधित होता है, इसलिए स्वीकार करके आगे बढ़ते जाना बहुत लाभकर सिद्ध होता है. इसलिए पूरी पारदर्शिता के साथ अपनी त्रुटि स्वीकार करते हुए उससे आहत हुए व्यक्तियों से क्षमा मांगिये. इससे त्रुटि को सुधारते हुए आगे बढ़ने और भविष्य की गतिविधियों पर केन्द्रित होने में सहायता मिलती है और अन्य लोगों का भरपूर सहयोग प्राप्त होता है.

व्यक्ति द्वारा अपनी त्रुटि दूसरों द्वारा उंगली उठाने से पूर्व ही पाकर स्वीकार कर लिया जाना चाहिए इससे किसी को दोषारोपण का अवसर नहीं मिलता. त्रुटि को स्वीकारने के बाद उसके कारणों का विश्लेषण कीजिये और सम्बंधित लोगों को स्पष्ट कीजिये कि वह त्रुटि आपसे क्यों हुई थी, और इससे क्या शिक्षा मिलती है. त्रुटि में किसी एक व्यक्ति की भूमिका पूरी अथवा आंशिक हो सकती है. साथ ही त्रुटि के कारण सम्बद्ध व्यक्ति के नियंत्रण के बाहर भी हो सकते हैं. इससे सभी द्वारा त्रुटि को नए दृष्टिकोण से देखना संभव होता है. इस प्रकार त्रुटि को एक भार से एक संपदा के रूप में परिवर्तित किया जा सकता है.

त्रुटि होने पर वांछित परिणाम पाना संभावित होता है किन्तु ऐसा सुनिश्चित नहीं होता. साथ ही वांछित परिणाम न प्राप्त होना त्रुटि होने का सुनिश्चित संकेत नहीं होता. इसलिए त्रुटि को परिणाम के सापेक्ष न देखकर उसका परिणाम-निरपेक्ष विश्लेषण किया जाना चाहिए.

त्रुटि का मूल्यांकन
त्रुटि से कुछ हानियाँ होती हैं, साथ ही उससे कुछ शिक्षाएं भी मिलती हैं. अतः वे त्रुटियाँ लाभदायक होती हैं जिनसे हानियाँ अल्प तथा शिक्षाएं मूल्यवान प्राप्त हुई हों. इससे यह भी सिद्ध होता है कि सभी त्रुटियाँ अपने सकल प्रभाव में हानिकर नहीं होतीं. सगठनों की कार्य-संस्कृति ऐसी होनी चाहिए जिससे त्रुटियों को मात्र आर्थिक परिणाम के सापेक्ष न देखा जाकर उनके सकल प्रभाव के रूप में देखा जाना चाहिए. अतः संगठन के दृष्टिकोण में त्रुटियाँ शिक्षण और अनुभव के माध्यम होनी चाहिए न कि दंड देने के कारण.

किसी व्यक्ति से त्रुटि होने का मुख्य कारण यह होता है कि व्यक्ति सक्रिय है और प्रयोगधर्मी है. ये दोनों ही सकारात्मक गुण हैं और बनाये रखने चाहिए, त्रुटियाँ होने पर भी. यदि त्रुटियों का सदुपयोग किया जाता रहे तो वे क्रमशः कम होती जाती हैं और व्यक्ति को उत्कृष्टता की ओर ले जाती हैं. अतः त्रुटियाँ असक्षमता और निर्बलता का प्रतीक नहीं होतीं किन्तु व्यक्ति के साहसी प्रयोगधर्मी होने का संकेत देती हैं यदि व्यक्ति इनसे निराश न होकर इनसे सीखने के लिए लालायित रहता है.

सभी त्रुटियों के प्रभाव एक समान नहीं होते. कुछ व्यक्तिगत त्रुटियाँ दूसरों पर प्रतिकूल प्रभाव डालती हैं. यदि ऐसा है तो उस व्यक्ति से क्षमा याचना करते हुए उस त्रुटि के कारण स्पष्ट कर देने चाहिए. सामूहिक त्रुटियाँ प्रायः क्षम्य होती हैं क्योंकि उनके प्रभाव वितरित हो जाते हैं.

