भारत स्वतंत्र हुआ क्योंकि अंग्रेज़ी शासन द्वारा शोषण के लिए तब यहाँ कुछ शेष नहीं बचा था, तथापि स्वतन्त्रता की मांग की गयी और उसे स्वीकार कर लिया गया. किन्तु स्वतन्त्रता की मांग करने वालों ने कभी यह नहीं सोचा कि वे स्वतंत्र होने के बाद देश कैसे चलाएंगे. मेरे विचार से भारत के इतिहास की यह भयंकरतम भूल थी जिसका मूल्य हम अब तक चुकाते रहे हैं और न जाने कब तक चुकाते रहेंगे. उक्त भूल का परिणाम यह हुआ कि स्वतन्त्रता के बाद से ही भारत पर षड्यंत्रों का शिकंजा कसा जाने लगा जिन्हें 'राजनीति' कहा गया. नाम मात्र के लिए जन्तात्न्त्र की स्थापना की गयी किन्तु शासन उन परिवारों को सौंप दिया गया जो स्वतन्त्रता संग्राम में ब्रिटिश शासन के पक्षधर रहे थे. अतः स्वतन्त्रता के बाद भी शासन की रीति-नीति में कोई परिवर्तन नहीं किया गया. सत्ता के गलियारों में जो परिवर्तन हुआ वह यह था कि अनुशासित ब्रिटिश लोगों का स्थान अनुशासनहीन भारतीयों ने ले लिया.
कोई देश हो अथवा उसकी राजनीति, सुचारू अर्थ व्यवस्था के बिना अपने पैरों पर खडी नहीं रह सकती. यह सार्वभौमिक सत्य भारतीय राजनीति के आदि-पुरुष विष्णुगुप्त चाणक्य ने जान लिया था और अपने ग्रन्थ अर्थशास्त्र के माध्यम से उन्होंने भारत की अर्थ व्यवस्था सुचारू बनाए रखने के लिए सुदृढ़ नींव रख दी थी. उन्होंने समाज का एक वर्ग, जो उस समय शासक वर्ग भी था, इसी कार्य में लगा दिया था. यह वर्ग आज भी अर्थ व्यवस्था में लगा हुआ है किन्तु इसके अहिंसक होने के कारण शासन में इसके लिए कोई स्थान नहीं रह गया है. इसी वर्ग की देन है कि भारत की राजनीति में भीषण उतार-चढ़ाव होने पर भी इसकी सकल अर्थ व्यवस्था सदैव सुदृढ़ रही है.
भारत में एक जाति ऐसी रही है जो सदैव सत्तासीन जातियों से घनिष्ठ सम्बन्ध बनाये रखती रही है, अधिकांशतः राजगुरु बनकर. इस कारण से यह जाति भारत पर अपना मनोवैज्ञानिक शासन सदा बनाये रही है. अतः यह स्वभावतः सत्ताच्युत रहना पसंद नहीं करती. विगत २००० वर्षों से इस जाति ने भारतीय समाज को इस प्रकार विभाजित किया कि इसका वर्चस्व सदा बना रहे. समाज में अछूत, दलित, कमीन, आदि वर्ग इसी जाति की देन हैं. स्वतन्त्रता के बाद से ही भारतीय राजनीति में यह जाति अग्रणी रही और अपनी शोषण-परक रीति-नीतियों के कारण भारतीय राष्ट्र की संपदा पर अपना प्रभुत्व बढाती रही. आज भी यह जाति समाज की अग्रणी और धनाढ्य है जबकि अर्थ व्यवस्था चलाने में इसका कोई योगदान नहीं रहा है.
स्वतंत्र भारत के संविधान में दीर्घ काल से पद-दलित वर्गों के लिए आरक्षण व्यवस्था इसलिए की गयी ताकि ये शिक्षित और सभ्य होकर देश के विकास में अपना योगदान दे सकें. किन्तु शासकों ने इन्हें न शिक्षा लेने दी और न ही किसी अन्य प्रकार से सुयोग्य होने दिया. इनके कल्याण और विकास के नाम पर इन्हें जो भिक्षा दी गयी, उसके माध्यम से इन्हें पारंपरिक भिखारी बना दिया जो विगत ६० वर्षों से शासकों द्वारा दी जाने वाली भीख पर पल रहे हैं और भारत की अर्थ व्यवस्था पर एक भारी बोझ हैं. इन्हीं में से कुछ लोग इनकी वोटों के ठेकेदार बनते रहे हैं और सत्ताधारी लोगों के साथ रंगरेलियां मनाते रहे हैं. शासकों और इनके ठेकेदारों का हित इसी में है कि वे इन दलितों को दलित ही बनाए रखकर इनकी वोटों के माध्यम से सत्तालाभ प्राप्त करते रहें. इसके लिए इन्हें निरंतर भीख दिए जाने की स्थायी व्यवस्था कर दी गयी है. विगत ६० वर्षों में आरक्षण व्यवस्था का विस्तार इसी भीख दिए जाने की व्यवस्था का अंग है.
