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रविवार, 29 मार्च 2015

उत्तर प्रदेश में यादव-राज ने की बेशर्मी की सब सीमाएं पार

पिछले 3 वर्ष के यादव राज में उत्तर प्रदेश भारत का सर्वाधिक पिछड़ा राज्य बन गया है।  बेरोजगारी और भृष्टाचार निरंतर बढ़ते जा रहे हैं। बिजली की उपलब्धि सतत निराशाजनक बनी हुई है।  ग्रामीण क्षेत्रों बिजली घोषित 12 घंटे के स्थान पर औसतन 6 घंटे प्रतिदिन ही दी जा रही है।  प्रदेश में बिजली का कोई विशेष संकट नहीं है, केवल कुव्यवस्था है। प्रशासक विशाल स्तर पर बिजली की चोरी करवा रहे हैं जिससे ईमानदार उपभोक्ताओं के लिए बिजली की उपलब्धि सीमित ही बनी रहती है, जबकि उनको प्रदत्त बिजली की दरें बार-बार बढ़ाई जा रहीं हैं। बिजली की कुव्यवस्था के कारण स्थापित उद्योग-धंधे ठप पड़े हैं, और नए लग नहीं रहे हैं।  इससे बेरोजगारी बढ़ रही है। लोगों को मजदूरी के लिए दूसरे प्रदेशों में जाना पड़ रहा है।
सरकार के भृष्ट कार्य-कलापों में बार- बार उच्च न्यायालय को दखल देना पड़ रहा है, जिसके बाद भी बेशर्म शासक-प्रशासक अपनी मनमानी से बाज नहीं आ रहे हैं। अभी चल रही पुलिस भर्ती प्रक्रियाओं पर न्यायालय को रोक लगानी पडी  क्योंकि भर्ती में विशाल स्तर पर धांधली पाई गयी है, जिसकी जांच न्यायालय द्वारा की जा रही है। ईमानदार बेरोजगार युवकों को बार-बार संघर्ष करना एवं निराश होना पड़ रहा है जबकि बेईमान पदासीन किये जा रहे हैं।
प्रदेश के एक यादव चीफ इंजीनियर ने अपने भृष्ट आचरण से 1000 करोड़ की संपत्ति एकत्र कर ली है, तथापि शासक वर्ग स्पष्ट कारणों से उसे बचाने के प्रयास में लगा है। प्रदेश के एक पूर्व मंत्री ने केवल 30 महीने में 1000 करोड़ की सम्पदाएँ बना लीं, उसके विरुद्ध कार्यवाही में भी लापरवाही की जा रही है।
प्रदेश में शीर्ष स-मा-ज-वा-द का लबादा ओढ़े नेता 100000 लोगों को दावत देते हैं  जिसमें 900000 का सूट पहनने वाले प्रधान-मंत्री भी सम्मिलित होते हैं। अतः स्पष्ट है सब राजनेता मिलकर लूट में लगे हैं।

प्रदेश में आज भी लोग 2000 रुपये प्रतिमाह पर मजदूरी करने के लिए  विवश हैं। इस कुव्यवस्था के लिए जहाँ शासक-प्रशासक सक्रिय रूप में उत्तरदायी हैं, पूरा विधायक मंडल भी अपनी निष्क्रियता के कारण उत्तरदायी है। इस पर भी शासन ने विधायकों के वेतन-भत्ते 55000 से बढ़ा कर 99000 रुपये प्रतिमाह कर दिए गए, जिसका सभी विधायकों ने समर्थन किया। अब उनकी मांग है कि उनकी विकास-निधि में भी वृद्धि की जाये।
भारत के योजना आयोग के अनुसार एक परिवार के जीवन-यापन के लिए 28 रुपये प्रतिदिन पर्याप्त हैं।  जिसका अर्थ यह हुआ कि अब उत्तर प्रदेश प्रत्येक विधायक 116 परिवारों के भरण-पोषण को अकेला ही डाकरेगा। चूंकि यह संवैधानिक व्यवस्था के अनुरूप है, अतः भारत का संविधान भी इसके लिए दोषी है, जिसका कोई वैधानिक निराकरण संभव नहीं है। अतः त्रस्त लोगों के लिए दो ही विकल्प हैं - सब कुछ सहते रहें, अथवा भृष्ट व्यवस्था के विरुद्ध अवैधानिक कार्यवाही करने का साहस करें, जैसा कि नक्सलवादी करते रहे हैं, किन्तु वे निशाना गलत चुनते हैं।

