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शुक्रवार, 1 अक्तूबर 2010

इतिहास, भावुकता और असहिष्णुता

इतिहास प्रायः कटु सत्यों का विषय होता है, न कि भावनाओं का. किन्तु इसको लोग प्रायः अपनी भावनाओं से जोड़ने लगते हैं. ऐसा करके वे इतिहास विषयक शोधों में व्यवधान उत्पन्न करते हैं. शोधों के आधार पर बड़े से बड़े और स्थापित वैज्ञानिक सत्य भी बदलते रहते हैं तो ज्ञात इतिहास में त्रुटि क्यों नहीं खोजी जानी चाहिए. भारत के ज्ञात इतिहास में इतनी भयंकर त्रुटियाँ हैं कि इसे विश्व स्तर पर विश्वसनीय नहीं माना जा रहा है. इसलिए हम सभी भारतीयों का कर्तव्य है कि हम इस पर शोध करें और इसे विश्वसनीय बनाएं. केवल भावनाओं के आधार पर इस विषय में कट्टरता दिखने से कोई लाभ नहीं होने वाला.

इस विषय में दूसरा महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि इतिहास किसी जाति अथवा धर्म का पक्षधर बने रहने से सही रूप में नहीं रचा जा सकता, इसके लिए धर्म और जाति से निरपेक्ष होने की आवश्यकता है. भारत के महाभारतकालीन इतिहास के बारे में तो यह अतीव सरल और सहज इसलिए भी है कि उस समय भारत का मौलिक समाज किसी वर्तमान धर्म अथवा जाति से सम्बद्ध नहीं था.

भारत सहित विश्व के सभी भाषाविद और इतिहासकार जानते और मानते हैं कि वैदिक संस्कृत, जिसमें भारत के वेद और शस्त्र रचे हुए हैं, आधुनिक संस्कृत से कोई सम्बन्ध नहीं है. तथापि आज तक ऐसा कोई प्रयास नहीं किया गया कि वैदिक संस्कृत को जाना जाए. इसका कारण और प्रमाण यह है कि आज तक वेदों और शास्त्रों का कोई ऐसा अनुवाद नहीं किया गया जो आधुनिक संस्कृत पर आधारित न हो. इस कारण से इन प्राचीन ग्रंथों के कोई भी सही अनुवाद उपलब्ध नहीं है जिनसे भारत के तत्कालीन इतिहास की सत्यता को प्रमाणित किया जा सकता. जो भी इतिहास संबंधी सूचनाएं उपलब्ध हुई हैं वे उक्त भृष्ट अनुवादों से ही प्राप्त हुई हैं. इसी लिए वे भी भृष्ट हैं और विश्वसनीय नहीं हैं.

महर्षि अरविन्द ने 'वेद रहस्य' नामक पुस्तक में वैदिक संस्कृत के बारे में कुछ अध्ययन किया है और संकेत दिए हैं कि वैदिक संस्कृत की शब्दावली लैटिन और ग्रीक भाषाओं की शब्दावली से मेल खाती है. इस आधार पर मेने भी कुछ अध्ययन किये और पाया कि हम लैटिन और ग्रीक भाषाओँ के शब्दार्थों के आधार पर वेदों और शास्त्रों के सही अनुवाद प्राप्त कर सकते हैं. चूंकि मैं लैटिन और ग्रीक भाषाओँ का महर्षि अरविन्द की तरह ज्ञानवान नहीं हूँ तथापि इन भाषाओँ के शब्दकोशों के आधार पर वेदों और शास्त्रों के कुछ अंशों के अनुवाद पाने में समर्थ हो पाया हूँ, जिसके आधार पर भारत के इतिहास के पुनर्रचना आरम्भ की है. इसमें दूसरों का भी सहयोग मिले इसी आशा से वैदिक और शास्त्रीय शब्दावली के अर्थ भी प्रकाशित करने आरम्भ किये हैं. यदि किसी व्यक्ति की दृष्टि में वैदिक संस्कृत के बारे में दोषपूर्ण है तो वह यह अपने विचार से सही अवधारणा प्रतिपादित करे न कि केवल दोष निकालने को ही अपना कर्तव्य समझे. किन्तु ऐसा किसी ने कुछ नहीं किया है.

