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रविवार, 20 अक्तूबर 2013

वैदिक शास्त्र भावप्रकाश में आयुर्वेद एवं इतिहास एवं भूगोल

oSfnd ;qx ds fy;s oSfnd 'kCn ^vk;qosZn* gS ftldk nwljk vFkZ oSfnd LokLFkfoKku gSA pWawfd ml ;qx ds Hkkjrk/khr nso LokLFk dks loksZPp izkFkfedrk nsrs Fks blfy;s ml ;qx ds ckjs esa mUgksaus tks fy[kk og lc LokLFk ij dsfUnzr gSA nso czg~ek ds usr`Ro esa dk;Z djrs Fks ftuesa fo'ks"k :i ls mYys[kuh; czg~ek ds vxzt egs'oj] vuqt fo".kq] Jhx.ks"k ds :i esa xqIr jgus okys ;h'kq] fo'ofe=] vk=s;] vkfn FksA nso uSfrdrk dks gh ekuo/keZ ekurs Fks ftlds le{k lHkh /kEeZ gs; gSaA czg`ekuq;k;h nso czg~e.k Hkh dgykrs FksA

सोमवार, 15 जुलाई 2013

महाभारत एक नकली ग्रन्थ है

विगत कुछ वर्षों से मैं भारत के प्राचीन इतिहास को जानने के लिए महाभारत और अन्य वैदिक ग्रंथों की छानबीन करता रहा हूँ, और अंत में मैंने महाभारत को वेद व्यास द्वारा रचित एक अधिकृत एवं पुष्ट ग्रन्थ मानते हुए इसका सही अनुवाद करने के प्रयास किये. इस ग्रन्थ का उपक्रम आरम्भ करने से पूर्व अनेक कथाएँ दी गयी हैं जिन पर सरसरी नज़र डालते हुए मैं उपक्रम पर पहुंचा। इससे मुझे भारी आघात पहुँचा .

शनिवार, 26 जनवरी 2013

'महाभारत' आभार विज्ञप्ति

महाभारत ग्रन्थ का आरम्भ निम्नांकित श्लोक से होता है -

ukjk;.ka ueLd`R; uja pSo ujksRree~A nsoha ljLorha O;kla rrks t;eqnhj;srAA
vksme ueks Hkxors oklqnsok;%A 
vksme ue% firkegk;A 
vksme ue% iztkifrH;%A 
vksme ue% d`".k }Sik;uk;A 
vksme ue% loZfo?ufouk;dsH;%A

जिसका अर्थ है &

लेखकगण सर्वजन का एवं भद्रजनों & देवियों] सरस्वतियों एवं व्यासों का अभिनन्दन करते हैं जिन्होंने इस कार्य हेतु मूल सामग्री ऐसे प्रदान की जैसे एक गाय अपने बछड़े को दूध पिलाती है। 

इसके बाद उन पांच प्रकार के कार्यों की सूची प्रदान करते हैं जिनका अध्ययन इस ग्रन्थ में विशेष रूप से किया गया है &
  • खाद्य सामग्री उगाना] बनाना तथा प्रस्तुत करना]
  • वनस्पति रेशों से वस्त्र बनाना]
  • मिट्टी के बर्तन एवं भवन बनाना]
  • लेखन] विवादों में मध्यस्तता एवं न्याय करना]
  • किण्वन प्रक्रिया से रोगों की चिकित्सा हेतु औषधियां बनाना।
उपरोक्त के शब्दार्थों एवं अन्य भावों के लिए देखिये इसके अंग्रेज़ी संस्करण को -


Acknowledgement of the Epic Mahaabhaarat




शुक्रवार, 1 अक्तूबर 2010

इतिहास, भावुकता और असहिष्णुता

इतिहास प्रायः कटु सत्यों का विषय होता है, न कि भावनाओं का. किन्तु इसको लोग प्रायः अपनी भावनाओं से जोड़ने लगते हैं. ऐसा करके वे इतिहास विषयक शोधों में व्यवधान उत्पन्न करते हैं. शोधों के आधार पर बड़े से बड़े और स्थापित वैज्ञानिक सत्य भी बदलते रहते हैं तो ज्ञात इतिहास में त्रुटि क्यों नहीं खोजी जानी चाहिए. भारत के ज्ञात इतिहास में इतनी भयंकर त्रुटियाँ हैं कि इसे विश्व स्तर पर विश्वसनीय नहीं माना जा रहा है. इसलिए हम सभी भारतीयों का कर्तव्य है कि हम इस पर शोध करें और इसे विश्वसनीय बनाएं. केवल भावनाओं के आधार पर इस विषय में कट्टरता दिखने से कोई लाभ नहीं होने वाला.

इस विषय में दूसरा महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि इतिहास किसी जाति अथवा धर्म का पक्षधर बने रहने से सही रूप में नहीं रचा जा सकता, इसके लिए धर्म और जाति से निरपेक्ष होने की आवश्यकता है. भारत के महाभारतकालीन इतिहास के बारे में तो यह अतीव सरल और सहज इसलिए भी है कि उस समय भारत का मौलिक समाज किसी वर्तमान धर्म अथवा जाति से सम्बद्ध नहीं था.

भारत सहित विश्व के सभी भाषाविद और इतिहासकार जानते और मानते हैं कि वैदिक संस्कृत, जिसमें भारत के वेद और शस्त्र रचे हुए हैं, आधुनिक संस्कृत से कोई सम्बन्ध नहीं है. तथापि आज तक ऐसा कोई प्रयास नहीं किया गया कि वैदिक संस्कृत को जाना जाए. इसका कारण और प्रमाण यह है कि आज तक वेदों और शास्त्रों का कोई ऐसा अनुवाद नहीं किया गया जो आधुनिक संस्कृत पर आधारित न हो. इस कारण से इन प्राचीन ग्रंथों के कोई भी सही अनुवाद उपलब्ध नहीं है जिनसे भारत के तत्कालीन इतिहास की सत्यता को प्रमाणित किया जा सकता. जो भी इतिहास संबंधी सूचनाएं उपलब्ध हुई हैं वे उक्त भृष्ट अनुवादों से ही प्राप्त हुई हैं. इसी लिए वे भी भृष्ट हैं और विश्वसनीय नहीं हैं.

