मेरे गाँव का एक परिवार नगर में रहता है जो कुछ दिन पूर्व ग्रीष्मावकाश व्यतीत करने गाँव आया था. आगमन के तीसरे दिन उस परिवार की १५ वर्षीय किशोरी एक संध्या में अचानक लुप्त हो गयी. परिवार ने तुरंत मुझसे सहायता माँगी और मैं किशोरी की खोज में लग गया. रात्रि भर आस-पास के खेतों में उसकी खोज की गयी और स्थानीय पुलिस को उसके लुप्त होने की सूचना भी दे दी गयी. किन्तु प्रातःकाल तक उसका कोई सुराग नहीं मिला.
प्रातःकाल में गाँव के एक युवा ने मुझे बताया कि कल शाम दो अपरिचित युवक एक मोटर-सायकिल पर गाँव के आसपास चक्कर लगाते देखे गए थे जिनके पास किसी व्यक्ति का फोन भी आया था. उनके परस्पर वार्तालाप से सूचना देने वाले युवा ने फ़ोन करने वाले व्यक्ति का नाम भी जान लिया था. इस नाम का एक व्यक्ति नगर में किशोरी के पड़ोस में रहता है, ऐसा किशोरी के पिता ने बताया. इस बारे में पुलिस को सूचना दी गयी जहां से एक पुलिस बल मुझे नगर में छापा मार कर किशोरी की खोज के लिए दे दिया गया.
नगर में फ़ोन करने वाले व्यक्ति ने बताया कि उसका किशोरी के लुप्त होने से कोई सम्बन्ध नहीं है किन्तु वह हमें उस घर पर ले गया जहां वह लड़का रहता है जिसको उसने फ़ोन किया था. उस समय घर में केवल स्त्रियाँ थीं और उन्होंने बताया कि उक्त लड़का वहीं रहता है किन्तु उस समय वे उसकी स्थिति के बारे में कुछ नहीं जानतीं. पुलिस ने उन स्त्रियों को लड़के की खोज कर बुलाने के लिए कहा और उनके तलाने पर उन्हें कुछ भयभीत भी किया. इसके बाद हम सब किशोरी के निवास पर आ गए जो पास में ही है.
किशोरी के निवास पर हम अपने अगले कदम का निर्णय ही कर रहे थे कि किशोरी वहां उपस्थित हो गयी. उसने बताया कि वह अपनी इच्छा से अपने मित्र के पास आयी थी. इस प्रकार यह किशोरावस्था का प्रेम सिद्ध हुआ जिसके लिए किशोरी ने इतना बड़ा कदम उठाया था. ऐसे भावुकता भरे सम्बन्ध इस आयु में बहुधा हो जाते हैं जिनमे किशोर-किशोरियों को इनके औचित्य का ज्ञान भी नहीं होता.
जहां एक ओर किशोर-किशोरी अपनी भावुकताओं में विवश हो जाते हैं, वहीं भारतीय विधान इस प्रकार के सम्बन्ध को विवाह में परिवर्तित करने की अनुमति नहीं देता. इसका सटीक कारण यह है कि इस अवस्था में बच्चे अपने भविष्य के बारे में निर्णय लेने में समर्थ नहीं होते और जो इस प्रकार के दुस्साहस दर्शाते हैं वे प्रायः जीवन भर पाश्चाताप करते हैं. यह आयु उनकी शिक्षा को समर्पित होनी चाहिए ताकि वे स्वस्थ एवं सभ्य नागरिक बन सकें, जो व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक और राष्ट्रीय स्तरों पर विकास के लिए आवश्यक है. इस सर्वोपयोगी आदर्श से परिचित होते हुए भी किशोर-किशोरी ऐसी भूलें करते हैं जिनके परिणाम व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र, सभी के लिए घातक सिद्ध होते हैं.
इस आलेख की रचना का आशय यही है कि हम जानें कि ऐसा क्यों होता है, जो सभी के लिए घातक है. यह प्रकृति का विधान नहीं हो सकता, इसलिए इसका कारण हमारे समाज की कहीं कोई कृत्रिम विकृति है. प्रेम सम्बन्ध में लिप्त लिशोर-किशोरी निश्चित रूप से अपनी शिक्षण प्रक्रिया से विमुख हो जाते हैं. इसे दूसरे शब्दों में इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि शिक्षा से विमुख किशोर-किशोरी ही इस प्रकार के संबंधों में लिप्त होते हैं. बच्चे अपनी शिक्षा के प्रति गंभीर रहें, इसका दायित्व शिक्षकों तथा माता-पिता दोनों का है. आज हम देख रहे हैं कि ये दोनों वर्ग ही अपने इस दायित्व के प्रति गंभीर नहीं हैं. शिक्षक वर्ग तो यह मान कर निश्चिन्त हो जाता है कि उनके छात्रों के भ्रमित होने से उन पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता. किन्तु माता-पिता और सारे परिवार का भविष्य किशोरों के इस प्रकार के व्यवहार से खतरे में पड़ जाता है. अतः प्राथमिक स्तर पर माता-पिता को ही इसके लिए गंभीर होने की आवश्यकता है.
मैं बहुधा देखता हूँ कि अधिकाँश माता-पिता अपने बच्चों की शिक्षा-दीक्षा पर अधिकाधिक धन व्यय करने के लिए तो तत्पर रहते हैं किन्तु उनके सतत मार्गदर्शन के लिए उनके पास समय नहीं होता या वे इसे महत्वपूर्ण नहीं समझते. वे असीमित धन और सुख-सुविधाएं जुटाने में इतने लीं रहते हैं कि परिवार के प्रति अपने कर्तव्यों के प्रति उदासीन हो जाते हैं. इस उदासीनता के कारण उनके बच्चे पथ्भ्रिष्ट हो जाते हैं और उनके जीवन भर की असीमित कमाई भी व्यर्थ चली जाती है. जी हाँ यही है मेरा मंतव्य.
रविवार, 30 मई 2010
भारत का मनोवैज्ञानिक यथार्थ
भारतीय समाज के बारे में सार्थक कार्य करने वाला कोई भी समाज शास्त्री भारत के मनोवैज्ञानिक यथार्थ की अनदेखी नहीं कर सकता. इसलिए भारतीय समाज पर बौद्धिक जनतंत्र की अवधारणा स्थापित करने से पूर्व हमारे लिए भी यह आवश्यक है कि हम भारतीय समाज के मनोवैज्ञानिक यथार्थ का विश्लेषात्मक अध्ययन करें और इसे अच्छी तरह जानें. भारी समाज पूर्ण अथवा आंशिक रूप में गुप्त वंश के शासन के बाद १९४७ तक लगभग १६०० वर्ष विदेशी लोगों के अधीन रहा है. १९४७ में तथाकथित स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भी यह समाज अंग्रेज़ी शासन की रीति-नीतियों - प्रशासनिक सेवा के स्थान पर दमन, उधर के सिन्दूर जैसा संविधान, शासक वर्ग के अनुपम वैभव, शासक-शासित वृहत अंतराल, आदि के अंतर्गत पिस रहा है.
इस दमनात्मक शासन की दीर्घ अवधि ने भारतीयों के मनोविज्ञान को ऐसा जकड लिया है कि वे किसी ऊपर वाले पर सतत आश्रित रहते हैं और उसके बिना स्वयं को निस्सहाय एवं दीं-हीन समझते हैं. इस ऊपर वाले में ईश्वर और शासक दोनों सम्मिलित हैं. बच्चों को भी राजा, रानी और राजकुमारों की कथाएँ ही सुनायी जाती हैं जिससे वे स्वयं को उनकी तुलना में दीन-हीन ही स्वीकार करते रहें. इस सब से जन साधारण की मान्यता बन गयी है कि उनमें से प्रत्येक अपने जीवन का निर्णय स्वयं लेने में सक्षम नहीं है और उसे इसके लिए किसी अधिक सशक्त और सुयोग्य व्यक्ति अथवा शक्ति के आश्रय की सतत आवश्यकता बनी रहती है. भारत के तथाकथित जनतांत्रिक राजनेता लोगों की इस मानसिकता का पूर्ण लाभ उठाते रहे हैं और उन्हें संतुष्ट करने के लिए स्वयं को उनके सेवक के स्थान पर उनसे श्रेष्ठ शासक के रूप में स्थापित करते रहे हैं. अपने कुत्ते के वैभव के लिए भी वे अनेक लोगों के जीवन को दांव पर लगने से भी नहीं चूक रहे हैं और लोग इस सब को निर्विरोध सहन करते जा रहे हैं.