शनिवार, 7 जून 2014

उत्तर प्रदेश की आवश्यकता - कुशल नेतृत्व

उत्तर प्रदेश में लम्बे समय से ऐसे कुशल नेतृत्व का अभाव रहा है जो प्रदेश के लोगों के विकास की आवश्यकताओं और दिशा को समझ सके। श्री चन्द्र भान गुप्त के बाद के सभी मुख्य मंत्री वैभव भोग, स्वयं के परिवार अथवा ग्राम की प्रगति अथवा अपना समय व्यतीत करते रहने में रूचि रखते रहे हैं। इसके कारण पर्याप्त साधन संपन्न होने पर भी प्रदेश देश के पिछड़े राज्यों में गिना जाता रहा है।

बुधवार, 4 जून 2014

उत्तर प्रदेश का विद्युत संकट

विद्युत शक्ति आधुनिक मानव की जीवन-रेखा है. इसका अभाव जीवन को अस्त-व्यस्त कर देता है. यही उत्तर प्रदेश में होता रहा है. अतः यहां लोग भरपूर जीवन नहीं  रहे, बस अपना जीवन-काल व्यतीत कर रहे  हैं. इसमें शासन का दोष तो है ही लोग भी कम दोषी नहीं हैं. प्रदेश का विद्युत संकट यहां के लोगों के सुख एवं सम्पन्नता से ही सम्बन्ध नहीं रखता, अपितु उनकी मानसिकता एवं चरित्र  भी गहन सम्बन्ध रखता है. अतः विद्युत संकट के आर्थिक, सामाजिक  और राजनैतिक तीनों पक्ष हैं।

सोमवार, 28 फ़रवरी 2011

भृष्टाचार के विरुद्ध संघर्ष

भारतीयों के नाम एक पत्र -

मित्रो, 

आज देश का समस्त जन-गन-मन राजनेताओं और प्रशासकों के भृष्टाचार से तृस्त है. इसके विरुद्ध, अनेक व्यक्ति और संगठन अपने-अपने तरीकों से संघर्ष कर रहे हैं. इसी प्रकार की एक पहल के रूप में,  ८७ वर्षीय और हम सबके पितातुल्य श्री अन्ना हजारे ने ५ अप्रैल २०११ से जंतर मंतर नयी दिल्ली पर आमरण भूख हड़ताल की घोषणा की है. उनकी मांग है की देश में तुरंत ऐसा क़ानून बनाया जाए कि भृष्टाचार का मामला प्रकाश में आने के तीन माह के अन्दर दोषियों को दण्डित किया जाये और उनकी अवैध संपत्ति जब्त कर ली जाए. यह हम सबके लिए लज्जा का विषय है कि हमारे वयोवृद्ध अपने जीवन का बलिदान करें और हम इसका तमाशा देखते रहें. 

कुछ संगठन और आधुनिक नेता इस वयोवृद्ध के जीवन को दांव पर लगाकर अपनी-अपनी नेतागिरी चमकाने में लगे हैं. मैंने उनसे आग्रह किया है कि उनके जीवन को दांव पर लगाने के स्थान पर हम सब बड़ी संख्या में आत्म-बलिदान के लिए प्रस्तुत हों, जिस पर किसी ने कोई ध्यान नहीं दिया. अतः मैंने उक्त मांग के साथ स्वयं ५ अप्रैल २०११ से जंतर मंतर नयी दिल्ली पर आमरण भूख हड़ताल का निश्चय किया है जिसकी सूचना राष्ट्रपति महोदय और प्रधान मंत्री महोदय को दे दी है. साथ ही श्री अन्ना हजारे से निवेदन किया है कि वे भूख हड़ताल न करें और स्थल पर आत्म बलिदानियों की प्रेरणा हेतु उपस्थित रहें. 

