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गुरुवार, 25 फ़रवरी 2010

मस्तिष्क और मन का अंतर

सामान्यतः शब्द मस्तिष्क और मन एक दूसरे के पर्याय के रूप में उपयुक्त कर लिए जाते हैं, किन्तु वास्तव में ये पर्याय नहीं हैं. मस्तिष्क मन का एक अंग होता है ठीक उसी प्रकार हैसे मन शरीर का एक अंग होता है अथवा व्यक्ति समाज का एक अंग होता है.

मनुष्य की खोपड़ी के अन्दर स्थित मांस के बहु-अंगी लोथड़े को उसका मस्तिष्क कहा जाता है जिसके तीन प्रमुख कार्य होते हैं -
  • चिंतन - समस्याओं के समाधानों के प्रयास हेतु सोचना,
  • स्मृति - ज्ञानेन्द्रियों से सूचनाएं गृहण, भंडारण एवं आवश्यकतानुसार उनकी उपलब्धि कराना,
  • नियंत्रण - कर्मेन्द्रियों का यथावश्यकता संयमन. 
इस प्रकार इसे सकल शरीर का संचालन केंद्र कहा जा सकता है. इस संचालन में चिंतन की प्रमुख भूमिका होती है जिसके लिए स्मृति को पूर्व अनुभवों के रूप में उपयुक्त किया जाता है. 

मनुष्य के शरीर में अनेक गतिविधियों के संचालन हेतु स्वयं-सिद्ध अनेक तंत्र होते हैं, यथा - पाचन, रक्त प्रवाह, रक्त शोधन, रक्त संरचना, श्वसन, अनेक सूचना गृहण तंत्र जैसे आँख, कान, नासिका, आदि, अनेक क्रिया तंत्र जैसे हस्त, पाद, आदि. प्रत्येक तंत्र में उसके संचालन हेतु एक लघु-मस्तिष्क होता है जो शरीर के मुख्य मस्तिष्क से नाडियों  के संजोग से सम्बद्ध होता है. ये प्रायः ग्रंथियों के रूप में होते हैं. प्रत्येक लघु-मस्तिष्क अपने तंत्र की प्रत्येक कोशिका से नाडियों के माध्यम से सम्बद्ध होता है. इस प्रकार मनुष्य का मस्तिष्क लघु-नस्तिश्कों एवं नाडियों के माध्यम से सरीर की प्रत्येक कोशिका से सम्बद्ध होता है.

लघु-मस्तिष्क केवल नियंत्रण केंद्र होते हैं, चिंतन और स्मृति की क्षमता इनमें नहीं होती. इस नियंत्रण क्षमता में सम्बद्ध तंत्र की इच्छाओं एवं आवश्यकताओं के ज्ञान एवं तदनुसार उसके संचालन की क्षमता समाहित होती है जिसके लिए लघु-मस्तिष्क अपने विवेकानुसार मुख्य मस्तिष्क की यथावश्यकता सहायता एवं दिशा निर्देश प्राप्त करता है. इस प्रकार प्रत्येक लघु-मस्तिष्क मस्तिष्क के अंतर्गत एक स्वायत्त संस्थान के रूप में कार्य करता है. मनुष्य की इच्छाओं का उदय इन्ही लघु-मस्तिष्कों में होता है, किन्तु ये उनके औचत्य पर चिंतन करने में असमर्थ होते हैं. इसी बिंदु से मानव और महामानव का अंतर आरम्भ होता है.

मानव लघु-मस्तिष्कों को उनकी इच्छानुसार कार्य करने की अनुमति देते हैं और अपने मस्तिष्क को इस क्रिया में चिंतन करने का अवसर नहीं देते. इसलिए उनके शारीरिक तंत्रों की स्वतंत्र इच्छाएँ ही उनके कार्य-कलापों को नियंत्रित करती हैं - उनके औचित्यों पर चिंतन किये बिना. इस प्रकार मानवों में उनके विविध तंत्रों में उगी इच्छाएँ ही सर्वोपरि होती हैं.

महामानव लघु-मस्तिष्कों को स्वायत्त रूप में कार्य करने देते हैं, किन्तु अपनी पैनी दृष्टि उनपर रखते हैं, यथावश्यकता उनपर चिंतन करते हैं, एवं विवेकानुसार उनके क्रिया-कलापों का निर्धारण करते हैं. इन में मस्तिष्क शारीरिक गतिविधियों का प्रमुख नियंत्रक होता है, और चिंतन उसका प्रमुख धर्म.

सारांश रूप में महामानव की गतिविधियाँ चिंतन केन्द्रित होती हैं जबकि मानवों में चिंतन का अभाव होता है और उपयोग में न लिए जाने के कारण उनकी चिंतन क्षमता क्षीण होती जाती है. मानवों की गतिविधियाँ उनके अंग-प्रत्यंगों की इच्छाओं पर केन्द्रित होती हैं. इस प्रकार मानवों में मन तथा महामानवों में मस्तिष्क प्रधान होता है. मनुष्य जाति के वर्ण वितरण के मानव और महामानव दो चरम बिंदु होते हैं और प्रत्येक मनुष्य की स्थिति इन दो चरम बिन्दुओं के मध्य ही होती है.

