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शनिवार, 17 अप्रैल 2010

शासन व्यवस्था के तीन उद्भव और उनकी समीक्षा

ईसा से लगभग ४०० वर्ष पूर्व से विश्व के सभ्य समाजों ने स्वयं को व्यवस्थित करना आरम्भ कर दिया था. तब से उत्तरोत्तर काल में प्रमुखतः ३ प्रकार शासन व्यवस्थाएं उद्भूत हुईं.
 
परम ज्ञान का सिद्धांत 
विश्व की प्रथम जनतांत्रिक व्यवस्था एथेंस नगर राज्य में लगभग ४०० ईसापूर्व में लागू की गयी थी जिसके प्रतिपादक देमोक्रितु थे. यह एक शासन न होकर व्यवस्था थी जिसमें नगर के सभी लोग अथेना नामक भवन में एकत्र होकर सार्वजनिक हित के निर्णय लिया करते थे. तब ये निर्णय नगर राज्य के प्रशासकों को क्रियान्वयन हेतु सौंप दिए जाते थे..

इस व्यवस्था के प्रतिपादक पूर्णतः उपयोगितावादी थे जो सामाजिक व्यवस्था में उग्र भावावेश के प्रबल विरोधी थे और ब्रह्माण्ड और व्यक्तिगत जीवन के स्वतः उद्भवन में आस्था रखते थे. सामाजिक व्यवस्था में वे सभी की भागीदारी के पक्षधर थे, यहाँ तक कि उस समय प्रचलित दासप्रथा के अंतर्गत दासों को भी वे भागीदार बनाते थे. इन्होने परम ज्ञान का सिद्धांत प्रतिपादित किया जिसके अनुसार मानवीय बुद्धि ही सर्वोपरि है जिसके सापेक्ष ही अन्य संकल्पनाओं का आकलन किया जाना चाहिए. अतः प्रत्येक काल में तात्कालिक मानवीय बुद्धि ही उस काल के परम सत्य को जान सकती है.

इस सिद्धांत के अनुसार ही सामाजिक व्यवस्था के निर्णय सामूहिक विवेक के माध्यम से लिए जाते थे जिसे परम बुद्धिमत्तापूर्ण मना जाता था. यह समाज में सौहार्द और सामंजस्य विकास हेतु व्यवस्था थी और केवल ऐसे समाज पर लागू की जा सकती थी जिसमें समाज वर्गीकृत न हो और विशेषतः प्रदूषित संस्कारों वाले व्यक्ति समाज के अंग न हों. समाज में विरोधाभास न होने के कारण ऐसी व्यवस्था में किसी चुनाव की आवश्यकता नहीं होती थी. अतः परस्पर विरोधाभासों वाले समाजों में यह व्यवस्था लागू नहीं की जा सकती.

प्लेटो का सापेक्षतावाद सिद्धांत
एथेंस नगर राज्य के प्रबल विरोधी स्पार्टा राज्य द्वारा दैमोक्रितु से लगभग ३० वर्ष छोटे प्लेटो को एथेंस में वहां की व्यवस्था को भंग करने हेत भेजा गया था जिसने वहां जाकर अकादेमी नामक स्कूल की स्थापना की और वहां के शीर्ष विद्वान् सुकरात के शिष्य होने का आडम्बर किया. वह दैमोक्रितु के परम ज्ञान के सिद्धांत और जनतंत्र का घोर विरोधी था जिसके लिए उसने अपनी पुस्तक रिपब्लिक में सापेक्षतावाद सिद्धांत और एक-क्षत्र शासन तंत्र का प्रतिपादन किया

इस सिद्धांत के अनुसार बौद्धिक ज्ञान परम ज्ञान न होकर केवल सापेक्ष ज्ञान होता है जो ज्ञान और विचारों की की प्रतीति मात्र होता है. वास्तविक ज्ञान परिस्थिति एवं काल-निरपेक्ष होता है जो मानवीय बुद्धि द्वारा ग्रहण नहीं किया जा सकता. यह केवल चुनिन्दा व्यक्तियों को प्राप्त होता है जो शासन करने हेतु ही जन्म लेते हैं.