यहाँ यह भी सभी को स्वीकार्य होगा कि 'महाभारत' युद्ध विश्व का भीषणतम सशस्त्र संग्राम था जिसमें तत्कालीन विश्व के अधिकाँश देश सम्मिलित थे. इसकी भीषणता  सिद्ध करती है कि दोनों पक्षों की जीवन-शैली, चरित्र और विचारधारा में अत्यंत गहन अंतराल थे. एक परिवार के ही दो पक्ष तो बन सकते हैं, और दोनों के मध्य स्थानीय स्तर का संघर्ष भी हो सकता है किन्तु उनके कारण विश्व व्यापक सशस्त्र संघर्ष नहीं हो सकता. वस्तुतः यह युद्ध पृथ्वी का प्रथम विश्व-युद्ध था किन्तु भारत के इतिहास को विश्वसनीयता प्राप्त न होने के कारण इसे इतिहास में कोई महत्व नहीं दिया जा रहा है. यह भी हम भारतीयों को अपनी त्रुटि सुधारने का पर्याप्त कारण होना चाहिए यदि हम में लेश मात्र भी आत्म-सम्मान की भावना शेष है. आखिर भारत के इतिहास में कहीं तो कुछ ऐसा है जिसे हम समझ नहीं पा रहे हैं और लकीर के फ़कीर बने गलत-सलत अवधारणाओं को गले लगाये बैठे हैं और मूर्खतापूर्ण आत्म-संतुष्टि प्राप्त कर रहे हैं.

आर्य विश्व स्तर की एक महत्वपूर्ण जाति थी जिसका भारत से गहन सम्बन्ध था, इससे भी कोई इनकार नहीं कर सकता. किन्तु भारत के इतिहास के त्रुटिपूर्ण होने के कारण आर्यों के बारे में भी अभी तक इतिहासकार एक मत नहीं हो पाए हैं. यह भी हमारे लिए डूब मरने के लिए पर्याप्त होना चाहिए था.

समस्त विश्व सिकंदर को महान कहता है तथापि उसके बारे में शोधों से ज्ञात हुआ है कि वह समलिंगी था जिसे अभी हाल में बनी हॉलीवुड फिल्म 'अलैक्सैंदर' में प्रस्तुत किया गया है, किन्तु उसे महान कहने वाले किसी व्यक्ति ने इस फिल्म पर उंगली नहीं उठायी क्योंकि विश्व भार के समझदार लोग इतिहास को भावुकता से प्रथक रखते हैं और इस बारे में शोधों को महत्व देते हैं. इसी व्यक्ति के बारे में इंटरपोल द्वारा की गयी छान-बीनों के आधार पर सिद्ध किया गया कि सिकंदर बेहद शराबी और नृशंस व्यक्ति था जो उसकी महानता पर प्रश्न चिन्ह लगाता है. इसे भी डिस्कवरी चैनल पर बड़े जोर-शोर से प्रकाशित किया गया. इसी प्रकाशन में यह संदेह भी व्यक्त किया गया कि सिकंदर की हत्या उसके गुरु अरस्तू ने की थी. किन्तु उसका भी भावुकता के आधार पर कोई विरोध नहीं किया गया क्यों कि इसमें भी शोधपूर्ण दृष्टिकोण को महत्व दिया गया.
The World Wars

मेरे आलेखों का कुछ भावुक लोग विरोध कर रहे हैं किन्तु इस बारे में वे कोई शोधपरक तर्क न देकर केवल अपनी भावनाओं को सामने ले आते हैं, जो उग्रता है न कि मानवीय अथवा वैज्ञानिक दृष्टिकोण. अतः मेरा निवेदन है कि वे कुछ शोध करें विशेष कर वैदिक संस्कृत और आधुनिक संस्कृत के अंतराल पर और जब भी वे इस अंतराल को समझ सकें उसके आधार पर शास्त्रों के अनुवाद करें, तभी कोई सार्थक निष्कर्ष निकाला जा सकता है.    