महर्षि अरविन्द ने 'वेद रहस्य' नामक पुस्तक में वैदिक संस्कृत के बारे में कुछ अध्ययन किया है और संकेत दिए हैं कि वैदिक संस्कृत की शब्दावली लैटिन और ग्रीक भाषाओं की शब्दावली से मेल खाती है. इस आधार पर मेने भी कुछ अध्ययन किये और पाया कि हम लैटिन और ग्रीक भाषाओँ के शब्दार्थों के आधार पर वेदों और शास्त्रों के सही अनुवाद प्राप्त कर सकते हैं. चूंकि मैं लैटिन और ग्रीक भाषाओँ का महर्षि अरविन्द की तरह ज्ञानवान नहीं हूँ तथापि इन भाषाओँ के शब्दकोशों के आधार पर वेदों और शास्त्रों के कुछ अंशों के अनुवाद पाने में समर्थ हो पाया हूँ, जिसके आधार पर भारत के इतिहास के पुनर्रचना आरम्भ की है. इसमें दूसरों का भी सहयोग मिले इसी आशा से वैदिक और शास्त्रीय शब्दावली के अर्थ भी प्रकाशित करने आरम्भ किये हैं. यदि किसी व्यक्ति की दृष्टि में वैदिक संस्कृत के बारे में दोषपूर्ण है तो वह यह अपने विचार से सही अवधारणा प्रतिपादित करे न कि केवल दोष निकालने को ही अपना कर्तव्य समझे. किन्तु ऐसा किसी ने कुछ नहीं किया है.

यहाँ यह भी सभी को स्वीकार्य होगा कि 'महाभारत' युद्ध विश्व का भीषणतम सशस्त्र संग्राम था जिसमें तत्कालीन विश्व के अधिकाँश देश सम्मिलित थे. इसकी भीषणता  सिद्ध करती है कि दोनों पक्षों की जीवन-शैली, चरित्र और विचारधारा में अत्यंत गहन अंतराल थे. एक परिवार के ही दो पक्ष तो बन सकते हैं, और दोनों के मध्य स्थानीय स्तर का संघर्ष भी हो सकता है किन्तु उनके कारण विश्व व्यापक सशस्त्र संघर्ष नहीं हो सकता. वस्तुतः यह युद्ध पृथ्वी का प्रथम विश्व-युद्ध था किन्तु भारत के इतिहास को विश्वसनीयता प्राप्त न होने के कारण इसे इतिहास में कोई महत्व नहीं दिया जा रहा है. यह भी हम भारतीयों को अपनी त्रुटि सुधारने का पर्याप्त कारण होना चाहिए यदि हम में लेश मात्र भी आत्म-सम्मान की भावना शेष है. आखिर भारत के इतिहास में कहीं तो कुछ ऐसा है जिसे हम समझ नहीं पा रहे हैं और लकीर के फ़कीर बने गलत-सलत अवधारणाओं को गले लगाये बैठे हैं और मूर्खतापूर्ण आत्म-संतुष्टि प्राप्त कर रहे हैं.

आर्य विश्व स्तर की एक महत्वपूर्ण जाति थी जिसका भारत से गहन सम्बन्ध था, इससे भी कोई इनकार नहीं कर सकता. किन्तु भारत के इतिहास के त्रुटिपूर्ण होने के कारण आर्यों के बारे में भी अभी तक इतिहासकार एक मत नहीं हो पाए हैं. यह भी हमारे लिए डूब मरने के लिए पर्याप्त होना चाहिए था.

समस्त विश्व सिकंदर को महान कहता है तथापि उसके बारे में शोधों से ज्ञात हुआ है कि वह समलिंगी था जिसे अभी हाल में बनी हॉलीवुड फिल्म 'अलैक्सैंदर' में प्रस्तुत किया गया है, किन्तु उसे महान कहने वाले किसी व्यक्ति ने इस फिल्म पर उंगली नहीं उठायी क्योंकि विश्व भार के समझदार लोग इतिहास को भावुकता से प्रथक रखते हैं और इस बारे में शोधों को महत्व देते हैं. इसी व्यक्ति के बारे में इंटरपोल द्वारा की गयी छान-बीनों के आधार पर सिद्ध किया गया कि सिकंदर बेहद शराबी और नृशंस व्यक्ति था जो उसकी महानता पर प्रश्न चिन्ह लगाता है. इसे भी डिस्कवरी चैनल पर बड़े जोर-शोर से प्रकाशित किया गया. इसी प्रकाशन में यह संदेह भी व्यक्त किया गया कि सिकंदर की हत्या उसके गुरु अरस्तू ने की थी. किन्तु उसका भी भावुकता के आधार पर कोई विरोध नहीं किया गया क्यों कि इसमें भी शोधपूर्ण दृष्टिकोण को महत्व दिया गया.
The World Wars

मेरे आलेखों का कुछ भावुक लोग विरोध कर रहे हैं किन्तु इस बारे में वे कोई शोधपरक तर्क न देकर केवल अपनी भावनाओं को सामने ले आते हैं, जो उग्रता है न कि मानवीय अथवा वैज्ञानिक दृष्टिकोण. अतः मेरा निवेदन है कि वे कुछ शोध करें विशेष कर वैदिक संस्कृत और आधुनिक संस्कृत के अंतराल पर और जब भी वे इस अंतराल को समझ सकें उसके आधार पर शास्त्रों के अनुवाद करें, तभी कोई सार्थक निष्कर्ष निकाला जा सकता है.    

इतिहास, भावुकता और असहिष्णुता

इतिहास प्रायः कटु सत्यों का विषय होता है, न कि भावनाओं का. किन्तु इसको लोग प्रायः अपनी भावनाओं से जोड़ने लगते हैं. ऐसा करके वे इतिहास विषयक शोधों में व्यवधान उत्पन्न करते हैं. शोधों के आधार पर बड़े से बड़े और स्थापित वैज्ञानिक सत्य भी बदलते रहते हैं तो ज्ञात इतिहास में त्रुटि क्यों नहीं खोजी जानी चाहिए. भारत के ज्ञात इतिहास में इतनी भयंकर त्रुटियाँ हैं कि इसे विश्व स्तर पर विश्वसनीय नहीं माना जा रहा है. इसलिए हम सभी भारतीयों का कर्तव्य है कि हम इस पर शोध करें और इसे विश्वसनीय बनाएं. केवल भावनाओं के आधार पर इस विषय में कट्टरता दिखने से कोई लाभ नहीं होने वाला.

इस विषय में दूसरा महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि इतिहास किसी जाति अथवा धर्म का पक्षधर बने रहने से सही रूप में नहीं रचा जा सकता, इसके लिए धर्म और जाति से निरपेक्ष होने की आवश्यकता है. भारत के महाभारतकालीन इतिहास के बारे में तो यह अतीव सरल और सहज इसलिए भी है कि उस समय भारत का मौलिक समाज किसी वर्तमान धर्म अथवा जाति से सम्बद्ध नहीं था.