उपरोक्त प्रकार के जनतांत्रिक शोषण से लोग प्रसन्न हों, ऐसा भी नहीं है. किन्तु वे अपने शिकवे-शिकायत केवल आपसी चर्चा तक ही सीमित रखते हैं, इसके प्रतिकार के लिए कोई सार्थक कदम नहीं उठाते. इससे स्पष्ट है कि लोग वर्तमान जनतांत्रिक व्यवस्था से संतुष्ट नहीं हैं किन्तु अपना आक्रोश व्यक्त करने में असमर्थ हैं. शासन के प्रति इसी असंतोष की अभिव्यक्ति लोगों की ऐसे धर्मगुरुओं के चरणों में पडी भीड़ के रूप में भी दिखाई पड़ती है, जिन्हें वे श्रेष्ठ मान चुके होते हैं.
इस स्थिति से तीन निष्कर्ष निकलते हैं - भारत के लोगों को श्रेष्ठों का शासन चाहिए, वे वर्त्तमान व्यवस्था में परिवर्तन चाहते हैं, और इस परिवर्तन के प्रयास में वे केवल अपनी मूक सहमति दे सकते हैं, सक्रिय योगदान नहीं. इन्हीं तीन तथ्यों के आधार पर भारत के प्रबुद्ध वर्ग को शासन की बागडोर अपने हाथ में लेने के प्रयास करने होंगे.
प्रबुद्ध वर्ग को जन साधारण के समक्ष वर्तमान शासकों की तुलना में श्रेष्ठ सिद्ध करने में कोई कठिनाई नहीं हो सकती. यह वर्ग सर्व-व्यापी है और सर्व-शक्तिमान भी. भारतीय जनमानस उनके शासन को निश्चित रूप से पसंद करेगा, किन्तु इस परिवर्तन में अपना सक्रिय योगदान नहीं देगा. इस कारण से लोग जनतांत्रिक चुनावों का बहिष्कार तो कर सकते हैं किन्तु दमनकारी शासकों के विरुद्ध प्रबुद्ध लोगों का शासन हेतु चयन नहीं कर सकते. वर्तमान संविधान की उपेक्षा तो कर सकते हैं किन्तु नए संविधान की रचना नहीं कर सकते. वे प्रबुद्ध वर्ग की सरलता और शालीनता के प्रशंसक तो हो सकते हैं किन्तु शासकों द्वारा शोषण का विरोध नहीं कर सकते. अतः बौद्धिक जनतंत्र की स्थापना के लिए प्रबुद्ध लोगों को एक जुट होकर स्वयं ही प्रयास करने होंगे.
इस दमनात्मक शासन की दीर्घ अवधि ने भारतीयों के मनोविज्ञान को ऐसा जकड लिया है कि वे किसी ऊपर वाले पर सतत आश्रित रहते हैं और उसके बिना स्वयं को निस्सहाय एवं दीं-हीन समझते हैं. इस ऊपर वाले में ईश्वर और शासक दोनों सम्मिलित हैं. बच्चों को भी राजा, रानी और राजकुमारों की कथाएँ ही सुनायी जाती हैं जिससे वे स्वयं को उनकी तुलना में दीन-हीन ही स्वीकार करते रहें. इस सब से जन साधारण की मान्यता बन गयी है कि उनमें से प्रत्येक अपने जीवन का निर्णय स्वयं लेने में सक्षम नहीं है और उसे इसके लिए किसी अधिक सशक्त और सुयोग्य व्यक्ति अथवा शक्ति के आश्रय की सतत आवश्यकता बनी रहती है. भारत के तथाकथित जनतांत्रिक राजनेता लोगों की इस मानसिकता का पूर्ण लाभ उठाते रहे हैं और उन्हें संतुष्ट करने के लिए स्वयं को उनके सेवक के स्थान पर उनसे श्रेष्ठ शासक के रूप में स्थापित करते रहे हैं. अपने कुत्ते के वैभव के लिए भी वे अनेक लोगों के जीवन को दांव पर लगने से भी नहीं चूक रहे हैं और लोग इस सब को निर्विरोध सहन करते जा रहे हैं.
उपरोक्त प्रकार के जनतांत्रिक शोषण से लोग प्रसन्न हों, ऐसा भी नहीं है. किन्तु वे अपने शिकवे-शिकायत केवल आपसी चर्चा तक ही सीमित रखते हैं, इसके प्रतिकार के लिए कोई सार्थक कदम नहीं उठाते. इससे स्पष्ट है कि लोग वर्तमान जनतांत्रिक व्यवस्था से संतुष्ट नहीं हैं किन्तु अपना आक्रोश व्यक्त करने में असमर्थ हैं. शासन के प्रति इसी असंतोष की अभिव्यक्ति लोगों की ऐसे धर्मगुरुओं के चरणों में पडी भीड़ के रूप में भी दिखाई पड़ती है, जिन्हें वे श्रेष्ठ मान चुके होते हैं.
इस स्थिति से तीन निष्कर्ष निकलते हैं - भारत के लोगों को श्रेष्ठों का शासन चाहिए, वे वर्त्तमान व्यवस्था में परिवर्तन चाहते हैं, और इस परिवर्तन के प्रयास में वे केवल अपनी मूक सहमति दे सकते हैं, सक्रिय योगदान नहीं. इन्हीं तीन तथ्यों के आधार पर भारत के प्रबुद्ध वर्ग को शासन की बागडोर अपने हाथ में लेने के प्रयास करने होंगे.
प्रबुद्ध वर्ग को जन साधारण के समक्ष वर्तमान शासकों की तुलना में श्रेष्ठ सिद्ध करने में कोई कठिनाई नहीं हो सकती. यह वर्ग सर्व-व्यापी है और सर्व-शक्तिमान भी. भारतीय जनमानस उनके शासन को निश्चित रूप से पसंद करेगा, किन्तु इस परिवर्तन में अपना सक्रिय योगदान नहीं देगा. इस कारण से लोग जनतांत्रिक चुनावों का बहिष्कार तो कर सकते हैं किन्तु दमनकारी शासकों के विरुद्ध प्रबुद्ध लोगों का शासन हेतु चयन नहीं कर सकते. वर्तमान संविधान की उपेक्षा तो कर सकते हैं किन्तु नए संविधान की रचना नहीं कर सकते. वे प्रबुद्ध वर्ग की सरलता और शालीनता के प्रशंसक तो हो सकते हैं किन्तु शासकों द्वारा शोषण का विरोध नहीं कर सकते. अतः बौद्धिक जनतंत्र की स्थापना के लिए प्रबुद्ध लोगों को एक जुट होकर स्वयं ही प्रयास करने होंगे.
शनिवार, 29 मई 2010
महाभारत युद्ध के बाद विष्णु
महाभारत युद्ध में कौरव सेना की पराजय तो हुई ही इसमें विश्व के सभी प्रसिद्ध योद्धा भी मारे गए. इसका सभी को दुःख था सिवाय कृष्ण के, क्योंकि यह परिणाम उसी के मनोनुकूल था. युद्ध में विष्णु, जो शकुनि के रूप में उपस्थित थे, को बंदी बना लिया गया तथा उनके अंडकोष काट डाले गए. इस विशेष दंड का एक विशेष कारण था. विष्णु और यीशु के अतिरिक्त सभी प्रमुख देव मारे जा चुके थे जिससे देव कुल नष्ट होने की संभावना थी. इसे सुनिश्चित करने के लिए परसंतापी कृष्ण ने विष्णु के अंडकोष काटकर उन्हें नपुंसक बनाने का प्रयास किया था.