इतिहास, भावुकता और असहिष्णुता

इतिहास प्रायः कटु सत्यों का विषय होता है, न कि भावनाओं का. किन्तु इसको लोग प्रायः अपनी भावनाओं से जोड़ने लगते हैं. ऐसा करके वे इतिहास विषयक शोधों में व्यवधान उत्पन्न करते हैं. शोधों के आधार पर बड़े से बड़े और स्थापित वैज्ञानिक सत्य भी बदलते रहते हैं तो ज्ञात इतिहास में त्रुटि क्यों नहीं खोजी जानी चाहिए. भारत के ज्ञात इतिहास में इतनी भयंकर त्रुटियाँ हैं कि इसे विश्व स्तर पर विश्वसनीय नहीं माना जा रहा है. इसलिए हम सभी भारतीयों का कर्तव्य है कि हम इस पर शोध करें और इसे विश्वसनीय बनाएं. केवल भावनाओं के आधार पर इस विषय में कट्टरता दिखने से कोई लाभ नहीं होने वाला.

इस विषय में दूसरा महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि इतिहास किसी जाति अथवा धर्म का पक्षधर बने रहने से सही रूप में नहीं रचा जा सकता, इसके लिए धर्म और जाति से निरपेक्ष होने की आवश्यकता है. भारत के महाभारतकालीन इतिहास के बारे में तो यह अतीव सरल और सहज इसलिए भी है कि उस समय भारत का मौलिक समाज किसी वर्तमान धर्म अथवा जाति से सम्बद्ध नहीं था.

भारत सहित विश्व के सभी भाषाविद और इतिहासकार जानते और मानते हैं कि वैदिक संस्कृत, जिसमें भारत के वेद और शस्त्र रचे हुए हैं, आधुनिक संस्कृत से कोई सम्बन्ध नहीं है. तथापि आज तक ऐसा कोई प्रयास नहीं किया गया कि वैदिक संस्कृत को जाना जाए. इसका कारण और प्रमाण यह है कि आज तक वेदों और शास्त्रों का कोई ऐसा अनुवाद नहीं किया गया जो आधुनिक संस्कृत पर आधारित न हो. इस कारण से इन प्राचीन ग्रंथों के कोई भी सही अनुवाद उपलब्ध नहीं है जिनसे भारत के तत्कालीन इतिहास की सत्यता को प्रमाणित किया जा सकता. जो भी इतिहास संबंधी सूचनाएं उपलब्ध हुई हैं वे उक्त भृष्ट अनुवादों से ही प्राप्त हुई हैं. इसी लिए वे भी भृष्ट हैं और विश्वसनीय नहीं हैं.

महर्षि अरविन्द ने 'वेद रहस्य' नामक पुस्तक में वैदिक संस्कृत के बारे में कुछ अध्ययन किया है और संकेत दिए हैं कि वैदिक संस्कृत की शब्दावली लैटिन और ग्रीक भाषाओं की शब्दावली से मेल खाती है. इस आधार पर मेने भी कुछ अध्ययन किये और पाया कि हम लैटिन और ग्रीक भाषाओँ के शब्दार्थों के आधार पर वेदों और शास्त्रों के सही अनुवाद प्राप्त कर सकते हैं. चूंकि मैं लैटिन और ग्रीक भाषाओँ का महर्षि अरविन्द की तरह ज्ञानवान नहीं हूँ तथापि इन भाषाओँ के शब्दकोशों के आधार पर वेदों और शास्त्रों के कुछ अंशों के अनुवाद पाने में समर्थ हो पाया हूँ, जिसके आधार पर भारत के इतिहास के पुनर्रचना आरम्भ की है. इसमें दूसरों का भी सहयोग मिले इसी आशा से वैदिक और शास्त्रीय शब्दावली के अर्थ भी प्रकाशित करने आरम्भ किये हैं. यदि किसी व्यक्ति की दृष्टि में वैदिक संस्कृत के बारे में दोषपूर्ण है तो वह यह अपने विचार से सही अवधारणा प्रतिपादित करे न कि केवल दोष निकालने को ही अपना कर्तव्य समझे. किन्तु ऐसा किसी ने कुछ नहीं किया है.