आप सभी से मेरे निवेदन हैं कि -
  1. स्वयं ५ अप्रैल २०११ से जंतर मंतर, नयी दिल्ली पर मेरे साथ आमरण भूख हड़ताल के लिए प्रस्तुत हों और इसकी अग्रिम सूचना राष्ट्रपति और प्रधान मंत्री महोदयों को दें. 
  2. जो व्यक्तिगत कारणों से ऐसा नहीं कर सकते, वे उक्त सत्याग्रह के समर्थन में जंतर मंतर पहुंचें और यथाशक्ति भूख हड़ताल करें और इस जन आन्दोलन के सहयोगी बनें. 
  3. दूर दराज़ के स्त्री-पुरुष जो नयी दिल्ली न पहुँच सकें, अपने-अपने गाँव, कसबे अथवा शहरों में ५ अप्रैल २०११ से यथाशक्ति भूख हड़ताल करें और इसकी अग्रिम सूचना सम्बंधित जिलाधिकारी को दें. 
  4. उपरोक्त जन आन्दोलन के लिए अपने परिवार जनों, मित्रों और परिचितों को प्रेरित करें जो ५ अप्रैल के बाद अपने-अपने घरों पर रहकर ही यथाशक्ति भूख हड़ताल करें.  

रविवार, 27 फ़रवरी 2011

भारतीय नेतृत्व संकट

 २६ फरवरी २०११ को इंडिया अगेंस्ट करप्शन की एक बैठक में भाग लिया जिसमें भारत सरकार पर भृष्टाचार के विरुद्ध एक प्रभावी क़ानून बनाने के लिए दवाब बनाने हेतु एक सुप्रसिद्ध ८७ वर्षीय श्री अन्ना हजारे की ५ अप्रैल २०११ से आरम्भ होने वाली जंतर मंतर, नयी दिल्ली  पर 'आमरण भूख हड़ताल' के लिए समर्थन जुटाने की व्यवस्था की गयी. इस सन्दर्भ में मेरी पीड़ा.

मैंने बैठक में एक प्रश्न उठाया - एक सम्मानित ८७ वर्षीय व्यक्ति का जीवन दांव पर लगाने के स्थान पर उन्हें सुरक्षित रहने के लिए क्यों नहीं समझाया जा रहा है, और जो युवा व्यक्ति इस आन्दोलन का नेतृत्व कर रहे हैं, वे स्वयं आमरण भूख हड़ताल क्यों नहीं कर रहे हैं?  मुझे तुरंत उत्तर दे दिया गया - अन्ना के जीवन को दांव पर लगाने से तुरंत परिणाम पाने की संभावना है जबकि दूसरों के जीवन दांव पर लगाने से परिणाम पाने में विलम्ब हो सकता है. यह संभव है - की एक अन्ना के जीवन के स्थान पर अनेक लोगों के जीवनों की आवश्यकता हो, अथवा अन्ना की भूख हड़ताल के प्रत्येक दिन के स्थान पर एनी किसी की अनेक दिनों की भूख हड़ताल की आवश्यकता हो. तथापि, मेरी मान्यता है कि वयोवृद्धों की युवाओं द्वारा सेवा की जानी चाहिए न कि युवाओं की स्वार्थ सिद्धि के लिए उनके जीवनों को दांव पर लगाया जाए. बैठक में आन्दोलन के तथाकथित नेताओं द्वारा मुझे चुप कर दिया गया किन्तु मेरी धारणा यही है कि एक वयोवृद्ध जीवन की रक्षा के लिए अनेक युवाओं के जीवन दांव पर लगाया जाना उचित है. अपनी इस धारण के अंतर्गत मैंने अन्ना के स्थान पर अथवा उनके साथ आमरण भूख हड़ताल करने की घोषणा कर दी.   

बहुधा कहा जाता है कि ब्रिटिश भारत में देश के संसाधनों के शोषण के लिए केवल एक 'ईस्ट इंडिया कंपनी' थी किन्तु स्वतंत्र भारत में हमारे जीवनों को अंधकारमय करने के लिए इस प्रकार की हजारों कंपनियां हैं. इससे मेरे मस्तिष्क में एक नवीन समतर्क उभरता है - ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध भारत के स्वतन्त्रता आन्दोलन में अपने जीवन-बलिदान द्वारा स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए केवल एक गाँधी था और बिना कुछ बलिदान किये स्वतन्त्रता के फल को पाने के लिए लालायित भी केवल एक ही नेहरु था. किन्तु भृष्टाचार के विरुद्ध वर्तमान संघर्ष में जीवन-बलिदान कर भृष्टाचार से मुक्ति पाने हेतु गाँधी (अन्ना) तो एक ही रहा, किन्तु बिना कुछ बलिदान किये फल पाने के लालायित दर्ज़न भर नेहरु उपस्थित हैं. भारत का नेतृत्व इसी से प्रदूषित है - शहीद पडौस में तो हों किन्तु अपने घर में न हो.   

