गुरुवार, 31 दिसंबर 2009

बौद्धिक जनतंत्र में भूमि प्रबंधन


उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार मनुष्य जाति भूमि का केवल ३ प्रतिशत भाग बस्तियों के लिए उपयोग करती है, इस पर भी विश्व में लगभग ३० प्रतिशत जनसँख्या घरविहीन है. अमेरिका में भी अधिकाँश वृद्ध जन घरविहीन होने के कारण अपनी कारों में रात्रि व्यतीत करते हैं. भारत के शहरी क्षेत्रों में ग्रामीण क्षेत्रों से आजीविका के लिए आये अधिकाँश व्यक्ति घर-विहीन होते हैं तथा ५० प्रतिशत घर कहे जाने वाले घरों में अत्यधिक छोटे होने के कारण प्राकृत प्रकाश एवं वायु प्रवाह संभव नहीं होता. तकनीकी स्तर पर इन्हें रहने योग्य घर नहीं कहा जा सकता. ग्रामीण क्षेत्रों में भी अधिकाँश घर घर कहे जाने योग्य नहीं होते.

मनुष्यों के निवास हेतु घरों की इस विकराल समस्या का एकमात्र कारण है भूमि पर व्यक्तिगत स्वामित्व. देश के कुछ लोगों ने भूमि को येन-केन-प्रकारेण अपने स्वामित्व में लेकर उसका मूल्य इतना अधिक बढ़ा दिया है कि जन-साधारण भू स्वामित्व प्राप्त करने का स्वप्न भी नहीं देख सकता. इस भूमि-हीनता का सर्वाधिक दुष्प्रभाव लोगों में राष्ट्रीयता की भावना का अभाव है. इस देश की विशाल भूमि पर जिन्हें सुईं की नोंक के बराबर भी भूमि प्राप्त नहीं है, उनमें राष्ट्रीयता की भावना की कल्पना भी नहीं की जा सकती.

बौद्धिक जनतंत्र में देश में भूमि पर व्यक्तिगत स्वामित्व की समाप्ति का प्रावधान है ताकि यह प्राकृत संपदा भी जल तथा वायु की भांति सार्वजानिक हो. अतः देश की समस्त भूमि राष्ट्र के स्वामित्व में रहेगी तथा प्रत्येक नागरिक परिवार को अपना घर बनाने के लिए एक निःशुल्क भूखंड प्रदान किया जाएगा जिसका माप सभी परिवारों के लिए एक समान होगा तथा जिसकी स्थिति परिवार की इच्छानुसार उपलब्ध होने पर होगी. इस भूखंड को परिवार कभी भी एक स्थान से दूसरे स्थान पर बदल सकेगा. यदि कोई परिवार घर बनने के लिए एक से अधिक भूखंड चाहता है तो उसे अतिरिक्त भूखंड किराए पर दिया जायेगा. यह किराया बस्ती की जनसंख्या के अनुसार चार चार वर्गों में पूर्व-निर्धारित रहेगा - ग्रामीण, उप-नगरीय, नगरीय तथा विशाल-नगरीय. ग्रामीण क्षेत्रों में किराया न्यूनतम तथा विशाल-नगरीय क्षेत्रों में किराया अधिकतम रहेगा.

घर हेतु भूमि के अतिरिक्त प्रत्येक नागरिक कृषि, खनन, उद्योग तथा व्यवसाय हेतु भूमि अपने वांछित स्थान पर किराए पर ले सकेगा. इनमें कृषि भूमि का किराया न्यूनतम तथा क्रमानुसार व्यावसायिक भूमि का किराया सर्वाधिक होगा जिसके निर्धारण में ग्रामीण, उप-नगरीय, नगरीय तथा विशाल-नगरीय क्षेत्रों पर भी विचार होगा. इस प्रकार घर हेतु भूमि के अतिरिक्त भूमि के किरायों की दरें १६ होंगी. यह भूमि भी किरायेदार द्वारा कभी भी लौटाई जा सकती है. सभी बस्तियों में स्थान-स्थान पर राष्ट्र की संपदा के रूप में वन क्षेत्र पूर्व-निर्धारित होंगे. इन सब उपयोगों के अतिरिक्त शेष भूमि पर वन लगाए जायेंगे. सभी वन क्षेत्र राष्ट्र की संपदा के रूप में निजी व्यक्तियों अथवा संगठनों द्वारा प्रबंधित होंगे.   

सोमवार, 28 दिसंबर 2009

बौद्धिक जनतंत्र में राज्यकर्मी


बौद्धिक जनतंत्र में राज्यकर्मी जनता के सच्चे सेवक बना दिए जाते हैं - उनपर नियंत्रण से. इसके लिए विविध प्रावधान निम्नांकित हैं -

१. मताधिकार
राज्यकर्मी शासन-प्रशासन का अभिन्न अंग होने के कारण देश की सरकार चलाने वाले होते हैं, इसलिए इन्हें शासन में किसी अन्य अधिकार की आवश्यकता नहीं होती. इसलिए बौद्धिक जनतंत्र में राज्यकर्मिओं को कोई मताधिकार नहीं होता. इस अधिकार को न दिए जाने का एक अन्य कारण हमारे जनतंत्र के अनुभव हैं जिनमें पाया गया है कि प्रत्येक सरकार सबसे अधिक राज्य्कर्मिओन को प्रसन्न करने के प्रयास करती है - उनके मत प्राप्त करने के लिए तथा उन्हें प्रसन्न रखकर अपने भृष्ट आचरण में उनका सहयोग लेने के लिए. इन दृष्टियों से सरकारें रज्य्कर्मिओन के वेतन और सुख-सुविधाओं में अत्यधिक वृद्धि करती रहती हैं. साथ ही उनके कार्यों में दक्षता लाने का कोई प्रयास नहीं करतीं. यहाँ तक कि राज्य्कर्मिओन के भृष्ट होने पर भी उनकी सभी प्रकार से रक्षा की जाती है ताकि वे प्रसन्न रहें और अपना समर्थन सत्तासीन राजनेताओं को दें. मताधिकार न होने से राज्यकर्मिओं पर कड़ा नियंत्रण रखा जा सकेगा जिससे उनकी कार्य दक्षता बढ़ेगी और वे जनता के लिए अधिक उपयोगी होंगे.

२ वेतन एवं सुख-सुविधाएँ
राज्यकर्मी संयुक्त रूप में राष्ट्र की प्रति व्यक्ति औसत आय के लिए जिम्मेदार तथा उत्तरदायी होते हैं. इसलिए बौद्धिक जनतंत्र में उनके औसत वेतन एवं अन्य सभी सुख-सुविधाएं देश की प्रति परिवार औसत आय के समान रखने का प्रावधान किया गया है. इसका लाभ यह होगा कि प्रत्येक राज्यकर्मी जनता की औसत आय में वृद्धि करने के लिए उत्सुक बना रहेगा. जनतंत्र में इनके वेतन मान देश की औसत आय से २० गुणित तक बढ़ा दिए जाने पर यह वर्ग देश का सर्वाधिक धनाढ्य वर्ग बन गया है तथा कार्य-कौशल पर कोई ध्यान नहीं देता.

३. पद का दुरूपयोग
राज्यकर्मी संयुक्त रूप में देश का प्रशासन चलाने वाले होते हैं.जो एक महत्वपूर्ण राष्ट्रीय कार्य है. ऐसा पद पाकर उसका दुरूपयोग करना बौद्धिक जनतंत्र में राष्ट्रद्रोह माना गया है जिसके लिए मृत्युदंड का प्रावधान किया गया गया है. इससे प्रावधान से राज्यकर्मिओं को भृष्ट होने से बचाया जा सकेगा जिससे वे जनता की सेवा में निष्ठापूर्वक लगे रहेंगे.

४. वेतनों का अंतर
वेतन व्यक्ति के जीवन-यापन का साधन होता है तथा जीवन यापन की आवश्यकताएं सभी व्यक्तिओं की लगभग एक समान होती हैं. इस दृष्टि से बौद्धिक जनतंत्र के अंतर्गत राज्यकर्मिओं के अधिकतम और न्यूनतम वेतनमानों में केवल २० प्रतिशत के अंतर का प्रावधान किया गया है. यहाँ यह भी जाना जाए कि उच्च पदासीन व्यक्तियों के अधिकार अन्य से बहुत अधिक होते हैं जो उच्च शिक्षा पाकर उच्च पद पाने के लिए पर्याप्त कारण होते हैं. जनतंत्र में यह अंतर दस गुणित हो गया है जो सामाजिक सौहार्द के लिए व्यवधान बन गया है.