यहाँ यह भी सभी को स्वीकार्य होगा कि 'महाभारत' युद्ध विश्व का भीषणतम सशस्त्र संग्राम था जिसमें तत्कालीन विश्व के अधिकाँश देश सम्मिलित थे. इसकी भीषणता  सिद्ध करती है कि दोनों पक्षों की जीवन-शैली, चरित्र और विचारधारा में अत्यंत गहन अंतराल थे. एक परिवार के ही दो पक्ष तो बन सकते हैं, और दोनों के मध्य स्थानीय स्तर का संघर्ष भी हो सकता है किन्तु उनके कारण विश्व व्यापक सशस्त्र संघर्ष नहीं हो सकता. वस्तुतः यह युद्ध पृथ्वी का प्रथम विश्व-युद्ध था किन्तु भारत के इतिहास को विश्वसनीयता प्राप्त न होने के कारण इसे इतिहास में कोई महत्व नहीं दिया जा रहा है. यह भी हम भारतीयों को अपनी त्रुटि सुधारने का पर्याप्त कारण होना चाहिए यदि हम में लेश मात्र भी आत्म-सम्मान की भावना शेष है. आखिर भारत के इतिहास में कहीं तो कुछ ऐसा है जिसे हम समझ नहीं पा रहे हैं और लकीर के फ़कीर बने गलत-सलत अवधारणाओं को गले लगाये बैठे हैं और मूर्खतापूर्ण आत्म-संतुष्टि प्राप्त कर रहे हैं.

आर्य विश्व स्तर की एक महत्वपूर्ण जाति थी जिसका भारत से गहन सम्बन्ध था, इससे भी कोई इनकार नहीं कर सकता. किन्तु भारत के इतिहास के त्रुटिपूर्ण होने के कारण आर्यों के बारे में भी अभी तक इतिहासकार एक मत नहीं हो पाए हैं. यह भी हमारे लिए डूब मरने के लिए पर्याप्त होना चाहिए था.

समस्त विश्व सिकंदर को महान कहता है तथापि उसके बारे में शोधों से ज्ञात हुआ है कि वह समलिंगी था जिसे अभी हाल में बनी हॉलीवुड फिल्म 'अलैक्सैंदर' में प्रस्तुत किया गया है, किन्तु उसे महान कहने वाले किसी व्यक्ति ने इस फिल्म पर उंगली नहीं उठायी क्योंकि विश्व भार के समझदार लोग इतिहास को भावुकता से प्रथक रखते हैं और इस बारे में शोधों को महत्व देते हैं. इसी व्यक्ति के बारे में इंटरपोल द्वारा की गयी छान-बीनों के आधार पर सिद्ध किया गया कि सिकंदर बेहद शराबी और नृशंस व्यक्ति था जो उसकी महानता पर प्रश्न चिन्ह लगाता है. इसे भी डिस्कवरी चैनल पर बड़े जोर-शोर से प्रकाशित किया गया. इसी प्रकाशन में यह संदेह भी व्यक्त किया गया कि सिकंदर की हत्या उसके गुरु अरस्तू ने की थी. किन्तु उसका भी भावुकता के आधार पर कोई विरोध नहीं किया गया क्यों कि इसमें भी शोधपूर्ण दृष्टिकोण को महत्व दिया गया.
The World Wars

मेरे आलेखों का कुछ भावुक लोग विरोध कर रहे हैं किन्तु इस बारे में वे कोई शोधपरक तर्क न देकर केवल अपनी भावनाओं को सामने ले आते हैं, जो उग्रता है न कि मानवीय अथवा वैज्ञानिक दृष्टिकोण. अतः मेरा निवेदन है कि वे कुछ शोध करें विशेष कर वैदिक संस्कृत और आधुनिक संस्कृत के अंतराल पर और जब भी वे इस अंतराल को समझ सकें उसके आधार पर शास्त्रों के अनुवाद करें, तभी कोई सार्थक निष्कर्ष निकाला जा सकता है.    

सोमवार, 10 मई 2010

महाभारत युद्ध

वस्तुतः महाभारत युद्ध विश्व का प्रथम विश्व-युद्ध था किन्तु भारतीय इतिहासकारों द्वारा इसे सही रूप में प्रस्तुत न किये जाने के कारण विश्व इतिहास इसे विश्व यूद्ध की मान्यता प्रदान नहीं करता है. महाभारत ग्रन्थ के अनुवादों में हुई त्रुटियों के कारण इस युद्ध के स्थान और समय में गंभीर भ्रांतियां उत्पन्न हुई हैं जिसके कारण विश्व इतिहास में इस युद्ध का कोई विवरण नहीं दिया जाता है. इसके पात्रों, काल और स्थल के बारे में मैंने जो शोध किये हैं, उनके परिणाम निम्नांकित हैं -

महाभारत के प्रमुख पात्र 
महाभारत ग्रन्थ के वास्तविक नायक राम हैं जिन्हें ब्रह्मा भी कहा जाता था. किन्तु ग्रन्थ के मूल पथ में जहां-जहां राम शब्द आया है, हिंदी अनुवाद में उसे बलराम, परशुराम आदि कर दिया गया है जिससे राम को ग्रन्थ से पूरी तरह अनुपस्थित किया गया है.  किन्तु राम की हत्या महाभारत युद्ध के पूर्व ही कर दी गयी थी.

