भाषा विकास द्वारा मनुष्य जाति ने अपना मंतव्य स्पष्ट रूप से व्यक्त करने की विशिष्टता पायी है. इसके लिए दो माध्यम विशेष हैं - वाणी और लेखन. चित्रांकन और भाव प्रदर्शन भी इसके सशक्त माध्यम हैं. प्रत्येक मनुष्य किसी न किसी रूप में इन चारों माध्यमों का उपयोग करता है किन्तु प्रत्येक की सक्षमता दूसरों से भिन्न हो सकती है.
सांवादिक कौशल के निम्नांकित विशेष लक्षण होते हैं -
संक्षिप्त
लम्बे संवाद सुनते समय श्रोता वर्तमान को तो ग्रहण करता जाता है किन्तु विगत तथ्यों को विस्मृत करता जता है. इससे संवाद की सार्ताकता नष्ट हो जाती है. इसलिए प्रत्येक संवाद चाहे मौखिक हो अथवा लिखित, संक्षिप्त होना चाहिए ताकि श्रोता अथवा पाठक एक ही समय पर पूरे संवाद को ग्रहण कर सके. .
पुनरावृत्ति न्यूनतम
किसी संवाद की संक्षिप्ति के लिए यह भी वांछित है कि उसमें बावों की पुनरावृत्ति न्यूनतम हों, तथापि इनकी उपस्थिति किसी भाव पर विशेष बल देने के लिए आवश्यक हो सकती है.
प्रासंगिक
प्रसंग के बाहर जाने पर संवाद का अनावश्यक विस्तार हो जाता है और श्रोता उससे संलग्न नहीं रह पाता. श्रोता की इस अरुचि से संवाद निरर्थक हो जाता है.
बिन्दुवार
किसी वृहत प्रसंग को व्यक्त करने के लिए उसे क्रमित बिन्दुओं में विभाकित किया जाता है इसके बाद संवाद को बिन्दुवार व्यक्त किया जाता है. .
लक्ष्य्परक
प्रत्येक संवाद में दो पक्ष होते हैं - वक्ता तथा श्रोता. प्रत्येक श्रोता किसी संवाद को ग्रहण करने के लिए अपनी विशिष्ट सुयोग्यता रखता है. अतः कोई भी संवाद सभी श्रोताओं के लिए ग्रहणीय नहीं होता और न ही कोई श्रोता सभी संवादों को समान रूप से ग्रहणीय माँ सकता है. अतः प्रत्येक संवाद लक्षित श्रोता वर्ग की योग्यता के अनुसार रचा जाना चाहिए.
कुछ वक्ता संवाद का लक्ष्य-परक निर्धारण न करके उसे अपनी बुद्धिमत्ता के परिचायक के रूप में प्रस्तुत करने की भूल करते हैं जिससे संवाद श्रोता को ग्रहणीय न होने के कारण वक्ता की बुद्धि का परिचायक भी नहीं हो पाता.
शिक्षाप्रद
प्रत्येक संवाद किसी विषय पर केन्द्रित होता है और उसका लक्ष्य श्रोता के उस विषय में ज्ञान को संवर्धित करना ओता है. अत संवाद श्रोता को उस के मूल ज्ञान से आगे की ओर ले जाने में समर्थ होना चाहिए. अन्यथा संवाद में श्रोता की रूचि समाप्त हो जाती है और वह उसे ग्रहण नहीं करता. विषय के अतिरिक्त संवाद यदि श्रोता के भाषा ज्ञान को भी संपुष्ट अथवा संवर्धित करता है तो यह श्रोता के लिए और अधिक लाभकर सिद्ध होता है.
जिज्ञासापरक
संवाद श्रोता में जिज्ञासा जागृत करने वाला तो होना ही चाहिए साथ ही आगे बढ़ता हुआ संवाद श्रोता में जागृत जिज्ञासाओं को संतुष्ट भी करता हुआ होना चाहिए. इससे संवाद में श्रोता की रूचि सतत बनी रहती है.
आधिकारिक
वक्ता को ऐसे ही विषय पर संवाद स्थापित करना चाहिए जिस पर उसका अधिकार हो और वह उसे श्रोता के समक्ष अपनी प्रस्तुति से सिद्ध भी कर सके. तभी श्रोता में वक्ता के प्रति श्रद्धा उगती है और संवाद अधिक सफल सिद्ध होता है.
बहु-माध्यमी
जैसा कि ऊपर का जा चुका है संवाद के चार माध्यम होने संभव होते हैं - वाणी, लेखन, चित्रांकन तथा भाव प्रदर्शन. मौखिक संवाद में वक्ता का भाव प्रदर्शन संवाद तो सशक्त बनता है जब कि लिखित संवाद में चित्रांकन संवाद को सशक्त एवं रुचिकर बनाता है. आधुनिक कम्पुटर की सहायता से स्थापित संवादों में मौखिक संवादों को भी चित्रांकन से संपुष्ट किया जा सकता है. अतः प्रत्येक संवाद में एक से अधिक माध्यमों का उपयोग करना लाभकर सिद्ध होता है.
पारस्परिक संवाद
पारस्परिक संवाद, जिसे साधारंतायाह बातचीत कहा जाता है, प्रत्येक सहभागी के लिए दूसरे व्यक्ति के संवाद का श्रवण उसकी अपनी अभिव्यक्ति से अधिक महत्वपूर्ण होता है. इसी से संवाद पूरे समय तक सार्थक रह सकता है.
सार रूप में कहा जा सकता है कि प्रत्येक संवाद मंतव्य को स्पष्ट व्यक्त करता हो, तथा सारगर्भित हो.
यद्यपि संवाद का मुख्य माध्यम वाणी और लेखन ही है,मौन भी संवाद की बहुत सशक्त माध्यम रहा है। यहां तक कि ब्लॉगिंग में भी,कई ओछी टिप्पणियों पर मौन साधकर भी ब्लॉगर अपने संस्कारों,ज्ञान-स्तर,विवेक आदि का परिचय दे रहा होता है।
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