त्रुटियों के बारे में क्या करें -

  • त्रुटि में अपनी भूमिका को तुरंत स्वीकारें.
  • सिद्ध करें कि त्रुटि से आपने कुछ शिक्षा प्राप्त की है और भविष्य में ऐसा नहीं होगा.
  • सम्बंधित लोगों को विश्वास दिलाएं कि आप की सामर्थ पर विश्वास किया जा सकता है.    
क्या न करें -
  • त्रुटि से बचने का बहाना न खोजें और इसके लिए किसी अन्य पर दायित्व न डालें.
  • ऐसी त्रुटियों के करने से बचें जिनसे आप पर दूसरों का विश्वास विखंडित होता हो. 
  • त्रुटि होने पर अपनी प्रयोगधर्मिता न त्यागें किन्तु इसे और अधिक उत्साह और त्रुतिहीनता के साथ करें. 
Why We Make Mistakes: How We Look Without Seeing, Forget Things in Seconds, and Are All Pretty Sure We Are Way Above Averageऔर अंत में, दो बातें और -
  1. कुछ ऐसे निर्णय होते हैं जिनकी वापिसी असंभव होती है. ऐसे निर्णय में त्रुटि होने पर उसका निराकरण भी असंभव होता है. अतः ऐसे निर्णय लेने में बहुत सोच-विचार कर ही लें जिसमें कुछ समय लगायें. ध्यान रखें कि इस में किसी त्रुटि की संभावना तो नहीं है. 
  2. अनेक बार हमारी त्रुटियाँ हमें नए मार्ग भी दर्शाती हैं. अनेक वैज्ञानिक खोजें त्रुटियों के कारण हुई हैं. अतः प्रयोगधर्मी बने रहिये, त्रुटि होने की आशंका मत घबराइए. 

बुधवार, 10 नवंबर 2010

दरिद्रता और निर्धनता

प्रायः 'दरिद्रता' और 'निर्धनता' को पर्यायवाची के रूप में उपयोग किया जाता है किन्तु इन दोनों शब्दों में भारी अंतराल है. 'निर्धनता' एक भौतिक स्थिति है जिसमें व्यक्ति के पास धन का अभाव होता है किन्तु इससे उसकी मानसिक स्थिति का कोई सम्बन्ध नहीं है. निर्धन व्यक्ति स्वाभिमानी तथा परोपकारी हो सकता है. 'दरिद्रता' शब्द भौतिक स्थिति से अधिक मानसिक स्थिति का परिचायक है जिसमें व्यक्ति दीन-हीन अनुभव करता है जिसके कारण उसमें और अधिक पाने की इच्छा सदैव बनी रहती है. अनेक धनवान व्यक्ति भी दरिद्रता से पीड़ित होते हैं.

निर्धनता व्यक्ति की व्यक्तिगत स्थिति होती है, किन्तु दरिद्रता व्यक्ति की सामाजिक स्थिति होती है और उसी से पनपती है. किसी समाज में सदस्यों की आर्थिक स्थिति में अत्यधिक अंतराल होने से समाज में दो प्रकार से दरिद्रता विकसित होती है. प्रथम, धनाढ्य व्यक्ति निर्धनों का शोषण करते है और उन्हें पीड़ित करते हैं, जिससे पीड़ितों में दरिद्रता का भाव पनपने लगता है. द्वितीय, व्यक्ति अपने से अधिक धनवान व्यक्तियों से अधिक धनवान होने की चाह में पर्याप्त धनवान होते हुए भी अपने अन्दर दरिद्रता का भाव विकसित करने लगती है.