ग्रन्थ में कृष्ण खलनायक की भूमिका में है किन्तु उसकी भूमिका व्यापक सिद्ध करने के लिए अनेक शब्दों, जैसे श्याम, गोपाल, वासुदेव, माधव, हृषिकेश, जनार्दन, देवकीनंदन, आदि, को कृष्ण के अन्य नाम कह दिया गया है, जब कि इनमें से अनेक के तात्पर्य अन्य हैं.  राम और कृष्ण की समकालीनता एक अन्य प्रमाण मैं पहले ही दे चुका हूँ.

महाभारत युद्ध में सिकंदर ने भाग लिया था जिसे महाभारत ग्रन्थ में शिखंडी कहा गया है. इस के अतिरिक्त महाभारत ग्रन्थ में सेल्युकस का नाम हेल्युकस लिखा गया है जैसे कि सिन्धु को इंडस अथवा हिन्दू कहा जाता है.  कृष्ण के आमंत्रण पर सिकंदर  द्वारा भारत पर आक्रमण और पराजय के बाद सिकंदर ने समझौता कर लिया था, किन्तु कृष्ण ने उसे और उसकी सेना को दक्षिण भारत में बसा दिया गया था जिससे कि वे आगामी युद्ध की तैयारी कर सकें. १५ माह की तैयारी के पश्चात महाभारत युद्ध हुआ. इसीलिये विश्व इतिहास में सिकंदर का भारत में ठहराव १८ माह कहा गया है. 

युद्ध से पूर्व कृष्ण द्वारा देव योद्धाओं जैसे जरासंध, कंस, कीचक, आदि की हत्या छल-कपट से करा दी थी इसलिए वे स्वयं युद्ध करने में असमर्थ थे. इसलिए देव प्रमुख विष्णु ने भारत की यवनों से रक्षा के लिए सिकंदर द्वारा पराजित आर्यणाम के सम्राट डरायस-2 (दुर्योदन) आमंत्रित किया और शकुनि के छद्मरूप में उसक नीतिकार बने रहे. यही भारत में आर्यों का आगमन था.

काल निर्णय
यदि विश्व इतिहास में माना गया सिकंदर के भारत पर आक्रमण का काल सही माना जाये तो महाभारत युद्ध ३२२ ईसापूर्व में हुआ. मुझे अभी इसकी पुष्टि हेतु कोई सूत्र प्राप्त नहीं हुआ है, इसलिए मैं अभी इस बारे में अपनी ओर से कुछ नहीं कह सकता.

युद्ध स्थल
प्रचारित मान्यता के अनुसार महाभारत युद्ध कुरुक्षेत्र में हुआ जो मुझे सही प्रतीत नहीं हुआ. इस बारे में मैंने कुरुक्षेत्र विश्व विद्यालय के इतिहास और इंडोलोजी विभाग के विद्वानों के मत जानने चाहे जिनके अनुसार कुरुक्षेत्र में की गयी अनेक खुदाइयों पर भी उस क्षेत्र में युद्ध के कोई प्रमाण प्राप्त नहीं हुए हैं. मेरे द्वारा सरस्वती नदी के मार्ग और अवशेषों के अन्वेषण हेतु  की गयी  पदयात्राओं  के दौरान मुझे अजमेर रेलवे स्टेशन के लगभग २ किलोमीटर उत्तर में उपस्थित जलधारा के दूसरे किनारे पर एक विशाल मैदान दिखाई दिया. वस्तुतः यह जलधारा ही सरस्वती नदी का एक अवशेष है. इस मैदान में महाबारत युद्ध क्षेत्र के अनेक लक्षण उपलब्ध हैं, विशेषकर युद्ध का अवलोकन करने का स्थान जो एक समीपस्थ पर्वत शिखर पर बना है. इस बारे में अभी अनुसंधान चल रहा है, विशेषकर महाभारत ग्रन्थ में इस स्थान के सन्दर्भ के बारे में.     