मैं इंडिया अगेंस्ट करप्शन से जुड़ा रहा हूँ और ३० जनवरी २०११ की रामलीला मैदान से जंतर मंतर मार्च में भी उपस्थित था. तब भी भारत के नेतृत्व संकट से मुझे पीड़ा हुई थी. उसमें नेताओं द्वारा जनसाधारण - स्त्री, पुरुष और बच्चों, से नारे लगाते हुए रामलीला मैदान से जंतर मंतर तक जाने के लिए कहा गया था किन्तु नेता स्वयं अन्य मार्गों से होते हुए अपनी कारों द्वारा जंतर मंतर पहुंचे थे. मुझे याद है ५० के दशक के अपने बचपन का समाजवादी आन्दोलन जिसे मैंने देखा ही नहीं ठाट अपने परिवार के साथ भाग लिया था और जेल गया था. तब सभी नेता अग्रणी पंक्तियों में जनसाधारण के साथ उनका वास्तविक नेतृत्व करते हुए आगे बढ़ते थे. भारतीय राजनीती के वे स्वर्णिम दिन थे किन्तु अब अंधेरी रात है जब तथाकथित नेता खतरों से बचे रहने के लिए अपना मुंह छिपाए रहते हैं और अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए आम आदमी का जीवन खतरे में डाल रहे हैं.     

शनिवार, 14 अगस्त 2010

भृष्टाचार उन्मूलन

वर्तमान में अथवा भूतकाल में अनेक उच्च एवं प्रतिष्ठित पदों पर आसीन व्यक्ति एवं उनके संगठन भारत में फैले उच्च स्तरीय भृष्टाचार से दुखी हैं और इसके उन्मूलन हेतु कार्य कर रहे हैं. यह सही है कि उच्च स्तर पर हो रहा भृष्टाचार ही निम्नतम स्तर तक पहुंचा है क्योंकि भृष्टाचार सदैव उच्च स्तर से नीचे की ओर उत्प्रेरित होता है, न कि निम्न स्तर से उच्च स्तर की ओर. इस प्रकार यदि उच्च स्तरीय भृष्टाचार समाप्त हो जाता है तो निम्नस्तरीय भृष्टाचार भी एक दिन स्वतः समाप्त हो जाएगा. किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि निम्न स्तरीय भृष्टाचार को यथावत स्वीकार किया जाता रहे अथवा इसे प्रोन्नत किया जाता रहे, और इसके उन्मूलन की तभी आशा की जाये जब उच्च-स्तरीय भृष्टाचार समाप्त हो जायेगा.

भृष्टाचार भारतीय जन-मानस की रग-रग में रच-बस गया है, किसी दुल्हन की हथेलियों पर लगी मेहंदी की तरह, जिसे तुरंत समाप्त नहीं किया जा सकता. इसकी समाप्ति के लिए दीर्घ-कालिक सतत प्रयास करने होंगे, प्रत्येक स्तर पर. यह भी सही है कि निम्न स्तर पर भृष्टाचार समाप्ति के प्रयास प्रायः निष्फल अथवा अस्थायी होते हैं. किन्तु निम्न स्तर पर भृष्टाचार उन्मूलन के प्रयास एक जन-आन्दोलन को प्रेरित करते हैं, जो क्षमता उच्च स्तर पर भृष्टाचार उन्मूलन के प्रयासों में नहीं होती. ये प्रयास अधिकाँश में न्यायालयी संघर्षों द्वारा किये जाते हैं.