गुप्त काल के प्राचीन भारत सर्वांगीण रूप से धनवान था. समाज में जो धनी नहीं भी थे, वे भी प्रसन्न रहते थे क्योंकि कोई उनका शोषण नहीं करता था. इस लिए कुछ लोग निर्धन अवश्य रहे होंगे किन्तु कोई भी दरिद्र नहीं था. गुप्त वंश के शासन के बाद भारत में शोषण का युग आरम्भ हुआ, समाज को वर्णों और जातियों में विभाजित किया गया, कुछ लोगों से बलात तुच्छ कार्य कराकर उन्हें अस्पर्श्य घोषित किया गया. समाज के धर्म और विधानों को कुछ प्रतिष्ठित वर्गों के हित में बनाया गया, जिससे कुछ साधनविहीन वर्गों का बहु-आयामी शोषण करके उन्हें दरिद्र बना दिया गया. यह क्रम तब से स्वतन्त्रता पर्यंत चलता रहा. अतः निर्धन वर्ग दरिद्र भी बन गया, जिसके कारण 'निर्धन' और 'दरिद्र' शब्द परस्पर पर्याय माने जाने लगे.

स्वतन्त्रता के बाद यद्यपि शासन तथाकथित प्रतिष्ठित वर्गों के हाथों में ही रहा, तथापि सामाजिक स्थिति में अंतर लाया गया किन्तु इस अंतर को सकारात्मक नहीं कहा जा सकता. विदेशियों द्वारा शोषण का अंत हुआ इसलिए देश की सकल सम्पन्नता विकसित हुई जो कुछ वर्गों में ही वितरित रही. अन्य भारतीय समाज के वर्ग इस सम्पन्नता से वंचित ही रहे. तथापि देश के  संपन्न वर्गों के उपभोगों का अपरोक्ष प्रभाव अन्य वर्गों की सम्पन्नता पर भी पड़ा जिससे अन्य वर्गों की निर्धनता भी घटने लगी. आज भारत केव अधिकाँश लोगों को भर पेट भोजन, तन ढकने को वस्त्र और शरण हेतु भवन उपलब्ध हैं इसलिए देश में निर्धनता कम हुई है. तथापि दरिद्रता का असीमित विकास हुआ है.

स्वतन्त्रता के बाद की सरकारों ने दलित वर्गों के उत्थान के नाम पर एवं भृष्टाचार के माध्यम से स्वयं और अधिक धनवान बनने के लिए अनेक कल्याणकारी योजनाएं चलायी हैं जिनके माध्यम से  दलितों को भिक्षा के रूप में कुछ आर्थिक सहायता देकर उनकी निर्धनता को घटाया अवश्य है किन्तु उनमें भिखावृत्ति विकसित करते हुए दरिद्रता का विकास किया है. अब वे सदैव यही आस लगाये बैठे रहते हैं कि शासक वर्ग उनपर कुछ और कृपा करेंगे. इन वर्गों को शिक्षित कर स्वावलंबी बनने के कोई प्रयास नहीं किये गए हैं. इससे इनकी दरिद्रता दूर होती. यह भृष्ट शासक वर्ग के प्रतिकूल सिद्ध होता.

Gender and Sexuality in India: Selling Sex in Chennaiस्वतंत्र भारत के शासक वर्ग ने भृष्टाचार के माध्यम से निर्धनों का ही नहीं धनवान लोगों का भी शोषण किया है. जिससे धनवान लोगों में भी असुरक्षा की भावना विकसित हुई है जिसके निराकरण के लिए वे और अधिक धन कमाने का प्रयास करते हैं जो शासक वर्ग द्वारा उनसे हड़प लिया जाता है. इस असुरक्षा की भावना तथा और अधिक धन कमाने की लालसा ने धनवान वर्गों को भी दरिद्र बना दिया है यद्यपि उनके पास धन का नितांत अभाव नहीं है.


इस प्रकार हम देखते हैं कि भारत में सकल सम्पन्नता विकसित होने के बाद भी राजनैतिक अव्यवस्था के कारण दरिद्रता का सतत विकास हो रहा है जो समाज के निर्धन वर्ग के साथ-साथ धनवान वर्ग को भी ग्रसित कर रही है.