महाभारत युद्ध

वस्तुतः महाभारत युद्ध विश्व का प्रथम विश्व-युद्ध था किन्तु भारतीय इतिहासकारों द्वारा इसे सही रूप में प्रस्तुत न किये जाने के कारण विश्व इतिहास इसे विश्व यूद्ध की मान्यता प्रदान नहीं करता है. महाभारत ग्रन्थ के अनुवादों में हुई त्रुटियों के कारण इस युद्ध के स्थान और समय में गंभीर भ्रांतियां उत्पन्न हुई हैं जिसके कारण विश्व इतिहास में इस युद्ध का कोई विवरण नहीं दिया जाता है. इसके पात्रों, काल और स्थल के बारे में मैंने जो शोध किये हैं, उनके परिणाम निम्नांकित हैं -

महाभारत के प्रमुख पात्र 
महाभारत ग्रन्थ के वास्तविक नायक राम हैं जिन्हें ब्रह्मा भी कहा जाता था. किन्तु ग्रन्थ के मूल पथ में जहां-जहां राम शब्द आया है, हिंदी अनुवाद में उसे बलराम, परशुराम आदि कर दिया गया है जिससे राम को ग्रन्थ से पूरी तरह अनुपस्थित किया गया है.  किन्तु राम की हत्या महाभारत युद्ध के पूर्व ही कर दी गयी थी.

ग्रन्थ में कृष्ण खलनायक की भूमिका में है किन्तु उसकी भूमिका व्यापक सिद्ध करने के लिए अनेक शब्दों, जैसे श्याम, गोपाल, वासुदेव, माधव, हृषिकेश, जनार्दन, देवकीनंदन, आदि, को कृष्ण के अन्य नाम कह दिया गया है, जब कि इनमें से अनेक के तात्पर्य अन्य हैं.  राम और कृष्ण की समकालीनता एक अन्य प्रमाण मैं पहले ही दे चुका हूँ.

महाभारत युद्ध में सिकंदर ने भाग लिया था जिसे महाभारत ग्रन्थ में शिखंडी कहा गया है. इस के अतिरिक्त महाभारत ग्रन्थ में सेल्युकस का नाम हेल्युकस लिखा गया है जैसे कि सिन्धु को इंडस अथवा हिन्दू कहा जाता है.  कृष्ण के आमंत्रण पर सिकंदर  द्वारा भारत पर आक्रमण और पराजय के बाद सिकंदर ने समझौता कर लिया था, किन्तु कृष्ण ने उसे और उसकी सेना को दक्षिण भारत में बसा दिया गया था जिससे कि वे आगामी युद्ध की तैयारी कर सकें. १५ माह की तैयारी के पश्चात महाभारत युद्ध हुआ. इसीलिये विश्व इतिहास में सिकंदर का भारत में ठहराव १८ माह कहा गया है. 

युद्ध से पूर्व कृष्ण द्वारा देव योद्धाओं जैसे जरासंध, कंस, कीचक, आदि की हत्या छल-कपट से करा दी थी इसलिए वे स्वयं युद्ध करने में असमर्थ थे. इसलिए देव प्रमुख विष्णु ने भारत की यवनों से रक्षा के लिए सिकंदर द्वारा पराजित आर्यणाम के सम्राट डरायस-2 (दुर्योदन) आमंत्रित किया और शकुनि के छद्मरूप में उसक नीतिकार बने रहे. यही भारत में आर्यों का आगमन था.

काल निर्णय
यदि विश्व इतिहास में माना गया सिकंदर के भारत पर आक्रमण का काल सही माना जाये तो महाभारत युद्ध ३२२ ईसापूर्व में हुआ. मुझे अभी इसकी पुष्टि हेतु कोई सूत्र प्राप्त नहीं हुआ है, इसलिए मैं अभी इस बारे में अपनी ओर से कुछ नहीं कह सकता.