विगत २५०० वर्षों में भारत में अनेक विदेशी जाति बसती रही हैं जिनमें से अनेक जंगली जातियां थीं और जो स्वभावतः हिंसक थीं जिसके लिए जिन्हें सैनिक जातियां कहा जाता है. भारत में ये सैनिक जातियां युद्ध के लिए आयी थीं और इनका किसी मानवीय गुण से कोई परिचय नहीं था. मानवीय शासन के अधीन रहकर ये युद्ध करने में पारंगत सिद्ध होती थीं किन्तु स्वतंत्र रहकर ये अपने मूल हिंसक स्वभाव के कारण अपने जंगली व्यवहार पर उतर आती थीं. इनकी स्थिति आज भी ऐसी ही है और ये भारत की वर्तमान राजनीति में सक्रिय हैं और राजनीति में वही होता है जो ये जातियां चाहती हैं. .
स्वतन्त्रता के बाद अनुशासनहीन भारतीयों के शासन में स्वतन्त्रता ने उद्दंडता का रूप ले लिया, जनतंत्र पर 'जिसकी लाठी उसकी भैंस' वाली उक्ति चरितार्थ होने लगी, जिससे भारतीय राजनीति में हिंसा - मनोवैज्ञानिक, भौतिक, आर्थिक, आदि - का स्थान सर्वोपरि हो गया. जनतंत्र के नाम पर जो चुनाव होते हैं वे भी शोषण और हिंसा के साए में होते हैं जिनमें वोटों को बलपूर्वक प्राप्त किया जाता है अथवा धन प्रदान कर खरीदा जाता है. यह प्रक्रिया निम्नतम स्तर ग्राम पंचायत से लेकर शीर्षस्थ स्तर भारतीय संसद तक चल रही है जिसमें कोई भी मानवीय तत्व विद्यमान नहीं है.
भारत में राज्य सता का हस्तांतरण बार-बार होता रहा है, जिसमें प्रमुखतः तीन गणक सम्मिलित रहे हैं - बल, छल और बुद्धि. भारत में राज्य सत्ता का श्री गणेश देवों द्वारा किया गया, किन्तु महाभारत संघर्ष में बल और छल-कपट की विजय हुई और नैतिक मूल्यों की पराजय. इस सिकंदर के समर्थन से महापद्मानंद भारत का सम्राट बना.
महापद्मानंद के सम्राट बनने के बाद विष्णु गुप्त चाणक्य सर्वाधिक हताहत हुए. उनके पास कोई बल शेष नहीं था किन्तु वे बुद्धि के धनी थे. अपने मित्र चित्र गुप्त और पुत्र चन्द्र गुप्त के साथ मिलकर उन्होंने बुद्धि का उपयोग करते हुए उन्होंने भारत की राज्य सत्ता पर अधिकार किया और चन्द्र गुप्त को भारत का सम्राट बनाया. यहीं से गुप्त वंश का शासन स्थापित हुआ जिसमें भारत को विश्व भर में 'सोने की चिड़िया' कहलाने का गौरव प्राप्त हुआ.
पासा फिर पलटा. समुद्र गुप्त जैसे कुछ गुप्त वंश के शासकों के अतिरिक्त शेष शासक बुद्धि-संपन्न तो थे किन्तु उनमें बल का अभाव था. इसके लिए वे बलशालियों की सेना पर आश्रित थे. कालांतर में इन बल-शालियों ने राज्य सत्ता पर अपना अधिकार कर लिया, और बुद्धि पराजित हुई. ये बल-शाली युद्ध कला में तो पारंगत थे किन्तु शासन व्यवस्था में अयोग्य सिद्ध हुए. इनके शासन में देश छोटे-छोटे टुकड़ों में विभाजित हो गया और शासकों का अधिकाँश समय युद्ध क्षेत्र में ही व्यतीत होने लगा. इससे शासन व्यवस्था चरमरा गयी. यह अराजकता भारत में लगभग ७०० वर्ष तक रही.
इस अराजकता का लाभ उठाने के लिए कुछ लुटेरे भारत में आये जिनके पास बल और छल दोनों थे. इनका उपयोग करते हुए उन्होंने भारत में इस्लामी शासन स्थापित कर दिया, जो विभिन्न नामों से लगभग ७०० वर्ष चला. इस शासन की सर्वाधिक निर्बलता शासकों के भोग-विलास थे जिनके लिए वे ५०० की संख्या तक स्त्रियाँ रखते थे. इस प्रकार के विलासों ने शासकों की बुद्धि और बल दोनों का हरण कर लिया. इसके प्रभाव में उन्होंने बुद्धि संपन्न अंग्रेजों को भारत में आने के लिए आमंत्रित कर दिया. इस प्रकार बल और छल पर पुनः बुद्धि की विजय हुई, और देश में अंग्रेजों ने अपना शासन स्थापित कर लिया.
अंग्रेजों के सासन में भारत की धन-संपदा का सतत शोषण होता रहा जिससे ब्रिटिश खज़ाना भरता रहा.यह शोषण इस सीमा तक पहुँच गया कि जन-साधारण के पास जीवन की रक्षा के लिए 'करो या मरो' के अतिरिक्त कोई अन्य मार्ग शेष न रहा. इस जन आन्दोलन का नेतृत्व महात्मा गाँधी ने किया. इसके साथ ही नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने 'आजाद हिंद सेना' का गठन कर अंग्रेजों को बल-शाली चुनौती भी दी. इन दोनों कारणों से अंग्रेजों को भारत स्वतंत्र करना पडा, और देश की राज्य सत्ता ऐसे लोगों के हाथ में आ गयी जो शासन करने के लिए न तो बल से संपन्न थे और न ही बुद्धि से. अतः मात्र छल ही उनके शासन तंत्र की विशिष्टता रही.इस शासन का नेतृत्व जवाहर लाल नेहरु ने किया.