रविवार, 7 नवंबर 2010

उत्कृष्टता कैसे प्राप्त करें

आज फिर हिंदी की अपूर्णता का आभास हो रहा है और अंग्रेज़ी के 'परफेक्ट' शब्द के समतुल्य कोई शब्द नहीं मिल पा रहा है, जो 'उत्कृष्ट' 'आदर्श' और 'पूर्ण' शब्दों के मध्य कहीं होना चाहिए था किन्तु इसका भाव न तो ''उत्कृष्ट' और आदर्श' व्यक्त करते  है और न ही 'पूर्ण' शब्द. इसलिए अभी 'उत्कृष्ट  शब्द से काम चलाया जा रहा है.

सर्व प्रथम यहाँ यह चेतावनी देना प्रासंगिक है कि उत्कृष्टता कभी उपलब्ध न होने वाली स्थिति होती है, तथापि इसके लिए सतत प्रयास करते रहना वांछित है. इन प्रयासों से ही हम एक उत्कृष्ट व्यक्ति और कर्मी बन सकते हैं. अतः प्रयास करते रहने पर भी उत्कृष्टता प्राप्त न होने पर भी निराश नहीं होना चाहिए, अपितु और अधिक प्रयास किये जाने चाहिए.

जीवन शैली और कर्मों में उत्कृष्टता प्राप्त करना साधारणता की तुलना में सरल और सुविधाजनक तो नहीं होता अपितु असीम संतुष्टि प्रदायक होता है. इसके लिए अपने आराम और सुविधाजनक स्थिति को त्यागते हुए और असफलता की चिंता न करते हुए सतत प्रयास करने होते हैं. जितना कष्टकर और महत्वपूर्ण उत्कृष्टता प्राप्त करना होता है, उससे अधिक कष्टकर और महत्वपूर्ण इसे बनाये रखना होता है. इसके लिए कुछ महत्वपूर्ण सूत्र निम्नांकित हैं -
  • अपनी पसंद का कार्य करें : उत्कृष्टता प्राप्त करने के लिए यह अनिवार्य है कि करता की उस कर्म में पूर्ण रूचि हो और यह तभी संभव होता है जब कार्य कर्ता की पसंद का हो. अतः उत्कृष्टता के लिए वही करें जो आपको सर्वाधिक पसंद हो. 
  • क्लिष्टतम को सर्वप्रथम करें : प्रत्येक कार्य में अनेक चरण अथवा अंग होते हैं. सुविध्वादी लोग प्रायः कार्य के उस भाग को पहले करते हैं जो सरलतम होता है. इसके बाद जब वे क्लिष्ट भागों की ओर बढ़ते हैं तो क्लिष्टता उन्हें पसंद नहीं आती और वे अनेक कार्यों को मध्य में ही छोड़ देते हैं अथवा उन्हें शीघ्रता से घटिया रूप में संपन्न करते हैं. उत्कृष्टता के सर्वप्रथम तो यह आवश्यक होता है कि व्यक्ति उसे पूर्ण और उत्कृष्ट रूप में करने के लिए संकल्पशील हो. कार्य को आरम्भ करते समय व्यक्ति स्वाभाविक रूप में अधिक ऊर्जावान होता है जिसके कारण उसे क्लिष्ट कार्य में कठिनाई नहीं होती. इसलिए कार्य को करते हुए अधिकाधिक आनंद प्राप्त करते रहने के लिए उसके क्लिष्टतम भाग को सर्वप्रथम करना चाहिए ताकि आगे के सरल भाग आनंददायक सिद्ध होते चले जाएँ. इससे कार्य में उत्कृष्टता प्राप्त करना सरल होता है.  
