अंग्रेज़ी के दो शब्द हैं 'फेट' और 'डेस्टिनी' जिन्हें प्रायः पर्याय के रूप में उपयोग किया जाता है. किन्तु इन दोनों में उतना ही विशाल अंतर है जितना एक साधारण मानव और महामानव में होता है. ये दोनों भी एक जैसे ही दिखते हैं. फेट शब्द लैटिन भाषा के शब्द fatum से बना है तथा इसी से बना है अंग्रेज़ी शब्द फेटल अर्थात हिंदी में 'घातक'. स्पष्ट है भाग्य की परिकल्पना ही मानवता के लिए घातक है.
डेस्टिनी शब्द से ही उदय हुआ है अंग्रेज़ी शब्द 'डेस्टिनेशन' जो स्वयं निर्धारित नहीं होता, इसे मनुष्य द्वारा निर्धारित किया जाता है, जबकि फेट स्वयमेव निर्धारित कहा जाता है. इस प्रकार दोनों शब्दों के भावों में विशाल अंतराल है. हमारी भाषा देवनागरी में इन अंग्रेज़ी शब्दों के समतुल्य शब्द 'भाग्य' तथा 'लक्ष्य' हैं.
आत्मविश्वास और स्वाभिमान के अभाव में व्यक्ति अपना लक्ष्य निर्धारित नहीं करता, उसे चाहिए सदैव एक आश्रयदाता जो उसका भाग्य निर्धारित करता रहे. किन्तु इन दो सद्गुणों से संपन्न व्यक्ति अपना लक्ष्य स्वयं निर्धारित करता है और उस की ओर बढ़ता जाता है. कहते हैं भाग्य इश्वर द्वारा निर्धारित किया जाता है जिसकी संकल्पना भी मनुष्य द्वारा ही की गयी है, और मनुष्य ही इस संकल्पना को जीवंत बनाये हुए हैं..इसका अर्थ यह हुआ कि भाग्य पर आश्रित मनुष्य के भाग्य का निर्धारक भी कोई अन्य मनुष्य ही होता है. जिस मनुष्य का भविष्य कोई अन्य मनुष्य अथवा उसके द्वारा कल्पित ईश्वर करे, वह दूसरे मनुष्य के अधीन सिद्ध हुआ - स्वयं अपने पैरों पर खड़ा होने में असमर्थ. ऐसा मनुष्य जंगली जंतुओं से भी क्षुद्र है. वह स्वयं की इश्वर में आस्था के माध्यम से दूसरे व्यक्तियों को अपना आश्रयदाता स्वीकार करता है, जबकि जंगली जंतु स्वतंत्र होते हैं.
मनुष्य की सबसे अधिक महत्वपूर्ण संपदा उसकी बुद्धि होती है जो उसकी स्मृति में संचित अनुभवों का विश्लेषण एवं सदुपयोग करते हुए लक्ष्य की ओर आगे बढ़ने का मार्ग प्रशस्त करती है. बुद्धि लगभग सभी व्यक्तियों के पास होती है किन्तु सभी उसका भरपूर उपयोग नहीं करते. इस उपयोग के परिमाण में अंतराक से ही अंतर-मानव अंतराल उत्पन्न होते हैं. बुद्धि के उपयोग को उसका भाग्य पर विस्वास दुष्प्रभावित करता है. जो व्यक्ति सदैव अपनी बुद्धि पर निर्भर करता है, उसे भाग्य अथवा ईश्वरीय सकल्पना पर निर्भर होने की कोई आवश्यकता नहीं होती. ऐसा व्यक्ति ही महामानव बनने की संभावना रखता हैं.
अतः ईश्वरीय संकल्पना पर आश्रित भाग्य पर आस्था मनुष्य को साधारण मानव पथ का अनुसरण करने से भी भटकाती है. जबकि उसकी बुद्धि उसे स्वतंत्र बने रहने में सक्षम बनाती है किन्तु वह उसका कोई उपयोग नहीं कर पाता. ऐसे मनुष्य का अपना कोई लक्ष्य नहीं होता. वह रस्ते पर पड़े एक पत्थर के समान निष्क्रिय होता है, बौद्धिक व्यक्ति उसको पड-दलित करते हुए आगे बढ़ते जाते हैं और वह भाग्य की प्रतीक्षा में वहीं पडा ही नहीं रहता है,दूसरों का मार्ग भी अवरोधित करता रहता है. इस प्रकार इश्वर और भाग्य की संकल्पनाएँ उनमें आस्था रखने वालों को ही पथ्भ्रिष्ट नहीं करतीं, वे समस्त मानव जाति के ठन में रोड़े भी बनती हैं. बौद्धिक व्यक्ति की विवशता होती है कि वह इन्हें पड-दलित करता हुआ आगे बढ़ता जाये.
इश्वर और भाग्य की संकल्पनाएँ मानव जजाती को पथ भृष्ट करने हेतु रची गयीं, और इन्हें सतत प्रशस्त भी किया जाता रहा है. ये संकल्पनाएँ धर्म और अध्यात्म की संकल्पनाओं की सहोदर हैं और सभी साथ मिलकर मानव का अहित करती रही हैं. वस्तुतः इनके सूत्रधारों का यही लक्ष्य था और यही लक्ष्य इनके प्रशास्तिकारों का है. इसी में इनके निहित स्वार्थ हैं, क्योंकि इन्ही के माध्यम से ये चतुर व्यक्ति भोले-भाले मानव समुदायों पर अपना मनोवैज्ञानिक शासन बनाये रखते हैं. अनेक समाजों में राजनैतिक शासनों की नींव भी इसी मनोवैज्ञानिक शासन पर निर्मित होती है. अतः चतुर व्यक्ति इन संकल्पनाओं का उपयोग मानव समुदायों पर शासन हेतु करते रहे हैं.
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