नेहरु के बाद सत्ता की स्वामिनी इंदिरा बनी जिसे छल के साथ बल की भी आवश्यकता अनुभव हुई जिसके लिए उसने देश भर के असामाजिक तत्वों का आश्रय लिया और देश पर बल और छल के साथ शासन किया. कालांतर में बल-शालियों को अपनी सामर्थ्य का आभास हुआ और उन्होंने सत्ता हथियाने के साथ-साथ छल भी सीख लिए. इस प्रकार भारत में आज बल और छल का शासन स्थापित है.
अगला परिवर्तन में देश पर बुद्धि का शासन होना अवश्यम्भावी है किन्तु यह तभी होगा जब देश का प्रबुद्ध वर्ग इसके लिए जागृत हो और संघर्ष करे. जहां तक जन-साधारण का प्रश्न है, यह सता परिवर्तन में कभी भी महत्वपूर्ण गणक नहीं रहा है - यहाँ तक कि आज के तथाकथित जनतांत्रिक शासन में भी. आज की स्थिति कुछ उसी प्रकार की है जैसी कि विष्णुगुप्त चाणक्य के समय थी जब बुद्धि ने बल और छल दोनों को पराजित लिया था.
महाभारत युद्ध में कौरव सेना की पराजय तो हुई ही इसमें विश्व के सभी प्रसिद्ध योद्धा भी मारे गए. इसका सभी को दुःख था सिवाय कृष्ण के, क्योंकि यह परिणाम उसी के मनोनुकूल था. युद्ध में विष्णु, जो शकुनि के रूप में उपस्थित थे, को बंदी बना लिया गया तथा उनके अंडकोष काट डाले गए. इस विशेष दंड का एक विशेष कारण था. विष्णु और यीशु के अतिरिक्त सभी प्रमुख देव मारे जा चुके थे जिससे देव कुल नष्ट होने की संभावना थी. इसे सुनिश्चित करने के लिए परसंतापी कृष्ण ने विष्णु के अंडकोष काटकर उन्हें नपुंसक बनाने का प्रयास किया था.
महाभारत युद्ध में विजय के बाद कृष्ण और सिकंदर ने यहूदी वंश के महापद्मानंद को भारत के सम्राट पद पर स्थापित किया, किन्तु जिन पांडवों के नाम पर महाभारत युद्ध रचा गया था उन्हें राज्य में कोई हिस्सा नहीं दिया गया तथा कृष्ण ने उन्हें हिमालय में भटकने और नष्ट हो जाने के लिए प्रेरित कर दिया. इस प्रकार कृष्ण ने भारत के साथ ही नहीं अपने अनुयायी पांडवों के साथ भी छल किया.
युद्ध के बाद विष्णु गुप्त रहने के लिए पाराशर ऋषि के रूप में रहने लगे और राजस्थान के अलवर जनपद में सरस्वती तट पर एक आश्रम बनाकर रहने लगे. यह आश्रम आज भी विद्यमान है जो एक पहाडी की घाटी में स्थित है. यहीं रहकर उन्होंने 'होरा शास्त्र' नामक ग्रन्थ की रचना की जो सूर्य की गति के आधार पर समय-मापन के बारे में है. 'होरा' शब्द का वास्तविक अर्थ सूर्य है जिसके कारण काल संचालित होता है, इसलिए इस शब्द को 'समय' के भाव में भी उपयोग किया गया है. किन्तु आधुनिक पंडितों ने इसके माध्यम से अपने छल 'फलित ज्योतिष' को प्रसिद्ध किया है और इस ग्रन्थ को इसी विषय को समर्पित बताया जा रहा है. यहाँ भी स्पष्ट कर दें कि भारत का मौलिक काल चक्र सूर्य आधारित है जब कि यवन समुदाय काल निधारण के लिए चन्द्र को आधार बनाता रहा हैं.
उक्त आश्रम में रहते हुए ही विष्णु ने अपने अन्डकोशों की चिकित्सा की जिसके लिए पारद भस्म तैयार कर उसे औषधि के रूप में उपयोग किया गया. आश्रम के ऊपर पहाडी पर आज भी इसका प्रमाण उपस्थित है. इस चिकित्सा से स्वस्थ होने के बाद विष्णु ने यीशु की बड़ी बहिन मरियम से विवाह किया ताकि देव संतति सतत बनी रहे. इस विवाह के बाद मरियम देवी लक्ष्मी, विष्णुप्रिया, आदि नामों से जानी जाने लगीं. देवी दुर्गा तथा काली भी इन्हीं के छद्म रूप थे.