  • गहन तल्लीन रहें : कहावतों में अभ्यास को उत्कृष्टता की जननी कहा गया है, जो अक्षरशः सत्य है. किन्तु कोई भी व्यक्ति दीर्घ अवधि तक सतत कार्य करते हुए उत्कृष्टता प्राप्त नहीं कर सकता. अध्ययनों से पाया गया है कि व्यक्ति किसी एक कार्य को अधिकतम ९० मिनट तक ही उत्कृष्टता के साथ संपन्न कर सकता है. अतः जब भी जो भी करें पूर्ण तल्लीनता से करें और जब भी कार्य की एकरसता तल्लीनता में बाधा बने, कुछ समय के लिए उस कार्य को विराम दें. इससे व्यक्ति के मस्तिष्क का दाहिना भाग पुनः ऊर्जित हो जाता है और वह व्यक्ति की रचनात्मकता को बनाये रखता है.  मनोवैज्ञानिक शोधों से यह भी पाया गया है कि व्यक्ति २४ घंटों में अधिकतम ४.५ घंटों के लिए उत्कृष्टता के साथ कार्य कर सकता है. इससे अधिक किये गए कार्यों में उत्कृष्टता होनी आशंकित होती है. इसलिए केवल शारीरिक परिश्रम की अपेक्षा कर्म में बुद्धि और मानसिकता का सहयोग लें जो सीमित समय के लिए ही उपलब्ध होता है. 
  • दूसरों के मत जानें किन्तु अंतरालों पर : अपने द्वारा किये गए कार्य से सभी को संतुष्टि होती है किन्तु मानव की सामाजिकता यह भी अपेक्षा रखती है कि दूसरे लोग भी कार्य की उत्कृष्टता से संतुष्ट हों, जिसके लिए अपने द्वारा किये जा रहे कार्यों के बारे में समय-समय पर उस क्षेत्र के विशेषज्ञ लोगों के मत भी जानें और तदनुसार अपनी कार्य शैली में संशोधन करें. किन्तु दूसरों के आलोचनात्मक मत सतत रूप में उपलब्ध होने से व्यक्ति के मानस पर अनावश्यक भार पड़ता है जिससे उसकी रचनात्मकता दुष्प्रभावित होती है. इसके अतिरिक्त यह भी ध्यान रखें कि सभी को संतुष्ट करना असंभव होता है. इसलिए सुनें अनेकों की, किन्तु करें अपने ही तदनुसार संशोधित निर्णय की. 
  • स्वयं अनुशासित रहें : संकल्पशक्ति और अनुशासन, मानवीय जीवन के दो ऐसे पहलू हैं जिनके बारे में कहा बहुत कुछ जाता है, किन्तु इन्हें जीवन में धारण करना अत्यधिक क्लिष्ट है और हम में से अधिकाँश इन से कतराते हैं. इन्हें दारण करने की कुछ व्यवहारिक कठिनाइयाँ भी हैं. इन कठिनाइयों के निवारण के लिए हम जो विशेष कार्य उत्कृष्टता के साथ करना चाहते हैं, उनके लिए विशिष्ट समय निर्धारित करें जिससे उन्हें करना हमारे स्वभाव और जीवनचर्या में सम्मिलित हो जाये. इससे हम स्वानुशासित भी सरलता से हो सकेंगे.         .
Perfection: A Memoir of Betrayal and Renewalइन मनोवैज्ञानिक तथ्यों को ध्यान में रखकर हम अपने कार्यों में अधिक उत्कृष्टता प्राप्त कर सकते हैं. तथापि हमें इसे प्राप्त करने में असफलता से निराश भी नहीं होना चाहिए और यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि हमारे प्रयासों में कहीं कोई कमी रह गयी है जिसके निराकरण के लिए भविष्य में और भी अधिक प्रयास करने चाहिए. 