५. संगठन एवं हड़ताल के अधिकार
जनतंत्र का अनुभव हमें दर्शाता है कि राज्यकर्मी अपने संगठन बनाने के अधिकार का दुरूपयोग करते हैं तथा सदैव हड़ताल आदि पर जाने के लिए तैयार रहते हैं जिससे उनके कार्यकौशल पर बुरा प्रभाव पड़ता है और वे जनसेवा से विमुख रहते हैं. इन कारणों से बौद्धिक जनतंत्र में राज्य्कर्मिओन को संगठन बनाने और हड़ताल आदि पर जाने के अधिकार नहीं दिए गए है. यदि किसी कर्मी को राज्य के लिए कार्य करने से नीतिगत अथवा किसी अन्य कारण से असंतुष्टि होती है तो वह त्यागपत्र देकर मुक्त हो सकता है अन्यथा उसे अपना नियमाधीन कार्य निष्ठापूर्वक करते रहना चाहिए.  

शुक्रवार, 25 दिसंबर 2009

महेश्वर का जन्म

महेश्वर के बड़े होने पर भी राम को युवराज बनाये जाने का कारण उनके जन्म की जटिलता थी जिसका उस समय तक महेश्वर को ज्ञान नहीं था.


शकुंतला एक अति सुंदर युवती थी और उसके सौन्दर्य कि ख्याति दूर दूर तक फ़ैल रही थी. उधर, भरत के पश्चिमी भू-क्षेत्र पर अनेक बाहरी लोगों ने अपना अधिकार कर वहां के भोले-भले लोगों को अपने अधीन कर लिया था, जिनमें से एक राज्य का राजकुमार दुष्यंत था. दुष्यंत ने भी शकुंतला के बारे में सूना था और उसमें शकुंतला के यौवन भोग की इच्छा जागी. वह सूर्यवातार का वेश धारण कर शकुंतला के पास पहुंचा और उसे अपने मोहजाल में फंसा लिया. दोनों ऊर्जावान युवा थे इसलिए प्रेमालाप में शकुन्तला गर्भवती हो गयी. जब दुष्यंत को इसकी सूचना दी गयी तो उसने शकुंतला को पहचानने से इंकार  कर दिया. शकुंतला का जीवन बर्बादी के कगार पर आ पहुंचा.

शकुंतला एक देवकुल कि कन्या थी और उसकी लाज तथा जीवन की रक्षा करना देव समाज के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया. अतः गुरुजनों के आग्रह पर उस समय तक युवा और अविवाहित दशरथ ने शकुंतला से विवाह कर लिया. कुछ गोपनीयता के उद्देश्य से शकुंतला का नाम कौशल्या कर दिया गया. इस प्रकार दशरथ कि प्रथम पत्नी कौशल्या बनी. उचित समय आने पर कौशल्या ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम महेश्वर रखा गया. कौशल्या के ही दूसरे पुत्र का नाम ब्रह्मा रखा गया जो सौम्य स्वभाव के कारण अत्यधिक लोकप्रिय बने. इसके विपरीत महेश्वर अति क्रोधी स्वभाव के थे और अपने शारीरिक बल का भरपूर प्रदर्शन तथा उपयोग करते थे.  .

महेश्वर का जन्म

महेश्वर के बड़े होने पर भी राम को युवराज बनाये जाने का कारण उनके जन्म की जटिलता थी जिसका उस समय तक महेश्वर को ज्ञान नहीं था.


शकुंतला एक अति सुंदर युवती थी और उसके सौन्दर्य कि ख्याति दूर दूर तक फ़ैल रही थी. उधर, भरत के पश्चिमी भू-क्षेत्र पर अनेक बाहरी लोगों ने अपना अधिकार कर वहां के भोले-भले लोगों को अपने अधीन कर लिया था, जिनमें से एक राज्य का राजकुमार दुष्यंत था. दुष्यंत ने भी शकुंतला के बारे में सूना था और उसमें शकुंतला के यौवन भोग की इच्छा जागी. वह सूर्यवातार का वेश धारण कर शकुंतला के पास पहुंचा और उसे अपने मोहजाल में फंसा लिया. दोनों ऊर्जावान युवा थे इसलिए प्रेमालाप में शकुन्तला गर्भवती हो गयी. जब दुष्यंत को इसकी सूचना दी गयी तो उसने शकुंतला को पहचानने से इंकार  कर दिया. शकुंतला का जीवन बर्बादी के कगार पर आ पहुंचा.

शकुंतला एक देवकुल कि कन्या थी और उसकी लाज तथा जीवन की रक्षा करना देव समाज के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया. अतः गुरुजनों के आग्रह पर उस समय तक युवा और अविवाहित दशरथ ने शकुंतला से विवाह कर लिया. कुछ गोपनीयता के उद्देश्य से शकुंतला का नाम कौशल्या कर दिया गया. इस प्रकार दशरथ कि प्रथम पत्नी कौशल्या बनी. उचित समय आने पर कौशल्या ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम महेश्वर रखा गया. कौशल्या के ही दूसरे पुत्र का नाम ब्रह्मा रखा गया जो सौम्य स्वभाव के कारण अत्यधिक लोकप्रिय बने. इसके विपरीत महेश्वर अति क्रोधी स्वभाव के थे और अपने शारीरिक बल का भरपूर प्रदर्शन तथा उपयोग करते थे.  .

बुधवार, 23 दिसंबर 2009

बौद्धिक जनतंत्र की प्रमुख अवधारनाएं


बौद्धिक जनतंत्र अर्थात जनतंत्र में बौद्धिक तत्वों का समावेश जिसका अर्थ है शासन में बुद्धिमान लोगों का वर्चस्व जिससे कि शासन और प्रशासन में कौशल दिखाई दे जिसका सीधा लाभ देश के लोगों को हो. इस नव-विकसित तंत्र कि प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं.-
  1. सभी वयस्क नागरिकों को सामान मताधिकार के स्थान पर उनके मताधिकार का मान उनकी शिक्षा तथा अनुभव के अनुसार.
  2. २५ वर्ष से कम तथा ७० वर्ष से अधिक आयु के नागरिकों, सरकारी कर्मियों, निरक्षर नागरिकों, न्यायलय द्वारा अपराधी तथा बुद्धिहीन घोषित व्यक्तियों को कोई मताधिकार नहीं. 
  3. परिवार नियोजन अनिवार्य, दो से अधिक अच्छे उत्पन्न करने पर माता-पिटा के मताधिकार समाप्त.
  4. प्रत्येक मतदाता को तीन प्रत्याशियों को प्रथम, द्वितीय तथा तृतीय वरीयता मत प्रदान करने का प्रावधान. ५० प्रतिशत से अधिक मत पाने वाला प्रत्याशी विजयी घोषित होगा जिसके लिए सर्व प्रथम प्रतम वरीयता मतों कि गिनती होगी. इसके आधार पर परिणाम निर्धारित न होने पर द्वितीय वरीयता मत भी गिने जायेंगे, इससे भी परिणाम निर्धारित न होने पर तृतीय वरीयता मतों कि गिनती होगी.
  5. देश में शासन का मुख्य दायित्व राष्ट्राद्यक्ष को जिसका चुनाव नागरिकों द्वारा सीधे किया जायेगा.
  6. देश में केवल केन्द्रीय सरकार को विधान निर्माण का अधिकार होगा, इसके लिए देश में राज्यों का संघीय ढांचा समाप्त तथा प्रांतीय सरकारें केन्द्रीय विधानों के अंतर्गत स्थानीय परिस्थितियों के अनुकूल केवल नियम बना सकेंगी.
  7. देश में शिक्षा पूरी तरह निःशुल्क तथा सबको एक सामान शिक्षा पाने के अवसर. इसके लिए निजी क्षेत्र में कोई शिक्षा संस्थान नहीं.
  8. पूरे देश में ग्राम स्तर तक निःशुल्क स्वास्थ एवं चिकित्सा सेवाएँ.
  9. न्याय व्यवस्था पूरी तरह निःशुल्क एवं प्रत्येक वाद का निर्णय ३ माह के अन्दर अनिवार्य.
  10. किसी न्यायाधीश के निर्णय का उच्च न्यायलय द्वारा उलटा जाने पर न्यायाधीश न्याय हेतु योग्य घोषित एवं उसकी सेवा समाप्त. 
  11. ७० वर्ष से अधिक आयु के प्रत्येक नागरिक को जीवन यापन हेतु पेंशन. विकलांगों के अतिरिक्त किसी भी वर्ग को कोई पेंशन अथवा अन्य निःशुल्क कल्याणकारी योजना नहीं. 
  12. राजकीय कर्मियों के औसत वेतन मान देश कि प्रति-परिवार औसत आय के समान. अधिकतम तथा न्यूनतम वेतन में केवल २० प्रतिशत का अंतर. 
  13. राजकीय पद का दुरूपयोग राष्ट्रद्रोह जिसके लिए मृत्युदंड का प्रावधान. 
  14. ग्राम स्तर तक राज्य कर्मियों कि नियुक्ति जिनका दायित्व नागरिकों को सभी राजकीय सेवाएँ वहीँ उपलब्ध कराना जिससे किसी भी नागरिक को राजकीय कार्यालयों में जाने कि आवश्यकता न हो.
  15. भूमि पर व्यक्तिगत स्वामित्व समाप्त तथा प्रत्येक नागरिक को उसकी इच्छानुसार उपयोग के लिए भूमि लीज पर उपलब्ध होगी. इसके अतिरिक्त प्रत्येक परिवार को वांछित स्थान पर आवास हेतु एक समान निःशुल्क भूमि का प्रावधान. 
उक्त प्रावधानों में से प्रत्येक के कारणों तथा प्रभावों की विस्तृत चर्चा इस संलेख पर आगे के आलेखों में की जाएगी. 