कालांतर में देवी लक्ष्मी ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम आरम्भ में गोपीचंद और बाद में 'चन्द्रगुप्त' रखा गया. विष्णु ने एक और छद्म रूप धारण किया और इसके लिए अपना नाम 'विष्णुगुप्त चाणक्य' रखा. इस नाम में शब्द 'चाणक्य' इसलिए जोड़ा गया कि उन्हें सदैव याद रहे कि उनके अंडकोष (आण) काटे गए थे और वे इसका प्रतिशोध लेने के लिए संकल्पित रहें. इनका साथ देने के लिए यीशु ने अपना नाम 'चित्रगुप्त' रखा. चित्रगुप्त रूप में आने से पूर्व यीशु गणेश के रूप में थे, जिसका प्रमाण खजुराहो के चित्रगुप्त मंदिर में उनके गणेश रूप की भी प्रतिमा है जिसे ऊपर के चित्र में दर्शाया गया है. विष्णुगुप्त से गुप्त वंश का आरम्भ हुआ तथा चित्रगुप्त से कायस्थ जाति का उदय हुआ. यहाँ शब्द 'चित्र' एवं कायस्थ यीशु के नाम क्राइस्ट के ही परिवर्तित रूप हैं. भारत का सर्वाधिक प्रबुद्ध वर्ग 'कायस्थ' यीशु का ही वंश है.
विष्णुगुप्त और चित्रगुप्त दोनों ने मिलकर देवी लक्ष्मी के साथ चन्द्रगुप्त का लालन-पालन किया और उसे भारत का सम्राट बनाने हेतु शिक्षित एवं दीक्षित बनाया. इसी अवधि में महापद्मानंद के विरुद्ध अनेक स्थानीय विद्रोह नियोजित कराये गए और अंततः उसकी हत्या के बाद चन्द्रगुप्त को भारत का सम्राट बनाया गया. उसने अपनी माता मरियम को सम्मानित करने के लिए अपना उपनाम 'मोर्य' रखा. चन्द्रगुप्त मोर्य भारत में गुप्त वंश के शासन का प्रथम सम्राट बना. यहीं से विष्णुगुप्त और चन्द्रगुप्त के मार्गदर्शन में भारत को 'सोने की चिड़िया' बनाने के सफल प्रयास किये गए.
महाभारत युद्ध में कौरव सेना की पराजय तो हुई ही इसमें विश्व के सभी प्रसिद्ध योद्धा भी मारे गए. इसका सभी को दुःख था सिवाय कृष्ण के, क्योंकि यह परिणाम उसी के मनोनुकूल था. युद्ध में विष्णु, जो शकुनि के रूप में उपस्थित थे, को बंदी बना लिया गया तथा उनके अंडकोष काट डाले गए. इस विशेष दंड का एक विशेष कारण था. विष्णु और यीशु के अतिरिक्त सभी प्रमुख देव मारे जा चुके थे जिससे देव कुल नष्ट होने की संभावना थी. इसे सुनिश्चित करने के लिए परसंतापी कृष्ण ने विष्णु के अंडकोष काटकर उन्हें नपुंसक बनाने का प्रयास किया था.
महाभारत युद्ध में विजय के बाद कृष्ण और सिकंदर ने यहूदी वंश के महापद्मानंद को भारत के सम्राट पद पर स्थापित किया, किन्तु जिन पांडवों के नाम पर महाभारत युद्ध रचा गया था उन्हें राज्य में कोई हिस्सा नहीं दिया गया तथा कृष्ण ने उन्हें हिमालय में भटकने और नष्ट हो जाने के लिए प्रेरित कर दिया. इस प्रकार कृष्ण ने भारत के साथ ही नहीं अपने अनुयायी पांडवों के साथ भी छल किया.
युद्ध के बाद विष्णु गुप्त रहने के लिए पाराशर ऋषि के रूप में रहने लगे और राजस्थान के अलवर जनपद में सरस्वती तट पर एक आश्रम बनाकर रहने लगे. यह आश्रम आज भी विद्यमान है जो एक पहाडी की घाटी में स्थित है. यहीं रहकर उन्होंने 'होरा शास्त्र' नामक ग्रन्थ की रचना की जो सूर्य की गति के आधार पर समय-मापन के बारे में है. 'होरा' शब्द का वास्तविक अर्थ सूर्य है जिसके कारण काल संचालित होता है, इसलिए इस शब्द को 'समय' के भाव में भी उपयोग किया गया है. किन्तु आधुनिक पंडितों ने इसके माध्यम से अपने छल 'फलित ज्योतिष' को प्रसिद्ध किया है और इस ग्रन्थ को इसी विषय को समर्पित बताया जा रहा है. यहाँ भी स्पष्ट कर दें कि भारत का मौलिक काल चक्र सूर्य आधारित है जब कि यवन समुदाय काल निधारण के लिए चन्द्र को आधार बनाता रहा हैं.
उक्त आश्रम में रहते हुए ही विष्णु ने अपने अन्डकोशों की चिकित्सा की जिसके लिए पारद भस्म तैयार कर उसे औषधि के रूप में उपयोग किया गया. आश्रम के ऊपर पहाडी पर आज भी इसका प्रमाण उपस्थित है. इस चिकित्सा से स्वस्थ होने के बाद विष्णु ने यीशु की बड़ी बहिन मरियम से विवाह किया ताकि देव संतति सतत बनी रहे. इस विवाह के बाद मरियम देवी लक्ष्मी, विष्णुप्रिया, आदि नामों से जानी जाने लगीं. देवी दुर्गा तथा काली भी इन्हीं के छद्म रूप थे.
