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शनिवार, 3 अगस्त 2013

संतुलित ज्ञान का उपयोग ही बुद्धिमत्ता

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बुधवार, 11 अगस्त 2010

मन और मस्तिष्क का संघर्ष

मनुष्य जो भी करता है उसके पीछे उसके मन अथवा मस्तिष्क का मार्गदर्शन होता है. मन शारीरिक इच्छाओं और आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उत्प्रेरित करता है, तथा इसमें उचितानुचित पर चिंतन करने की सामर्थ्य नहीं होती. मनुष्य के मस्तिष्क में उसके भूतकाल के अनुभवों की स्मृतियाँ तथा उनके उपयोग की सामर्थ्य होती है जिससे वह उचितानुचित पर चिंतन कर अपने कार्य करता है. उचितानुचित के चिंतन की सामर्थ्य ही मनुष्य का विवेक कहलाता है.

शरीर से कार्यों हेतु सञ्चालन की सामर्थ्य भी मस्तिष्क में ही होती है अतः कार्य चाहे मन के मार्गदर्शन में हो अथवा मस्तिष्क के, मस्तिष्क शरीर के सञ्चालन हेतु सदैव सक्रिय रहता है. इस प्रकार कहा जा सकता है कि मनुष्य का मन भी मस्तिष्क के माध्यम से कार्य कराता है जिसमें मनुष्य के विवेक का सक्रिय होना आवश्यक नहीं होता. किसी कार्य में विवेक की निष्क्रियता का एक बड़ा कारण यह होता है कि विवेक की क्रियाशीलता में कुछ समय लगना अपेक्षित होता है. इसलिए शरीर को जब किसी क्रिया की तुरंत आवश्यकता होती है तो वह विवेक की क्रियाशीलता की प्रतीक्षा किये बिना ही शरीर को सक्रिय कर देता है. मन के मार्गदर्शन के अनुसार कार्य करने का एक अन्य कारण शरीर की इच्छा की प्रबलता होती है. इस स्थिति में भी मनुष्य का विवेक सक्रिय नहीं होता.

चिंतन करना मनुष्य के अभ्यास पर भी निर्भर करता है. जो मनुष्य अधिकाँश समय चिंतन करते हैं उनका मस्तिष्क प्रायः सक्रिय रहता है जो मन पर अपना नियंत्रण बनाए रखता है. इस कारण से बुद्धिजीवी अपने सभी कार्य विवेक के अनुसार करते हैं, जब कि श्रमजीवी विवेक का यदा-कदा ही उपयोग करते हैं. इन दो वर्गों के मध्यवर्ती लोग कभी मन के तो कभी विवेक के मार्गदर्शन में कार्य करते हैं. इसके कारण उनके मन और मस्तिष्क में प्रायः संघर्ष की स्थिति बनी रहती है.

मनुष्य के शरीर की आवश्यकताएं यथा भूख, प्यास, काम, आदि प्राकृत होती हैं उन्हें समाप्त नहीं किया जा सकता किन्तु इनकी आपूर्ति के माध्यम भिन्न हो सकते हैं. ये आवश्यकताएं सभी जीवधारियों में होती हैं और यही उनके जावन का लक्ष्य भी होती हैं  यदि मनुष्य अपना जीवन इन्ही की आपूर्ति तक सीमित कर देता है तो पशुतुल्य ही होता है. मनुष्यता पशुता से बहुत आगे है - अपनी चिंतन शक्ति, बुद्धि और संस्कारों के कारण. व्यक्ति के संस्कार उसके व्यवहार को संचालित करते हैं जो अच्छे अथवा बुरे दोनों प्रकार के हो सकते हैं. उसकी चिंतन शक्ति उसके जीवन की समस्याओं के निवारण के लिए महत्वपूर्ण होती है तथा उसकी बुद्धि मानव सभ्यता को और आगे ले जाने में उपयोग की जाती है. व्यक्ति द्वारा अपनी बुद्धि और चिंतन शक्ति के उक्त सदुपयोगों के अतिरिक्त व्यक्ति इनका दुरूपयोग भी कर सकता है.
Sacraments in Scripture

मनुष्य का मस्तिष्क बहुत अधिक विकसित होता है जिसमें अथाह स्मृति, चिंतन शक्ति और बुद्धि का समावेश होता है, इसके सापेक्ष अन्य जीवों के मस्तिष्क उनके मन को समर्थन प्रदान करने के लिए ही होते हैं और अधिकाँश में बुद्धि और चिंतन शक्ति का अभाव होता है. इसके कारण मनुष्य ही पृथ्वी का सर्वश्रेष्ठ जीव है, और इसकी विशिष्ट पहचान है - मन और मस्तिष्क का सतत संघर्ष, जिसमें मस्तिष्क प्रायः विजयी रहता है. यही मानव सभ्यता के विकास का मार्ग है.