युद्ध स्थल
प्रचारित मान्यता के अनुसार महाभारत युद्ध कुरुक्षेत्र में हुआ जो मुझे सही प्रतीत नहीं हुआ. इस बारे में मैंने कुरुक्षेत्र विश्व विद्यालय के इतिहास और इंडोलोजी विभाग के विद्वानों के मत जानने चाहे जिनके अनुसार कुरुक्षेत्र में की गयी अनेक खुदाइयों पर भी उस क्षेत्र में युद्ध के कोई प्रमाण प्राप्त नहीं हुए हैं. मेरे द्वारा सरस्वती नदी के मार्ग और अवशेषों के अन्वेषण हेतु  की गयी  पदयात्राओं  के दौरान मुझे अजमेर रेलवे स्टेशन के लगभग २ किलोमीटर उत्तर में उपस्थित जलधारा के दूसरे किनारे पर एक विशाल मैदान दिखाई दिया. वस्तुतः यह जलधारा ही सरस्वती नदी का एक अवशेष है. इस मैदान में महाबारत युद्ध क्षेत्र के अनेक लक्षण उपलब्ध हैं, विशेषकर युद्ध का अवलोकन करने का स्थान जो एक समीपस्थ पर्वत शिखर पर बना है. इस बारे में अभी अनुसंधान चल रहा है, विशेषकर महाभारत ग्रन्थ में इस स्थान के सन्दर्भ के बारे में.     

रविवार, 18 अप्रैल 2010

आर्यों का भारत आगमन

सिकंदर के भारत पर आक्रमण और उसके कृष्ण के सानिध्य में दक्षिण भारत में बस कर एक बड़े युद्ध की तैयारियों में जुट जाने से देवों में चिंता व्याप्त हो गयी. कृष्ण और पांडवों ने उन के योद्धाओं की एक-एक करके पहले ही हत्या कर दी थी इसलिए उनकी क्षीण हो चुकी थी, जिसके कारण वे स्वयं युद्ध करने में असमर्थ थे. उनमें से जो प्रमुख व्यक्ति जीवित थे उनमें विष्णु, जीसस ख्रीस्त, विश्वामित्र, भरत और कर्ण आदि सम्मिलित थे.

उधर सिकंदर ने पर्शिया के शासक डराय्स-द्वितीय को पराजित कर दिया था और वह महान योद्धा जंगलों में भटक रहा था. पर्शिया का साम्राज्य ही आर्य साम्राज्य था और उस समय उनका प्रमुख डराय्स ही था. यह जाति देवों की तरह ही एक सभ्य जाति थी और यवनों से आतंकित थी. विष्णु ने डराय्स-द्वितीय से संपर्क स्थापित किया और उसे भारत में सेना संगठित कर यवनों का मुकाबला करने को राजी कर लिया. डराय्स-द्वितीय का भारतीय नाम दुर्योधन रखा गया जो कौरव प्रमुख के रूप में विख्यात है. इस प्रकार आर्य जाति का भारत में आगमन हुआ. यह जाति मूल रूप से यूरोप में क्यूरा नदी पर बसती थी जिसके कारण इसे कुरु वंश भी कहा गया है. वहीं से आकर इस जाति ने पर्शिया में अपना साम्राज्य स्थापित किया और बेबीलोन को अपनी राजधानी बनाकर विश्व के सुन्दरतम नगर के रूप में विकसित किया था. पर्शिया का एक अन्य नाम आर्यणाम था जिससे आधुनिक शब्द ईरान बना है.  स्वयं के साम्राज्य की स्थापना हेतु आर्य जाति ने अनेक युद्ध किये थे जिसके कारण इन्हें युद्ध का अच्छा अनुभव था.

दुर्योधन के बारे में एक और ऐतिहासिक तथ्य प्रासंगिक है. उसके एक पूर्वज सायरस ने हिन्दुकुश पार करके सिन्धु घाटी के नगरों के समूह को गांधार नाम दिया था. इस प्रकार गान्धार, दुर्योधन और शकुनी का गुप्त सम्बन्ध स्थापित होता है.

विष्णु स्वयं यवन आतंक के निशाने पर थे और वे अकेले खुले रूप में नहीं रह सकते थे. इसलिए उन्होंने शकुनी का छद्म रूप धारण किया और दुर्योधन के मामा बनकर कौरव पक्ष के नीतिकार के रूप में कार्य करते रहे. इस विषयक सन्दर्भ भावप्रकाश नामक शास्त्र में गुप्त रूप में उपलब्ध है. क्योंकि महाभारत में यवन समूह की विजय के बाद कोई भी तथ्य स्पष्ट रूप में नहीं लिखा जा सकता था, जबकि भाव प्रकाश नामक ग्रन्थ स्वस्तिका, लक्ष्मी और सरस्वती देवियों ने महाभारत युद्ध के बाद उडीसा के तितलागढ़ नामक स्थान पर एक गुफा में गुप्त वास में लिखा था. तित्लागढ़ विष्णु की माँ देवी सुमित्रा का मायका था जिसके निकट के विशाल घोडार नामक ऐतिहासिक स्थल की प्राचीनता अब दम तोड़ रही है तथापि आसपास की पहाड़ियों पर अनेक भित्तिचित्र आज भी विद्यमान हैं.  