भारत सहित विश्व के सभी भाषाविद और इतिहासकार जानते और मानते हैं कि वैदिक संस्कृत, जिसमें भारत के वेद और शस्त्र रचे हुए हैं, आधुनिक संस्कृत से कोई सम्बन्ध नहीं है. तथापि आज तक ऐसा कोई प्रयास नहीं किया गया कि वैदिक संस्कृत को जाना जाए. इसका कारण और प्रमाण यह है कि आज तक वेदों और शास्त्रों का कोई ऐसा अनुवाद नहीं किया गया जो आधुनिक संस्कृत पर आधारित न हो. इस कारण से इन प्राचीन ग्रंथों के कोई भी सही अनुवाद उपलब्ध नहीं है जिनसे भारत के तत्कालीन इतिहास की सत्यता को प्रमाणित किया जा सकता. जो भी इतिहास संबंधी सूचनाएं उपलब्ध हुई हैं वे उक्त भृष्ट अनुवादों से ही प्राप्त हुई हैं. इसी लिए वे भी भृष्ट हैं और विश्वसनीय नहीं हैं.

महर्षि अरविन्द ने 'वेद रहस्य' नामक पुस्तक में वैदिक संस्कृत के बारे में कुछ अध्ययन किया है और संकेत दिए हैं कि वैदिक संस्कृत की शब्दावली लैटिन और ग्रीक भाषाओं की शब्दावली से मेल खाती है. इस आधार पर मेने भी कुछ अध्ययन किये और पाया कि हम लैटिन और ग्रीक भाषाओँ के शब्दार्थों के आधार पर वेदों और शास्त्रों के सही अनुवाद प्राप्त कर सकते हैं. चूंकि मैं लैटिन और ग्रीक भाषाओँ का महर्षि अरविन्द की तरह ज्ञानवान नहीं हूँ तथापि इन भाषाओँ के शब्दकोशों के आधार पर वेदों और शास्त्रों के कुछ अंशों के अनुवाद पाने में समर्थ हो पाया हूँ, जिसके आधार पर भारत के इतिहास के पुनर्रचना आरम्भ की है. इसमें दूसरों का भी सहयोग मिले इसी आशा से वैदिक और शास्त्रीय शब्दावली के अर्थ भी प्रकाशित करने आरम्भ किये हैं. यदि किसी व्यक्ति की दृष्टि में वैदिक संस्कृत के बारे में दोषपूर्ण है तो वह यह अपने विचार से सही अवधारणा प्रतिपादित करे न कि केवल दोष निकालने को ही अपना कर्तव्य समझे. किन्तु ऐसा किसी ने कुछ नहीं किया है.

यहाँ यह भी सभी को स्वीकार्य होगा कि 'महाभारत' युद्ध विश्व का भीषणतम सशस्त्र संग्राम था जिसमें तत्कालीन विश्व के अधिकाँश देश सम्मिलित थे. इसकी भीषणता  सिद्ध करती है कि दोनों पक्षों की जीवन-शैली, चरित्र और विचारधारा में अत्यंत गहन अंतराल थे. एक परिवार के ही दो पक्ष तो बन सकते हैं, और दोनों के मध्य स्थानीय स्तर का संघर्ष भी हो सकता है किन्तु उनके कारण विश्व व्यापक सशस्त्र संघर्ष नहीं हो सकता. वस्तुतः यह युद्ध पृथ्वी का प्रथम विश्व-युद्ध था किन्तु भारत के इतिहास को विश्वसनीयता प्राप्त न होने के कारण इसे इतिहास में कोई महत्व नहीं दिया जा रहा है. यह भी हम भारतीयों को अपनी त्रुटि सुधारने का पर्याप्त कारण होना चाहिए यदि हम में लेश मात्र भी आत्म-सम्मान की भावना शेष है. आखिर भारत के इतिहास में कहीं तो कुछ ऐसा है जिसे हम समझ नहीं पा रहे हैं और लकीर के फ़कीर बने गलत-सलत अवधारणाओं को गले लगाये बैठे हैं और मूर्खतापूर्ण आत्म-संतुष्टि प्राप्त कर रहे हैं.

आर्य विश्व स्तर की एक महत्वपूर्ण जाति थी जिसका भारत से गहन सम्बन्ध था, इससे भी कोई इनकार नहीं कर सकता. किन्तु भारत के इतिहास के त्रुटिपूर्ण होने के कारण आर्यों के बारे में भी अभी तक इतिहासकार एक मत नहीं हो पाए हैं. यह भी हमारे लिए डूब मरने के लिए पर्याप्त होना चाहिए था.

समस्त विश्व सिकंदर को महान कहता है तथापि उसके बारे में शोधों से ज्ञात हुआ है कि वह समलिंगी था जिसे अभी हाल में बनी हॉलीवुड फिल्म 'अलैक्सैंदर' में प्रस्तुत किया गया है, किन्तु उसे महान कहने वाले किसी व्यक्ति ने इस फिल्म पर उंगली नहीं उठायी क्योंकि विश्व भार के समझदार लोग इतिहास को भावुकता से प्रथक रखते हैं और इस बारे में शोधों को महत्व देते हैं. इसी व्यक्ति के बारे में इंटरपोल द्वारा की गयी छान-बीनों के आधार पर सिद्ध किया गया कि सिकंदर बेहद शराबी और नृशंस व्यक्ति था जो उसकी महानता पर प्रश्न चिन्ह लगाता है. इसे भी डिस्कवरी चैनल पर बड़े जोर-शोर से प्रकाशित किया गया. इसी प्रकाशन में यह संदेह भी व्यक्त किया गया कि सिकंदर की हत्या उसके गुरु अरस्तू ने की थी. किन्तु उसका भी भावुकता के आधार पर कोई विरोध नहीं किया गया क्यों कि इसमें भी शोधपूर्ण दृष्टिकोण को महत्व दिया गया.
The World Wars

मेरे आलेखों का कुछ भावुक लोग विरोध कर रहे हैं किन्तु इस बारे में वे कोई शोधपरक तर्क न देकर केवल अपनी भावनाओं को सामने ले आते हैं, जो उग्रता है न कि मानवीय अथवा वैज्ञानिक दृष्टिकोण. अतः मेरा निवेदन है कि वे कुछ शोध करें विशेष कर वैदिक संस्कृत और आधुनिक संस्कृत के अंतराल पर और जब भी वे इस अंतराल को समझ सकें उसके आधार पर शास्त्रों के अनुवाद करें, तभी कोई सार्थक निष्कर्ष निकाला जा सकता है.    

