शनिवार, 1 मई 2010

आरक्षण का विष

भारत के स्वतंत्रता संग्राम की यह एक गंभीर त्रुटि रही कि स्वतंत्रता की मांग करने वालों ने कभी यह विचार नहीं किया कि वे स्वतन्त्रता के बाद इस विशाल और समस्याग्रस्त देश को कैसे चलाएंगे. इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि स्वतन्त्रता प्राप्ति पर देश का नेतृत्व विभाजित हो देश के हितों की चिंता किये बिना वर्गीय हितों में उलझ गया, जिसमें बाबासाहेब अम्बेदकर ने दलितों के हितों को लेकर बवंडर खडा कर दिया और उनके नाम पर देश के विभाजन की मांग उठायी. उनकी तुष्टि के लिए सौदेबाजी हुई और उन्हें संविधान में दलित हितों की सुरक्षा के उपाय करने के आश्वासन के साथ विधान सभा का अध्यक्ष बना दिया गया. परिणामस्वरूप अनुसूचित और जन जातियों के लिए १० वर्ष तक शिक्षा और राज्य नियुक्तियों में आरक्षण के प्रावधान कर दिए गए. यह कदम दलितों के हितों की सुरक्षा के लिए पर्याप्त समझा गया.

आरक्षण के आरम्भ में नियत १० वर्ष व्यतीत होने पर संविधान का पुनः संशोधन किया गया और आरक्षण प्रावधान अगले १० वर्षों के लिए बढ़ा दिए गए. इसी प्रकार प्रत्येक १० वर्ष बाद ये प्रावधान अगले १० वर्षों के लिए बार-बार बढ़ाये जाते रहे हैं और आज स्वतन्त्र संविधान के लागू किये जाने के ६० वर्ष बाद आरक्षण भारतीय संविधान और शासन प्रणाली का अभिन्न अंग बन गया है.

इसी अवधि में भारतीय समाज में एक नया वर्ग 'पिछड़ी जातियों' का बनाया गया जिसके लिए प्रथाकारक्षण प्रावधान किये गए.  अभी हाल ही में स्त्रियों को भारतीय सामान्य समाज से प्रथक कर उनके लिए १/३ स्थानों का आरक्षण किया गया है.  इस प्रकार में वर्तमान में लगभग ६७ प्रतिशत स्थान आरक्षित हैं, जब कि शेष ३३ प्रतिशत स्थान सभी वर्गों के लिए खुले हैं जिनमें अनुसूचित जातियां, जनजातियाँ, पिछड़ी जातियां तथा महिलायें भी सम्मिलित हैं. अतः व्यवहारिक स्तर पर सामान्य वर्ग के पुरुषों के लिए शिक्षा संस्थानों, राजकीय सेवाओं, पंचायतों, विधायिकाओं, आदि में नगण्य स्थान उपलब्ध हैं जिसके फलस्वरूप वे ही आज के शोषित वर्ग में हैं.

आरक्षण के इन ६० वर्षों का अनुभव निम्नलिखित बिन्दुओं से प्रदर्शित किया जा सकता है -
  1. शिक्षा के अभाव में जनजातियाँ आरक्षण का नगण्य लाभ उठा पाई हैं, और वे जिस स्थिति में ६० वर्ष पहले थीं आज भी उसी स्थिति में हैं.
  2.  अनुसूचित जातियों में से जाटव जाति की लगभग १० प्रतिशत जनसँख्या विकास कर पायी है, इसके सदस्यों ने उच्च शासकीय पद प्राप्त किये हैं,  तथा अपनी आर्थिक स्थिति सुधारी है. यही जनसँख्या देश के धनाढ्य वर्ग में सम्मिलित है, तथापि आरक्षण के सभी प्रावधानों का बारम्बार लाभ उठाती जा रही है. शेष ९०प्रतिशत जाटव आज भी उसी स्थिति में हैं जहाँ ६० वर्ष पूर्व थे. 
  3. शिक्षा और जागरूकता के अभाव में अनुसूचित जाति की हरिजन जाति आरक्षण का कोई लाभ नहीं उठा पायी है.
  4. राजनैतिक स्वार्थों के आधार पर देश की पिछड़ी जातियों में अनेक धनाढ्य और भूमिधर जातियां भी सम्मिलित कर ली गयी हैं  जो इस वर्ग के समस्त आरक्षण प्रावधानों का लाभ उठा रही हैं और वास्तविक पिछड़े लोगों को आरक्षण का समुचित लाभ नहीं मिल पा रहा है.
  5. आरक्षण से अयोग्य व्यक्ति प्रशासनिक और तकनीकी दायित्वों के पदों पर पहुँच रहे हें जिससे देश का प्रशासन और तकनीकी सञ्चालन ठीक नहीं हो रहा है. 
  6. सामान्य वर्ग के सुयोग्य व्यक्तियों को देश में कोई रोजगार नहीं मिल रहे हैं और वे देश से पलायन करने को बाध्य हैं, जिससे उनकी शिक्षा-दीक्षा पर किये गए व्यय का देश को कोई लाभ नहीं मिल रहा है, जिसका लाभ अनेक देश उठा रहे हैं.
  7. आरक्षण और अन्य कल्याण योजनाओं के कारण कुछ लोगों को बिना परिश्रम किये अप्रत्याशित लाभ प्राप्त हो रहे हैं, जिससे उनमें भिखारी की मानसिकता विकसित हो गयी है और वे परिश्रम से विमुख हो गए हैं. देश की उत्पादकता इससे कुप्रभावित हुई है.     
  8. आरक्षण से देश के सवर्ण वर्ग में आरक्षित वर्गों के प्रति घराना की भावना पनपी है जिससे आरक्षित वर्ग का सामाजिक सम्मान कम हुआ है.
  9. और उक्त सभी कारणों से देश में भृष्टाचार निरंतर संवर्धित होता जा रहा है.
इन कारणों से आरक्षण देश के लिए एक विष की भांति कार्य कर रहा है जिससे विश्व विकास की तुलना में देश पिछड़ता जा रहा है.  अतः आरक्षण के वर्तमान प्रावधानों की राष्ट्र हित में समीक्षा किये जाने की अतीव आवश्यकता है. यदि समाज के पिछड़े वर्गों को वास्तव में आगे बढ़ाना है तो उन्हें और अधिक  शिक्षा सुविधाएं दी जानी चाहिए ताकि वे आजीविका हेतु अन्य वर्गों के साथ प्रतिस्पर्द्धा कर सकें और समाज में सम्मानित जीवन जी सकें.  