रविवार, 21 फ़रवरी 2010

मानावोदय का विज्ञानं - मनोविज्ञान

मानावोदय का विज्ञानं - मनोविज्ञान पृथ्वी पर जीवन के उदय के साथ ही क्रियान्वित हो गया था, यद्यपि इसका भान मानवों को बहुत बाद में हुआ. मनुष्य, चाहे एकाकी चिंतन मग्न हो, चाहे भीड़ के कोलाहल में अपनी प्रतिष्ठा स्थापित कर रहा हो, वह सभी समय मनोवैज्ञानिक खेलों में रत रहता है, जो कभी पारस्परिक संग्राम होते हैं तो कभी पारस्परिक सहयोग.

मनोविज्ञान मन का विज्ञानं है जो सभी जीवों में अनिवार्य रूप से सक्रीय रहता है. किन्तु मानवों ने इसे समझा है और इसका सदुपयोग तथा दुरुयोग किया है. मन केवल मस्तिष्क नहीं होता और न ही इसे शरीर के किसी एक अंग में पाया जा सकता है. यह शरीर की प्रत्येक कोशिका में उपस्थित चेतनात्मक अवयवों की समष्टि होता है जो मनुष्य का सम्बन्ध समस्त जगत से स्थापित करता है. कभी उसके समक्ष समर्पित होता है तो कभी उसे समर्पण पर विवश करता है. मन ही मनुष्य के शरीर को स्वस्थ रखता है अथवा इसे रुग्ण बनाता है.

मन का संचालन केंद्र मनुष्य का मस्तिष्क होता है जो समस्त शरीर में फैले अत्यंत विस्तृत नाडीतंत्र के माद्यम से मन को संचालित करता है.वस्तुतः मन मस्तिष्क और नाडीतंत्र की समष्टि ही है, इसलिए इसे स्वसंचालित भी कहा जा सकता है. 

कुछ मानव-विकसित विद्याओं जैसे वशीकरण, परमन-पठन, आदि की प्रभाविता से सिद्ध होता है कि प्रत्येक जीव का मन एक सार्वभौमिक माद्यम से अन्य जीवों के मनों से विना किसी संवाद के परस्पर सम्बन्ध स्थापित कर सकता हैं. मनोविज्ञान का बहुलांश इसी प्रकार के दूरस्थ सम्बन्ध स्थापन का अध्ययन करता है और वस्तुतः इसी हेतु लक्षित होता है.

मनुष्य में मन का यदी होना ही उसे सशक्त एवं महान बनाता है. इसी प्रक्रिया को महामानव का उदय होना कहते हैं. श्री अरविन्द के मतानुसार साधारण मानव ही महामानव बनाने की संभावना रखते हैं और ये उसी प्रकार बनाते हैं जैसे कभी वनमानुष से मनुष्य बना तथापि कुछ वनमानुष यथावत भी रह गए. इस प्रकार, महामानवों की उत्पत्ति पर भी साधारण मानव समाप्त नहीं होते, अर्थात महामानव मोनावों के मध्य से ही उगते हैं.

महामानव प्राकृत एवं सतत कार्यरत उदयन प्रक्रिया के उत्पाद होते हैं, जिनका सोचने एवं कार्य करने के तौर-तरीके साधारण मानवों से भिन्न होते हैं और उनकी उपस्थिति मानव समाज को एक नै दिशा देती है. इन्हें समाज के पथप्रदर्शक भी कहा जाता है. किन्तु सभी पथप्रदर्शक महामानव नहीं होते. कुछ मानव छल-कपट, शक्ति और अधिकार के माध्यम से समाज के पथ प्रदर्शक बन बैठते हैं, वस्तुतः ये समाज को पथ भृष्ट ही करते हैं. किन्तु शक्ति और अधिकार के कारण अग्रणी बने इन मानवों में विशिष्टता का बोध होने लगता है. अतः, महामानवों की पहचान यह है कि वे बिना किसी बाह्य शक्ति एवं अधिकार के समाज में सकारात्मक परिवर्तन की लहर उत्पन्न करते हैंऔर उनका प्रभाव दीर्घकालिक होता है. प्रायः ये अपने जीवन काल में महामानव के रूप में पहचाने भी नहीं जाते. कुछ साधारण पहचानों के रूप में ये दीर्घायु होते हैं और समाज में अपना स्थान अपने सत्कर्मों से बनाते हैं जिन्हें दीर्घ काल तक याद किया जाता है. यही इनका अमरत्व होता है. प्राचीन काल में सुकरात, ब्रह्मा (राम), विष्णु (लक्ष्मण), विश्वामित्र, आदि कुछ महामानव रहे हैं.        .