रविवार, 29 अगस्त 2010

असत्यमेव जयते

शीर्षक देखकर चौंकिए नहीं, यह भारत का धरातलीय यथार्थ है, इसे अच्छी तरह पहचानिए. महाभारत कथा के छल-कपटों को छिपाए रखने के लिए 'सत्यमेव जयते' का भ्रम विकसित किया गया, जबकि सच्चाई यह है कि महाभारत में 'असत्यमेव जयते' का ही बोलबाला था. इसका परिणाम यह हुआ कि छल-कपटों के माध्यम से जो विजयी हुए उन्ही को सत्य का अनुयायी मान लिया गया. किसी में साहस नहीं हुआ कि महाभारत में असत्य की विजय को स्वीकारता. इसका परिणाम यह हुआ कि आज भी कहा जाता है 'जो जीता वही सिकंदर'. इस प्रकार से विजय का आधार सत्य न होकर सत्य का आधार विजय बना. 


इस 'सत्यमेव जयते' की भ्रमित मान्यता में बौद्धिकता का कोई उपयोग अथवा सम्मान नहीं था, इसका एकमात्र आधार सर्व व्यापक 'भय' था जो ईश्वर के नाम पर फैलाया गया और एक आतंकवादी को ईश्वर का अवतार सिद्ध किया गया. इस सिद्धि के लिए भी असत्यमेव जयते को आधार बनाया गया. इस ईश्वर का आतंक आज तक यथावत है, जिसके परिणामस्वरूप अधिकाँश मनुष्य इसके बारे में प्रश्न उठाने का भी साहस नहीं कर पाते.


जिस मस्तिष्क में ईश्वर को मान्यता प्राप्त है, उसमें बुद्धि का उपयोग निषेध होता है, वहां केवल आस्था ही सर्वोपरि होती है. आस्था का अर्थ होता है - किसी दूसरे व्यक्ति के कथन पर विश्वास करना और उसे बिना किसी कसौटी के सत्य स्वीकार कर लेना. जब कि बुद्धि का उपयोग कसौटी पर परीक्षण करने में ही होता है. महाभारत से लेकर आज तक का भारतीय जन-मानस के लिए सबसे अधिक घातक असत्य 'ईश्वर' है जिसे उसके महाभारत कालीन अवतार से पुष्ट किया गया. यही असत्य आज तक प्रचलित है और यही असत्य भारतीय जन-मानस द्वारा बुद्धि के उपयोग का निषेध करता रहा है. 


ईश्वरीय व्यवसाय के अतिरिक्त विश्व में कोई ऐसा व्यवसाय नहीं है जो इतने लम्बे समय से अक्षुण चला आ रहा हो और जिसे संचालित बनाए रखने के लिए इतने अधिक संसाधनों - मानव-शक्ति, वित्तीय निवेश, आदि; का उपयोग किया जा रहा हो. यही व्यवसाय भारत में असत्य की स्थापना और उसका पोषण करता रहा है और उसे ही विजयश्री का अधिकारी सिद्ध करता रहा है.  और इस भृष्ट आचरण पर पर्दा डाले रखने के लिए 'सत्यमेव जयते' का नारा दिया गया. इसके आधार पर सत्य को विजय के योग्य न माना जाकर विजय को ही सत्य की कसौटी माना जाता रहा है.


उक्त कारण से भारतीय जनमानस सत्य से निरपेक्ष रहकर केवल विजय की अभिलाषा करता रहा है जिसके आधार पर उसे सत्य की प्रतिमूर्ति माना जा सके. इसी से फल-फूलता रहा है भारत में चारित्रिक संकट जो आज विकराल रूप में हमारे समक्ष खडा है और संपूर्ण मानवीय नैतिकता को लील रहा है. 


महाभारत में जो घटा, वही आज भारत के प्रत्येक छोटे-बड़े समाज और शासन-प्रशासन में घटित हो रहा है, असत्य की सर्वस्व विजय हो रही है, जनमानस कराह रहा है. उसके पास आत्मसंतुष्टि के लिए एकमात्र आश्रय यही है 'जो जैसा करेगा, वैसा भरेगा'. किन्तु उसे ज्ञान नहीं है कि यह उसका आत्मसंतुष्टि हेतु भ्रम है. इसके भ्रम होने का प्रमाण यही है कि 'जो जैसा करेगा, वैसा कब भरेगा - आज कल में, अपने जीवन के अंत में, अथवा अपने जन्मान्तर में'. आत्मसंतुष्टि इसी में निहित है कि ऐसा असुविधाजनक प्रश्न उठाया ही न जाए. 
The Phantom of the Psyche: Freeing Ourself from Inner Passivity


ऐसी निराधार आत्मसंतुष्टि जनमानस में निष्क्रियता उत्पन्न कर रही है, जिसके कारण वह किसी भी अत्याचार, भृष्टाचार, व्यभिचार, आदि के विरुद्ध संघर्ष के लिए तैयार नहीं है और ये सब दुराचार निरंतर पनप रहे हैं - बिना किसी प्रतिकार के.   

बुधवार, 28 अप्रैल 2010

राम आर कृष्ण की समकालीनता

मैंने अपने इस ऐतिहासिक संलेख में अनेक स्तनों पर जोर देकर कहा है कि राम और कृष्ण समकालीन थे और इन दोनों के नेतृत्व में हुए संघर्ष को ही महाभारत कहा जाता है, यद्यपि शस्त्र युद्ध के पूर्व ही राम की हत्या किये जाने के कारण वे युद्ध में सम्मिलित नहीं थे. इसके प्रमाण स्वरुप 'राम' शब्द महाभारत ग्रन्थ के मूल वैदिक संस्कृत पाठ्य में अनेक स्थानों पर पाया जाता है  किन्तु हिंदी अनुवादों में 'राम' के स्थान पर 'बलराम', 'परशुराम', आदि नाम देकर राम को महाभारत से पूर्णतः अनुपस्थित किया गया है, जो भारतीय जनमानस के विरुद्ध एक षड्यंत्र के अंतर्गत किया गया है.

इस षड्यंत्र का विशेष कारण यह है कि कृष्ण चरित्र की तुलना में राम का चरित्र अतिश्रेष्ठ रहा है और दोनों की तलना करने पर कोई भी व्यक्ति कृष्ण को ईश्वर का स्वरुप स्वीकार नहीं कर सकता था. इसलिए कृष्ण भक्तों ने, जो बहुल संख्या में थे, राम को महाभारत से अनुपस्थित कर दिया और सभी अनुवाद इसी षड्यंत्र के अंतर्गत किये गए.