कालांतर में देवी लक्ष्मी ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम आरम्भ में गोपीचंद और बाद में 'चन्द्रगुप्त' रखा गया. विष्णु ने एक और छद्म रूप धारण किया और इसके लिए अपना नाम 'विष्णुगुप्त चाणक्य' रखा. इस नाम में शब्द 'चाणक्य' इसलिए जोड़ा गया कि उन्हें सदैव याद रहे कि उनके अंडकोष (आण) काटे गए थे और वे इसका प्रतिशोध लेने के लिए संकल्पित रहें. इनका साथ देने के लिए यीशु ने अपना नाम 'चित्रगुप्त' रखा. चित्रगुप्त रूप में आने से पूर्व यीशु गणेश के रूप में थे, जिसका प्रमाण खजुराहो के चित्रगुप्त मंदिर में उनके गणेश रूप की भी प्रतिमा है जिसे ऊपर के चित्र में दर्शाया गया है. विष्णुगुप्त से गुप्त वंश का आरम्भ हुआ तथा चित्रगुप्त से कायस्थ जाति का उदय हुआ. यहाँ शब्द 'चित्र' एवं कायस्थ यीशु के नाम क्राइस्ट के ही परिवर्तित रूप हैं. भारत का सर्वाधिक प्रबुद्ध वर्ग 'कायस्थ' यीशु का ही वंश है.
विष्णुगुप्त और चित्रगुप्त दोनों ने मिलकर देवी लक्ष्मी के साथ चन्द्रगुप्त का लालन-पालन किया और उसे भारत का सम्राट बनाने हेतु शिक्षित एवं दीक्षित बनाया. इसी अवधि में महापद्मानंद के विरुद्ध अनेक स्थानीय विद्रोह नियोजित कराये गए और अंततः उसकी हत्या के बाद चन्द्रगुप्त को भारत का सम्राट बनाया गया. उसने अपनी माता मरियम को सम्मानित करने के लिए अपना उपनाम 'मोर्य' रखा. चन्द्रगुप्त मोर्य भारत में गुप्त वंश के शासन का प्रथम सम्राट बना. यहीं से विष्णुगुप्त और चन्द्रगुप्त के मार्गदर्शन में भारत को 'सोने की चिड़िया' बनाने के सफल प्रयास किये गए.
आगरा के निकट सिकन्दरा में अकबर के मकबरे के सामने सड़क के दूसरी ओर कुछ आगे एक मकबरा और है जिसे 'मरियम का मकबरा' कहा जाता है. इस मकबरे के प्रवेश द्वार के निकट भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा एक बोर्ड लगाया हुआ है जिसमें बताया गया है कि 'मरियम' अकबर की पत्नी जोधाबाई की ही उपाधि थी और इस प्रकार इस मकबरे को जोधाबाई का मकबरा सिद्ध किया गया है. भारत के अकबर कालीन इतिहास का पूरा लेखा-जोखा उपलब्ध है किन्तु उसमें ऐसा कोई उल्लेख नहीं है कि जोधाबाई को कबी मरियम भी कहा गया था. यदि ऐसा कोई प्रमाणित सूत्र उपलब्ध हो तो मेरा भारत के प्रतिष्ठित इतिहासकारों से निवेदन है कि वे उसे प्रकाश में लायें.
मेरी दृष्टि में पुरातत्व सर्वेक्षण जैसा छल अकबर के मकबरे के बारे में कर रा है, मरियम के मकबरे में उससे कहीं अधिक घिनोना छल कर रहा है. भारत के तथाकथित इतिहासकार जीसस तथा मरियम को भारत के इतिहास के पात्र नहीं मानते, इसलिए सदा-सदा से जाने गए 'मरियम के मकबरे को जोधाबाई का मकबरा कहा जा रहा है. मैंने अपने इस संलेख के एक आलेख में जीसस और मरियम को अपने ऐतिहासिक पात्र कहा है, और यह मकबरा मेरे इतिहास की पुष्टि करता है. इसके समर्थन में अनेक तर्क उपस्थित हैं जिनकी चर्चा यहाँ की जा रही है.
अकबर के मकबरे के सामने सड़क के दूसरी ओर का विशाल क्षेत्र इसाई समुदाय की संपत्ति है, जिसपर एक चर्च, एक स्कूल तथा अनेक आवास बने हैं. इन्ही के मध्य उक्त मरियम का मकबरा है. भारत में जहाँ कहीं भी प्राचीन भवनों एवं स्थलों पर मुग़ल शासन काल में इस्लामी तख्तियां लगाई गयीं, उन सब को मुस्लिमों के अधिकार में दे दिया गया था, फलस्वरूप, तःमहल प्रांगण के अनेक भवन, फतहपुर सीकरी के भवन, तथा आगरा के अनेक ऐतिहासिक भवनों पर मुसलामानों का अधिकार है. अकबर के तथाकथित मकबरे पर भी मुस्लिम अधिकार बना हुआ है. इस सबके रहते हुए भी मरियम के मकबरे पर कोई मुस्लिम अधिकार नहीं है और इसके ईसाई संपत्ति के मद्य होने से सिद्ध होता है कि यह मकबरा किसी ऐसी स्त्री का है जिसका सम्बन्ध ईसाई धर्म से है. इस कारण से मुग़ल साम्राज्य काल में भी इसे इस्लाम से सम्बंधित नहीं कहा गया और इस पर अधिकार नहीं किया गया. इससे स्पष्ट है कि यह मकबरा जोधाबाई का न होकर जीसस की बहिन मरियम का है.