भृष्टाचार  उन्मूलन के लिए यह आवश्यक है कि भृष्ट लोगों के मानस में भय व्याप्त हो जिसकी सामर्थ्य जन-आन्दोलन में होती है  जो निम्न-स्तरीय संघर्षों से उत्प्रेरित होते हैं. किन्तु निम्न-स्तरीय भृष्टाचार उन्मूलन के प्रयास कालजयी नहीं होते, इसलिए  उच्च स्तर पर भृष्टाचार उन्मूलन के बिना स्थायी नहीं हो सकते. इस प्रकार भृष्टाचार उन्मूलन के प्रयास दोनों स्तरों पर किये जाने चाहिए. इसके लिए सूत्र यह है कि जो जहां है, वहीं भृष्टाचार पर प्रहार करे और सतत करता रहे.

निम्न स्तर पर भृष्टाचार उन्मूलन में सबसे बड़ी बाधा यह है कि जन-मानस ने इसे जीवन-शैली के रूप में स्वीकार कर लिया है और वह इसके विरुद्ध स्वर बुलंद कर जन-संघर्ष के लिए तैयार नहीं है. यहाँ तक कि जो भी इसके लिए छुट-पुट प्रयास किये जाते हैं, स्वयं जन-मानस ही उनकी अवहेलना करता है, तथा यदा-कदा अपनी स्वीकार्य जीवन-शैली बनाए रखने के लिए ऐसे संघर्षों के विरुद्ध कार्य भी करता है. इस अवहेलना और विरोध के कारण निम्न-स्तरीय संघर्ष दीघ-जीवी सिद्ध नहीं होते. साथ ही साधनहीनता के कारण इनका दमन भी सरल होता है. इन्हें बनाए रखने के लिए उच्च स्तरीय सहयोग आवश्यक होता है.
Mass Psychology (Penguin Modern Classics Translated Texts)

इस चर्चा से जो कार्य-शैली प्रभावी प्रतीत होती है, उसके विविध आयाम निम्नांकित हैं -

  • उच्च स्तर पर भृष्टाचार उन्मूलन के प्रयास अवश्य हों और इसके लिए व्यापक संगठनात्मक ढांचा विकसित किया जाये.
  • निम्न स्तर पर भी भृष्टाचार उन्मूलन के प्रयास हों, जिनके माध्यम से जन-मानस में संशोधन हो, और जन-संघर्ष उत्प्रेरित किये जाएँ. इसके लिए निम् स्तर पर भी स्थानीय संगठन बनें. 
  • निम्न स्तरीय प्रयासों को सतत बनाए रखने के लिए उच्च स्तर से सहयोग और संरक्षण प्रदान किया जाए. 
  • उच्च स्तरीय प्रयासों के लिए जहां कहीं जन-आन्दोलन की आवश्यकता हो, निम्न स्तरीय जन संघर्ष इनमें यथाशक्ति सहयोग प्रदान करें.  
इस प्रकार भृष्टाचार उन्मूलन के लिए शक्ति और जन-चेतना दोनों के समन्वय की आवश्यकता है जो क्रमशः उच्च और निम्न स्तरों पर उपलब्ध होते हैं, अतः उच्च एवं निम्न दोनों स्तरों पर प्रयासों का महत्व है और दोनों में सहयोग अपरिहार्य है. 

शुक्रवार, 16 अप्रैल 2010

नेतृत्व का अभाव

स्वतंत्रता संग्राम ने भारत को अनेक नेता प्रदान किये थे जिनमें से महात्मा गाँधी और सुभाष चन्द्र बोस शीर्षस्थ रहे हैं  स्वतन्त्रता के बाद भी सरदार पटेल ने देश के गृहमंत्री के रूप में जो कर दिखाया था नेहरु जैसे तथाकथित नेता उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते थे. सादगी की प्रतिमूर्ति लाल बहादुर शास्त्री ने कलुषित राजनीति में देश के हितों की रक्षा में अपने प्राण त्याग दिए. ये दोनों भी स्वतन्त्रता संग्राम की ही देन थे.

देश की उस पीढी के बाद नहरू ने अपने परिवार के हितों की रक्षा करते हुए देश में कुशल नेतृत्व का विकास अवरुद्ध कर दिया और नेहरु, इंदिरा आदि के षड्यंत्रों से देश की बागडोर स्वार्थी तत्वों के हाथ में चली गयी, जिसके कारण भारतीयता का अर्थ स्वार्थपरता माना जाने लगा है जिससे आज का भारत पीड़ित है.