महाभारत ग्रन्थ में ही एक प्रसंग राम और कृष्ण के समकालीन होने की स्पष्ट पुष्टि करता है. यहाँ महाभारत ग्रन्थ के गीताप्रेस गोरखपुर द्वार प्रकाशित हिंदी-अनुवाद सहित संस्करण संवत २०६५, चौदहवाँ पुनर्मुद्रण के प्रथम खंड, पृष्ठ ७५४ से आरम्भ, अध्याय ३१, 'सहदेव के द्वारा दक्षिण दिशा की विजय' प्रकरण में  पृष्ठ ७५९ पर दिए गए श्लोक समूह ७३ में सहदेव के घटोत्कच के प्रति शब्दों का हिंदी अनुवाद प्रस्तुत है -

'वत्स! तुम मेरी आज्ञा से कर लेने के लिए लंकापुरी में जाओ और वहां राक्षसराज महात्मा विभीषण से मिल कर राजसूय यज्ञ के लिए भांति-भांति के बहुत से रत्न प्राप्त करो. महाबली वीर! उनकी ओर से भेंट में मिली हुई सब वस्तुएं लेकर शीघ्र यहाँ लौट आओ. बेटा! यदि विभीषण तुम्हें भेंट न दें, तो उन्हें अपनी शक्ति का परिचय इस प्रकार कहना - 'कुबेर के छोटे भाई लंकेश्वर! कुंतीकुमार युधिष्ठिर ने भगवान् श्रीकृष्ण के बाहुबल को देखकर भाइयों सहित राजसूय यज्ञ आरम्भ किया है. आप इस समय इन बातों को अच्छी तरह जान लें. आपका कल्याण हो, अब मैं यहाँ से चला जाऊंगा.' इतना कहकर तुम शीघ्र लौट आना, अधिक विलम्ब मत करना.

इससे आगे के विवरण में विभीषण द्वारा घटोत्कच का स्वागत और उसे अनेक बहुमूल्य उपहार दिए जाने सम्मिलित हैं. इसी प्रसंग में यह भी उल्लिखित है कि सहदेव के पास द्रविड़ सेना थी. यद्यपि यह हिंदी अनुवाद दोषपूर्ण हो सकता है तथापि प्रसंग की उपस्थिति ही यह सिद्ध करती है कि महाभारत काल में विभीषण लंका के राजा थे जिनका राजतिलक राम द्वारा किया गया था. अतः राम और कृष्ण का समकालीन होना सिद्ध होता है.

यहाँ यह भी बाते दें कि इसी गीताप्रेस गोरखपुर के अनेक प्रकाशनों में राम को लाखों वर्ष पूर्व के त्रेता युग में, और कृष्ण को द्वापर युग में कहा गया है. यह सब सिद्ध करता है तथाकथित भारतीय विद्वान् केवल लकीर के फ़कीर हैं और वे तथ्यपरक शोध करने में असक्षम हैं.      

राम आर कृष्ण की समकालीनता

मैंने अपने इस ऐतिहासिक संलेख में अनेक स्तनों पर जोर देकर कहा है कि राम और कृष्ण समकालीन थे और इन दोनों के नेतृत्व में हुए संघर्ष को ही महाभारत कहा जाता है, यद्यपि शस्त्र युद्ध के पूर्व ही राम की हत्या किये जाने के कारण वे युद्ध में सम्मिलित नहीं थे. इसके प्रमाण स्वरुप 'राम' शब्द महाभारत ग्रन्थ के मूल वैदिक संस्कृत पाठ्य में अनेक स्थानों पर पाया जाता है  किन्तु हिंदी अनुवादों में 'राम' के स्थान पर 'बलराम', 'परशुराम', आदि नाम देकर राम को महाभारत से पूर्णतः अनुपस्थित किया गया है, जो भारतीय जनमानस के विरुद्ध एक षड्यंत्र के अंतर्गत किया गया है.

इस षड्यंत्र का विशेष कारण यह है कि कृष्ण चरित्र की तुलना में राम का चरित्र अतिश्रेष्ठ रहा है और दोनों की तलना करने पर कोई भी व्यक्ति कृष्ण को ईश्वर का स्वरुप स्वीकार नहीं कर सकता था. इसलिए कृष्ण भक्तों ने, जो बहुल संख्या में थे, राम को महाभारत से अनुपस्थित कर दिया और सभी अनुवाद इसी षड्यंत्र के अंतर्गत किये गए.

महाभारत ग्रन्थ में ही एक प्रसंग राम और कृष्ण के समकालीन होने की स्पष्ट पुष्टि करता है. यहाँ महाभारत ग्रन्थ के गीताप्रेस गोरखपुर द्वार प्रकाशित हिंदी-अनुवाद सहित संस्करण संवत २०६५, चौदहवाँ पुनर्मुद्रण के प्रथम खंड, पृष्ठ ७५४ से आरम्भ, अध्याय ३१, 'सहदेव के द्वारा दक्षिण दिशा की विजय' प्रकरण में  पृष्ठ ७५९ पर दिए गए श्लोक समूह ७३ में सहदेव के घटोत्कच के प्रति शब्दों का हिंदी अनुवाद प्रस्तुत है -

'वत्स! तुम मेरी आज्ञा से कर लेने के लिए लंकापुरी में जाओ और वहां राक्षसराज महात्मा विभीषण से मिल कर राजसूय यज्ञ के लिए भांति-भांति के बहुत से रत्न प्राप्त करो. महाबली वीर! उनकी ओर से भेंट में मिली हुई सब वस्तुएं लेकर शीघ्र यहाँ लौट आओ. बेटा! यदि विभीषण तुम्हें भेंट न दें, तो उन्हें अपनी शक्ति का परिचय इस प्रकार कहना - 'कुबेर के छोटे भाई लंकेश्वर! कुंतीकुमार युधिष्ठिर ने भगवान् श्रीकृष्ण के बाहुबल को देखकर भाइयों सहित राजसूय यज्ञ आरम्भ किया है. आप इस समय इन बातों को अच्छी तरह जान लें. आपका कल्याण हो, अब मैं यहाँ से चला जाऊंगा.' इतना कहकर तुम शीघ्र लौट आना, अधिक विलम्ब मत करना.