महाभारत युद्ध में विजय के बाद कृष्ण और सिकंदर ने यहूदी वंश के महापद्मानंद को भारत के सम्राट पद पर स्थापित किया, किन्तु जिन पांडवों के नाम पर महाभारत युद्ध रचा गया था उन्हें राज्य में कोई हिस्सा नहीं दिया गया तथा कृष्ण ने उन्हें हिमालय में भटकने और नष्ट हो जाने के लिए प्रेरित कर दिया. इस प्रकार कृष्ण ने भारत के साथ ही नहीं अपने अनुयायी पांडवों के साथ भी छल किया.
युद्ध के बाद विष्णु गुप्त रहने के लिए पाराशर ऋषि के रूप में रहने लगे और राजस्थान के अलवर जनपद में सरस्वती तट पर एक आश्रम बनाकर रहने लगे. यह आश्रम आज भी विद्यमान है जो एक पहाडी की घाटी में स्थित है. यहीं रहकर उन्होंने 'होरा शास्त्र' नामक ग्रन्थ की रचना की जो सूर्य की गति के आधार पर समय-मापन के बारे में है. 'होरा' शब्द का वास्तविक अर्थ सूर्य है जिसके कारण काल संचालित होता है, इसलिए इस शब्द को 'समय' के भाव में भी उपयोग किया गया है. किन्तु आधुनिक पंडितों ने इसके माध्यम से अपने छल 'फलित ज्योतिष' को प्रसिद्ध किया है और इस ग्रन्थ को इसी विषय को समर्पित बताया जा रहा है. यहाँ भी स्पष्ट कर दें कि भारत का मौलिक काल चक्र सूर्य आधारित है जब कि यवन समुदाय काल निधारण के लिए चन्द्र को आधार बनाता रहा हैं.
उक्त आश्रम में रहते हुए ही विष्णु ने अपने अन्डकोशों की चिकित्सा की जिसके लिए पारद भस्म तैयार कर उसे औषधि के रूप में उपयोग किया गया. आश्रम के ऊपर पहाडी पर आज भी इसका प्रमाण उपस्थित है. इस चिकित्सा से स्वस्थ होने के बाद विष्णु ने यीशु की बड़ी बहिन मरियम से विवाह किया ताकि देव संतति सतत बनी रहे. इस विवाह के बाद मरियम देवी लक्ष्मी, विष्णुप्रिया, आदि नामों से जानी जाने लगीं. देवी दुर्गा तथा काली भी इन्हीं के छद्म रूप थे.
कालांतर में देवी लक्ष्मी ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम आरम्भ में गोपीचंद और बाद में 'चन्द्रगुप्त' रखा गया. विष्णु ने एक और छद्म रूप धारण किया और इसके लिए अपना नाम 'विष्णुगुप्त चाणक्य' रखा. इस नाम में शब्द 'चाणक्य' इसलिए जोड़ा गया कि उन्हें सदैव याद रहे कि उनके अंडकोष (आण) काटे गए थे और वे इसका प्रतिशोध लेने के लिए संकल्पित रहें. इनका साथ देने के लिए यीशु ने अपना नाम 'चित्रगुप्त' रखा. चित्रगुप्त रूप में आने से पूर्व यीशु गणेश के रूप में थे, जिसका प्रमाण खजुराहो के चित्रगुप्त मंदिर में उनके गणेश रूप की भी प्रतिमा है जिसे ऊपर के चित्र में दर्शाया गया है. विष्णुगुप्त से गुप्त वंश का आरम्भ हुआ तथा चित्रगुप्त से कायस्थ जाति का उदय हुआ. यहाँ शब्द 'चित्र' एवं कायस्थ यीशु के नाम क्राइस्ट के ही परिवर्तित रूप हैं. भारत का सर्वाधिक प्रबुद्ध वर्ग 'कायस्थ' यीशु का ही वंश है.
विष्णुगुप्त और चित्रगुप्त दोनों ने मिलकर देवी लक्ष्मी के साथ चन्द्रगुप्त का लालन-पालन किया और उसे भारत का सम्राट बनाने हेतु शिक्षित एवं दीक्षित बनाया. इसी अवधि में महापद्मानंद के विरुद्ध अनेक स्थानीय विद्रोह नियोजित कराये गए और अंततः उसकी हत्या के बाद चन्द्रगुप्त को भारत का सम्राट बनाया गया. उसने अपनी माता मरियम को सम्मानित करने के लिए अपना उपनाम 'मोर्य' रखा. चन्द्रगुप्त मोर्य भारत में गुप्त वंश के शासन का प्रथम सम्राट बना. यहीं से विष्णुगुप्त और चन्द्रगुप्त के मार्गदर्शन में भारत को 'सोने की चिड़िया' बनाने के सफल प्रयास किये गए.
महाभारत युद्ध में विजय के बाद कृष्ण और सिकंदर ने यहूदी वंश के महापद्मानंद को भारत के सम्राट पद पर स्थापित किया, किन्तु जिन पांडवों के नाम पर महाभारत युद्ध रचा गया था उन्हें राज्य में कोई हिस्सा नहीं दिया गया तथा कृष्ण ने उन्हें हिमालय में भटकने और नष्ट हो जाने के लिए प्रेरित कर दिया. इस प्रकार कृष्ण ने भारत के साथ ही नहीं अपने अनुयायी पांडवों के साथ भी छल किया.
युद्ध के बाद विष्णु गुप्त रहने के लिए पाराशर ऋषि के रूप में रहने लगे और राजस्थान के अलवर जनपद में सरस्वती तट पर एक आश्रम बनाकर रहने लगे. यह आश्रम आज भी विद्यमान है जो एक पहाडी की घाटी में स्थित है. यहीं रहकर उन्होंने 'होरा शास्त्र' नामक ग्रन्थ की रचना की जो सूर्य की गति के आधार पर समय-मापन के बारे में है. 'होरा' शब्द का वास्तविक अर्थ सूर्य है जिसके कारण काल संचालित होता है, इसलिए इस शब्द को 'समय' के भाव में भी उपयोग किया गया है. किन्तु आधुनिक पंडितों ने इसके माध्यम से अपने छल 'फलित ज्योतिष' को प्रसिद्ध किया है और इस ग्रन्थ को इसी विषय को समर्पित बताया जा रहा है. यहाँ भी स्पष्ट कर दें कि भारत का मौलिक काल चक्र सूर्य आधारित है जब कि यवन समुदाय काल निधारण के लिए चन्द्र को आधार बनाता रहा हैं.
उक्त आश्रम में रहते हुए ही विष्णु ने अपने अन्डकोशों की चिकित्सा की जिसके लिए पारद भस्म तैयार कर उसे औषधि के रूप में उपयोग किया गया. आश्रम के ऊपर पहाडी पर आज भी इसका प्रमाण उपस्थित है. इस चिकित्सा से स्वस्थ होने के बाद विष्णु ने यीशु की बड़ी बहिन मरियम से विवाह किया ताकि देव संतति सतत बनी रहे. इस विवाह के बाद मरियम देवी लक्ष्मी, विष्णुप्रिया, आदि नामों से जानी जाने लगीं. देवी दुर्गा तथा काली भी इन्हीं के छद्म रूप थे.