मंगलवार, 22 दिसंबर 2009

भारत की प्रथम राज्य व्यवस्था

 जब देवों ने भारत भूमि को अपना घर बनाया था उस समय उनकी शासन करने की कोई अभिलाषा नहीं थी. वे बस यही चाहते थे कि यहाँ की समतल एवं उर्वरक भूमि मानवता के विकास के लिए हो क्योंकि इतनी विशाल समतल एवं सजल भूमि उन्हें अन्यत्र नहीं पाई थी. इसलिए उन्होंने बिना कोई राज्य-व्यवस्था स्थापित किये ही विकास कार्य आरम्भ कर दिए.

उनके विकास से प्रभावित होकर अनेक जातियों ने इस भूमि पर अपना अधिकार चाह जिसके लिए सबसे पहले यहाँ यहूदी आये और इश्वर, धर्म आदि के नाम पर लोगों को पथ्भ्रिष्ट करने लगे ताकि उनपर शासन करना सरल हो. इसका देवों द्वारा विरोध किये जाने पर संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो गयी, जिससे निपटने के लिए उन्हें अपनी राज्य-व्यवस्था कि अनिवार्यता अनुभव हुई और उन्होंने इसका निर्णय लिया.


यहूदियों का प्रथम मुख्यालय दक्षिण भारत के मदुरै में था जिसका सीधा मुकाबला करने के लिए उन्होंने अपनी राज्य व्यवस्था के मुख्यालय के लिए दक्षिण भारत में ही एक नया नगर बसाया और उसे अपने प्रसिद्द विद्वान् अत्री के सम्मान में 'आत्रेयपाद' नाम दिया जिसे आज हैदराबाद कहा जाता है. हैदराबाद की चारमीनार नगर एवं राज्य कि स्थापना के अवसर पर बनायी गयी थी.

ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश्वर के पिताश्री दशरथ को राज्याध्यक्ष बनाया गया. यहाँ यह भी ध्यान दिया जाये कि इन तीनों भाइयों को बाद के लिखे झूंठे ग्रन्थ 'वाल्मीकि रामायण' में राम, लक्ष्मण तथा भरत कहा गया है जो इनके गुणात्मक नाम थे. उस समय गुणात्मक नामों का प्रचालन था जो व्यक्तियों के कर्मों के अनुसार निर्धारित किये जाते थे और इनको वास्तविक नामों से अधिक महत्व दिया जाता था ताकि लोग सत्कर्म करने के लिए उत्साहित हों.

राज्य व्यवस्था में ब्रह्मा को युवराज घोषित किया गया जिसपर भरत ने घोर आपत्ति की क्योंकि वे आयु में सबसे बड़े थे और युवराज बनाने के अधिकारी थे. इस आपत्ति के कारण राज्य को तीन भागों में बांटा गया तथा तीनों भाइयों को भागों का उप-राज्याध्यक्ष बनाया गया. तदनुसार ब्रह्मा को पूर्वी क्षेत्र का प्रबंध सौंपा गया और उनका मुख्यालय वर्तमान के म्यांमार क्षेत्र में, जिसका नाम अभी कुछ समय पहले तक ब्रह्मा ही था, प्रजा नामक स्थान में रखा गया जिसके कारण ब्रह्मा को प्रजापति भी कहा जाने लगा..

मध्य क्षेत्र का कार्यभार विष्णु को दिया गया जिसका मुख्यालय वर्तमान के पश्चिमी बंगाल में स्थित विष्णुपुर को बनाया गया. उसी समय बनाये गए महल विष्णुपुर में आज भी विद्यमान हैं. पूर्वी क्षेत्र भरत के अधीन दिया गया जिसका मुख्यालय वर्तमान राजस्थान के राजगढ़ को बनाया गया. राजगढ़ का विशाल किला खँडहर अवस्था में आज भी विद्यमान है.

भारत की प्रथम राज्य व्यवस्था

 जब देवों ने भारत भूमि को अपना घर बनाया था उस समय उनकी शासन करने की कोई अभिलाषा नहीं थी. वे बस यही चाहते थे कि यहाँ की समतल एवं उर्वरक भूमि मानवता के विकास के लिए हो क्योंकि इतनी विशाल समतल एवं सजल भूमि उन्हें अन्यत्र नहीं पाई थी. इसलिए उन्होंने बिना कोई राज्य-व्यवस्था स्थापित किये ही विकास कार्य आरम्भ कर दिए.

उनके विकास से प्रभावित होकर अनेक जातियों ने इस भूमि पर अपना अधिकार चाह जिसके लिए सबसे पहले यहाँ यहूदी आये और इश्वर, धर्म आदि के नाम पर लोगों को पथ्भ्रिष्ट करने लगे ताकि उनपर शासन करना सरल हो. इसका देवों द्वारा विरोध किये जाने पर संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो गयी, जिससे निपटने के लिए उन्हें अपनी राज्य-व्यवस्था कि अनिवार्यता अनुभव हुई और उन्होंने इसका निर्णय लिया.


यहूदियों का प्रथम मुख्यालय दक्षिण भारत के मदुरै में था जिसका सीधा मुकाबला करने के लिए उन्होंने अपनी राज्य व्यवस्था के मुख्यालय के लिए दक्षिण भारत में ही एक नया नगर बसाया और उसे अपने प्रसिद्द विद्वान् अत्री के सम्मान में 'आत्रेयपाद' नाम दिया जिसे आज हैदराबाद कहा जाता है. हैदराबाद की चारमीनार नगर एवं राज्य कि स्थापना के अवसर पर बनायी गयी थी.

ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश्वर के पिताश्री दशरथ को राज्याध्यक्ष बनाया गया. यहाँ यह भी ध्यान दिया जाये कि इन तीनों भाइयों को बाद के लिखे झूंठे ग्रन्थ 'वाल्मीकि रामायण' में राम, लक्ष्मण तथा भरत कहा गया है जो इनके गुणात्मक नाम थे. उस समय गुणात्मक नामों का प्रचालन था जो व्यक्तियों के कर्मों के अनुसार निर्धारित किये जाते थे और इनको वास्तविक नामों से अधिक महत्व दिया जाता था ताकि लोग सत्कर्म करने के लिए उत्साहित हों.

राज्य व्यवस्था में ब्रह्मा को युवराज घोषित किया गया जिसपर भरत ने घोर आपत्ति की क्योंकि वे आयु में सबसे बड़े थे और युवराज बनाने के अधिकारी थे. इस आपत्ति के कारण राज्य को तीन भागों में बांटा गया तथा तीनों भाइयों को भागों का उप-राज्याध्यक्ष बनाया गया. तदनुसार ब्रह्मा को पूर्वी क्षेत्र का प्रबंध सौंपा गया और उनका मुख्यालय वर्तमान के म्यांमार क्षेत्र में, जिसका नाम अभी कुछ समय पहले तक ब्रह्मा ही था, प्रजा नामक स्थान में रखा गया जिसके कारण ब्रह्मा को प्रजापति भी कहा जाने लगा..

मध्य क्षेत्र का कार्यभार विष्णु को दिया गया जिसका मुख्यालय वर्तमान के पश्चिमी बंगाल में स्थित विष्णुपुर को बनाया गया. उसी समय बनाये गए महल विष्णुपुर में आज भी विद्यमान हैं. पूर्वी क्षेत्र भरत के अधीन दिया गया जिसका मुख्यालय वर्तमान राजस्थान के राजगढ़ को बनाया गया. राजगढ़ का विशाल किला खँडहर अवस्था में आज भी विद्यमान है.