इससे आगे के विवरण में विभीषण द्वारा घटोत्कच का स्वागत और उसे अनेक बहुमूल्य उपहार दिए जाने सम्मिलित हैं. इसी प्रसंग में यह भी उल्लिखित है कि सहदेव के पास द्रविड़ सेना थी. यद्यपि यह हिंदी अनुवाद दोषपूर्ण हो सकता है तथापि प्रसंग की उपस्थिति ही यह सिद्ध करती है कि महाभारत काल में विभीषण लंका के राजा थे जिनका राजतिलक राम द्वारा किया गया था. अतः राम और कृष्ण का समकालीन होना सिद्ध होता है.

यहाँ यह भी बाते दें कि इसी गीताप्रेस गोरखपुर के अनेक प्रकाशनों में राम को लाखों वर्ष पूर्व के त्रेता युग में, और कृष्ण को द्वापर युग में कहा गया है. यह सब सिद्ध करता है तथाकथित भारतीय विद्वान् केवल लकीर के फ़कीर हैं और वे तथ्यपरक शोध करने में असक्षम हैं.      

शुक्रवार, 16 अप्रैल 2010

लोक नेतृत्व की पात्रता

राम और कृष्ण के दो उदाहरण हमारे समक्ष हैं जिनमें से प्रथम ने यह कदापि नहीं कहा कि वह परमेश्वर है और लोक नेतृत्व हेतु सुयोग्य है जब कि दूसरे ने ऐसा कोई अवसर नहीं छोड़ा जब उसने न कहा हो कि वही सर्व जगत का संचालक है और उसी को सभी कुछ समर्पित किया जाना चाहिए - नेतृत्व भी. प्रथम इतने लोकप्रिय हुए कि दूसरे को उन्हें अपने मार्ग से हटाना पड़ा. यहाँ तक कि उनके अनुयायियों ने महाभारत ग्रन्थ के अनुवाद करते समय मूल पथ में जहाँ-जहाँ 'राम' शब्द आया है हिंदी पाठ में उसके स्थान पर 'बलराम' अथवा 'परसुराम' कर दिया.ताकि लोग राम और कृष्ण को आमने सामने पाकर कहीं उनके चरित्रों की तुलना न करने लगें. इस प्रकार राम को लाखों वर्ष पहले के त्रेता युग में होना दर्शा दिया. यह तो रहा आपके शोध के लिए नेतृत्व संबंधी एक प्रसंग. अब आते हैं हम आधुनिक युग में यह जानने के लिए कि लोग किसे अपना नायक बनते हैं.

लोक नेतृत्व का प्रथम पक्ष यह है कि लोग उसी को अपना नायक चुनते हैं जो वह प्रदान कर सके जो वे स्वयं प्राप्त नहीं कर सकते. प्रत्येक उपलब्धि के लिए सर्व परहम आवश्यक होता है पाने का साहस, जो सभी में नहीं होता. सभी कुछ और पाना चाहते हैं किन्तु साहस नहीं बटोर पाते. अतः जो उनके साहसिक अभाव की पूर्ति करता है, लोग उसी को अपना नायक बनते हैं.

साहस का सदुपयोग किया जा सकता है और दुरूपयोग भी. स्वयं की उपलब्धि के लिए साहस करना दुरूपयोग है और लोक हित में इसका उपयोग करना इसका सदुपयोग है. सदुपयोग के लिए आवश्यक होती है न्यायप्रियता, अर्थात जो जिसके सुयोग्य है उसे वह प्राप्त कराया जाये. इस प्रकार साहस के साथ साथ न्यायप्रियता लोक नेतृत्व की पात्रता के आवश्यक तत्व हैं. न्याय प्रियता को सत्य निष्ठा के भाव में भी लिया जा सकता है.

लोग सबसे पहले अपनी तात्कालिक आवश्यकताओं की आपूर्ति चाहते हैं, तत्पश्चात वे दीर्घकालिक आवश्यकताओं की ओर ध्यान देते हैं. किन्तु उससे आगे कदापि नहीं जाते क्योंकि उनका दृष्टिकोण वहीं तक सीमित होता है. नायक से वे इन सबसे अधिक कुछ अपेक्षा नहीं कर सकते. किन्तु यह नेतृत्व की पराकाष्ठा नहीं है.

जीवन जैसे दृष्ट भविष्य से आगे भी हो सकता है, उसी प्रकार उपलब्धियां तात्कालिक और दीघकालिक आवश्यकताओं की आपूर्ति से भी और अधिक हो सकती है. नायक का कर्तव्य है कि वह लोगों को वह भी प्रदान कराये जो लोगों के लिए कल्पनातीत हो. ऐसे नायक को कभी यह कहना नहीं पड़ता कि वह उनका नायक है, लोग स्वयं ही उसे अपना नायक घोषित कर देते हैं. इस प्रकार लोक नेतृत्व की तीसरी पात्रता लोगों को कल्पनातीत उपलब्धियों के मार्ग पर अग्रसर करना है.

वस्तुतः जिस वस्तु अथवा सुविधा की लोग अपेक्षा अथवा आकांक्षा करें, उस पाना कोई विकास कार्य नहीं है, केवल आवश्यकताओं की आपूर्ति है. इससे मानव सभ्यता का विकास नहीं होता. विकास वही है जो वर्तमान में कल्पनातीत हो किन्तु निकट भविष्य में उसकी उपलब्धि का मार्ग प्रशस्त हो. इसके लिए नायक में अध्ययनशीलता, शोधपरकता एवं दूरदर्शिता की आवश्यकता तो होती ही है, उसका प्रयोगधर्मी होना भी आवश्यक होता है. .   .

रविवार, 4 अप्रैल 2010

सिकंदर का आक्रमण

प्रचलित विश्व इतिहास के अनुसार सिकंदर, जिसे यूरोपीय भाषाओँ में अलग्जेंदर कहा जाता है, मिश्र और पर्शिया को विजित करता हुआ ३२३ ईसापूर्व में भारत पहुंचा. वस्तुतः सिकंदर को भारत पर आक्रमण के लिए कृष्ण ने आमंत्रित किया था जिसके लिए संदेशवाहक के रूप में विदुर को भेजा गया था.
Alexander - Director's Cut (Full Screen Edition)