कालांतर में देवी लक्ष्मी ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम आरम्भ में गोपीचंद और बाद में 'चन्द्रगुप्त' रखा गया. विष्णु ने एक और छद्म रूप धारण किया और इसके लिए अपना नाम 'विष्णुगुप्त चाणक्य' रखा. इस नाम में शब्द 'चाणक्य' इसलिए जोड़ा गया कि उन्हें सदैव याद रहे कि उनके अंडकोष (आण) काटे गए थे और वे इसका प्रतिशोध लेने के लिए संकल्पित रहें. इनका साथ देने के लिए यीशु ने अपना नाम 'चित्रगुप्त' रखा. चित्रगुप्त रूप में आने से पूर्व यीशु गणेश के रूप में थे, जिसका प्रमाण खजुराहो के चित्रगुप्त मंदिर में उनके गणेश रूप की भी प्रतिमा है जिसे ऊपर के चित्र में दर्शाया गया है. विष्णुगुप्त से गुप्त वंश का आरम्भ हुआ तथा चित्रगुप्त से कायस्थ जाति का उदय हुआ. यहाँ शब्द 'चित्र' एवं कायस्थ यीशु के नाम क्राइस्ट के ही परिवर्तित रूप हैं. भारत का सर्वाधिक प्रबुद्ध वर्ग 'कायस्थ' यीशु का ही वंश है.
विष्णुगुप्त और चित्रगुप्त दोनों ने मिलकर देवी लक्ष्मी के साथ चन्द्रगुप्त का लालन-पालन किया और उसे भारत का सम्राट बनाने हेतु शिक्षित एवं दीक्षित बनाया. इसी अवधि में महापद्मानंद के विरुद्ध अनेक स्थानीय विद्रोह नियोजित कराये गए और अंततः उसकी हत्या के बाद चन्द्रगुप्त को भारत का सम्राट बनाया गया. उसने अपनी माता मरियम को सम्मानित करने के लिए अपना उपनाम 'मोर्य' रखा. चन्द्रगुप्त मोर्य भारत में गुप्त वंश के शासन का प्रथम सम्राट बना. यहीं से विष्णुगुप्त और चन्द्रगुप्त के मार्गदर्शन में भारत को 'सोने की चिड़िया' बनाने के सफल प्रयास किये गए.
महाभारत युद्ध के बाद विष्णु
महाभारत युद्ध में कौरव सेना की पराजय तो हुई ही इसमें विश्व के सभी प्रसिद्ध योद्धा भी मारे गए. इसका सभी को दुःख था सिवाय कृष्ण के, क्योंकि यह परिणाम उसी के मनोनुकूल था. युद्ध में विष्णु, जो शकुनि के रूप में उपस्थित थे, को बंदी बना लिया गया तथा उनके अंडकोष काट डाले गए. इस विशेष दंड का एक विशेष कारण था. विष्णु और यीशु के अतिरिक्त सभी प्रमुख देव मारे जा चुके थे जिससे देव कुल नष्ट होने की संभावना थी. इसे सुनिश्चित करने के लिए परसंतापी कृष्ण ने विष्णु के अंडकोष काटकर उन्हें नपुंसक बनाने का प्रयास किया था.
महाभारत युद्ध में विजय के बाद कृष्ण और सिकंदर ने यहूदी वंश के महापद्मानंद को भारत के सम्राट पद पर स्थापित किया, किन्तु जिन पांडवों के नाम पर महाभारत युद्ध रचा गया था उन्हें राज्य में कोई हिस्सा नहीं दिया गया तथा कृष्ण ने उन्हें हिमालय में भटकने और नष्ट हो जाने के लिए प्रेरित कर दिया. इस प्रकार कृष्ण ने भारत के साथ ही नहीं अपने अनुयायी पांडवों के साथ भी छल किया.
युद्ध के बाद विष्णु गुप्त रहने के लिए पाराशर ऋषि के रूप में रहने लगे और राजस्थान के अलवर जनपद में सरस्वती तट पर एक आश्रम बनाकर रहने लगे. यह आश्रम आज भी विद्यमान है जो एक पहाडी की घाटी में स्थित है. यहीं रहकर उन्होंने 'होरा शास्त्र' नामक ग्रन्थ की रचना की जो सूर्य की गति के आधार पर समय-मापन के बारे में है. 'होरा' शब्द का वास्तविक अर्थ सूर्य है जिसके कारण काल संचालित होता है, इसलिए इस शब्द को 'समय' के भाव में भी उपयोग किया गया है. किन्तु आधुनिक पंडितों ने इसके माध्यम से अपने छल 'फलित ज्योतिष' को प्रसिद्ध किया है और इस ग्रन्थ को इसी विषय को समर्पित बताया जा रहा है. यहाँ भी स्पष्ट कर दें कि भारत का मौलिक काल चक्र सूर्य आधारित है जब कि यवन समुदाय काल निधारण के लिए चन्द्र को आधार बनाता रहा हैं.
उक्त आश्रम में रहते हुए ही विष्णु ने अपने अन्डकोशों की चिकित्सा की जिसके लिए पारद भस्म तैयार कर उसे औषधि के रूप में उपयोग किया गया. आश्रम के ऊपर पहाडी पर आज भी इसका प्रमाण उपस्थित है. इस चिकित्सा से स्वस्थ होने के बाद विष्णु ने यीशु की बड़ी बहिन मरियम से विवाह किया ताकि देव संतति सतत बनी रहे. इस विवाह के बाद मरियम देवी लक्ष्मी, विष्णुप्रिया, आदि नामों से जानी जाने लगीं. देवी दुर्गा तथा काली भी इन्हीं के छद्म रूप थे.
कालांतर में देवी लक्ष्मी ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम आरम्भ में गोपीचंद और बाद में 'चन्द्रगुप्त' रखा गया. विष्णु ने एक और छद्म रूप धारण किया और इसके लिए अपना नाम 'विष्णुगुप्त चाणक्य' रखा. इस नाम में शब्द 'चाणक्य' इसलिए जोड़ा गया कि उन्हें सदैव याद रहे कि उनके अंडकोष (आण) काटे गए थे और वे इसका प्रतिशोध लेने के लिए संकल्पित रहें. इनका साथ देने के लिए यीशु ने अपना नाम 'चित्रगुप्त' रखा. चित्रगुप्त रूप में आने से पूर्व यीशु गणेश के रूप में थे, जिसका प्रमाण खजुराहो के चित्रगुप्त मंदिर में उनके गणेश रूप की भी प्रतिमा है जिसे ऊपर के चित्र में दर्शाया गया है. विष्णुगुप्त से गुप्त वंश का आरम्भ हुआ तथा चित्रगुप्त से कायस्थ जाति का उदय हुआ. यहाँ शब्द 'चित्र' एवं कायस्थ यीशु के नाम क्राइस्ट के ही परिवर्तित रूप हैं. भारत का सर्वाधिक प्रबुद्ध वर्ग 'कायस्थ' यीशु का ही वंश है.
विष्णुगुप्त और चित्रगुप्त दोनों ने मिलकर देवी लक्ष्मी के साथ चन्द्रगुप्त का लालन-पालन किया और उसे भारत का सम्राट बनाने हेतु शिक्षित एवं दीक्षित बनाया. इसी अवधि में महापद्मानंद के विरुद्ध अनेक स्थानीय विद्रोह नियोजित कराये गए और अंततः उसकी हत्या के बाद चन्द्रगुप्त को भारत का सम्राट बनाया गया. उसने अपनी माता मरियम को सम्मानित करने के लिए अपना उपनाम 'मोर्य' रखा. चन्द्रगुप्त मोर्य भारत में गुप्त वंश के शासन का प्रथम सम्राट बना. यहीं से विष्णुगुप्त और चन्द्रगुप्त के मार्गदर्शन में भारत को 'सोने की चिड़िया' बनाने के सफल प्रयास किये गए.