सोमवार, 21 दिसंबर 2009

कांग्रेस संस्कृति : तब और अब

भारत के स्वतन्त्रता आन्दोलन के समय कांग्रेस की बागडोर महात्मा गाँधी के हाथ में थी जिन्होंने जनसाधारण को उस समय उपलब्ध वस्त्र केवल एक लंगोटी को अपनी वेशभूषा बनाया. इसके प्रभाव में पूरे देश में गांधीजी के नेतृत्व में स्वतंत्रता के लिए एक जन-आन्दोलन छिड़ गया. जनसाधारण जैसा बनकर रहना उस समय के कांग्रेस नेताओं और पार्टी की संस्कृति थी.

स्वतन्त्रता के बाद जवाहर लाल नेहरु के प्रथम प्रधान मंत्री बनाने पर उन्होंने जनसाधारण को तिलांजलि देते हुए उन शाही परिवारों को कांग्रेस में सम्मिलित कर लिया जो ब्रिटिश भारत में देश की स्वतंत्रता के विरोधी और अंग्रेजी शासन के पक्षधर थे. इन परिवारों के लोग स्वतंत्रता संग्राम सैनानियों को बंदी बनवाने में अंग्रेजी शासकों का साथ देते थे. इस प्रकार के लोगों को कांग्रेस में लाकर नेहरु ने कांग्रेस की संस्कृति में आमूल-चूल परिवर्तन आरम्भ कर दिया जिससे शासक और शासितों में वैसा ही अंतराल आने लगा जैसा की ब्रिटिश शासन में था.

इस अंतराल का प्रत्यक्षीकरण अभी मेरे गाँव के निकट के गाँव ऊंचागांव में हुआ. यहाँ के एक बड़े जमींदार और भारत की स्वतन्त्रता के घोर विरोधी कुंवर सुरेन्द्र पाल सिंह को नेहरु ने सन १९५७ में कांग्रेस में आमंत्रित करके उन्हें संसदीय चुनाव में कांग्रेस का प्रत्याशी बनाया था. इसके बाद वे केंद्रीय सरकार में अनेक बार मंत्री बने किन्तु उन्होंने खेत्र के विकास के लिए कोई प्रयास नहीं किये. इस कारण से यह खेत्र रेलवे आदि की सुख सुविधाओं से अभी तक वंचित है जब की कुंवर सुरेन्द्र पल सिंह एक बार रेल मंत्री भी रहे थे.

अभी हाल में उनकी मृत्यु हुई और २० दिसम्बर को उनके मृत्यु-भोज में सम्मिलित होने के लिए लगभग १०,००० लोगों को आमंत्रित किया गया. इसकी व्यवस्था कुंवर साहेब के पुत्र ने की जो आज कांग्रेस के प्रदेश स्तरीय नेता हैं. आमंत्रित लोग दो प्रकार के थे - वर्त्तमान शासक तथा शासित. जहाँ शासक वर्ग के लोगों की सुख-सुविधाओं का विशेष ध्यान रखा गया वहीं शासित वर्ग को भोजन पाने की भी समुचित व्यवस्था नहीं की गयी. शासक वर्ग के भोजन पान के लिए महल में विशेष व्यवस्था की गयी तथा उनकी कारें किले के अन्दर विशेष भोज-स्थल तक ले जाई गईं ताकि वे जनसाधारण के कोलाहल से किसी प्रकार का व्यवधान अनुभव न करें.

दूसरी ओर लगभग १०,००० जनसाधारण लोगों के लिए एक पंडाल में भोजन पाने की खुली व्यवस्था की गयी जिसका आकार इतना ही था जैसा की शादी-विवाहों में ५०० लोगों के भोजन के लिए होता है. परिणामस्वरुप भूखे लोगों में भोजन पाने के लिए कड़ा संघर्ष होता रहा जिसमें अनेक लोगों के वस्त्र दूषित हो गए तथा अनेकों को भूखे ही लौटना पड़ा. परिस्थिति ऐसी थी जिसमें जिसको जो भी प्राप्त हो पाता उसी पर संतोष करता. किसी को पूड़ी नहीं तो किसी को सब्जी नहीं. किसी को मिष्टान्न नहीं तो किसी को क्खाली पलते भी नहीं मिल पायीं.

इस घटनाक्रम में दो बातें सामने आती हैं - एक व्यवस्था करने की सक्षमता की तथा दूसरी व्यवस्थापकों की सामंतवादी प्रवृति की. जो व्यक्ति अपने निवास पर इतनी छोटी सी व्यवस्था कर पाने में सक्षम नहीं हैं, वे इस देश को कैसे चला पाएंगे. दूसरे  लोकतंत्र में शासक जन-सेवक कहे जाते हैं और होने भी चाहिए. इनका जनसाधारण से इस प्रकार दूरी बनाये रखना इस देश के जनतंत्र पर प्रश्नचिन्ह लगाता है.

इसका तीसरा एवं सर्वाधिक महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि लोगों को भोजन के लिए आमंत्रित करके उनके लिए समुचित व्यवस्था न करना आमंत्रित लोगों का घोर अपमान है. संभवतः व्यवस्थापकों का यह भी उद्देश्य हो ताकि क्षत्र के जनसाधारण कभी उनकी सामंतशाही के समक्ष सर न उठा सकें.

रविवार, 20 दिसंबर 2009

पृष्ठभूमि



लगभग २,००० वर्षों से गुलामी की जंजीरों से जकड़ा भारत और इसके लोग आज बहुत बुरी दशा में हैं - शारीरिक और मानसिक दोनों दृष्टियों से. १९४७ में बलिदानों, सत्य और अहिंसा के बल पर पाई गयी स्वतंत्रता मुट्ठीभर लोगों ने अपनी अनंत हवस मिटाने के लिए कैद कर ली है. जनसामान्य के दमन और शोषण पर पनप रहे ये निरंकुश बने शासक लोकतंत्र का नारा लगाकर लोगों को पथ-भृष्ट कर रहे हैं ताकि वे उनके सामने अपना स्वर बुलंद करने योग्य न रह सकें और उनका वंशानुगत शासन चुपचाप सहते रहें.

मेरे बचपन में पिताजी ने एक कहानी सुनायी थी जो प्रसंगवश स्मृति-पटल पर उभर रही है -

"एक कारागार में अनेक कैदी थे. वैसे तो उनपर कोई विशेष बंधन नहीं थे किन्तु उनकी दोनों कुहनियों पर एक-एक शलाख बंधी थी जिसके कारण वे अपनी बाहें मोड़ नहीं सकते थे. जब उनका अनेक व्यंजनों वाला भोजन उनके सामने रखा जाता वे अपने अपने हाथों में ग्रास लेकर अपने-अपने मुंह में डालने का प्रयास करते किन्तु कुहनियों पर बंधी शलाखों के कारण उनके ग्रास मुंह में न जाकर इधर-उधर बिखर जाते. थोड़े से प्रयासों में ही भोजन समाप्त हो जाता और वे सब भूखे ही रह जाते......"

यही कथा सच्चाई है आज के भारत के लोगों की जिन्हें स्वतंत्रता, लोकतंत्र और मताधिकार प्रदान किये गए हैं और जो उनके दास-संस्कारीय बंधनों के कारण उनके उपयोग में नहीं आकर उपरोक्त कैदियों के भोजन की तरह व्यर्थ जा रहे हैं और वे उसी प्रकार के शोषण और दमन का शिकार हो रहे हैं जैसे कि मुग़ल तथा अँगरेज़ शासनों में हो रहे थे.

"उपरोक्त कथा में आगे चलकर एक देव कारागार में आया और उसने उन सब कैदियों को एक मंत्र दिया. मंत्र का उपयोग करने से उनका भोजन व्यथ न जाकर उनकी उदर-पूर्ति करने लगा और वे खुशहाल हो गए, जबकि उनकी कोहनियों पर बंधी शलाखें यथावत बंधीं थीं."

आज भारतवासियों को एक ऐसे ही मंत्र कि आवश्यकता है ताकि उनके इतिहास-जनित संस्कारों के रहते हुए भी वे अपनी स्वतंत्रता, लोकतंत्र और मताधिकार का सदुपयोग कर सकें और खुशहाल जीवन जी सकें. आइये देखें क्या था वह देव-दत्त मंत्र जिसके उपयोग से कैदी अपने भोजन का सदुपयोग कर सके.