लोके का सापेक्षता सिद्धांत
इस सिद्धांत के अनुसार सभी मनुष्य अपनी-अपनी परिस्थितियों के अनुसार ज्ञान प्राप्त करते हैं अतः कोई भी परम ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता. इस कारण से सभी मानव आदर्श मानव के सापेक्ष आधे-अधूरे होते हैं. विश्व के सभी समुदाय ऐसे आधे-अधूरे व्यक्तियों के समुच्याय होते हैं. इस कारण से किसी भी मनुष्य को दूसरों पर शासन करने का अधिकार प्राप्त नहीं होता. इसलिए सभी मनुष्यों को एक समान अधिकार प्राप्त होने चाहिए और प्रत्येक को एक दूसरे के प्रति सहिष्णु होना चाहिए. आधुनिक जनतंत्र इसी सिद्धांत पर आधारित हैं.

समीक्षा
प्लेटो का सापेक्षता सिद्धांत और उसके अंतर्गत एक-क्षत्र शासन तंत्र एक कृत्रिम एवं कपट-पूर्ण संकल्पना थी जो जन-सामान्य को पशुतुल्य और चुनिन्दा व्यक्तियों को महामानव घोषित करती थी. भारत में प्रचलित अवतारवाद, भाग्यवाद, आदि संकल्पनाएँ भी इसी प्लेटो और उसकी अकादेमी की देनें थीं. इन्हें किसी भी दृष्टि से मानवीय नहीं कहा जा सकता.

लोके के सापेक्षता सिद्धांत में अपूर्णता को समानता का आधार माना गया है, जो एक ऋणात्मक दर्शन है. इस आधार पर स्थापित शासन व्यवस्था के अंतर्गत समाज में अप्पोर्नता का ऋणात्मक बोध जागृत होना स्वाभाविक है. इस कारण से बेन्त्रेन्द रसेल जैसे आधुनिक दार्शनिकों ने आधुनिक जनतांत्रिक व्यवस्था के पक्ष में धनात्मक बिंदु खोजने के निष्फल प्रयास किये. इस कारण से वर्तमान जनतांत्रिक व्यवस्थाएं सफल नहीं हो पा रही हैं.

ज्ञान-विज्ञानं सतत संवर्धित होता रहर है इसलिए किसी भी समय मानवीय ज्ञान परम स्थिति में नहीं कहा जा सकता, तथापि मानवीय गयम तत्कालीन अवस्था में पूर्ण हो सकता है. इसके अतिरिक्त मानवता के पास ज्ञान प्राप्त करने का बुद्धि ही सर्वश्रेष्ठ साधन है, जिसके आधार पर ही दैमोक्रितु ने मानवीय ज्ञान को ही परम ज्ञान कहा था यद्यपि उसे तात्कालिक परम ज्ञान कहना चाहिए था. इसलिए, दैमोक्रितु का परम क्यां का सिद्धांत ही मानव जाति के लिए सर्वाधिक उपयुक्त सिद्धांत है.


इस सिद्धांत में ज्ञान को ही सर्वाधिक महत्व दिया गया है. जिस समय और जिस स्थान पर यह सिद्धांत प्रतिपादित और लागू किया गया था, तब अथेन्स की समस्त जनसँख्या बौद्धिक थी और उनमें बौद्धिक अंतराल नगण्य थे. इसलिए जनतांत्रिक व्यवस्था सफल सिद्ध्हो रही थी. आज, विशेषकर विकास-शील और अविकसित विश्व में लोगों में बौद्धिक समानता नहीं है इसलिए मानव-मानव में बौद्धिक अंतराल के कारण सभी को अपेक्षित ज्ञान होना संभव नहीं हो पा रहा है. इसलिए दैमोक्रितु के सिद्धांत के अनुपालन के लिए राजनैतिक सत्ता बौद्धिक वर्ग के हाथों में होनी चाहिए. इसी में समस्त मानव जाति का कल्याण निहित है. बौद्धिक जनतंत्र की परिकल्पना इसी उद्येश्य को समर्पित है.
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बुधवार, 16 दिसंबर 2009

