रविवार, 30 मई 2010

भारत का मनोवैज्ञानिक यथार्थ

भारतीय समाज के बारे में सार्थक कार्य करने वाला कोई भी समाज शास्त्री भारत के मनोवैज्ञानिक यथार्थ की अनदेखी नहीं कर सकता. इसलिए भारतीय समाज पर बौद्धिक जनतंत्र की अवधारणा स्थापित करने से पूर्व हमारे लिए भी यह आवश्यक है कि हम भारतीय समाज के मनोवैज्ञानिक यथार्थ का विश्लेषात्मक अध्ययन करें और इसे अच्छी तरह जानें. भारी समाज पूर्ण अथवा आंशिक रूप में गुप्त वंश के शासन के बाद १९४७ तक लगभग १६०० वर्ष विदेशी लोगों के अधीन रहा है. १९४७ में तथाकथित स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भी यह समाज अंग्रेज़ी शासन की रीति-नीतियों - प्रशासनिक सेवा के स्थान पर दमन, उधर के सिन्दूर जैसा संविधान, शासक वर्ग के अनुपम वैभव, शासक-शासित वृहत अंतराल, आदि के अंतर्गत पिस रहा है.

इस दमनात्मक शासन की दीर्घ अवधि ने भारतीयों के मनोविज्ञान को ऐसा जकड लिया है कि वे किसी ऊपर वाले पर सतत आश्रित रहते हैं और उसके बिना स्वयं को निस्सहाय एवं दीं-हीन समझते हैं. इस ऊपर वाले में ईश्वर और शासक दोनों सम्मिलित हैं. बच्चों को भी राजा, रानी और राजकुमारों की कथाएँ ही सुनायी जाती हैं जिससे वे स्वयं को उनकी तुलना में दीन-हीन ही स्वीकार करते रहें. इस सब से जन साधारण की मान्यता बन गयी है कि उनमें से प्रत्येक अपने जीवन का निर्णय स्वयं लेने में सक्षम नहीं है और उसे इसके लिए किसी अधिक सशक्त और सुयोग्य व्यक्ति अथवा शक्ति के आश्रय की सतत आवश्यकता बनी रहती है. भारत के तथाकथित जनतांत्रिक राजनेता लोगों की इस मानसिकता का पूर्ण लाभ उठाते रहे हैं और उन्हें संतुष्ट करने के लिए स्वयं को उनके सेवक के स्थान पर उनसे श्रेष्ठ शासक के रूप में स्थापित करते रहे हैं. अपने कुत्ते के वैभव के लिए भी वे अनेक लोगों के जीवन को दांव पर लगने से भी नहीं चूक रहे हैं और लोग इस सब को निर्विरोध सहन करते जा रहे हैं.

उपरोक्त प्रकार के जनतांत्रिक शोषण से लोग प्रसन्न हों, ऐसा भी नहीं है. किन्तु वे अपने शिकवे-शिकायत केवल आपसी चर्चा तक ही सीमित रखते हैं, इसके प्रतिकार के लिए कोई सार्थक कदम नहीं उठाते. इससे स्पष्ट है कि लोग वर्तमान जनतांत्रिक व्यवस्था से संतुष्ट नहीं हैं किन्तु अपना आक्रोश व्यक्त करने में असमर्थ हैं. शासन के प्रति इसी असंतोष की अभिव्यक्ति लोगों की ऐसे धर्मगुरुओं के चरणों में पडी भीड़ के रूप में भी दिखाई पड़ती है, जिन्हें वे श्रेष्ठ मान चुके होते हैं.

इस स्थिति से तीन निष्कर्ष निकलते हैं - भारत के लोगों को श्रेष्ठों का शासन चाहिए, वे वर्त्तमान व्यवस्था में परिवर्तन चाहते हैं, और इस परिवर्तन के प्रयास में वे केवल अपनी मूक सहमति दे सकते हैं, सक्रिय योगदान नहीं. इन्हीं तीन तथ्यों के आधार पर भारत के प्रबुद्ध वर्ग को शासन की बागडोर अपने हाथ में लेने के प्रयास करने होंगे. 
Democracy Denied, 1905-1915: Intellectuals and the Fate of Democracy

प्रबुद्ध वर्ग को जन साधारण के समक्ष वर्तमान शासकों की तुलना में श्रेष्ठ सिद्ध करने में कोई कठिनाई नहीं हो सकती. यह वर्ग सर्व-व्यापी है और सर्व-शक्तिमान भी. भारतीय जनमानस उनके शासन को निश्चित रूप से पसंद करेगा, किन्तु इस परिवर्तन में अपना सक्रिय योगदान नहीं देगा. इस कारण से लोग जनतांत्रिक चुनावों का बहिष्कार तो कर सकते हैं किन्तु दमनकारी शासकों के विरुद्ध प्रबुद्ध लोगों का शासन हेतु चयन नहीं कर सकते. वर्तमान संविधान की उपेक्षा तो कर सकते हैं किन्तु नए संविधान की रचना नहीं कर सकते.  वे प्रबुद्ध वर्ग की सरलता और शालीनता के प्रशंसक तो हो सकते हैं किन्तु शासकों द्वारा शोषण का विरोध नहीं कर सकते. अतः बौद्धिक जनतंत्र की स्थापना के लिए प्रबुद्ध लोगों को एक जुट होकर स्वयं ही प्रयास करने होंगे.

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