भारत के प्रवेश पर ही सिकंदर का सामना भरत ने किया था जिन्हें पुरु वंशी होने के कारण इतिहास में पोरस कहा गया है.इस युद्ध के बारे में बड़ी भ्रांतियां प्रचारित की गयी हैं - कि सिकंदर विजयी हुआ था और उसने भरत को क्षमा कर दिया था. यह सर्व विदित ई कि भारत में आगमन पर सिकंदर की सेना ने विद्रोह कर दिया था. यदि विद्रोह युद्ध से पूर्व किया गया था तो सिकंदर विजयी नहीं हो सकता था, और सिकंदर के विजयी होने बाद सेना को विद्रोह की आवश्यकता ही नहीं थी. यद्यपि सिकंदर की सेना भारतीय सेना की तुलना में अधिक अनुभवी और अस्त्र-शास्त्रों से सुसज्जित थी, किन्तु भरत को युद्ध की आशंका थी और इसके लिए पूरी तैयारियां की गयीं थीं. युद्ध के प्रथम दिन के परिणाम देखते हुए ही सिकंदर के सेना-नायकों ने और आगे युद्ध करने में अपनी असक्षमता दर्शाई थी जिसे विद्रोह कहा गया है. इस पराजय और विद्रोह के बाद ही सिकंदर ने भरत से संझौता किया था और सीमा से ही वापिस लौट जाने का वचन दिया था. युद्ध तो थम गया किन्तु सिकंदर उसी समय वापिस नहीं लौटा. कृष्ण ने उसे और उसकी सेना को दक्षिण भारत मदुरै के पास बसा दिया था.

सिकंदर की सेना में यद्यपि अनेक जातियों के सैनिक थे किन्तु मूल सेना में अधिकाँश डोरियन होने के कारण सभी को डोरियन कहा जाता था. 'डोरियन' शब्द का आधुनिक स्वरुप ;द्रविड़' है. अतः दक्षिण भारत के द्रविड़ सिकंदर के सैनिकों के रूप में भारत आये थे. यहाँ यह भी महत्वपूर्ण है कि मलयाली और कन्नड़ मूलतः द्रविड़ नहीं हैं यद्यपि इन्हें भी अब द्रविड़ ही माना जाता है.

यूरोपीय इतिहासकारों का अनुसतन करते हुए भारत के राजकीय वेतनभोगी तथाकथित इतिहासकार भी सिकंदर को 'महान' कहते हैं जब कि उसमें महानता का कोई लक्षण नहीं था. इंटरपोल के आधुनिक शोधों के अनुसार वह अत्यधिक शराबी था और मामूली की नाराजगी पर ही अपने प्रियजनों की हत्या कर देता था. उसके शरीर में पाशविक शक्ति थी जिसके कारण वह घायल अवस्था में भी युद्ध में सक्रिय रहता था. इसी पाशविकता के कारण वह युद्धों में विजयी रहा.न कि किसी मानवीय गुण के कारण. हौलीवूद से अभी बनी फिल्म के अनुसार समलैंगिक मैथुन का शौक़ीन था और उसके पुरुष प्रेमी का नाम हाइलास था जो युद्धों में भी उसका शौक पूरा करता था.

भारत में बसने के बाद उसके सैनिकों ने भारतीय स्त्रियों का अपहरण कर अपने घर बसाये जिसके लिए उन्हें क्तिष्ण का अभयदान प्राप्त ता. उसको समर्पित कर वे कुछ भी अनैतिक करने के लिए स्वतंत्र थे. इसी पड़ाव में सिकंदर ने अपनी सेना को पुनर्संगठित किया और लगभग १५ माह बाद हुए महाबारत युद्ध में 'शिखंडी' नाम से भाग लिया.समस्त आशिया का विजयी सिकंदर महाभारत में एक नगण्य योद्धा रहा, अतः भारतीय दृष्टिकोण से उसे महान नहीं कहा जा सकता.  

सिकंदर का आक्रमण

प्रचलित विश्व इतिहास के अनुसार सिकंदर, जिसे यूरोपीय भाषाओँ में अलग्जेंदर कहा जाता है, मिश्र और पर्शिया को विजित करता हुआ ३२३ ईसापूर्व में भारत पहुंचा. वस्तुतः सिकंदर को भारत पर आक्रमण के लिए कृष्ण ने आमंत्रित किया था जिसके लिए संदेशवाहक के रूप में विदुर को भेजा गया था.
Alexander - Director's Cut (Full Screen Edition)

भारत के प्रवेश पर ही सिकंदर का सामना भरत ने किया था जिन्हें पुरु वंशी होने के कारण इतिहास में पोरस कहा गया है.इस युद्ध के बारे में बड़ी भ्रांतियां प्रचारित की गयी हैं - कि सिकंदर विजयी हुआ था और उसने भरत को क्षमा कर दिया था. यह सर्व विदित ई कि भारत में आगमन पर सिकंदर की सेना ने विद्रोह कर दिया था. यदि विद्रोह युद्ध से पूर्व किया गया था तो सिकंदर विजयी नहीं हो सकता था, और सिकंदर के विजयी होने बाद सेना को विद्रोह की आवश्यकता ही नहीं थी. यद्यपि सिकंदर की सेना भारतीय सेना की तुलना में अधिक अनुभवी और अस्त्र-शास्त्रों से सुसज्जित थी, किन्तु भरत को युद्ध की आशंका थी और इसके लिए पूरी तैयारियां की गयीं थीं. युद्ध के प्रथम दिन के परिणाम देखते हुए ही सिकंदर के सेना-नायकों ने और आगे युद्ध करने में अपनी असक्षमता दर्शाई थी जिसे विद्रोह कहा गया है. इस पराजय और विद्रोह के बाद ही सिकंदर ने भरत से संझौता किया था और सीमा से ही वापिस लौट जाने का वचन दिया था. युद्ध तो थम गया किन्तु सिकंदर उसी समय वापिस नहीं लौटा. कृष्ण ने उसे और उसकी सेना को दक्षिण भारत मदुरै के पास बसा दिया था.

सिकंदर की सेना में यद्यपि अनेक जातियों के सैनिक थे किन्तु मूल सेना में अधिकाँश डोरियन होने के कारण सभी को डोरियन कहा जाता था. 'डोरियन' शब्द का आधुनिक स्वरुप ;द्रविड़' है. अतः दक्षिण भारत के द्रविड़ सिकंदर के सैनिकों के रूप में भारत आये थे. यहाँ यह भी महत्वपूर्ण है कि मलयाली और कन्नड़ मूलतः द्रविड़ नहीं हैं यद्यपि इन्हें भी अब द्रविड़ ही माना जाता है.