आर्यों का भारत आगमन

सिकंदर के भारत पर आक्रमण और उसके कृष्ण के सानिध्य में दक्षिण भारत में बस कर एक बड़े युद्ध की तैयारियों में जुट जाने से देवों में चिंता व्याप्त हो गयी. कृष्ण और पांडवों ने उन के योद्धाओं की एक-एक करके पहले ही हत्या कर दी थी इसलिए उनकी क्षीण हो चुकी थी, जिसके कारण वे स्वयं युद्ध करने में असमर्थ थे. उनमें से जो प्रमुख व्यक्ति जीवित थे उनमें विष्णु, जीसस ख्रीस्त, विश्वामित्र, भरत और कर्ण आदि सम्मिलित थे.

उधर सिकंदर ने पर्शिया के शासक डराय्स-द्वितीय को पराजित कर दिया था और वह महान योद्धा जंगलों में भटक रहा था. पर्शिया का साम्राज्य ही आर्य साम्राज्य था और उस समय उनका प्रमुख डराय्स ही था. यह जाति देवों की तरह ही एक सभ्य जाति थी और यवनों से आतंकित थी. विष्णु ने डराय्स-द्वितीय से संपर्क स्थापित किया और उसे भारत में सेना संगठित कर यवनों का मुकाबला करने को राजी कर लिया. डराय्स-द्वितीय का भारतीय नाम दुर्योधन रखा गया जो कौरव प्रमुख के रूप में विख्यात है. इस प्रकार आर्य जाति का भारत में आगमन हुआ. यह जाति मूल रूप से यूरोप में क्यूरा नदी पर बसती थी जिसके कारण इसे कुरु वंश भी कहा गया है. वहीं से आकर इस जाति ने पर्शिया में अपना साम्राज्य स्थापित किया और बेबीलोन को अपनी राजधानी बनाकर विश्व के सुन्दरतम नगर के रूप में विकसित किया था. पर्शिया का एक अन्य नाम आर्यणाम था जिससे आधुनिक शब्द ईरान बना है.  स्वयं के साम्राज्य की स्थापना हेतु आर्य जाति ने अनेक युद्ध किये थे जिसके कारण इन्हें युद्ध का अच्छा अनुभव था.

दुर्योधन के बारे में एक और ऐतिहासिक तथ्य प्रासंगिक है. उसके एक पूर्वज सायरस ने हिन्दुकुश पार करके सिन्धु घाटी के नगरों के समूह को गांधार नाम दिया था. इस प्रकार गान्धार, दुर्योधन और शकुनी का गुप्त सम्बन्ध स्थापित होता है.

विष्णु स्वयं यवन आतंक के निशाने पर थे और वे अकेले खुले रूप में नहीं रह सकते थे. इसलिए उन्होंने शकुनी का छद्म रूप धारण किया और दुर्योधन के मामा बनकर कौरव पक्ष के नीतिकार के रूप में कार्य करते रहे. इस विषयक सन्दर्भ भावप्रकाश नामक शास्त्र में गुप्त रूप में उपलब्ध है. क्योंकि महाभारत में यवन समूह की विजय के बाद कोई भी तथ्य स्पष्ट रूप में नहीं लिखा जा सकता था, जबकि भाव प्रकाश नामक ग्रन्थ स्वस्तिका, लक्ष्मी और सरस्वती देवियों ने महाभारत युद्ध के बाद उडीसा के तितलागढ़ नामक स्थान पर एक गुफा में गुप्त वास में लिखा था. तित्लागढ़ विष्णु की माँ देवी सुमित्रा का मायका था जिसके निकट के विशाल घोडार नामक ऐतिहासिक स्थल की प्राचीनता अब दम तोड़ रही है तथापि आसपास की पहाड़ियों पर अनेक भित्तिचित्र आज भी विद्यमान हैं.