मंगलवार, 22 जून 2010

अवचेतन, चेतन और अधिचेतन मन

प्रत्येक जीव के मन का सम्बन्ध सीधे उसके शरीर के अंग-प्रत्यंग से होता है. यह सम्बन्ध शरीर और मस्तिष्क के सम्बन्ध से भिन्न है क्योंकि मन और मस्तिष्क एक दूसरे से भिन्न होते हैं. मन शरीर का प्रतिनिधित्व करता है और चिंतन में असमर्थ होता है जबकि मस्तिष्क मनुष्य की स्मृति एवं चिंतन सामर्थ्यों का समन्वय होता है. इस कारण से व्यक्ति जो भी दोष करता है, वह अपने मन के अधीन होकर ही करता है.
मन तीन स्तरों पर कार्य करता है - अवचेतन, चेतन और अधिचेतन. अवचेतन मन शरीर की अनिवार्य क्रिया-प्रतिक्रियाओं का सञ्चालन एवं नियमन करता है जिसके लिए उसे मस्तिष्क की कोई आवश्यकता नहीं होती. इसी कारण से इस स्तर पर मन तीव्रतम गति पर कार्य करता है, जिनके लिए यह मूल रूप से प्रोग्रामित होता है. तथापि इन प्रोग्रामों में संशोधन किये जा सकते हैं, मन के चेतन स्तर द्वारा. शरीर की आतंरिक क्रियान के अतिरिक्त बाह्य रूप में व्यक्ति की अंतर्चेतानाएं (इंस्टिंक्ट), आदतें, आदि मन के इसी स्तर से संचालित होती हैं.
चेतन मन व्यक्ति के बाह्य जगत से सम्बन्ध रखता है और उसकी स्मृति और चिंतन सामर्थ (बुद्धि) का उपयोग करते हुए उसके जागतिक व्यवहार का संचालन करता है. चूंकि इस व्यवहार में मन और बुद्धि का समन्वय होता है, इसलिए इसके सञ्चालन में विलम्ब होता है. यदा-कदा मनुष्य इस समन्वय के विना ही अपनी आदत के अनुसार अपने अवचेतन मन के आदेश पर तुरंत जागतिक व्यवहार भी कर बैठता है जो बुद्धि के अभाव के कारण संतुलित नहीं हो पाता.
Super Consciousness: The Quest for the Peak Experience

व्यक्ति के अवचेतन और चेतन मन ही उसके यथार्थ होते हैं, उसके अधिचेतन मन का उसके यथार्थ से कोई सम्बन्ध नहीं होता किन्तु उसका व्यवहार उसकी किसी कल्पना पर आधारित होता है. यह कल्पना कभी उसके अवचेतन मन को आच्छादित करती है तो कभी उसके चेतन मन को. इसके अधीन व्यक्ति का व्यवहार असामान्य हो जाता है. प्रायः देखा जाता है कि व्यक्ति स्वयं को अपने यथार्थ के अतिरिक्त कुछ अन्य समझने लगता है और उसी प्रकार व्यवहार करने लगता है. स्वयं को दिव्य शक्तियों से संपन्न माँ लेना, भूत-प्रेतों के प्रभाव को स्वीकार कर लेना, किसी अन्य व्यक्ति के वशीभूत हो जाना, आदि के अंतर्गत व्यवहार व्यक्ति के अधिचेतन मन द्वारा ही संचालित होते हैं जो उसके यथार्थ को आच्छादित रखता है. इसी कारण से ऐसे प्रभाव सीमित समय के लिए ही होते हैं. व्यक्ति का यथार्थ प्रकट होते ही उसकी कल्पना तिरोहित हो जाती है. अध्यात्मवाद का प्रचार-प्रसार भी अदिचेतन मन के माध्यम से किया जाता है, जो वस्तुतः सभी यथार्थ से परे एवं पूर्णतः काल्पनिक होता है. इसका मनुष्य की बुद्धि से भी कोई सम्बन्ध नहीं होता.

सोमवार, 5 अप्रैल 2010

भाग्य और लक्ष्य

अंग्रेज़ी के दो शब्द हैं 'फेट' और 'डेस्टिनी' जिन्हें प्रायः पर्याय के रूप में उपयोग किया जाता है. किन्तु इन दोनों में उतना ही विशाल अंतर है जितना एक साधारण मानव और महामानव में होता है. ये दोनों भी एक जैसे ही दिखते हैं. फेट शब्द लैटिन भाषा के शब्द fatum से बना है तथा इसी से बना है अंग्रेज़ी शब्द फेटल अर्थात हिंदी में 'घातक'. स्पष्ट है भाग्य की परिकल्पना ही मानवता के लिए घातक है.