यूरोपीय इतिहासकारों का अनुसतन करते हुए भारत के राजकीय वेतनभोगी तथाकथित इतिहासकार भी सिकंदर को 'महान' कहते हैं जब कि उसमें महानता का कोई लक्षण नहीं था. इंटरपोल के आधुनिक शोधों के अनुसार वह अत्यधिक शराबी था और मामूली की नाराजगी पर ही अपने प्रियजनों की हत्या कर देता था. उसके शरीर में पाशविक शक्ति थी जिसके कारण वह घायल अवस्था में भी युद्ध में सक्रिय रहता था. इसी पाशविकता के कारण वह युद्धों में विजयी रहा.न कि किसी मानवीय गुण के कारण. हौलीवूद से अभी बनी फिल्म के अनुसार समलैंगिक मैथुन का शौक़ीन था और उसके पुरुष प्रेमी का नाम हाइलास था जो युद्धों में भी उसका शौक पूरा करता था.

भारत में बसने के बाद उसके सैनिकों ने भारतीय स्त्रियों का अपहरण कर अपने घर बसाये जिसके लिए उन्हें क्तिष्ण का अभयदान प्राप्त ता. उसको समर्पित कर वे कुछ भी अनैतिक करने के लिए स्वतंत्र थे. इसी पड़ाव में सिकंदर ने अपनी सेना को पुनर्संगठित किया और लगभग १५ माह बाद हुए महाबारत युद्ध में 'शिखंडी' नाम से भाग लिया.समस्त आशिया का विजयी सिकंदर महाभारत में एक नगण्य योद्धा रहा, अतः भारतीय दृष्टिकोण से उसे महान नहीं कहा जा सकता.  

शुक्रवार, 1 जनवरी 2010

महेश्वर का आक्रोश

महेश्वर को जब उसके जन्म की कथा बताई गयी तो वे बहुत क्रोधित हुए. भरत एक शक्तिशाली योद्धा होने के साथ-साथ रूप परिवर्तन की कला में भी निपुण थे. उन्होंने अपने जीवन काल में विशेष प्रयोजनों के लिए अलग अलग समयों पर नौ प्रकार के रूप धारण किये थे. उनका सर्वाधिक भयानक रूप परशुराम का था जो उन्होंने अपने जन्म की कथा जानने के बाद धारण किया.इस कथा के कारण सबसे पहले उन्हें अपनी माता के चरित्र पर संदेह हुआ.

परशुराम के रूप में सबसे पहले भरत अपनी माताश्री के पास गए और उनसे उनके चरित्र संबंधी अपने संदेह व्यक्त किये और उन्हें भला-बुरा कहा. माता द्वारा स्पष्टीकरण दिए जाने पर उन्होंने अपनी माता के साथ किये गए छल का बदला लेने की ठानी. सबसे पहले उन्होंने उन सभी कुलों को नष्ट करने का संकल्प किया जो विदेशों से आकर भारत के पश्चिमी क्षेत्र में अपने राज्य स्थापित कर लोगों का शोषण कर रहे थे. इस अभियान में उन्होंने २१ कुलों को नष्ट किया.


इसके बाद महेश्वर ने उस कुल की कन्या की खोज की जिसके सदस्य ने उनकी माताश्री के साथ विवाहपूर्व छल किया था और उन्हें मिली पृथा नामक एक कन्या. महेश्वर ने तब सूर्यावतार का वेश धारण किया और पृथा को उसी प्रकार छला जिस प्रकार दुष्यंत ने उनकी माता को छला था. परिणामस्वरूप पृथा गर्भवती हो गयी और महेश्वर का आक्रोश शांत हुआ.

पृथा बाल्यकाल के इस यौनाभिचार से अत्यधिक प्रभावित हुई और वह सदैव यौनाभिचार की कामना करने लगी. स्त्री योनि के लिए एक शब्द कुंत है, सदैव अपनी कुंत के बारे में चिंतन करते रहने के कारण पृथा का गुणवाचक नाम कुंती हो गया. कुंती ने अविवाहित अवस्था में ही एक पुत्र को जन्म दिया जिसका उसने लोकलाज के कारण परित्याग कर गंगा नदी में बहा दिया. कुंती का यही पुत्र महाभारत का सुप्रसिद्ध योद्धा और दानवीर कर्ण नाम से विख्यात हुआ.  

महेश्वर का आक्रोश

महेश्वर को जब उसके जन्म की कथा बताई गयी तो वे बहुत क्रोधित हुए. भरत एक शक्तिशाली योद्धा होने के साथ-साथ रूप परिवर्तन की कला में भी निपुण थे. उन्होंने अपने जीवन काल में विशेष प्रयोजनों के लिए अलग अलग समयों पर नौ प्रकार के रूप धारण किये थे. उनका सर्वाधिक भयानक रूप परशुराम का था जो उन्होंने अपने जन्म की कथा जानने के बाद धारण किया.इस कथा के कारण सबसे पहले उन्हें अपनी माता के चरित्र पर संदेह हुआ.

परशुराम के रूप में सबसे पहले भरत अपनी माताश्री के पास गए और उनसे उनके चरित्र संबंधी अपने संदेह व्यक्त किये और उन्हें भला-बुरा कहा. माता द्वारा स्पष्टीकरण दिए जाने पर उन्होंने अपनी माता के साथ किये गए छल का बदला लेने की ठानी. सबसे पहले उन्होंने उन सभी कुलों को नष्ट करने का संकल्प किया जो विदेशों से आकर भारत के पश्चिमी क्षेत्र में अपने राज्य स्थापित कर लोगों का शोषण कर रहे थे. इस अभियान में उन्होंने २१ कुलों को नष्ट किया.


इसके बाद महेश्वर ने उस कुल की कन्या की खोज की जिसके सदस्य ने उनकी माताश्री के साथ विवाहपूर्व छल किया था और उन्हें मिली पृथा नामक एक कन्या. महेश्वर ने तब सूर्यावतार का वेश धारण किया और पृथा को उसी प्रकार छला जिस प्रकार दुष्यंत ने उनकी माता को छला था. परिणामस्वरूप पृथा गर्भवती हो गयी और महेश्वर का आक्रोश शांत हुआ.

पृथा बाल्यकाल के इस यौनाभिचार से अत्यधिक प्रभावित हुई और वह सदैव यौनाभिचार की कामना करने लगी. स्त्री योनि के लिए एक शब्द कुंत है, सदैव अपनी कुंत के बारे में चिंतन करते रहने के कारण पृथा का गुणवाचक नाम कुंती हो गया. कुंती ने अविवाहित अवस्था में ही एक पुत्र को जन्म दिया जिसका उसने लोकलाज के कारण परित्याग कर गंगा नदी में बहा दिया. कुंती का यही पुत्र महाभारत का सुप्रसिद्ध योद्धा और दानवीर कर्ण नाम से विख्यात हुआ.