महाभारत युद्ध में विजय के बाद कृष्ण और सिकंदर ने यहूदी वंश के महापद्मानंद को भारत के सम्राट पद पर स्थापित किया, किन्तु जिन पांडवों के नाम पर महाभारत युद्ध रचा गया था उन्हें राज्य में कोई हिस्सा नहीं दिया गया तथा कृष्ण ने उन्हें हिमालय में भटकने और नष्ट हो जाने के लिए प्रेरित कर दिया. इस प्रकार कृष्ण ने भारत के साथ ही नहीं अपने अनुयायी पांडवों के साथ भी छल किया.
युद्ध के बाद विष्णु गुप्त रहने के लिए पाराशर ऋषि के रूप में रहने लगे और राजस्थान के अलवर जनपद में सरस्वती तट पर एक आश्रम बनाकर रहने लगे. यह आश्रम आज भी विद्यमान है जो एक पहाडी की घाटी में स्थित है. यहीं रहकर उन्होंने 'होरा शास्त्र' नामक ग्रन्थ की रचना की जो सूर्य की गति के आधार पर समय-मापन के बारे में है. 'होरा' शब्द का वास्तविक अर्थ सूर्य है जिसके कारण काल संचालित होता है, इसलिए इस शब्द को 'समय' के भाव में भी उपयोग किया गया है. किन्तु आधुनिक पंडितों ने इसके माध्यम से अपने छल 'फलित ज्योतिष' को प्रसिद्ध किया है और इस ग्रन्थ को इसी विषय को समर्पित बताया जा रहा है. यहाँ भी स्पष्ट कर दें कि भारत का मौलिक काल चक्र सूर्य आधारित है जब कि यवन समुदाय काल निधारण के लिए चन्द्र को आधार बनाता रहा हैं.
उक्त आश्रम में रहते हुए ही विष्णु ने अपने अन्डकोशों की चिकित्सा की जिसके लिए पारद भस्म तैयार कर उसे औषधि के रूप में उपयोग किया गया. आश्रम के ऊपर पहाडी पर आज भी इसका प्रमाण उपस्थित है. इस चिकित्सा से स्वस्थ होने के बाद विष्णु ने यीशु की बड़ी बहिन मरियम से विवाह किया ताकि देव संतति सतत बनी रहे. इस विवाह के बाद मरियम देवी लक्ष्मी, विष्णुप्रिया, आदि नामों से जानी जाने लगीं. देवी दुर्गा तथा काली भी इन्हीं के छद्म रूप थे.
कालांतर में देवी लक्ष्मी ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम आरम्भ में गोपीचंद और बाद में 'चन्द्रगुप्त' रखा गया. विष्णु ने एक और छद्म रूप धारण किया और इसके लिए अपना नाम 'विष्णुगुप्त चाणक्य' रखा. इस नाम में शब्द 'चाणक्य' इसलिए जोड़ा गया कि उन्हें सदैव याद रहे कि उनके अंडकोष (आण) काटे गए थे और वे इसका प्रतिशोध लेने के लिए संकल्पित रहें. इनका साथ देने के लिए यीशु ने अपना नाम 'चित्रगुप्त' रखा. चित्रगुप्त रूप में आने से पूर्व यीशु गणेश के रूप में थे, जिसका प्रमाण खजुराहो के चित्रगुप्त मंदिर में उनके गणेश रूप की भी प्रतिमा है जिसे ऊपर के चित्र में दर्शाया गया है. विष्णुगुप्त से गुप्त वंश का आरम्भ हुआ तथा चित्रगुप्त से कायस्थ जाति का उदय हुआ. यहाँ शब्द 'चित्र' एवं कायस्थ यीशु के नाम क्राइस्ट के ही परिवर्तित रूप हैं. भारत का सर्वाधिक प्रबुद्ध वर्ग 'कायस्थ' यीशु का ही वंश है.
विष्णुगुप्त और चित्रगुप्त दोनों ने मिलकर देवी लक्ष्मी के साथ चन्द्रगुप्त का लालन-पालन किया और उसे भारत का सम्राट बनाने हेतु शिक्षित एवं दीक्षित बनाया. इसी अवधि में महापद्मानंद के विरुद्ध अनेक स्थानीय विद्रोह नियोजित कराये गए और अंततः उसकी हत्या के बाद चन्द्रगुप्त को भारत का सम्राट बनाया गया. उसने अपनी माता मरियम को सम्मानित करने के लिए अपना उपनाम 'मोर्य' रखा. चन्द्रगुप्त मोर्य भारत में गुप्त वंश के शासन का प्रथम सम्राट बना. यहीं से विष्णुगुप्त और चन्द्रगुप्त के मार्गदर्शन में भारत को 'सोने की चिड़िया' बनाने के सफल प्रयास किये गए.
शुक्रवार, 28 मई 2010
किम
प्रेम
ऋण
शीष
सुरभि
शीत
सेतु, केतु
भारतीय शास्त्रों के शब्द 'सेतु' और 'केतु' समानार्थक हैं. 'सेतु' शब्द लैटिन के शब्द cetus से बना है जब कि 'केतु' ग्रीक भाषा के शब्द ketos से बना है. इन दोनों के ही अर्थ 'व्हेल मछली' है. आधुनिक संस्कृत में सेतु का अर्थ 'पुल' लिया गया है जिससे अनेक शास्त्रीय भ्रांतियां फैलाई गयी हैं. केतु को एक बुरा चरित्र कहा गया है.
गुरुवार, 27 मई 2010
नः
वेदों में उपस्थित शब्द 'नः' तथा 'नू' के उद्भव स्रोत लैटिन भाषा का nous तथा ग्रीक भाषा का noos है जिसका अर्थ मनुष्य की 'चिंतन शक्ति' है जिसे 'मस्तिष्क' के भाव में भी उपयोग किया गया है. बाइबिल का शब्द 'नोह' अथवा 'नूह' भी इसी भाव में उपयोग किया गया है. आधुनिक संस्कृत में इसका अर्थ 'हम' लिया गया है जिसके अनुसार ही प्रसिद्ध गायत्री मन्त्र का भ्रामक अनुवाद प्रचलित है.
शनिवार, 22 मई 2010
उर
अप्त, आप्त
आदिम
दूषण, प्रदूषण
सामान्य और विशिष्ट लोगों की मानसिकता
जैसा मेरे देश का हाल है, ठीक वैसा ही मेरे गाँव का. समाज दो वर्गों में बनता है - सामान्य और विशिष्ट. विशिष्ट व्यक्ति साधन-संपन्न और कुटिलता में संपन्न हैं, जिसके कारण सरकार जो भीख निर्धनों के लिए देती है, ये उसके माध्यम होते हैं और उसमें से मोटा हिस्सा मर लेते अं. इस प्रकार वे बिना कुछ किये ही वैभवपूर्ण जीवन जीते हैं और समाज में सम्मान पाते हैं. लोग उन्हें ही अक्लमंद कहते हैं. सामान्य लोग निर्धन हैं, अधिकांश अशिक्षित हैं, और कुछ विवशता तथा कुछ विशिष्ट लोगों से प्रेरणा पाते हुए क्षुद्र लाभों के लिए विशिष्ट लोगों के समक्ष हाथ फैलाये खड़े रहते हैं ताकि उनके माध्यम से सरकारी भीख का कुछ अंश मिल जाए. परिश्रम करते हुए सम्मानित जीवन में इनकी भी निष्ठां नहीं रह गयी है.
विगत ३० वर्षों से निर्धनों को सरकारी भीख में निरंतर वृद्धि होती रही है, जिसके कारण कुटिल विशिष्ट जन गाँव में सक्रिय रहे हैं और गाँव के नेतृत्व में अपनी भूमिका निभाते रहे हैं. सामान्य जन इन पर निर्भर भी हैं और इनसे तृस्त भी हैं. वे इनसे मुक्त होना चाहते हैं किन्तु ऐसा स्पष्ट कहने का साहस नहीं कर पाते. कहीं ऐसा न हो कि जो भीख सरकार से मिल रही है, वह भी बंद हो जाए. यदि कभी किसी ने कुछ साहस दिखाया है तो उसकी भीख वस्तुतः बंद कर दी गयी है.
