रविवार, 11 अप्रैल 2010

नक्सल हिंसा का मूल

अभी कुछ दिन पूर्व छत्तीसगढ़ राज्य में नाक्साल्वादियों ने ७६ सुरक्षाकर्मियों को मौत के घात उतार दिया. देश में और विशेषकर सत्ताधारी राजनेताओं में इस पर भारी चिंता दर्शाई है और मृतकों के परिवारों को सार्वजनिक कोष से मालामाल किया गया है. गृह मंत्री और प्रधान मंत्री ने इस हिंसा पर घडियाली आंसू बहाए हैं और एक दूसरे को पद पर बनाये रखने का गुप्त समझौता कर गृहमंत्री ने त्यागपत्र की इच्छा दर्शाई जिसे प्रधान मंत्री ने तुरंत अस्वीकार कर दिया. यदि गृह मंत्री इस बारे में गंभीर हैं तो वे त्यागपत्र देन, उन्हें पद पर बने रहने के लिए कोई बाध्य नहीं कर सकता.

देश के तथाकथित बुद्धिजीवियों में लम्बे समय से इस विषय पर चर्चाएँ चलती रही हैं.किन्तु ऐसी अधिकाँश चर्चाएँ सत्ताधारी राजनेताओं को प्रसन्न करने के उद्देश्य से ही प्रेरित होती हैं. और समस्या समाधान में निरर्थक ही सिद्ध होती रही हैं. समस्या के मूल पर कोई प्रकाश नहीं डाला जाता. निश्चित रूप से हिंसा पाशविकलक्षण है और मानवीय कारणों से इसकी प्रशंसा नहीं की जा सकती. इसलिए हमें विचार करना होगा कि मनुष्यों को इस पाशविक गुण को अपनाने की प्रेरणा अथवा विवशता क्यों हुई और कौन इसके लिए उत्तरदायी हैं.

१९३८ की फ्रांसीसी क्रांति में सभी भद्र लोगों को जन क्रांति में मौत के गात उतार दिया गया था और शोषित समाज को उनके द्वारा संचालित स्वार्थपरक शासन व्यवस्था को उखड फैंका गया था. यह क्रांति सफल रही थी और विश्व के प्रबुद्ध वर्ग ने इसकी आलोचना नहीं की थी. उस क्रांति का मूल शासक-प्रशासकों द्वारा जन-सामान्य का शोषण था जिसके कारण जन सम्मान्य को पशु स्तर पर जीवित बने रहने की विवशता हो गयी थी. अतः उन्होंने पाशविक गुण हिंसा को अपनाया और एक शोषण-विहीन समाज की स्थापना की.

शोषण भारतीय समाज को अति दीर्घ समय से डसता रहा है किन्तु १९४७ में स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद समाज ने मुल्त वातावरण में सांस ली और आशा की कि लोग शोषण से भी मुक्त हो जायेंगे. किन्तु शासकों ने इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया और अपना शोषण का शिकंजा जन सामान्य पर कसते चले गए. अतः जन-सामान्य की पशु स्तर पर जीवन-यापन करने की विवशता यथावत बनी रही जबकि उसकी आशाएं इसके विपरीत थीं. जो पशु स्तर पर जीने के लिए विवश है, उसे पशु धर्म अपनाने में हिचक भी क्यों हो, इसलिए हिंसा उसका स्वाभाविक गुण है जिसका प्रदर्शन वह नक्सल हिंसा जैसे घटनाक्रमों से करता रहा है.