डेस्टिनी शब्द से ही उदय हुआ है अंग्रेज़ी शब्द 'डेस्टिनेशन' जो स्वयं निर्धारित नहीं होता, इसे मनुष्य द्वारा निर्धारित किया जाता है, जबकि फेट स्वयमेव निर्धारित कहा जाता है. इस प्रकार दोनों शब्दों के भावों में विशाल अंतराल है. हमारी भाषा देवनागरी में इन अंग्रेज़ी शब्दों के समतुल्य शब्द 'भाग्य' तथा 'लक्ष्य' हैं.
Fate and Destiny

आत्मविश्वास और स्वाभिमान के अभाव में व्यक्ति अपना लक्ष्य निर्धारित नहीं करता, उसे चाहिए सदैव एक आश्रयदाता जो उसका भाग्य निर्धारित करता रहे. किन्तु इन दो सद्गुणों से संपन्न व्यक्ति अपना लक्ष्य स्वयं निर्धारित करता है और उस की ओर बढ़ता जाता है. कहते हैं भाग्य इश्वर द्वारा निर्धारित किया जाता है जिसकी संकल्पना भी मनुष्य द्वारा ही की गयी है, और मनुष्य ही इस संकल्पना को जीवंत बनाये हुए हैं..इसका अर्थ यह हुआ कि भाग्य पर आश्रित मनुष्य के भाग्य का निर्धारक भी कोई अन्य मनुष्य ही होता है. जिस मनुष्य का भविष्य कोई अन्य मनुष्य अथवा उसके द्वारा कल्पित ईश्वर करे, वह दूसरे मनुष्य के अधीन सिद्ध हुआ - स्वयं अपने पैरों पर खड़ा होने में असमर्थ. ऐसा मनुष्य जंगली जंतुओं से भी क्षुद्र है. वह स्वयं की इश्वर में आस्था के माध्यम से दूसरे व्यक्तियों को अपना आश्रयदाता स्वीकार करता है, जबकि जंगली जंतु स्वतंत्र होते हैं.

मनुष्य की सबसे अधिक महत्वपूर्ण संपदा उसकी बुद्धि होती है जो उसकी स्मृति में संचित अनुभवों का विश्लेषण एवं सदुपयोग करते हुए लक्ष्य की ओर आगे बढ़ने का मार्ग प्रशस्त करती है. बुद्धि लगभग सभी व्यक्तियों के पास होती है किन्तु सभी उसका भरपूर उपयोग नहीं करते. इस उपयोग के परिमाण में अंतराक से ही अंतर-मानव अंतराल उत्पन्न होते हैं. बुद्धि के उपयोग को उसका भाग्य पर विस्वास दुष्प्रभावित करता है. जो व्यक्ति सदैव अपनी बुद्धि पर निर्भर करता है, उसे भाग्य अथवा ईश्वरीय सकल्पना पर निर्भर होने की कोई आवश्यकता नहीं होती. ऐसा व्यक्ति ही महामानव बनने की संभावना रखता हैं.

अतः ईश्वरीय संकल्पना पर आश्रित भाग्य पर आस्था मनुष्य को साधारण मानव पथ का अनुसरण करने से भी भटकाती है. जबकि उसकी बुद्धि उसे स्वतंत्र बने रहने में सक्षम बनाती है किन्तु वह उसका कोई उपयोग नहीं कर पाता. ऐसे मनुष्य का अपना कोई लक्ष्य नहीं होता. वह रस्ते पर पड़े एक पत्थर के समान निष्क्रिय होता है, बौद्धिक व्यक्ति उसको पड-दलित करते हुए आगे बढ़ते जाते हैं और वह भाग्य की प्रतीक्षा में वहीं पडा ही नहीं रहता है,दूसरों का मार्ग भी अवरोधित करता रहता है. इस प्रकार इश्वर और भाग्य की संकल्पनाएँ उनमें आस्था रखने वालों को ही पथ्भ्रिष्ट नहीं करतीं, वे समस्त मानव जाति के ठन में रोड़े भी बनती हैं. बौद्धिक व्यक्ति की विवशता होती है कि वह इन्हें पड-दलित करता हुआ आगे बढ़ता जाये.

इश्वर और भाग्य की संकल्पनाएँ मानव जजाती को पथ भृष्ट करने हेतु रची गयीं, और इन्हें सतत प्रशस्त भी किया जाता रहा है. ये संकल्पनाएँ धर्म और अध्यात्म की संकल्पनाओं की सहोदर हैं और सभी साथ मिलकर मानव का अहित करती रही हैं. वस्तुतः इनके सूत्रधारों का यही लक्ष्य था और यही लक्ष्य इनके प्रशास्तिकारों का है. इसी में इनके निहित स्वार्थ हैं, क्योंकि इन्ही के माध्यम से ये चतुर व्यक्ति भोले-भाले मानव समुदायों पर अपना मनोवैज्ञानिक शासन बनाये रखते हैं. अनेक समाजों में राजनैतिक शासनों की नींव भी इसी मनोवैज्ञानिक शासन पर निर्मित होती है. अतः चतुर व्यक्ति इन संकल्पनाओं का उपयोग मानव समुदायों पर शासन हेतु करते रहे हैं.