ऐसे वातावरण में मैं लगभग १० वर्ष से गाँव के संपर्क में रहा हूँ और विगत ५ वर्ष से यहीं स्थायी रूप से रह रहा हूँ. इस अवधि में मैंने विवश हलर गाँव में कुछ ऐसे कार्य किये हैं जिनके कारण जन-सामान्य मेरी इमानदारी और साहस पर विश्वास करने लगे हैं, साथ ही अधिकाँश विशिष्ट लोगों की आँखों में मैं खटकता रहा हूँ.
आगामी सितम्बर-अक्टूबर में ग्राम पंचायत के चुनाव होने हैं जिनके लिए अनेक सामान्य जनों ने मुझ पर उनका प्रतिनिधित्व करने का जोर दिया, और उनकी इच्छा देखते हुए मैंने हामी भी भर दी. गाँव में जोश उमड़ पड़ा, जिसमें कुछ विशिष्ट जन मेरे साथ लग गए तो कुछ मेरे कट्टर विरोधी बन गए. साथ वे लगे जिन्हें मुझसे आशा हुई कि मैं उनकी स्वार्थपूर्ति का एक माध्यम बनूँगा, और विरोध में आ खड़े हुए जिनकी स्वार्थपूर्ति में मेरे बाधक होने की संभावना है. वस्तुतः दोनों वर्गों का लक्ष्य एक ही है - स्वार्थपूर्ति.
मेरे तथाकथित सहयोगी मुझे सामान्यजन से अलग-थलग रकना चाहते हैं ताकि मैं उनकी समस्याओं से दूर रहकर अपने सहयोगियों के काम आता रहूँ. मेरे विरोधियों का प्रयास है कि वे मुझे गाँव से ही भगा दें. वे ग्राम पंचायत प्रधान पद को आरक्षित करने का प्रयास भी कर रहे हैं ताकि मैं प्रत्याशी ही न बन पाऊँ और उनका मार्ग निष्कंटक हो जाए. प्रशासन भृष्ट है, इसलिए कुछ भी किया जा सकता है, यद्यपि शासन की घोषित नीति के अनुसार उक्त पद आरक्षित नहीं होना चाहिए.
चुनाव की तैयारी के लिए मैंने अपने सहयोगियों की एक सभा बुलाई जिसमें भी उन्होंने मुझे अपने चंगुल में बनाए रखने के पूरे प्रयास किये. अनेक सहयोगी अनुचित लाभ पाने की अपनी मांगें मेरे समक्ष रखते रहे हैं, जिनका मैं कठोरता से प्रतिकार करता रहा हूँ. इस पर भी जन-सामान्य से मेरा संपर्क बना हुआ है जिस पर मेरे सहयोगी अपनी आपत्तियां दर्शाते रहे हैं. अंततः कल विस्फोट हुआ, और मेरे तथाकथित सहयोगियों ने मेरे विरुद्ध विद्रोह कर दिया और मैं अकेला रह गया. जन-सामान्य अभी इस से प्रसन्न है किन्तु मेरे पूर्व सहयोगी उन्हें मेरे विरुद्ध भड़काने के प्रयास करने लगे हैं. वे मेरे कट्टर विरोधियों से भी संपर्क स्थापित करने लगे हैं. इस प्रकार गाँव के सभी विशिष्ट व्यक्ति मेरे विरोधी बन गए हैं.
चुनाव प्रक्रिया ऐसी है जिसमें प्रत्याशियों को कुटिल सहयोगियों की भी आवश्यकता होती है अन्यता चुनाव प्रक्रिया में बड़े पैमाने पर धांधली कर परिणाम को विकृत किया जा सकता है. मेरे विरुद्ध कुछ ऐसा ही होने की संभावना है, तथापि मैं अकेला ही संघर्ष के लिए प्रस्तुत हूँ.
विगत ३० वर्षों से निर्धनों को सरकारी भीख में निरंतर वृद्धि होती रही है, जिसके कारण कुटिल विशिष्ट जन गाँव में सक्रिय रहे हैं और गाँव के नेतृत्व में अपनी भूमिका निभाते रहे हैं. सामान्य जन इन पर निर्भर भी हैं और इनसे तृस्त भी हैं. वे इनसे मुक्त होना चाहते हैं किन्तु ऐसा स्पष्ट कहने का साहस नहीं कर पाते. कहीं ऐसा न हो कि जो भीख सरकार से मिल रही है, वह भी बंद हो जाए. यदि कभी किसी ने कुछ साहस दिखाया है तो उसकी भीख वस्तुतः बंद कर दी गयी है.
ऐसे वातावरण में मैं लगभग १० वर्ष से गाँव के संपर्क में रहा हूँ और विगत ५ वर्ष से यहीं स्थायी रूप से रह रहा हूँ. इस अवधि में मैंने विवश हलर गाँव में कुछ ऐसे कार्य किये हैं जिनके कारण जन-सामान्य मेरी इमानदारी और साहस पर विश्वास करने लगे हैं, साथ ही अधिकाँश विशिष्ट लोगों की आँखों में मैं खटकता रहा हूँ.
आगामी सितम्बर-अक्टूबर में ग्राम पंचायत के चुनाव होने हैं जिनके लिए अनेक सामान्य जनों ने मुझ पर उनका प्रतिनिधित्व करने का जोर दिया, और उनकी इच्छा देखते हुए मैंने हामी भी भर दी. गाँव में जोश उमड़ पड़ा, जिसमें कुछ विशिष्ट जन मेरे साथ लग गए तो कुछ मेरे कट्टर विरोधी बन गए. साथ वे लगे जिन्हें मुझसे आशा हुई कि मैं उनकी स्वार्थपूर्ति का एक माध्यम बनूँगा, और विरोध में आ खड़े हुए जिनकी स्वार्थपूर्ति में मेरे बाधक होने की संभावना है. वस्तुतः दोनों वर्गों का लक्ष्य एक ही है - स्वार्थपूर्ति.
मेरे तथाकथित सहयोगी मुझे सामान्यजन से अलग-थलग रकना चाहते हैं ताकि मैं उनकी समस्याओं से दूर रहकर अपने सहयोगियों के काम आता रहूँ. मेरे विरोधियों का प्रयास है कि वे मुझे गाँव से ही भगा दें. वे ग्राम पंचायत प्रधान पद को आरक्षित करने का प्रयास भी कर रहे हैं ताकि मैं प्रत्याशी ही न बन पाऊँ और उनका मार्ग निष्कंटक हो जाए. प्रशासन भृष्ट है, इसलिए कुछ भी किया जा सकता है, यद्यपि शासन की घोषित नीति के अनुसार उक्त पद आरक्षित नहीं होना चाहिए.
चुनाव की तैयारी के लिए मैंने अपने सहयोगियों की एक सभा बुलाई जिसमें भी उन्होंने मुझे अपने चंगुल में बनाए रखने के पूरे प्रयास किये. अनेक सहयोगी अनुचित लाभ पाने की अपनी मांगें मेरे समक्ष रखते रहे हैं, जिनका मैं कठोरता से प्रतिकार करता रहा हूँ. इस पर भी जन-सामान्य से मेरा संपर्क बना हुआ है जिस पर मेरे सहयोगी अपनी आपत्तियां दर्शाते रहे हैं. अंततः कल विस्फोट हुआ, और मेरे तथाकथित सहयोगियों ने मेरे विरुद्ध विद्रोह कर दिया और मैं अकेला रह गया. जन-सामान्य अभी इस से प्रसन्न है किन्तु मेरे पूर्व सहयोगी उन्हें मेरे विरुद्ध भड़काने के प्रयास करने लगे हैं. वे मेरे कट्टर विरोधियों से भी संपर्क स्थापित करने लगे हैं. इस प्रकार गाँव के सभी विशिष्ट व्यक्ति मेरे विरोधी बन गए हैं.