    4 टिप्‍पणियां:

    1. आपका आलेख सराहनीय चिंतन को दर्शाता है, उसके लिए बधाई स्वीकारें।
      कुछ फ़र्क पडेगा... शायद नहीं ।

      देखिए भारत को आज़ादी मिली थी क्या वाकई में सन सैतालीस में देश स्वतंत्र हुआ था... अगर सोच कर सोचें तो पाएंगे की यहां देश स्वतंत्र नहीं... वरन सत्ता हस्तांतरित हुई थी । हमें विरासत में मिली गुलामी की मानसिकता... और अगणित समस्याएं । ज़रुरत इस बात की थी की एक नए भारत के निर्माण के लिए संगठित प्रयास होते, हुआ भी... मगर शायद कम हुआ ।

      रही बात आरक्षण की तो यह तो अब शायद कभी खत्म नहीं होनें वाला, जो जैसे चल रहा है चलता रहेगा ।

      हां लेखक का काम है, अपनी कलम से समाज को जाग्रत करना और वह करता भी रहेगा...

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    2. हिन्दु समाज का आधार ही वर्ण व्यवस्था है। चार वर्ण की व्यवस्था ने हिन्दु समाज का अकल्पनीय नुकसान किया है। दुनियां के किसी अन्य धर्म में छूआछूत(अस्प्र्श्यता)हिन्दु धर्म के मुकाबले नहीं है। सरकार क्या कर सकती है? एक मेहतर या हरिजन वर्ग का व्यक्ति रेस्टोरेंट डालना चाहता है,अथवा चाय की होटल लगाकर जीवन व्यापन करना चाहता है। क्या हिदु समाज मे व्यवसाय की आजादी है?और किसी हरिजन ने होटल डाल भी ली तो क्या उसकी होटल चल सकेगी? छूआछूत के दंश से पीडित हरिजनों को और अन्य पिछडे वर्ग को इसीलिये आरक्छण की जरूरत है। बाबा साहब अम्बेडकर ने जीवन के अंतिम पडाव मे हिन्दु धर्म त्याग कर क्यो बौद्ध धर्म अपनाया था? आज हजारों की संख्या में लोग हिन्दु धर्म त्याग कर ईसाई या इस्लाम धर्म की और रूख कर रहे हैं। क्यों? जब तक हरिजन वर्ग का व्यक्ति हिन्दु धर्म के अनुसार जीवन यापन करता है उसे सिर्फ़ नफ़रत ही हासिल होती है लेकिन जब वही व्यक्ति ईसाई या मुसलमान बन जाता है तो उसके प्रति घृणा समाप्त हो जाती है और हिन्दु लोग उसे "आईये चाचा आओ पास में बैठो" कहकर सम्मान देते हैं।
      जब तक हिदु समाज में ऊंच-नीच की भावना मौजूद रहेगी तब तक अपने ही धर्मावलंबियों की नफ़रत झेल रही इन जातियों के लिये आरक्छण की आवश्यकता रहेगी। हिन्दु धर्म के अग्रणी विद्वानों को इस बारे में विचारकर निर्णय लेना चाहिये।

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    3. They are not interested in education. They just want to get everything through reservation.

      Nitthalla bana diya hai samaaj ko, iss reservation ne.

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    4. डॉक्टर आलोक दयाराम,
      प्रश्न हिंदू समाज में ऊँच-नीच का नहीं है, प्रश्न है की आरक्षण से क्या लाभ या हानि हो रहे हैं, और कौन इनका लाभ उठता जा रहा है. विगत ६० वर्षों के आरक्षण ने दलितों को कितना लाभ पहुँचाया है और समाज को कितनी हानि पहुँचाई है? मुफ़्त में खाना, पीना, मकान और रोज़गार मिले तो कौन निकँमा नहीं हो जाएगा. हिंदू मानसिकता के कारण आरक्षण की आवश्यकता थी किंतु क्या इस नीति से अभीस्ट लाभ हुए हैं, और नहीं तो नीति के बारे में पुनर्विचार क्यों नहीं किया जाता. क्यों चुनिंदा लोगों को ही बार-बार लाभ दिए जा रहे हैं, क्यों समाज के वास्तविक पिच्छड़े लोगों को पिच्छड़ा छ्चोड़ा जा रहा है?

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