मरियम के मकबरे का आतंरिक अभिकल्प (ऊपर का चित्र) अन्य किसी भी मकबरे से भिन्न है और यह पशिमी बंगाल में स्थित विष्णुपुर में बने प्राचीन कालीन महलों (नीचे का चित्र) से मेल खाता है. मेरे द्वारा भारत के शोधित इतिहास में महाभारत युद्ध के पश्चात जब देवों की संख्या क्षीण हो गयी थी तब विष्णु (लक्ष्मण) ने मरियम से विवाह किया था जिसने चन्द्रगुप्त को जन्म दिया था. इस युद्ध में पांडव पक्ष का नीतिकार कृष्ण था और कौरव पक्ष के नीतिकार शकुनी के छद्म रूप में स्वयं विष्णु थे. महाभारत युद्ध के बाद कृष्ण और सिकंदर के आग्रह पर महा पद्मानंद को भारत का सम्राट बनाया गया था.
महाभारत की पराजय का बदला लेने के लिए विष्णु ने अपना नाम विष्णुगुप्त चाणक्य रखा और जीसस ने अपना नाम चित्रगुप्त रखा और भारत को महा पद्मानंद के शासन से मुक्त कराने का बीड़ा उठाया जिसमें वे सफल रहे और चन्द्रगुप्त को भारत का सम्राट बनाया गया. यहीं से गुप्त वंश के शासन का आरम्भ हुआ और भारत विश्व प्रसिद्द 'सोने की चिडिया' कहलाया.
अतः उक्त मकबरा वास्तविक मरियम का ही मकबरा है, जो जीसस की बहिन, विष्णु की पत्नी, एवं चन्द्र गुप्त की माँ थीं. लक्ष्मी, दुर्गा एवं काली इनके अन्य रूप थे जिनकी चर्चा प्रसंगानुसार की जायेगी.
भारत में समाज को व्यवस्थित करने और कार्य विभाजन के लिए वर्ण व्यवस्था लागू की गयी जिसका आरंभिक विवरण मनुस्मृति में तथा बाद में विष्णु गुप्त चाणक्य द्वारा अपने ग्रन्थ 'अर्थशास्त्र' में प्रकाशित किया गया. चाणक्य महोदय के शब्दों में -
इस ग्रन्थ का प्रचलित हिंदी अनुवाद (श्री वाचस्पति गैरोला, चौखम्बा विद्याभवन) इस प्रकार है -
ब्राह्मण का धर्म अध्ययन-अध्यापन, यज्ञ-याजन, और दान देना तथा दान लेना है. क्षत्रिय का है पढ़ना, यज्ञ करना, दान देना, शास्त्रों के उपयोग से जीविकोपार्जन करना और प्राणियों की रक्षा करना. वैश्य का धर्म पढ़ना, यज्ञ करना, दान देना, कृषि कार्य एवं पशुपालन और व्यापार करना है. इसी प्रकार शूद्र का अपना धर्म है कि वह ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य की सेवा करे; पशु-पालन तथा व्यापार करे; और शिल्प (कारीगरी), गायन, वादन एवं चारण, भात आदि का कार्य करे.
इस अनुवाद की कपट-पूर्ण विकृतियों पर ध्यान दीजिये-
मूल पाठ्य में दानं प्रथम तीन वर्णों का धर्म कहा गया है किन्तु हिंदी अनुवाद में केवल ब्राह्मण के लिए इसका अर्थ 'दान देना तथा दान लेना' किया गया है, शेष दो वर्णों के लिए इसका अर्थ केवल दान देना है.
मूल संस्कृत में शूद्र धर्म द्विजाति सुश्रुषा है जबकि हिंदी अनुवाद में इसके लिए तीनों वर्णों की सेवा करना कहा गया है.
खेती, पशुपालन तथा व्यापार उसके लिए हिंदी अर्थों में बिना सन्दर्भ के ठूंसे गए हैं.
इनसे स्पष्ट होता है कि अनुवादक मूल मंतव्य के अतिरिक्त अपना मत भी अनुवाद के माध्यम से अनधिकृत रूप से व्यक्त कर रहे हैं जो ब्राह्मणों को दान लेने का अधिकारी तथा शूद्रों को वैश्य धर्म में सम्मिलित करता है. शास्त्रों के साथ आधुनिक ब्राह्मण वादियों ने इसी प्रकार के छल कर उन्हें विकृत करके ही जन-साधारण के समक्ष प्रस्तुत किया है. इस प्रकार के छलों से ही भारत के इतिहास को विकृत किया गया है जिसका संशोधन किया जाना आवश्यक है. आइये हम इस विषय पर तर्कपूर्ण दृष्टिकोण से विचार करते हुए उक्त वर्ण व्यवस्था का सही अनुवाद करें.