गाँव देश की मौलिक इकाई होता है, अतः जो देश में होता है, कुछ वैसा ही गाँव-गाँव में भी होता रहता है. जैसे देश के नेता धनबल के माध्यम से सत्ता हथियाते रहे हैं, कुछ वैसा ही गाँवों में भी होता रहा है. यहाँ स्पष्ट कर दूं कि आदर्श स्थिति में देश का नेतृत्व गाँव-गाँव के नेतृत्व से प्रभावित होना चाहिए, किन्तु भृष्ट राजनीति में गाँव-गाँव का नेतृत्व देश के नेतृत्व से प्रभावित होता है. इसका मूल कारण है कि सदाचार सदैव लघुतम स्तर से विशालता के ओर अग्रसर होता है जबकि भृष्टाचार सदैव उच्चतम स्तर से निम्न स्तर की ओर बढ़ता है. भारत को भृष्टाचार पूरी तरह निगल चुका है.और इसका आरम्भसत्ता के उच्चतम स्तर से आरम्भ हुआ था.

१९४० से लेकर १९८० तक पिताजी श्री करन लाल गाँव तथा क्षेत्र के निर्विवादित नेता थे. उस समय तक लोगों में स्वार्थ भावना जागृत नहीं हुई थी और वे सुयोग्यता और कर्मठता पर सहज विश्वास करते थे. इसलिए गाँव के सभी प्रमुख कार्य पिताजी पर छोड़ दिए जाते थे और वे गाँव के विकास के लिए यथासंभव प्रयास करते रहते थे. सन १९५२ में उन्होंने गाँव के जूनियर हाई स्कूल की नींव डॉक्टर राम मनोहर लोहिया के हाटों से रखवाई. सन १९५६ में जब गाँव के जमींदारों ने प्राथमिक विद्यालय को उजाड़ दिया था, उस समय गाँव में प्राथमिक विद्यालय के लिए नया भवन बनवाया.

१९६२ में मेरे एक ताउजी श्री नंदराम गुप्त गाँव आये जो उससे पूर्व प्रतापगढ़ जनपद की कुंडा तहसील से समाजवादी विधायक रह चुके थे. पिताजी के बाहर के कामों में व्यस्त रहने के कारण गाँव वालों ने प्रधान पद पर उन्हें विराजित कर दिया. १९६४ में उन्होंने गाँव का विद्युतीकरण करा दिया जब आसपास के किसी गाँव में विद्युतीकरण नहीं हुआ था. उसी काल में उन्होंने गाँव में एक कन्या पाठशाला की स्थापना की. जमींदारों द्वारा उजड़े गए जूनियर हाई स्कूल को पुनः आरम्भ कराया.

Breaking Her Willगाँव में आज भी विकास के नाम पर पिताजी और ताउजी की ही उक्त चार देनें हैं. इसके बाद गाँव की राजनैतिक सत्ता उन तत्वों के हाथ में खिसक गयी जो गाँव-वासियों का शोषण ही करते रहे हैं. और विगत ४० वर्षों में गाँव में कोई विशेष विकास कार्य नहीं हुआ है. निर्बलों पर अत्याचार, विकास हेतु प्राप्त धन का हड़पा जाना, गाँव सभा की संपदाओं पर व्यक्तिगत अधिकार करना, गाँव के रास्तों पर घर बनाना, खेतों के रास्तों को खेतों में मिलाना, और विद्युत् की चोरी करते रहना आदि ही गाँव की संस्कृति बन गए हैं जिसके लिए गाँव के सबल सत्ताधारी पूरी तरह सक्रिय रहते हैं. इस अवस्था में गाँव का नेतृत्व भृष्ट लोगों द्वारा हथिया लिया गया है.
 
सन २००० से मैंने गाँव से कुछ सम्बन्ध स्थापित किया है, और २००५ से यहीं स्थाई रूप से रह रहा हूँ. इस अवधि में एक बलात्कार के अपराध में गाँव के सबल लोगों को दंड दिलाया है, प्राथमिक विद्यालय को बचाया है, और गाँव की विद्युत् स्थिति में गुणात्मक सुधार कराये हैं, साथ ही लोगों को विद्युत् चोरी न करने के लिए समझाया है. इस सबसे लोग पुनः जाग्रति की ओर बढ़ रहे हैं और वे दुराचारियों  का मुकाबला करने के लिए तैयार हो रहे हैं.