पिताजी ने आगे बताया था, "देव ने उनसे कहा कि वे अपने हाथों से भोजन ग्रासों  को अपने-अपने मुख में ले जाने का प्रयास न करके एक दूसरे के मुख में डालें, जिसमें उन्हें कोई कठिनाई नहीं होगी. केवल आवश्यकता होगी आपसी सहयोग और विश्वास की."

कथा का यह मंत्र सार्वभौमिक और सार्वकालिक है किन्तु आज भारतवासियों को केवल परस्पर सहयोग एवं विश्वास ही पर्याप्त नहीं है, उनकी आवश्यकता है एक ऐसे शासन तंत्र की जिसका दुरूपयोग न हो सके तथा जो लोगों को उनकी मौलिक आवश्यकताओं - स्वास्थ, शिक्षा और न्याय के साथ-साथ सम्मानपूर्वक जीवन यापन का अवसर प्रदान कर सके.

लोगों का पेट केवल स्वतंत्रता, लोकतंत्र और मताधिकार से नहीं भर सकता, न ही इनके दुरूपयोग से उनको सम्मान प्राप्त होता है. हाँ, इनसे वे भ्रमित अवश्य रहते हैं की उन्हें एक अनोखा ऐसा अधिकार मिला है जो पहले कभी नहीं मिला था. लोग स्वयं यह नहीं जानते की उन्हें वास्तव में क्या चाहिए ताकि वे एक संपन्न जीवन जी सकें. इसके लिए आवश्यकता है की देश का बौद्धिक वर्ग उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कोई मन्त्र आविष्कृत करे और उन्हें प्रदान करे.

इस संलेख के अधिष्ठाता ने इस विषय पर लगभग २० वर्ष गहन अध्ययन एवं चिंतन किया है जिसका परिणाम है एक नविन शासन प्रणाली 'बौद्धिक लोकतंत्र' जो वर्त्तमान लोकतंत्र से बहुत अधिक भिन्न नहीं है किन्तु जिसके माध्यम से देश का शासन देश के बौद्धिक वर्ग के हाथों में चला जायेगा जो लोगों को खुशहाली प्रदान कर सकेंगे.

इस संलेख की श्रंखलाओं में इसी नवीन शासन प्रणाली को उद्घाटित किया जायेगा ताकि देश का प्रबुद्ध वर्ग उसपर विचार कर सके, आवश्यकतानुसार उसमें संशोधन कर सके तथा देश पर उसे लागू कर सके.

गुरुवार, 17 दिसंबर 2009

अकादेमी की महत्वपूर्ण देने

अफलातून की अथेन्स में स्थापित अकादेमी की विश्व को सर्वाधिक विनाशकारी देनें ईश्वर, धर्म और अध्यात्म हैं. ईश्वर के नाम से मनुष्यों को भयभीत किया जाता है, धर्म उनकी बुद्धि को सुषुप्त  करता है तथा अध्यात्म उन्हें एक अनंत परिनामविहीन यात्रा पर बने रहने को उत्साहित करता है. इन के माद्यम से चतुर लोग जान-साधारण पर सरलता से अपना शासन बनाए रखते हैं. ये सभी पूरी तरह सारहीन हैं तथा मनुष्यों पर केवल मनोवैज्ञानिक प्रभाव बनाये रखती हैं. लम्बे समय तक चलते रहने से ये जान-मानस को एक विकृत संस्कृति के रूप में जकड लेती हैं जिससे इनसे पीछा छुड़ाना सरल नहीं होता. अकादेमी ने इन पर शोध किये और विश्व मानवता को गुलाम बनाने हेतु इनको विकसित किया.

यहाँ यह स्पष्ट करना प्रासंगिक है कि धर्म उस समय वेदों में प्रयोग किया गया लातिन भाषा का शब्द है जिसका अर्थ 'सोना' या 'सुलाना' है. अकादेमी में इस शब्द का अर्थ बदला और इसे मनुष्यों कि जीवन-चर्या में ईश्वर का प्रासंगिक बना दिया किन्तु इसका प्रभावी अर्थ वही रखा अर्थात ईश्वर के प्रसंग से धर्म द्वारा मनुष्यों कि बुद्धि को सुषुप्त करना. अफलातून तथा अरस्तु दोनों भारत निर्माण प्रक्रिया से प्रभावित थे और इसे अपने अधिकार में लेने को लालायित थे. वस्तुतः ईश्वर, धर्म तथा अध्यात्म जैसे झूठी मान्यताएं विकसित करने के पीछे उनका लक्ष्य भारत पर अधिकार करना था.


इन शोध परिणामों को कार्यान्वित करने की दिशा में सर्व प्रथम यहूदी धर्म बनाया गया. इसके अनुनायियों का एक विशाल दल भारत में धर्म का प्रसार करने हेतु भेजा गया. यही दल अपने साथ गाय और गन्ना लेकर आया जिनको भारत भूमि पर विकसित किया गया. यह भारत में यदु वंश का आगमन था. यदु वंश का प्रथम मुख्यालय दक्षिण भारत के मदुरै में बनाया गया जिसका तत्कालीन नाम मथुरा था. वेबस्टर dictionary  के अनुसार आज के मथुरा का तत्कालीन नाम मूत्र था. इस दल के अनुयायी जान-समुदायों में साधुओं के रूप में स्थापित हो गए और ईश्वर, धर्म और अध्यात्म का प्रचार प्रसार करने लगे.
जब ईश्वर का भय और धर्म का सुषुप्ति प्रभाव लोगों को भ्रमित करने लगा तो विकास कार्य में लगे देवों ने इनका विरोध करना आरम्भ किया जिससे देवों तथा यदुओं में संघर्ष कि स्थिति उत्पन्न हो गयी.

अकादेमी ने उक्त संघर्ष में यदुओं कि सहायता के लिए आगे शोध किये और एक गर्भवती यदु स्त्री यशोदा के गर्भ से मूल भ्रूण निकालकर एक अन्य भ्रूण को बैंगनी वर्ण में रंग कर स्थापित कर दिया जिसके परिणाम-स्वरुप बैंगनी वर्ण का कृष्ण उत्पन्न हुआ. इस विशिष्ट रंग के शिशु को ईश्वर का अवतार घोषित कर जोरों से इसका प्रचार प्रसार किया गया. अकादेमी के विशेषज्ञों का एक दल आज के श्रीलंका द्वीप पर ठहरा और कृष्ण को छल-कपट तथा बाजीगरी कि कलाओं में प्रशिक्षित करने लगा. इन कलाओं के माध्यम से जन-साधारण में कृष्ण को ईश्वर के अवतार के रूप में सिद्ध करना सरल हो गया. गोवर्धन पर्वत का उठाना, शेष-नाग को वशीभूत करना आदि इन्ही बाजीगरी कलाओं के रूप थे जिनके माध्यम से जन-साधारण को कृष्ण कि अद्भुत क्षमताओं से प्रभावित किया गया.

जैसे-जैसे कृष्ण बड़ा होता गया, उसका ईश्वरीय आतंक देवों के विरुद्ध विकराल रूप धारण करता गया जिसमें उसे जन-साधारण का समर्थन भी प्राप्त हो रहा था. छल-कपटों तथा बाजीगरी कलाओं से देवों को मन-गढ़ंत कहानियों के प्रचार-प्रसार से बदनाम किया जाने लगा तथा उनकी एक-एक करके हत्याएं की जाने लगीं जिनमे कंस, कीचक, जरासंध, रक्तबीज आदि प्रमुख थे.

यहाँ यह स्पष्ट करना भी आवश्यक है कि धर्मावलम्बियों ने कोई ग्रन्थ नहीं लिखा केवल देव ग्रंथों के गलत अनुवाद करके उनमे ईश्वर, धर्म, अध्यात्म, कृष्ण आदि विषयों को आरोपित किया. इस कार्य में शंकराचार्य ने विशेष भूमिका निभायी क्योंकि उस समूह में वही एकमात्र शिक्षित व्यक्ति था. गलत अनुवादों को पुष्ट करने के लिए वेदों तथा शास्त्रों में प्रयुक्त लातिन एवं ग्रीक शब्दावली के अर्थ बदले गए और नए अर्थों को पुष्ट करने के लिए आधुनिक संस्कृत भाषा बनाई जिसका वेदों तथा शास्त्रों की भाषा से कोई सम्बन्ध नहीं है. इन दोषपूर्ण अनुवादों के कारण ही जन-मानस में कृष्ण आज तक भगवन के रूप में स्थापित है.    