सबसे पहले ब्राह्मण के बारे में - ब्रह्मा रचनाकार थे और उनके अनुयायी ब्राह्मण कहलाये जो रचनाकार ही थे. हिंदी शब्दावली के अनुसार अध्ययन और अध्यापन का अर्थ पढ़ना पढ़ाना है जो रचनात्मक कार्य नहीं हैं तो ये ब्राह्मण धर्म कैसे हो सकते हैं. इसी प्रकार दान देना तथा लेना किसी प्रकार भी रचनात्मक कार्य नहीं कहे जा सकते और ब्राह्मण धर्म नहीं हो सकते. यज्ञ का वर्तमान प्रचलित अर्थ अग्नि में घी एवं अन्य सामग्री जलाना लिया जाता है. ऐसा करने से यदि वातावरण शुद्ध होता है तो श्होद्र ही इससे वंचित क्यों किये गए हैं जबकि उन्हें तो वातावरण शुद्धि की सर्वाधिक आवशकता रहती है. इस सबसे यही प्रतीत होता है कि चाणक्य महोदय के शब्दों को समझाने के कोई प्रयास न किये जाकर अनुवादक ने अपने मत थोपे हैं. आइये, सही अनुवाद पाने के प्रयास करें. किन्तु पहले कुछ शब्दों की व्याख्या करें.
अध्ययन-अध्यापन लैटिन भाषा का शब्द है aedis जिसका समतुल्य हिंदी शब्द 'भवन' हैं. लैटिन भाषा शब्दों में अंत के भागों -is, -us तथा ग्रीक भाषा के -os का उच्चारण नहीं होता. भवन बनाना उच्च कोटि का रचनात्मक कार्य है अतः यह ब्राह्मण का निर्धारित दर्म हो सकता है. इससे स्पष्ट होता है कि शास्त्रीय शब्द 'अध्य' का अर्थ 'भवन' है, जिसके आधार पर अध्ययन-अध्यापन का अर्थ 'भवनों में रहना और उनका निर्माण करना' होता है. यहाँ यह स्पष्ट कर दें कि उस समय बहुत अल्प जन समुदाय ही भवनों में रहते थे, अधिकाँश जन-समुदाय जंगलों में भ्रमणकारी जीवन व्यतीत करते थे. इस दृष्टि से भवनों में रहने का विशेष उल्लेख किया गया है.
यजन-याजन दक्षिण भारतीय परम्परा में आज भी हिंदी के 'ज्ञ' को 'ज्न' उच्चारित किया जाता है, अतः यजन-याजन का हिंदी रूपांतर 'यज्ञ-याज्ञ' है. यज्ञ के बारे में बहुत भारी भ्रान्ति प्रचलित है. यज्ञ शब्द 'योग' से बना है जो जिसका अर्थ मिश्रित करना अथवा एक साथ मिलाना होता है. प्राचीन काल में अंग्रेजी भाषा का एक शब्द 'yogh था जो दो अक्षरों के योग के लिए उपयोग में लिया जाता था जो योग के उपर्युक्त अर्थ को पुष्ट करता है. व्यक्तियों का समाज बनने के लिए बस्तियों - ग्राम और नगर - का बनाना आवश्यक होता है. उस समय समाज बनाना मानवता विकास के लिए महत्वपूर्ण था जो केवल सभ्य जन-समुदाय ही करते थे. इस आधार पर यज्ञ-याज्ञ का अर्थ 'समाज में रहना तथा समाज बनाना' अर्थात 'बस्ती में रहना तथा बस्ती बनाना' सिद्ध होता है.
दान आधुनिक तथाकथित ब्राह्मणों ने अपने स्वार्थ सिद्ध करने के लिए दान शब्द का दुरूपयोग बहुत अधिक किया है. हिंदी भाषा परिवार की भाषा हेब्रू में दान शब्द का अर्थ 'न्याय करना' है.जो एक अति महत्वपूर्ण धर्म होने की संभावना भी रखता है. अतः यही दान शब्द का सही अर्थ है जो ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वश्य वर्णों द्वारा अन्यों के प्रति न्यायपूर्ण व्यवहार किया जाना निर्धारित करता है.
प्रतिग्रह लैटिन भाषा के दो शब्द 'granum ' तथा 'graes' हैं जिनके अर्थ क्रमशः 'बीज' तथा 'घास' हैं जो परंपरागत रूप में भोजन के रूप में उपयोग में लिए जाते रहे हैं. अतः प्रतिग्रह का अर्थ 'खाद्यान्न और शाक-भाजी का उपयोग करते हुए भोजन बनाना' सिद्ध होता है, जो लगभग ५० वर्ष पहले तक अनेक ब्राह्मणों का निर्धारित कार्य था.
शस्त्र शस्त्र शब्द का वही अर्थ है जो हिंदी में 'शब्द' का है. प्राचीन काल में शब्दों के उपयोग से आजीविका चलने वाले लोग राजाओं के आश्रित हुआ करते थे जिन्हें भात कहा जाता था. युद्ध क्षेत्र में सेना उत्साह बढ़ने में उनका विशेष योगदान हुआ करता था.