अफलातूनी कारनामा

आपने पढ़ा कि एक्रोपोलिस पर फिलिप ने आक्रमण कर नगर वासियों को वहां से खदेड़ उस पर अधिकार कर लिया. कैसे हुआ यह सब संपन्न, इस बारे में यहाँ पढ़िए.



उच्च कोटि के विद्वानों में सदैव यह कमी रही है कि उन्हें कोई भी सरलता से ठग सकता है. ऐसा ही हुआ सुकरात महोदय के साथ. अफलातून, जिसे अंग्रेजी में प्लेटो कहा जाता है, उनका शिष्य बन गया और नगर में अकादेमी नामक अपना स्कूल खोल लिया. इस स्कूल में खादिम तैयार किये जाते थे जो अफलातून के दिशा निर्देशों के अनुसार जान-समुदायों को भ्रमित करते थे. अकादेमी में ऐसे भ्रमों को जन्म देने और प्रसारित करने पर शोध किये जाते थे जिनके विवरण अगले अध्याय में दिए जायेंगे. 


अफलातून  बहुत महत्वाकांक्षी था और विश्व पर अपना शासन स्थापित करना चाहता था जिसका आरम्भ उसने अथेन्स से किया. अथेन्स की  जनतांत्रिक व्यवस्था का वह घोर विरोधी था और शासन का अधिकार केवल संभ्रांत लोगों को देना चाहता था. यहाँ रहते हुए उसने नगर राज्य के बारे में जानकारियाँ एकत्र  कीं और उनके आधार पर नगर पर आक्रमण करा उसे अपने अधिकार में लेने की योजना बनाई. इसके लिए उसने दोर्रिस नगर के जंगली शासक फिलिप को नगर पर आक्रमण के लिए आमंत्रित किया. इस आमंत्रण और तदनुसार ईसापूर्व ३३८ में आक्रमण द्वारा अच्रोपोल्स को पराजित किया गया जिसके कारण वे भारत पहुंचे. अफलातून ने ही अपने गुरु सुकरात - अंग्रेजी नाम सोक्रेटेस, शास्त्रीय नाम शुक्राचार्य - को विषपान करवाया.

अफलातून का एक विश्वसनीय शिष्य अरस्तु - अंग्रेजी नाम अरिस्तोतले - था. उधर फिलिप का एक पुत्र था जिसका नाम था सिकंदर - अंग्रेजी नाम अलेक्सान्दर. प्लेटो कि मृत्यु के बाद अरस्तु १३ वर्षीय सिकंदर का शिक्षक नियुक्त किया गया जिससे कि उसे बचपन से ही विश्व पर आक्रमण करने के लिए प्रशिक्षित किया जा सके. इसके लिए उसे बुद्धिहीन किन्तु परम शक्तिशाली बनाया गया. वह पूरी तरह अरस्तु पर निर्भर करता था तथा उसके आज्ञाकारी बना रहता था. अरस्तु तथा सिकंदर ने ईसापूर्व ३२६ में अपना विश्व अभियान आरम्भ किया और अफ्रीका तथा एशिया के देशों को पराजित करता हुआ ईसापूर्व ३२३ में भारत पर आक्रमण के लिए पहुंचा.


इस आक्रमण से पूर्व भारत को निर्बल करने के लिए अफलातून तथा अरस्तु  ने अकादेमी के माध्यम से क्या क्या किया इसे पढ़िए अगले खंड में.