स्वतात्रता के बाद लोगों के जीवन स्तर में सुधार हुआ है किन्तु इसके साथ  ही शोषण का संवर्धन भी हुआ है. मानुष की संतुष्टि कदापि जीवन स्तर पर निर्भर नहीं करती अपितु परस्पर समानता पर आधारित होती है. तथाकथित स्वतंत्र भारत में शासकों द्वारा शोषण ब्रिटिश शासकों द्वारा शोषण से कई गुणित अधिक है.जिससे जन-सामान्य में रोष व्याप्त है. ब्रिटिश साम्राज्य में शासक वर्ग शोषण करता था किन्तु उद्दंड नहीं था, अनुशासन की लगाम उस पर कसी रहती थी. किन्तु आज के भारतीय शासक और प्रशासक पूरी तरह उद्दंड हो गए हैं और जन सामान्य के किसी भी शोषण में कोई कसर नहीं उठा रखते. साक्ष्य रूप में कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं -
  1. स्वतंत्र भारत में जनता के प्रतिनिधियों ने, जो स्वयं को लोकसेवक कहते हैं,  अपने वेतन भत्ते १०० से अधिक बार बढाकर औसतन 5०० गुणित कर लिए हैं. जबकि जन सामान्य की आय केवल २०० गुणित बढ़ी है. इसी अवधि में उपभोक्ता वस्तुओं के मूल्यों में लगभग ३०० गुणित वृद्धि हुई है. इस  प्रकार जन सामान्य के सापेक्ष जीवन स्तर में गिरावट आयी है. 
  2. वर्त्तमान में एक साधारण व्यक्ति १,००० रुपये प्रति माह पर १२ घंटे प्रतिदिन कठोर परिश्रम के लिए विवश है जबकि उससे कम योग्यता रखने वाले जन-प्रतिनिधि सार्वजनिक कोष से बिना कोई श्रम किये औसतन १,००.००० रुपये प्रति माह पा रहे हैं. साथ ही उसके तथाकथित सेवक, राज्य-नियोजित कर्मी, भी न्यूनतम स्तर पर औसतन दो गनते साधारण श्रम करते हुए १०,००० रुपये प्रति माह पा रहे हैं.  
  3. शिक्षा का व्यवसायीकरण कर शासक-प्रशासकों ने इसे जन-साधारण के लिए दुर्लभ बना दिया है जिससे कि वे सदैव सत्ताधारी बने रहें और जन-साधारण उनके समक्ष अपना सर कदापि न उठा सके. 
  4. ब्रिटिश साम्राज्य में लोगों को न्याय उपलब्ध था जो आज उपलब्ध नहीं है. इससे समाज में अपराधों की वृद्धि हुई है और अराजकता जन-सामान्य के समक्ष खडी रहती है. .        
ऐसे ही अनेक कारणों से जन-सामान्य में रोष व्याप्त है जिसका प्रदर्शन नक्सल हिंसा जैसे घतानाक्रोमों के माध्यम से किया जाता रहता है. आज नक्सल हिंसा की आलोचना केवल इसलिए की जाती है क्यों कि यह क्रांति परिवर्तन लाने में अभी सफल नहीं हो रही है. जिस दिन यह फ्रांसीसी कृंति की तरह सफल हो जायेगी इसकी भी सराहना ही की जायेगी.

देश के ये क्रांतिकारी, जो आज आतंकवादी कहे जाते हैं, भी दिशाविहीन हैं. ये वास्तव में दोषी व्यक्तियों को दंड न देकर निर्दोषों की बलि चढ़ा रहे हैं. हाल की हिंसा में मारे गए ७६ सुरक्षाकर्मी जन-सामान्य की तरह ही विवश थे अतः उनकी हया की सराहना नहीं की जा सकती. इसके स्थान पर यदि एक भी शीर्षस्थ राजनेता की हत्या कर दी जाती तो इस क्रांति का प्रभाव व्यापक होता और देश का जन-सामान्य इससे प्रसन्न ही होता.  

5 टिप्‍पणियां:

  1. भारतीय लोकतंत्र में तमाम कमियाँ है लेकिन वह रूसी सिस्टम की तरह धराशायी नहीं है, नेपाली तंत्र की तरह दिशा हीन नहीं है और चीनी तंत्र की तरह बर्बर नहीं है। जिन आतंकवादियों को आप क्रांतिकारी बता रहे हैं न वे सत्ता पाते ही इसी असफल तंत्र की नुमाईन्दगी करना चाहते हैं जिनकी हकीकत तिब्बत से पूछिये पूरे मानवाधिकार के साथ आपको बतायेगा।

    नक्सलियों का समर्थन बंद होना चाहिये और उसके पक्ष में दी जा रही झूठी दलीलों से बाहर आईये। जो मारे गये 76 शहीद हैं उनकी विधवाओं से पूछिये माओवाद का अर्थ साथ में उनकी तनखा भी पूछ लीजियेगा। बस्तर जाईये फिर वहा के बचे खुचे उद्योगों और संस्थानों से पूछियेगा कि अपने अस्तित्व के लिये कितना चंदा माओवादी लुटेरों को प्रतिमाह देते है..उगाही का ब्यौरा पता कीजिये इन लुटेरों की सच्चाई दिखाई पड जायेगी।

    लोकतंत्र की विसंगतियों को दूर करने के लिये तो हम इंतजार करते हैं कि आवाज पडोसी उठाये और हास्यास्पद दलील देते हैं कि जंगल में छुपे लुटेरे और आतंकवादी देश बदलेंगे :)

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  2. क्या इस सचाई को सभी लोग जानते हैं - शायद नहीं आप जागरूक करना चाहते हैं तो क्या ये सूचना केवल ब्लॉग पढने वालों तक ही सीमित नहीं है - जन जागरण का गंभीर प्रयास मीडिया के माध्यम से हो सकता है पर उनको भी अपनी प्राथमिकताएं प्यारी hain

