प्रकृति के सिद्धांत एवं नियम अटल, सर्वव्यापी और सार्वकालिक हैं, इन्हीं को एल्बर्ट आइन्स्टीन ने ईश्वर की बुद्धि कहा है. इन्हीं के अध्ययन को प्राचीन काल में फिलोसोफी और अब भौतिक विज्ञानं कहा जाता है. विश्व की प्रत्येक गतिविधि का संचालन इन्हीं के अनुसार होता है. वैज्ञानिक इनकी खोज करने के प्रयास करते रहे हैं जिनकी प्रमुख उपलब्धियों में आइज़क न्यूटन का गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत और आइन्स्टीन का सामान्य सापेक्षता का सिद्धांत सम्मिलित हैं. यद्यपि ये अभी पूर्ण नहीं हैं तथापि प्रकृति के अध्ययन के महत्वपूर्ण आरंभिक चरण हैं. मानव प्रयास करके ऐसे सरल सिद्धांत पा सकते हैं जो समस्त ब्रह्माण्ड पर एक समान लागू होंगे तथा जो मानवीय बुद्धि के लिए अत्यधिक सरल होंगे. न्यूटन आर आइन्स्टीन ने इस दिशा में प्रयास अवश्य किये हैं किन्तु इनको इतने जटिल रूप में प्रस्तुत किया है जिसे जन-सामान्य के बुद्धि से परे माना जा सकता है.
प्रकृति स्वयं जटिल नहीं है इसलिए इसके सिद्धांत भी जटिल नहीं होने चाहिए. आधुनिक भौतिकी ने अभी प्रकृति की सरल-हृदयता को स्वीकार नहीं किया है और इसे जटिल रूप में ही देखा जा रहा है. प्रकृति के अध्ययन की दूसरी बड़ी समस्या इस के सातत्व पर संदेह करते हुए इसमें आकस्मिक घटनाओं की परिकल्पना की गयी है, जिनमें से एक को निग बेंग कहा गया है. जब कि प्रकृति सदैव सतत है और इसमें आकस्मिकताओं के लिए कोई स्थान नहीं है. इन दो कारणों से प्राकृतिक सिद्धांतो के अध्ययन के क्षेत्र में कोई विशेष उपलब्धि नहीं हुई है.
वज्र धमाका (बिग बेंग)
वैज्ञानिकों की इस परिकल्पना के अनुसार कभी एक बड़ा धमाका हुआ था, जिसमें से छिटक कर भूमंडल उत्पन्न हुआ और यह उसी छिटक के कारण आज भी गतिमान है. यह एक भ्रामक परिकल्पना है. प्रकृति में कभी कोई ऐसा धमाका अथवा अन्य क्रिया नहीं हुई जो अब न हो रही हो. पृथ्वी सूर्या से सतत ऊर्जा प्राप्त करती हुई उसी ऊर्जा के कारण सतत गतिमान है. चूंकि हम अभी तक सूर्य से पृथ्वी द्वारा ऊर्जा प्राप्ति का सिद्धांत नहीं खोज पाए हैं, इस लिए इस यथार्थ को नहीं समझा जा रहा है.
पृथ्वी की गति
उक्त नासमझी का एक विशेष कारण यह है कि कभे किसी ने कह दिया कि पृथ्वी सूर्य के चारों ओर घूम रही है और शेष सभी ने स्वीकार कर लिया. जब कि इस विषय में स्वीकृत आंकड़े तर्क-संगत नहीं हैं. इस विसंगति को मिटाने की दिशा में मेरी कल्पना यह है कि पृथ्वी सूर्य के सापेक्ष एक निश्चित ध्रुवीय अक्ष पर फर्श पर उछलती गेंद की तरह ऊपर-नीचे-ऊपर-नीचे गति कर रही है. इस गति के लिए पृथ्वी सूर्य से ऊर्जा प्राप्त कर रही है.
मूलभूत सिद्धांत १ : मितव्ययता
उक्त दोनों संकल्पनाओं की पृष्ठभूमि में मान्यता यह है कि प्रकृति ऊर्जा के उपभोग में सर्वाधिक मितव्ययी है. दूसरे शब्दों में प्रकृति में केवल वैसी क्रियाएँ ही होती हैं जिनमें ऊर्जा की न्यूनतम संभव खपत हो अर्थात पृकृति में ऊर्जा की कोई अनावश्यक खपत नहीं होती.
मूलभूत सिद्धांत २ :सातत्व
प्राकृत के वर्तमान रूप में उद्भवित होने के पश्चात सातत्व उसका दूसरा मूलभूत सिद्धांत है. तदनुसार जो अब घटित हो रहा है, वही पहले भी घटित होता रहा है तथा वही बाद में भी घटित होता रहेगा. प्रकृति का उद्भवन इतना मंद है कि उसे मानवीय अस्तित्व की तुलना में स्थिर माना जा सकता है. यही सतत्व बिग बेंग सिद्धांत को भी नकारता है.
इस सातत्व को स्वीकार न किये जाने के कारण यह माना जा रहा है जीवन जो कभी पूर्व में उद्भवित हुआ था, अब नहीं हो रहा है. जबकि यथार्थ यह है कि जीवन का उद्भवन आज भी उसी प्रकार हो रहा है जैसा पहले कभी हुआ था.
wonderful post !
जवाब देंहटाएंजानकारी परक पोस्ट..."
जवाब देंहटाएं"""पृथ्वी सूर्य के सापेक्ष एक निश्चित ध्रुवीय अक्ष पर फर्श पर उछलती गेंद की तरह ऊपर-नीचे-ऊपर-नीचे गति कर रही है. इस गति के लिए पृथ्वी सूर्य से ऊर्जा प्राप्त कर रही है."
जवाब देंहटाएंआप जब तक सही मात्रा में प्रमाण और तर्क उपलब्ध नहीं कराएँगे आपके बात कैसे हो स्वीकार कर सकता है..अगर इस कथन के पीछे आपका कोई शोध या कोई प्रमाण हो तो जरुर पाठकों तक पहुंचायिये ..
@साकेत शर्मा
जवाब देंहटाएंक्या आपको कभी किसी ने इसका प्रमाण दिया कि पृथ्वी सूर्या के चारों और एक ओर्बित में घूम रही है?
अच्छा है श्री मान जी !
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