चुनाव प्रक्रिया ऐसी है जिसमें प्रत्याशियों को कुटिल सहयोगियों की भी आवश्यकता होती है अन्यता चुनाव प्रक्रिया में बड़े पैमाने पर धांधली कर परिणाम को विकृत किया जा सकता है. मेरे विरुद्ध कुछ ऐसा ही होने की संभावना है, तथापि मैं अकेला ही संघर्ष के लिए प्रस्तुत हूँ.
शुक्रवार, 21 मई 2010
प्राकृत बुद्धि का अध्ययन
प्रकृति के सिद्धांत एवं नियम अटल, सर्वव्यापी और सार्वकालिक हैं, इन्हीं को एल्बर्ट आइन्स्टीन ने ईश्वर की बुद्धि कहा है. इन्हीं के अध्ययन को प्राचीन काल में फिलोसोफी और अब भौतिक विज्ञानं कहा जाता है. विश्व की प्रत्येक गतिविधि का संचालन इन्हीं के अनुसार होता है. वैज्ञानिक इनकी खोज करने के प्रयास करते रहे हैं जिनकी प्रमुख उपलब्धियों में आइज़क न्यूटन का गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत और आइन्स्टीन का सामान्य सापेक्षता का सिद्धांत सम्मिलित हैं. यद्यपि ये अभी पूर्ण नहीं हैं तथापि प्रकृति के अध्ययन के महत्वपूर्ण आरंभिक चरण हैं. मानव प्रयास करके ऐसे सरल सिद्धांत पा सकते हैं जो समस्त ब्रह्माण्ड पर एक समान लागू होंगे तथा जो मानवीय बुद्धि के लिए अत्यधिक सरल होंगे. न्यूटन आर आइन्स्टीन ने इस दिशा में प्रयास अवश्य किये हैं किन्तु इनको इतने जटिल रूप में प्रस्तुत किया है जिसे जन-सामान्य के बुद्धि से परे माना जा सकता है.
प्रकृति स्वयं जटिल नहीं है इसलिए इसके सिद्धांत भी जटिल नहीं होने चाहिए. आधुनिक भौतिकी ने अभी प्रकृति की सरल-हृदयता को स्वीकार नहीं किया है और इसे जटिल रूप में ही देखा जा रहा है. प्रकृति के अध्ययन की दूसरी बड़ी समस्या इस के सातत्व पर संदेह करते हुए इसमें आकस्मिक घटनाओं की परिकल्पना की गयी है, जिनमें से एक को निग बेंग कहा गया है. जब कि प्रकृति सदैव सतत है और इसमें आकस्मिकताओं के लिए कोई स्थान नहीं है. इन दो कारणों से प्राकृतिक सिद्धांतो के अध्ययन के क्षेत्र में कोई विशेष उपलब्धि नहीं हुई है.
वज्र धमाका (बिग बेंग)
वैज्ञानिकों की इस परिकल्पना के अनुसार कभी एक बड़ा धमाका हुआ था, जिसमें से छिटक कर भूमंडल उत्पन्न हुआ और यह उसी छिटक के कारण आज भी गतिमान है. यह एक भ्रामक परिकल्पना है. प्रकृति में कभी कोई ऐसा धमाका अथवा अन्य क्रिया नहीं हुई जो अब न हो रही हो. पृथ्वी सूर्या से सतत ऊर्जा प्राप्त करती हुई उसी ऊर्जा के कारण सतत गतिमान है. चूंकि हम अभी तक सूर्य से पृथ्वी द्वारा ऊर्जा प्राप्ति का सिद्धांत नहीं खोज पाए हैं, इस लिए इस यथार्थ को नहीं समझा जा रहा है.
पृथ्वी की गति
उक्त नासमझी का एक विशेष कारण यह है कि कभे किसी ने कह दिया कि पृथ्वी सूर्य के चारों ओर घूम रही है और शेष सभी ने स्वीकार कर लिया. जब कि इस विषय में स्वीकृत आंकड़े तर्क-संगत नहीं हैं. इस विसंगति को मिटाने की दिशा में मेरी कल्पना यह है कि पृथ्वी सूर्य के सापेक्ष एक निश्चित ध्रुवीय अक्ष पर फर्श पर उछलती गेंद की तरह ऊपर-नीचे-ऊपर-नीचे गति कर रही है. इस गति के लिए पृथ्वी सूर्य से ऊर्जा प्राप्त कर रही है.
मूलभूत सिद्धांत १ : मितव्ययता
उक्त दोनों संकल्पनाओं की पृष्ठभूमि में मान्यता यह है कि प्रकृति ऊर्जा के उपभोग में सर्वाधिक मितव्ययी है. दूसरे शब्दों में प्रकृति में केवल वैसी क्रियाएँ ही होती हैं जिनमें ऊर्जा की न्यूनतम संभव खपत हो अर्थात पृकृति में ऊर्जा की कोई अनावश्यक खपत नहीं होती.
मूलभूत सिद्धांत २ :सातत्व
प्राकृत के वर्तमान रूप में उद्भवित होने के पश्चात सातत्व उसका दूसरा मूलभूत सिद्धांत है. तदनुसार जो अब घटित हो रहा है, वही पहले भी घटित होता रहा है तथा वही बाद में भी घटित होता रहेगा. प्रकृति का उद्भवन इतना मंद है कि उसे मानवीय अस्तित्व की तुलना में स्थिर माना जा सकता है. यही सतत्व बिग बेंग सिद्धांत को भी नकारता है.
इस सातत्व को स्वीकार न किये जाने के कारण यह माना जा रहा है जीवन जो कभी पूर्व में उद्भवित हुआ था, अब नहीं हो रहा है. जबकि यथार्थ यह है कि जीवन का उद्भवन आज भी उसी प्रकार हो रहा है जैसा पहले कभी हुआ था.
प्रकृति स्वयं जटिल नहीं है इसलिए इसके सिद्धांत भी जटिल नहीं होने चाहिए. आधुनिक भौतिकी ने अभी प्रकृति की सरल-हृदयता को स्वीकार नहीं किया है और इसे जटिल रूप में ही देखा जा रहा है. प्रकृति के अध्ययन की दूसरी बड़ी समस्या इस के सातत्व पर संदेह करते हुए इसमें आकस्मिक घटनाओं की परिकल्पना की गयी है, जिनमें से एक को निग बेंग कहा गया है. जब कि प्रकृति सदैव सतत है और इसमें आकस्मिकताओं के लिए कोई स्थान नहीं है. इन दो कारणों से प्राकृतिक सिद्धांतो के अध्ययन के क्षेत्र में कोई विशेष उपलब्धि नहीं हुई है.
वज्र धमाका (बिग बेंग)
वैज्ञानिकों की इस परिकल्पना के अनुसार कभी एक बड़ा धमाका हुआ था, जिसमें से छिटक कर भूमंडल उत्पन्न हुआ और यह उसी छिटक के कारण आज भी गतिमान है. यह एक भ्रामक परिकल्पना है. प्रकृति में कभी कोई ऐसा धमाका अथवा अन्य क्रिया नहीं हुई जो अब न हो रही हो. पृथ्वी सूर्या से सतत ऊर्जा प्राप्त करती हुई उसी ऊर्जा के कारण सतत गतिमान है. चूंकि हम अभी तक सूर्य से पृथ्वी द्वारा ऊर्जा प्राप्ति का सिद्धांत नहीं खोज पाए हैं, इस लिए इस यथार्थ को नहीं समझा जा रहा है.
पृथ्वी की गति
उक्त नासमझी का एक विशेष कारण यह है कि कभे किसी ने कह दिया कि पृथ्वी सूर्य के चारों ओर घूम रही है और शेष सभी ने स्वीकार कर लिया. जब कि इस विषय में स्वीकृत आंकड़े तर्क-संगत नहीं हैं. इस विसंगति को मिटाने की दिशा में मेरी कल्पना यह है कि पृथ्वी सूर्य के सापेक्ष एक निश्चित ध्रुवीय अक्ष पर फर्श पर उछलती गेंद की तरह ऊपर-नीचे-ऊपर-नीचे गति कर रही है. इस गति के लिए पृथ्वी सूर्य से ऊर्जा प्राप्त कर रही है.