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  3. राम बंसल जी इसमें कोई शक नहीं कि हमारी ब्यबस्था मे बहुत सी कमियां हैं पर इसका अर्थ यह तो नहीं कि हम विदेशियों से हथियार लेकर अपने देश के लोगों का कत्ल करना शुरू कर दें स्कूलों,पाठशालाओं,पुलों,सड़कों को खोद कर विकाश के सारे रास्ते अबरूद्ध कर दें। हम भी इस बयबस्थ के विरूद्ध काम कर रहे हैं लेकिन हमें आज तक ये पत नहीं चल सका कि गरीवों के हित की बात करने वाले गरीवों पर ही हमला क्यों कर रहे हैं अपने इन कुकर्मों से ये गरीवों की सहायता की जगह उनकी मुसकिलें बढ़ा रहे हैं .इनको हथियारबंद लड़ाई लड़नी है तो सामने आकर लड़ें वनवासियों के वीच में छुप कर उनकी जिन्दगी को दांव पर लगाकर हमला करना कायरता नहीं तो और क्या है।इन्हें हमला करना है तो उन राजघरानों व गिरोहों पर करें जो इस बयवस्था को बनाने के लिए जिमेवार हैं।हम भी इनके साथ होते आज जो ये कर रहे हैं ये सिर्फ गद्दारी और दे्शद्रोह है।पश्चिम बंगाल में पिछले तीस बर्षों से इन्हीं की विचारधार वालों का राज है मनर्क वना दिया है िन लोगों ने अपने प्रभाव वाले क्षेत्रों में रहने वाले लोगों का । जिस तरह वाकी हिस्सों में सो कालड नेता जन ता को तूट रहें हैं उसी तरह ये माओवादी अपने प्रभाव वाले क्षेत्रों में बनवासियों का खून चूस रहे हैं।आज मूर्ख से मूर्ख वन्दा भी जानता है कि हथियरों के बल पर भारत की सेना का सामना करना अमेरिका तक के वश की बात नहीं तो यें चीन किस वाग की मूली है।
    आप बढ़े हैं हम आपकी सादगी का सम्मान करते हैं करते रहेंगे ।आशा है आप इस बात से सहमत होंगे कि इन माओवादियों न आम लोगों पर हमला कर हम जैसे सब लोगों कती नफरत मोल ले ली है। ये तो भारतीयों का खून बहाने में मुसलिम आतंकवादी तालिवानों को भी पीछे छोड़ गय। हम दावे से कह सकते हैं कि अब तालिवानों और माओवादियों में कोई अन्तर नहीं रह गया है अब िनके पास अपने आप को बचाने का एक ही रास्ता है वो है आकत्मसमर्पण विना किसी शर्त के।

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  4. शहरों में जेबकट, चोर और हत्यारे है, वे भी सही हैं, वे भी व्यवस्था विरोधी है, उन्हें भी अपनी इसी क्रांतिकारी सूची में जोड़ लीजिये

    गांवों में डाकू है, डाकू नहीं,. वे तो बागी हैं, वे भी सही है, सारे के सारे व्यवस्था विरोधी ही तो हैं... वे भी क्रांतिकारी ही है, उन्हें भी आप अपनी इसी सूची में गिन लीजिये

    आप कितना कमाते हैं? अपने घर में काम करने वाली बाई को कितना देते हैं? अभी कोई आपके सिर पर डंडा मार कर आपका धन छीन ले तो आपकी सारी क्रांतिकारिता की रूमानियत और नक्सलवाद की पक्षधरता हवा हो जायेगी और भागे भागे पुलिस के पास जायेंगे, तब आपका जो ये ज्ञान हिलोरें मार रहा है, नहीं दिखेगा...

    नक्सलवाद चीन के पैसे पर पला बढ़ा नासूर है. चीन में मिलिट्री ट्रेनिंग पाये, चीन के बाप को अपना बाप कहने वाले कनु सान्याल को भी अपने बुढ़ापे में पापों से घबरा कर आत्महत्या करनी पढी.

    जरूरत है कि इन हत्यारों के साथ उसी तरह पेश आया जाय जिस तरह श्रीलंका में लिट्टे के साथ आया गया था..

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  5. मित्रो,
    मैं किसी भी प्रकार से हिंसा और आतंकवाद का समर्थक नहीं हूँ. मैं केवल यह कहना चाहता हूँ कि इस सब अराजकता के लिए हमारी शासन व्यवस्था दोषी है, जिसमें सुधार के कोई प्रयास नहीं किए जा रहे हैं. मैं गाँव में रहता हून जहाँ किसान और मज़दूर दिन रात कड़ी मेहनत करते हैं और रूखी-सूखी खाकर अपना गुज़रा करते हैं. उनके बच्चे शिक्षा नहीं पा सकते, उन्हें न्याय उपलब्ध नहीं है और उन्हें उपलब्ध स्वास्थ सेवाएँ नगण्य है. वे धन के बदले वोट देने को विवश हैं. दूसरी ओर शासक-प्रशासक बिना कुच्छ उत्पादक कार्य किए वैभव भोग रहे हैं. देश का नेतृत्व निजी स्वार्थों में लिप्त है.

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