शनिवार, 6 नवंबर 2010

मेरी अनिच्छा और विवशता

अभी हुए पंचायत चुनावों में मतदाताओं ने विरोधी की ओर से वितरित शराब, नकद धन और अन्य लालचों में आकर मेरे द्वारा समर्थित प्रत्याशी को धोखे दिए जिसे मैं अपने साथ और अपनी नैतिकता के साथ धोखा मानता हूँ. यहाँ तक कि विजित प्रत्याशी ने एक विपक्षी प्रत्याशी और उसके सहयोगियों को भी ८५,००० रुपये देकस्र खरीद लिया था. चुनाव से पूर्व चुनाव मैदान में अन्य २ प्रत्याशियों ने भी मुझे कोई महत्व नहीं दिया जिसके कारण मेरी और उनकी पराजय हुई. इस चुनाव में विजित प्रत्याशी को लगभग कुल १५०० पड़े मतों में से केवल ४२८ मत प्राप्त हुए जो लगभग ३० प्रतिशत से भी कम हैं. अब उसके समर्थक दूसरे प्रत्याशी को केवल १४ प्रतिशत मत प्राप्त हुए. इससे इन दोनों का समर्थन केवल ४४ प्रतिशत है, जब कि शेष गाँव - ५६ प्रतिशत - विजित प्रत्याशी का घोर विरोधी है और चुनाव परिणामों से बहुत अधिक निराश और दुखी है. दुःख इसलिए भी अधिक है क्यों कि विजित व्यक्ति ने विजय के तुरंत बाद से ही अपनी स्वाभाविक उद्दंडता आरम्भ कर दी है जब कि उसे अभी प्रधान पद का कार्यभार भी प्राप्त नहीं हुआ है. इससे गाँव में तनाव उत्पन्न होना स्वाभाविक है जिसमें एक ओर ४४ प्रतिशत और दूसरी ओर शेष ५६ प्रतिशत व्यक्ति रहने की संभावना है.


उक्त धोखे के कारण मेरा मन बना कि आगे से मैं ऐसे धोखेबाज मतदाताओं पर निर्भर नहीं करूंगा क्योंकि इन पर मेरा विश्वास उठ गया है. अब मेरा मन बना था कि मैं गाँव की राजनीति में भाग न लेकर अपने लेखन और अन्य रचनात्मक कार्य पर ध्यान दूंगा. किन्तु चुनाव परिणामों से उत्पन्न संघर्ष की आशंका के कारण ग्रामवासियों की दृष्टि में मैं ही उनका सच्चा हितैषी हो सकता हूँ और वे मुझसे विपक्ष का नेतृत्व करने की मांग कर रहे हैं ताकि उनके हित सुरक्षित रह सकें. गाँव में मेरे परिवार का इतिहास ग्राम के विकास और ग्रामवासियों की सेवा हेतु संघर्ष करने का रहा है, और गाँव में मेरे दस वर्षों में मेरी जो छबि बनी है वह भी मेरे पारिवारिक इतिहास से भिन्न नहीं रही है. आने परिवार की परंपरा के कारण मैं ग्रामवासियों का आग्रह अस्वीकार नहीं कर पा रहा हूँ. इससे सत्ता पक्ष में हलचल हुई है जिसमें अधिकांशतः असामाजिक तत्व हैं जिनके साथ सहयोग किये जाने की भी कोई संभावना नहीं है.. मैं यह भी समझता हूँ की आगामी संघर्ष में मैं ही असामाजिक तत्वों का प्रमुख विरोधी रहूँगा और अधिकाँश ग्रामवासी केवल तमाशा ही देखेंगे. इसका सकारात्मक पक्ष यह होगा कि सार्वजनिक धन का दुरूपयोग नहीं हो सकेगा और गाँव में कुछ विकास कार्य भी होंगे. इन्हीं कारणों से मैं असहमत भी नहीं हो पा रहा हूँ. मेरे पक्षधरों को मुझसे कोई निराशा हो यह भी मैं नहीं चाहता हूँ.

इस चुनाव में विजित प्रत्याशी ने सर्वाधिक लगभग ३ लाख रुपये व्यय किये जिसके लिए वह ऋण के भार से दबा हुआ है. मेरे प्रत्याशी के लगभग १ लाख रुपये काम आये जो उसके परिवार की आय से ही थे. अब मेरे समर्थक दो अन्य प्रत्याशियों के भी २-२.५ लाख रुपये व्यय हुए. विजयी प्रत्याशी को ग्राम के विकास हेतु प्राप्त धन का अपव्यय करते हुए अपना ऋण चुकता करना है जिसके लिए उसे सार्वजनिक धन में से लगबग ६ लाख रुपये की आर्थिक अनियमितता करनी होगी. इसके अतिरिक्त वह कुछ धन भविष्य के लिए भी अर्जित करना चाहेगा. इस प्रकार वह आगामी ५ वर्षों में न्यूनतम १० लाख रुपये की आर्थिक अनियमितता करेगा. इसे रोकने का दायित्व ग्रामवासी मुझे देना चाहते हैं. सार्वजनिक हित में मैं इसे अस्वीकार भी नहीं कर पा रहा हूँ.
Corruption in India