मूलभूत सिद्धांत १ : मितव्ययता
उक्त दोनों संकल्पनाओं की पृष्ठभूमि में मान्यता यह है कि प्रकृति ऊर्जा के उपभोग में सर्वाधिक मितव्ययी है. दूसरे शब्दों में प्रकृति में केवल वैसी क्रियाएँ ही होती हैं जिनमें ऊर्जा की न्यूनतम संभव खपत हो अर्थात पृकृति में ऊर्जा की कोई अनावश्यक खपत नहीं होती.
मूलभूत सिद्धांत २ :सातत्व
प्राकृत के वर्तमान रूप में उद्भवित होने के पश्चात सातत्व उसका दूसरा मूलभूत सिद्धांत है. तदनुसार जो अब घटित हो रहा है, वही पहले भी घटित होता रहा है तथा वही बाद में भी घटित होता रहेगा. प्रकृति का उद्भवन इतना मंद है कि उसे मानवीय अस्तित्व की तुलना में स्थिर माना जा सकता है. यही सतत्व बिग बेंग सिद्धांत को भी नकारता है.
इस सातत्व को स्वीकार न किये जाने के कारण यह माना जा रहा है जीवन जो कभी पूर्व में उद्भवित हुआ था, अब नहीं हो रहा है. जबकि यथार्थ यह है कि जीवन का उद्भवन आज भी उसी प्रकार हो रहा है जैसा पहले कभी हुआ था.
बुधवार, 19 मई 2010
बौद्धिकता प्रतीक एवं परिचय
बौद्धिक लोगों के सत्तारोहण हेतु उनका परस्पर समन्वय आवश्यक है, जिसके लिए परस्पर सहमत व्यक्तियों का एक दूसरे से परिचय भी आवश्यक है. ऐसे लोगों का प्रायः अकस्मात् आमना-सामना होता रहता है किन्तु वे एक दूसरे को पहचान नहीं पाते. हमें ऐसे उपाय विकसित एवं प्रचारित करने होंगे जिनसे ऐसे व्यक्ति एक दूसरे को देखते ही पहचान लें.
ऐसे बहुत से औपचारिक संगठन हैं जो अपने सदस्यों से एक विशेष वेशभूषा अथवा कोई अन्य प्रतीक चिन्ह अपनाने का आग्रह करते हैं जिसके माध्यम से वे एक दूसरे को पहचान सकें. किन्तु बौद्धिक लोगों का अभी कोई संगठन नहीं है और न ही इसकी तुरंत आवश्यकता है. वास्तव में किसी औपचारिक संगठन की तभी आवश्यकता होती है जब उसके सदस्यों की संख्या को औपचारिक संगठन व्यवस्था की आवश्यकता अनुभव होने लगे. प्रायः कुछ स्वयंभू व्यक्ति अपने संगठन बनाते हैं, और स्वयं उसके पदाधिकारी बन बैठते हैं. इसके बाद वे अन्य लोगों से आग्रह करते हैं कि वे उनके संगठन में प्रवेश कर उनके अनुयायी बनें. ऐसे संगठन प्रायः असफल होते देखे गए हैं. हम बौद्धिक लोगों के संगठन की प्रक्रिया सदस्यता से आरम्भ करना चाहते हैं और उनकी संख्या पर्याप्त हो जाने के बाद ही उन सभी के सम्मलेन में संगठन के पदाधिकारियों का चुनाव किया जाना उचित मानते हैं.
आरम्भ में जो आवश्यकता है, वह है किसी ऐसे प्रतीक की जो विचारधारा से सहमत सभी व्यक्ति धारण करें ताकि उनका परस्पर सामना होने पर वे एक दूसरे से परिचय कर सकें. यह प्रतीक किसी विशेष रंग का कोई वस्त्र हो सकता है, कोई लोकेट हो सकता है, अथवा अभिवादन की कोई विशेष शैली हो सकती है. इनमें से सर्वसुलभ और सर्वसुलभ एक छोटा विशेष रंग का वस्त्र हो सकता है जिसे सहमत व्यक्ति अपने गले की टाई के रूप में, रूमाल के रूप में, सिर पर टोपी के रूप में, अथवा गले के स्कार्फ के रूप में धारण करें. इस वस्त्र का रंग हम अपनी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से प्राप्त कर सकते हैं.
भारत के देव और ग्रीस के फिलोस्फर विश्व इतिहास के सर्वाधिक बुद्धिमान व्यक्ति रहे हैं, और वे सभी गहरे लाल-नारंगी रंग का उत्तरीय वस्त्र धारण करते थे. इसी रंग को अपनाना हमारे लिए भी उपयुक्त है. इसी के माध्यम से हम एक दूसरे से वैचारिक निकटता को व्यक्त करते हुए भौतिक निकटता स्थापित कर सकते हैं.
ऐसे बहुत से औपचारिक संगठन हैं जो अपने सदस्यों से एक विशेष वेशभूषा अथवा कोई अन्य प्रतीक चिन्ह अपनाने का आग्रह करते हैं जिसके माध्यम से वे एक दूसरे को पहचान सकें. किन्तु बौद्धिक लोगों का अभी कोई संगठन नहीं है और न ही इसकी तुरंत आवश्यकता है. वास्तव में किसी औपचारिक संगठन की तभी आवश्यकता होती है जब उसके सदस्यों की संख्या को औपचारिक संगठन व्यवस्था की आवश्यकता अनुभव होने लगे. प्रायः कुछ स्वयंभू व्यक्ति अपने संगठन बनाते हैं, और स्वयं उसके पदाधिकारी बन बैठते हैं. इसके बाद वे अन्य लोगों से आग्रह करते हैं कि वे उनके संगठन में प्रवेश कर उनके अनुयायी बनें. ऐसे संगठन प्रायः असफल होते देखे गए हैं. हम बौद्धिक लोगों के संगठन की प्रक्रिया सदस्यता से आरम्भ करना चाहते हैं और उनकी संख्या पर्याप्त हो जाने के बाद ही उन सभी के सम्मलेन में संगठन के पदाधिकारियों का चुनाव किया जाना उचित मानते हैं.
आरम्भ में जो आवश्यकता है, वह है किसी ऐसे प्रतीक की जो विचारधारा से सहमत सभी व्यक्ति धारण करें ताकि उनका परस्पर सामना होने पर वे एक दूसरे से परिचय कर सकें. यह प्रतीक किसी विशेष रंग का कोई वस्त्र हो सकता है, कोई लोकेट हो सकता है, अथवा अभिवादन की कोई विशेष शैली हो सकती है. इनमें से सर्वसुलभ और सर्वसुलभ एक छोटा विशेष रंग का वस्त्र हो सकता है जिसे सहमत व्यक्ति अपने गले की टाई के रूप में, रूमाल के रूप में, सिर पर टोपी के रूप में, अथवा गले के स्कार्फ के रूप में धारण करें. इस वस्त्र का रंग हम अपनी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से प्राप्त कर सकते हैं.
भारत के देव और ग्रीस के फिलोस्फर विश्व इतिहास के सर्वाधिक बुद्धिमान व्यक्ति रहे हैं, और वे सभी गहरे लाल-नारंगी रंग का उत्तरीय वस्त्र धारण करते थे. इसी रंग को अपनाना हमारे लिए भी उपयुक्त है. इसी के माध्यम से हम एक दूसरे से वैचारिक निकटता को व्यक्त करते हुए भौतिक निकटता स्थापित कर सकते हैं.
मंगलवार, 18 मई 2010
आद्य
दा
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