बुधवार, 16 दिसंबर 2009

अफलातूनी कारनामा

आपने पढ़ा कि एक्रोपोलिस पर फिलिप ने आक्रमण कर नगर वासियों को वहां से खदेड़ उस पर अधिकार कर लिया. कैसे हुआ यह सब संपन्न, इस बारे में यहाँ पढ़िए.



उच्च कोटि के विद्वानों में सदैव यह कमी रही है कि उन्हें कोई भी सरलता से ठग सकता है. ऐसा ही हुआ सुकरात महोदय के साथ. अफलातून, जिसे अंग्रेजी में प्लेटो कहा जाता है, उनका शिष्य बन गया और नगर में अकादेमी नामक अपना स्कूल खोल लिया. इस स्कूल में खादिम तैयार किये जाते थे जो अफलातून के दिशा निर्देशों के अनुसार जान-समुदायों को भ्रमित करते थे. अकादेमी में ऐसे भ्रमों को जन्म देने और प्रसारित करने पर शोध किये जाते थे जिनके विवरण अगले अध्याय में दिए जायेंगे. 


अफलातून  बहुत महत्वाकांक्षी था और विश्व पर अपना शासन स्थापित करना चाहता था जिसका आरम्भ उसने अथेन्स से किया. अथेन्स की  जनतांत्रिक व्यवस्था का वह घोर विरोधी था और शासन का अधिकार केवल संभ्रांत लोगों को देना चाहता था. यहाँ रहते हुए उसने नगर राज्य के बारे में जानकारियाँ एकत्र  कीं और उनके आधार पर नगर पर आक्रमण करा उसे अपने अधिकार में लेने की योजना बनाई. इसके लिए उसने दोर्रिस नगर के जंगली शासक फिलिप को नगर पर आक्रमण के लिए आमंत्रित किया. इस आमंत्रण और तदनुसार ईसापूर्व ३३८ में आक्रमण द्वारा अच्रोपोल्स को पराजित किया गया जिसके कारण वे भारत पहुंचे. अफलातून ने ही अपने गुरु सुकरात - अंग्रेजी नाम सोक्रेटेस, शास्त्रीय नाम शुक्राचार्य - को विषपान करवाया.

अफलातून का एक विश्वसनीय शिष्य अरस्तु - अंग्रेजी नाम अरिस्तोतले - था. उधर फिलिप का एक पुत्र था जिसका नाम था सिकंदर - अंग्रेजी नाम अलेक्सान्दर. प्लेटो कि मृत्यु के बाद अरस्तु १३ वर्षीय सिकंदर का शिक्षक नियुक्त किया गया जिससे कि उसे बचपन से ही विश्व पर आक्रमण करने के लिए प्रशिक्षित किया जा सके. इसके लिए उसे बुद्धिहीन किन्तु परम शक्तिशाली बनाया गया. वह पूरी तरह अरस्तु पर निर्भर करता था तथा उसके आज्ञाकारी बना रहता था. अरस्तु तथा सिकंदर ने ईसापूर्व ३२६ में अपना विश्व अभियान आरम्भ किया और अफ्रीका तथा एशिया के देशों को पराजित करता हुआ ईसापूर्व ३२३ में भारत पर आक्रमण के लिए पहुंचा.


इस आक्रमण से पूर्व भारत को निर्बल करने के लिए अफलातून तथा अरस्तु  ने अकादेमी के माध्यम से क्या क्या किया इसे पढ़िए अगले खंड में.



मंगलवार, 15 दिसंबर 2009

भारत निर्माण का आरम्भ

इस संलेख के कथानकों का काल यह मानकर निर्धारित किया गया है कि सिकंदर का भारत पर आक्रमण ३२३ ईसापूर्व में हुआ जिसे आज विश्व स्तर पर सत्य माना जाता है.

अब से लगभग २,35० वर्ष पहले आज थाईलैंड कही जाने वाली भूमि पर एक परिवार था 'पुरु' नाम का. इस परिवार के तीन पुत्रों - ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश्वर ने आज के विएतनाम से अफगानिस्तान तक कि भूमि पर एक देश के निर्माण कि ठानी जो तब छुटपुट जंगली बस्तियों के अतिरिक्त जंगलों से भरी थी. हिमालय से सागर तक बहने वाली नदियाँ क्षेत्र को हरा-भरा रखने के लिए पर्याप्त जल प्रदान कर रही थीं और मानव बस्तियों के लिए अनुकूल जलवायु एवं पर्यावरण प्रदान कर रही थीं.

पुरु परिवार शिक्षित था और अपने क्षेत्र में सभ्यता का विकास करने में लगा था. अपने अनुभवों को भावी पीढ़ियों के लिए लिखते रहना इसकी परंपरा थी. इसी आलेखन को बाद में वेदों का नाम दिया गया. भारत कि मुख्य भूमि पर आकर इस परिवार ने एक नयी भाषा का विकास आरम्भ किया जिसे 'देवनागरी' नाम दिया गया. उस समय भाषा तथा लिपि एक ही नाम से जानी जाती थीं. इसके बाद वेदों को भी इसी भाषा में लिखा गया. यहीं इस परिवार का सम्बन्ध स्थानीय व्यक्ति 'विश्वामित्र' से बना जो भ्रमणकारी थे और जनसेवा उनका व्रत था.

तीनों भाइयों में सबसे बड़े महेश्वर थे जो एक विशालकाय योद्धा थे इसलिए क्षेत्र कि रक्षा का दायित्व इन्हें सोंपा गया. ब्रह्मा सृजन कार्य करते थे और मानवोपयोगी घर, बर्तन तथा अन्य वस्तुएं बनाने में लगे रहते थे. इनका स्वभाव अत्यधिक सौम्य था तथा लोगों के दुःख दर्दों को दूर करने का प्रयास करते थे जिसके कारन सर्वाधिक लोकप्रिय थे. स्वभाव में साम्यता के कारण विश्वामित्र इनके घनिष्ठ मित्र बन गए. विष्णु बुद्धिवादी थे और परिस्थिति तथा समयानुकूल योजना बनाने में लगे रहते थे. तीनो समाज को देने में लगे रहने के कारण लोग इन्हें 'देव' कहते थे.

उधर आज इजराएल कहे जाने वाले क्षेत्र पर एक बाहरी जंगली जाति ने अपना शाषन स्थापित कर लिया था जिससे स्थानीय जनता दुखी थी जिसके आक्रोश का स्वर एक स्थानीय किशोर 'क्रिस्तोफेर' ने बुलंद करना आरम्भ किया. इस आक्रोश के दमन के लिए क्रिस्तोफेर पर अवैध संतान होने का आरोप लगाकर उसे क्रॉस पर यातना देते हुए मृत्यु दण्ड का प्रयास किया गया. हताहत किशोर के शरीर का औषधीय लेपन से गुप्त रूप में उपचार किया गया जिससे बालक कि जान बच गयी. इस किशोर की बड़ी बहिन मरियम उसे साथ लेकर गुप्त रूप से भारत आ गयी और देवों के साथ इस नव निर्माण कार्य में जुट गयी. गुप्त रहने के लिए भाई-बहिन नौका परिचालन का कार्य करते थे. क्रिस्तोफेर विष्णु के परम मित्र और सहयोगी बने.

उसी समय ग्रीस के अथेन्स नगर में एक सभ्यता का विकास किया जा रहा था जिसके अंतर्गत नगर में विश्व की प्रथम जनतांत्रिक शाषन व्यवस्ता स्थापित की गयी. इस नगर राज्य को एक्रोपोलिस कहा जाता था जो चरों और से जंगली जातियों से घिरा था. मसदोनिया के जंगली शाषक फिलिप ने नगर राज्य पर आक्रमण किया और सभ्य नागरिकों को वहां से खदेड़ दिया. इनके शीर्ष विद्वान् सुकरात को विषपान करा मृत्युदंड दे दिया गया. नगर के लोग छिपकर भागते हुए भारत पहुंचे और देवों में मिल गए. इन्होने भारत में आगरा और आसपास के क्षेत्रों को विकसित किया. यहाँ ये लोग अक्रोपोल होने के कारण अग्रवाल कहलाये.

इस प्रकार स्थानीय लोगों के साथ मिलकर एक बड़ा समूह भारत निर्माण के कार्य में जुट गया. नयी-नयी बस्तियां बनाने लगीं, भोजन के उत्पादन के लिए कृषि विकसित की जाने लगी.    

भारत निर्माण का आरम्भ

इस संलेख के कथानकों का काल यह मानकर निर्धारित किया गया है कि सिकंदर का भारत पर आक्रमण ३२३ ईसापूर्व में हुआ जिसे आज विश्व स्तर पर सत्य माना जाता है.