अतः संघर्ष अवश्यम्भावी है जिसका प्रथम चरण ग्राम पंचायत के शेष सात सदस्यों का चुनाव है  जो नवम्बर माह में ही संपन्न होने की आशा है. जब तक ये चुनाव नहीं होते हैं तब तक प्रधान पद के लिए चयनित व्यक्ति को पद का कार्यभार भी प्राप्त नहीं हो सकेगा. 

मंगलवार, 2 नवंबर 2010

राजनीति : स्वतंत्रता के बाद

भारत स्वतंत्र हुआ क्योंकि अंग्रेज़ी शासन द्वारा शोषण के लिए तब यहाँ कुछ शेष नहीं बचा था, तथापि स्वतन्त्रता की मांग की गयी और उसे स्वीकार कर लिया गया. किन्तु स्वतन्त्रता की मांग करने वालों ने कभी यह नहीं सोचा कि वे स्वतंत्र होने के बाद देश कैसे चलाएंगे. मेरे विचार से भारत के इतिहास की यह भयंकरतम भूल थी जिसका मूल्य हम अब तक चुकाते रहे हैं और न जाने कब तक चुकाते रहेंगे. उक्त भूल का परिणाम यह हुआ कि स्वतन्त्रता के बाद से ही भारत पर षड्यंत्रों का शिकंजा कसा जाने लगा जिन्हें 'राजनीति' कहा गया. नाम मात्र के लिए जन्तात्न्त्र की स्थापना की गयी किन्तु शासन उन परिवारों को सौंप दिया गया जो स्वतन्त्रता संग्राम में ब्रिटिश शासन के पक्षधर रहे थे. अतः स्वतन्त्रता के बाद भी शासन की रीति-नीति में कोई परिवर्तन नहीं किया गया. सत्ता के गलियारों में जो परिवर्तन हुआ वह यह था कि अनुशासित ब्रिटिश लोगों का स्थान अनुशासनहीन भारतीयों ने ले लिया.

कोई देश हो अथवा उसकी राजनीति, सुचारू अर्थ व्यवस्था के बिना अपने पैरों पर खडी नहीं रह सकती. यह सार्वभौमिक सत्य भारतीय राजनीति के आदि-पुरुष विष्णुगुप्त चाणक्य ने जान लिया था और अपने ग्रन्थ अर्थशास्त्र के माध्यम से उन्होंने भारत की अर्थ व्यवस्था सुचारू बनाए रखने के लिए सुदृढ़ नींव रख दी थी. उन्होंने समाज का एक वर्ग, जो उस समय शासक वर्ग भी था, इसी कार्य में लगा दिया था. यह वर्ग आज भी अर्थ व्यवस्था में लगा हुआ है किन्तु इसके अहिंसक होने के कारण शासन में इसके लिए कोई स्थान नहीं रह गया है. इसी वर्ग की देन है कि भारत की राजनीति में भीषण उतार-चढ़ाव होने पर भी इसकी सकल अर्थ व्यवस्था सदैव सुदृढ़ रही है.