भूत भूत शब्द लैटिन के बोटाने से उद्भूत है जिसका अर्थ पेड़-पौधे है.
कृषि वैश्यों का एक धर्म कृषि कहा गया है, किन्तु वैश्य परम्परागत रूप में कभी खेती में लिप्त नहीं रहे और ना ही आज हैं. उनकी जीवनचर्या भी खेती के योग्य नहीं रही है. अतः कृषि शब्द का अर्थ खेती नहीं है. लैटिन भाषा में कृषि के निकटस्थ शब्द cratia (उच्चारण क्रशिया) तथा crucea पाए जाते हैं जिनमें से प्रथम का अर्थ 'शासन करना' तथा दूसरे का अर्थ 'क्रोस' है जो उस समय अपराधियों को दंड देने में उपयोग किया जाता था. शासन करना तथा दंड देना सम्बंधित कार्य हैं. चाणक्य महोदय के ग्रन्थ अर्थशास्त्र लिखे जाते समय गुप्त वंश का शासन चन्द्रगुप्त मोर्य के सम्राट बनने से आरम्भ हो चुका था. अतः इस ग्रन्थ में शासन करना वैश्यों का निर्धारित धर्म कहा गया है.
पाशुपाल्य पशुपालन खेती से निकट सम्बन्ध रखता है. इसलिए उपर्युक्त चर्चा के आधार पर पशुपालन भी वैश्यों का धर्म सिद्ध नहीं होता. लैटिन भाषा में passus शब्द का उच्चारण पाशु तथा अर्थ 'यात्रा' है जो वैश्यों के परम्परागत धर्म वाणिज्य से गहन सम्बन्ध रखता है. अतः पाशुपाल्य शब्द का अर्थ 'यात्रा करना' सिद्ध होता है न कि पशुपालन.
द्विजाति शुश्रूषा प्राचीन काल में सुश्रुत नामक महत्वपूर्ण चिकित्सक रहे हैं जिनके चिकित्सा संबंधी ग्रन्थ आज भी प्रचलित हैं. अतः शुश्रूषा शब्द का अर्थ सेवा न होकर चिकित्सा सिद्ध होता है. इसी आधार पर द्विज शब्द का अर्थ रोगी सिद्ध होता है. रोग की चिकित्सा व्यक्ति को दूसरा जन्म देने के समान होती है क्योंकि उस समय रोग अनेक लोगों की जान ले लेते थे.
कारुकुशीलवकर्म लैटिन शब्द carruca का अर्थ 'हल' अथवा 'हल चलाना' है जो खेती कार्य का प्रतीक हैं. लैटिन में ही carnis तथा caro शब्दों के अर्थ 'मां'स' हैं जिसे चर्म के भाव में भी लिया जाता है. अतः उपरोक्त शब्द समूह में कारू दो भ्हवों में उपयुक्त किया गया है - एक कुशील के साथ तथा दूसरा कर्म के साथ. इस आधार पर पूरे शब्द समूह का अर्थ 'खेती करना तथा चर्म संबंधी कार्य करना' सिद्ध होता है. चर्म कार्य शूद्रों का परम्परागत कार्य रहा है.
इन सब्द व्याख्याओं के आधार पर चाणक्य महोदय के उक्त सूत्र वर्ण धर्म इस प्रकार निर्धारित करता है -
ब्राह्मण का अपना धर्म भवन में रहना तथा भवन बनाना, बस्ती (समाज) में रहना तथा बस्ती बसाना, सभी के साथ न्यायपूर्ण व्यवहार करना तथा भोजन पकाना है. क्षत्रिय धर्म भवन में रहना, बस्ती में रहना, सभी के साथ न्यायपूर्ण व्यवहार करना, तथा शब्दों के उपयोग से उत्साह वर्धन कर जीविकोपार्जन करना तथा पेड़-पौधों की रक्षा करना है. वैश्य धर्म भवन में रहना, बस्ती में रहना, सभी के साथ न्यायपूर्ण व्यवहार करना, शासन करना, यात्राएं करना तथा व्यापार करना है. शूद्र धर्म रोगियों की चिकित्सा करना, सन्देश वाहक के रूप में कार्य करना, खेती करना तथा चमड़े का कार्य करना है.
इस आलेख के अंत में 'ब्राह्मण' का परिचय भी प्रासंगिक है. उक्त वर्ण धर्म निर्धारण यह सिद्ध करता है ब्राह्मण धर्म मुख्यतः भोजन, भवन और बस्तियों का निर्माण करना है जो सभी रचनात्मक कार्य हैं और ब्रह्मा की रचनात्मकता से सम्बन्ध रखते हैं. आधुनिक युग में जो समुदाय स्वयं को ब्राह्मण कह रहे हैं, उन्होंने भोजन पकाने के अतिरिक्त कोई अन्य निर्धारित कार्य कभी नहीं किया है. अतः ये ब्राह्मण कभी नहीं रहे हैं और न आज हैं. ग्रामीण अंचलों में इन्हें वामन कहा जाता है. दूसरी ओर कृष्ण ने छल-कपट के लिए वामन का रूप धारण किया था. यह सिद्ध करता है कि आधुनिक समुदाय जो स्वयं को ब्राह्मण कहते हैं, वस्तुतः वे 'वामन' हैं. .