अब से लगभग २,35० वर्ष पहले आज थाईलैंड कही जाने वाली भूमि पर एक परिवार था 'पुरु' नाम का. इस परिवार के तीन पुत्रों - ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश्वर ने आज के विएतनाम से अफगानिस्तान तक कि भूमि पर एक देश के निर्माण कि ठानी जो तब छुटपुट जंगली बस्तियों के अतिरिक्त जंगलों से भरी थी. हिमालय से सागर तक बहने वाली नदियाँ क्षेत्र को हरा-भरा रखने के लिए पर्याप्त जल प्रदान कर रही थीं और मानव बस्तियों के लिए अनुकूल जलवायु एवं पर्यावरण प्रदान कर रही थीं.

पुरु परिवार शिक्षित था और अपने क्षेत्र में सभ्यता का विकास करने में लगा था. अपने अनुभवों को भावी पीढ़ियों के लिए लिखते रहना इसकी परंपरा थी. इसी आलेखन को बाद में वेदों का नाम दिया गया. भारत कि मुख्य भूमि पर आकर इस परिवार ने एक नयी भाषा का विकास आरम्भ किया जिसे 'देवनागरी' नाम दिया गया. उस समय भाषा तथा लिपि एक ही नाम से जानी जाती थीं. इसके बाद वेदों को भी इसी भाषा में लिखा गया. यहीं इस परिवार का सम्बन्ध स्थानीय व्यक्ति 'विश्वामित्र' से बना जो भ्रमणकारी थे और जनसेवा उनका व्रत था.

तीनों भाइयों में सबसे बड़े महेश्वर थे जो एक विशालकाय योद्धा थे इसलिए क्षेत्र कि रक्षा का दायित्व इन्हें सोंपा गया. ब्रह्मा सृजन कार्य करते थे और मानवोपयोगी घर, बर्तन तथा अन्य वस्तुएं बनाने में लगे रहते थे. इनका स्वभाव अत्यधिक सौम्य था तथा लोगों के दुःख दर्दों को दूर करने का प्रयास करते थे जिसके कारन सर्वाधिक लोकप्रिय थे. स्वभाव में साम्यता के कारण विश्वामित्र इनके घनिष्ठ मित्र बन गए. विष्णु बुद्धिवादी थे और परिस्थिति तथा समयानुकूल योजना बनाने में लगे रहते थे. तीनो समाज को देने में लगे रहने के कारण लोग इन्हें 'देव' कहते थे.

उधर आज इजराएल कहे जाने वाले क्षेत्र पर एक बाहरी जंगली जाति ने अपना शाषन स्थापित कर लिया था जिससे स्थानीय जनता दुखी थी जिसके आक्रोश का स्वर एक स्थानीय किशोर 'क्रिस्तोफेर' ने बुलंद करना आरम्भ किया. इस आक्रोश के दमन के लिए क्रिस्तोफेर पर अवैध संतान होने का आरोप लगाकर उसे क्रॉस पर यातना देते हुए मृत्यु दण्ड का प्रयास किया गया. हताहत किशोर के शरीर का औषधीय लेपन से गुप्त रूप में उपचार किया गया जिससे बालक कि जान बच गयी. इस किशोर की बड़ी बहिन मरियम उसे साथ लेकर गुप्त रूप से भारत आ गयी और देवों के साथ इस नव निर्माण कार्य में जुट गयी. गुप्त रहने के लिए भाई-बहिन नौका परिचालन का कार्य करते थे. क्रिस्तोफेर विष्णु के परम मित्र और सहयोगी बने.

उसी समय ग्रीस के अथेन्स नगर में एक सभ्यता का विकास किया जा रहा था जिसके अंतर्गत नगर में विश्व की प्रथम जनतांत्रिक शाषन व्यवस्ता स्थापित की गयी. इस नगर राज्य को एक्रोपोलिस कहा जाता था जो चरों और से जंगली जातियों से घिरा था. मसदोनिया के जंगली शाषक फिलिप ने नगर राज्य पर आक्रमण किया और सभ्य नागरिकों को वहां से खदेड़ दिया. इनके शीर्ष विद्वान् सुकरात को विषपान करा मृत्युदंड दे दिया गया. नगर के लोग छिपकर भागते हुए भारत पहुंचे और देवों में मिल गए. इन्होने भारत में आगरा और आसपास के क्षेत्रों को विकसित किया. यहाँ ये लोग अक्रोपोल होने के कारण अग्रवाल कहलाये.

इस प्रकार स्थानीय लोगों के साथ मिलकर एक बड़ा समूह भारत निर्माण के कार्य में जुट गया. नयी-नयी बस्तियां बनाने लगीं, भोजन के उत्पादन के लिए कृषि विकसित की जाने लगी.    

रविवार, 13 दिसंबर 2009

जनमानस : अंग्रेजी और भारतीय राज में

अब स्वतंत्र भारत के लोकतान्त्रिक राज में लोग कहने लगे हैं कि इससे तो अंग्रेजी राज ही अच्छा था. क्यों पनप रही है यह धारणा जबकि तब से अब तक लोगों के जीवन स्टार में भरी सुधार आया है?

विकास केवल भारत का ही नहीं हुआ है किन्तु यह प्रक्रिया विश्व स्तर पर हुई है. विकास एक सापेक्ष परिमाप है, तदनुसार यदि एक समाज दूसरे समाज से अधिक विकास करता है तो दूसरे समाज का पिछड़ना कहा जाएगा. इस दृष्टि से भारत विकास की दर में अनेक देशों से पिछड़ा है. अतः भारत का विकास या यहाँ के लोगों के जीवन स्तर में सुधार कोई अर्थ नहीं रखता. इसे एक प्राकृत प्रक्रिया के अंतर्गत स्वीकार लिया जाता है और इसका श्रेय किसी शाशन को नहीं दिया जा सकता. यहाँ तक की यह भी कहा जा सकता है की भारत के विकास की दर अपेक्षाकृत कम रही है जिसके लिए शाशन उत्तरदायी है.

वास्तविक विकास देश के सकल घरेलु उत्पाद से नहीं मापा जा सकता. इसकी सही परिमाप देश के निर्धनतम व्यक्ति के जीवन स्तर में सुधार से किया जाना चाहिए. आज भी भारत का निर्धनतम व्यक्ति लगभग उसी स्तर पर जीवन यापन कर रहा है जिस पर वह अंग्रेजी राज में करता था. अतः उसके लिए देश की स्वतंत्रता तथा इसके सकल घरेलु उत्पाद में वृद्धि कोई अर्थ नहीं रखती. इस दृष्टि से स्वतंत्र भारत के शाषन को असफल ही कहा जायेगा.

अंग्रेजी शाशन में देश की सम्पदा तथा लोगों का शाशकों द्वारा भरपूर शोषण किया जाता था. स्वतंत्रता के बाद इस शोषण में जो परिवर्तन आया है उसका प्रभाव केवल शाषक वर्ग पर पड़ा है जिसमे राजनेता तथा राज्यकर्मी सम्मिलित हैं. जनसाधारण तथा व्यवसायी वर्ग का शोषण उतना ही हो रहा है जितना अंग्रेजी राज में होता था. अतः इन वर्गों को शाषन परिवर्तन का कोई लाभ प्राप्त नहीं हुआ है. इस कारन से शाषन के प्रति इनकी भावना आज भी वैसी ही है जैसी अंग्रेजी शाषन के प्रति थी.

भारत में अँगरेज़ शाषक शोषण चाहे जितना भी करते रहे हों, वे अपनी रानी के प्रति निष्ठावान थे और इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि वे अनुशाषित थे. अंग्रेजी राज में जनसाधारण छल-कपट से दूर था. वह अपनी दयनीय निर्धन अवस्था में ईमानदारी के साथ परिश्रम करके अपना भरण-पोषण करता था. न्याय व्यवस्था ठीक थी, अपराधियों को दण्ड दिया जाता था और जनसाधारण सुरक्षित था.

स्वतंत्र भारत का शाषक वर्ग न तो किसी के प्रति निष्ठावान है और न ही अनुशाषित. छल-कपट और भ्रष्टाचार उनकी रग-रग में बसा है. इसका प्रभाव व्यापक रूप से जनमानस पर पड़ा है. आज जनमानस भी अपने नेताओं से प्रेरणा पाता हुआ भृष्ट और बेईमान हो गया है. सार्वजनिक सम्पदा कि चोरी आम बात हो गयी है जिसका कोई प्रतिकार शाशको के पास नहीं है क्योंकि वे सब भी यही कर रहे हैं. सामाजिक अपराधों में वृद्धि हुई है जिससे जनसाधारण असुरक्षित हो गया है. न्याय व्यवस्था चरमरा गयी है तथा अपराधी वर्ग ने राजनैतिक सत्ता हथिया ली है जिससे जनसाधारण असुरक्षा कि भावना से पीड़ित है. जनमानस में इस परिवर्तन के कारण ही अंग्रेजी राज को भारतीय राज से अच्छा कहा जाने लगा है.