भारत में एक जाति ऐसी रही है जो सदैव सत्तासीन जातियों से घनिष्ठ सम्बन्ध बनाये रखती रही है, अधिकांशतः राजगुरु बनकर. इस कारण से यह जाति भारत पर अपना मनोवैज्ञानिक शासन सदा बनाये रही है. अतः यह स्वभावतः सत्ताच्युत रहना पसंद नहीं करती. विगत २००० वर्षों से इस जाति ने भारतीय समाज को इस प्रकार विभाजित किया कि इसका वर्चस्व सदा बना रहे. समाज में अछूत, दलित, कमीन, आदि वर्ग इसी जाति की देन हैं. स्वतन्त्रता के बाद से ही भारतीय राजनीति में यह जाति अग्रणी रही और अपनी शोषण-परक रीति-नीतियों के कारण भारतीय राष्ट्र की संपदा पर अपना प्रभुत्व बढाती रही. आज भी यह जाति समाज की अग्रणी और धनाढ्य है जबकि अर्थ व्यवस्था चलाने में इसका कोई योगदान नहीं रहा है.

स्वतंत्र भारत के संविधान में दीर्घ काल से पद-दलित वर्गों के लिए आरक्षण व्यवस्था इसलिए की गयी ताकि ये शिक्षित और सभ्य होकर देश के विकास में अपना योगदान दे सकें. किन्तु शासकों ने इन्हें न शिक्षा लेने दी और न ही किसी अन्य प्रकार से सुयोग्य होने दिया. इनके कल्याण और विकास के नाम पर इन्हें जो भिक्षा दी गयी, उसके माध्यम से इन्हें पारंपरिक भिखारी बना दिया जो विगत ६० वर्षों से शासकों द्वारा दी जाने वाली भीख पर पल रहे हैं और भारत की अर्थ व्यवस्था पर एक भारी बोझ हैं. इन्हीं में से कुछ लोग इनकी वोटों के ठेकेदार बनते रहे हैं और सत्ताधारी लोगों के साथ रंगरेलियां मनाते रहे हैं. शासकों और इनके ठेकेदारों का हित इसी में है कि वे इन दलितों को दलित ही बनाए रखकर इनकी वोटों के माध्यम से सत्तालाभ प्राप्त करते रहें. इसके लिए इन्हें निरंतर भीख दिए जाने की स्थायी व्यवस्था कर दी गयी है. विगत ६० वर्षों में आरक्षण व्यवस्था का विस्तार इसी भीख दिए जाने की व्यवस्था का अंग है. 

विगत २५०० वर्षों में भारत में अनेक विदेशी जाति बसती रही हैं जिनमें से अनेक जंगली जातियां थीं और जो स्वभावतः हिंसक थीं जिसके लिए जिन्हें सैनिक जातियां कहा जाता है. भारत में ये सैनिक जातियां युद्ध के लिए आयी थीं और इनका किसी मानवीय गुण से कोई परिचय नहीं था. मानवीय शासन के अधीन रहकर ये युद्ध करने में पारंगत सिद्ध होती थीं किन्तु स्वतंत्र रहकर ये अपने मूल हिंसक स्वभाव के कारण अपने जंगली व्यवहार पर उतर आती थीं. इनकी स्थिति आज भी ऐसी ही है और ये भारत की वर्तमान राजनीति में सक्रिय हैं और राजनीति में वही होता है जो ये जातियां चाहती हैं. .
Kautilya's Arthashastra/The Way of Fianancial Management and Economic Governance

स्वतन्त्रता के बाद अनुशासनहीन भारतीयों के शासन में स्वतन्त्रता ने उद्दंडता का रूप ले लिया, जनतंत्र पर 'जिसकी लाठी उसकी भैंस' वाली उक्ति चरितार्थ होने लगी, जिससे भारतीय राजनीति में हिंसा - मनोवैज्ञानिक, भौतिक, आर्थिक, आदि - का स्थान सर्वोपरि हो गया. जनतंत्र के नाम पर जो चुनाव होते हैं वे भी शोषण और हिंसा के साए में होते हैं जिनमें वोटों को बलपूर्वक प्राप्त किया जाता है अथवा धन प्रदान कर खरीदा जाता है. यह प्रक्रिया निम्नतम स्तर ग्राम पंचायत से लेकर शीर्षस्थ स्तर भारतीय संसद तक चल रही है जिसमें कोई भी मानवीय तत्व विद्यमान नहीं है.