शनिवार, 12 दिसंबर 2009

पृष्ठभूमि


मध्य प्रदेश के एक विचारक से टिप्पड़ी के माध्यम से अचानक परिचय हुआ और उनके विचार पढ़ने का संयोग हुआ. अपना नाम तो वे सही नहीं प्रकाशित करते किन्तु स्वयं को असुविधाजनक कहते हैं. बहुत अच्छा लिखते हैं - भाषा और ज्ञान दोनों दृष्टियों से. विश्व-संजोग (इन्टरनेट) पर हिंदी में ऐसा अच्छा आलेखन और कहीं देखने को नहीं मिला. उन्हीं से प्रेरणा पाकर इस नए जोगालेख (ब्लॉग) का आरम्भ किया है ताकि हिंदीभाषियों तक अपने विचार पहुंचा सकूं.


यों तो मैं अपने १२ अन्य जोगालेखों के माध्यम से विश्व समुदाय से सम्बद्ध हूँ तथापि हिंदी में जोगयेख का यह प्रथम प्रयास है, इसलिए कुछ भूलचूकें स्वाभाविक हैं जीसके लिए मैं पाठकों से अग्रिम क्षमा याचना करता हूँ. मुद्रण माध्यम से बहुत कुछ लिखा है और प्रकाशित किया है इसलिए हिंदी में लिखने में मुझे कोई कठिनाई नहीं है तथापि शब्दानुवाद के माध्यम से लिखने का यह प्रथम अवसर है.


मूलतः भारत की वर्त्तमान स्थिति से मैं बहुत दुखी हूँ जिसे व्यक्त करने के लिए लिखता हूँ. अपने इंजीनियरिंग व्यवसाय को लगभग १६ वर्ष पूर्व त्याग कर भारत के इतिहास और शास्त्रों का अध्ययन आरम्भ किया था जिससे पाया की भारत को गुप्त वंश के शासन से पूर्व तथा पश्चात अनेक प्रकारों से ठगा जाता रहा है जिनमें से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण ठगी लोगों को ईश्वर के भय से आक्रांत कर अध्यात्म, धर्म और सम्प्रदायों के माध्यम से की गयी है.


इन ठगियों का कारण केवल सामाजिक न होकर राजनैतिक रहा है. लोगों के मानस का पतन कर उन्हें बौद्धिक चिंतन से विमुख किया जाता रहा है और उनपर निरंकुश शाशन के माध्यम से उनका अमानवीय शोषण किया जाता रहा है. इसके परिणामस्वरूप देश पर चोर, ठग और डाकू अपना शाशन स्थापित करते चले आ रहे हैं.  यह स्थिति लगभग २,००० वर्षों से वर्त्तमान तक चल रही है और जनमानस अपना सर उठाने का साहस नहीं कर पा रहा है. छुटपुट व्यक्ति जो इस सतत दमन के विरुद्ध अपना स्वर उठाते रहें हैं उन्हें कुचला जाता रहा है.


स्वतंत्रता के बाद देश पर लोकतंत्र थोपा गया जबकि जनमानस इसके लिए परिपक्व नहीं था और न ही स्वतंत्र भारत की सरकारों ने जनता को स्वास्थ, शिक्षा और न्याय प्रदान कर उसे लोकतंत्र हेतु सुयोग्य बनाने का कोई प्रयास किया है. अतः २,००० वर्षों से चली आ रही गुलामी आज भी जारी है. देश में सुयोग्यता और बोद्धिकता का कोई सम्मान न होने के कारण बुद्धिवादी या तो देश से पलायन कर जाते हैं या दमनचक्र में पीस दिए जाते हैं.


इस सबसे दुखी होकर गाँव में रहता हूँ ताकि अनाचार से न्यूनतम सामना हो. यहीं से अपना अध्ययन और लेखन कार्य करता हूँ. जहां अवसर पाता हूँ अनाचार के विरुद्ध संघर्ष करता हूँ. किन्तु इस संघर्ष में स्वयं को अकेला ही खड़ा पता हूँ  क्योंकि जनमानस अभी भी संघर्ष करने को तैयार नहीं है.

पृष्ठभूमि


मध्य प्रदेश के एक विचारक से टिप्पड़ी के माध्यम से अचानक परिचय हुआ और उनके विचार पढ़ने का संयोग हुआ. अपना नाम तो वे सही नहीं प्रकाशित करते किन्तु स्वयं को असुविधाजनक कहते हैं. बहुत अच्छा लिखते हैं - भाषा और ज्ञान दोनों दृष्टियों से. विश्व-संजोग (इन्टरनेट) पर हिंदी में ऐसा अच्छा आलेखन और कहीं देखने को नहीं मिला. उन्हीं से प्रेरणा पाकर इस नए जोगालेख (ब्लॉग) का आरम्भ किया है ताकि हिंदीभाषियों तक अपने विचार पहुंचा सकूं.


यों तो मैं अपने १२ अन्य जोगालेखों के माध्यम से विश्व समुदाय से सम्बद्ध हूँ तथापि हिंदी में जोगयेख का यह प्रथम प्रयास है, इसलिए कुछ भूलचूकें स्वाभाविक हैं जीसके लिए मैं पाठकों से अग्रिम क्षमा याचना करता हूँ. मुद्रण माध्यम से बहुत कुछ लिखा है और प्रकाशित किया है इसलिए हिंदी में लिखने में मुझे कोई कठिनाई नहीं है तथापि शब्दानुवाद के माध्यम से लिखने का यह प्रथम अवसर है.


मूलतः भारत की वर्त्तमान स्थिति से मैं बहुत दुखी हूँ जिसे व्यक्त करने के लिए लिखता हूँ. अपने इंजीनियरिंग व्यवसाय को लगभग १६ वर्ष पूर्व त्याग कर भारत के इतिहास और शास्त्रों का अध्ययन आरम्भ किया था जिससे पाया की भारत को गुप्त वंश के शासन से पूर्व तथा पश्चात अनेक प्रकारों से ठगा जाता रहा है जिनमें से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण ठगी लोगों को ईश्वर के भय से आक्रांत कर अध्यात्म, धर्म और सम्प्रदायों के माध्यम से की गयी है.


इन ठगियों का कारण केवल सामाजिक न होकर राजनैतिक रहा है. लोगों के मानस का पतन कर उन्हें बौद्धिक चिंतन से विमुख किया जाता रहा है और उनपर निरंकुश शाशन के माध्यम से उनका अमानवीय शोषण किया जाता रहा है. इसके परिणामस्वरूप देश पर चोर, ठग और डाकू अपना शाशन स्थापित करते चले आ रहे हैं.  यह स्थिति लगभग २,००० वर्षों से वर्त्तमान तक चल रही है और जनमानस अपना सर उठाने का साहस नहीं कर पा रहा है. छुटपुट व्यक्ति जो इस सतत दमन के विरुद्ध अपना स्वर उठाते रहें हैं उन्हें कुचला जाता रहा है.


स्वतंत्रता के बाद देश पर लोकतंत्र थोपा गया जबकि जनमानस इसके लिए परिपक्व नहीं था और न ही स्वतंत्र भारत की सरकारों ने जनता को स्वास्थ, शिक्षा और न्याय प्रदान कर उसे लोकतंत्र हेतु सुयोग्य बनाने का कोई प्रयास किया है. अतः २,००० वर्षों से चली आ रही गुलामी आज भी जारी है. देश में सुयोग्यता और बोद्धिकता का कोई सम्मान न होने के कारण बुद्धिवादी या तो देश से पलायन कर जाते हैं या दमनचक्र में पीस दिए जाते हैं.


इस सबसे दुखी होकर गाँव में रहता हूँ ताकि अनाचार से न्यूनतम सामना हो. यहीं से अपना अध्ययन और लेखन कार्य करता हूँ. जहां अवसर पाता हूँ अनाचार के विरुद्ध संघर्ष करता हूँ. किन्तु इस संघर्ष में स्वयं को अकेला ही खड़ा पता हूँ  क्योंकि जनमानस अभी भी संघर्ष करने को तैयार नहीं है.