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शनिवार, 9 जनवरी 2010

ऐतिहासिक सन्दर्भों की क्लिष्टताएं - भाग दो

इस संलेख में प्रकाशित भारत के इतिहास में सन्दर्भ प्रदान करने की सबसे बड़ी क्लिष्टता यह है कि यह इतिहास किसी ग्रन्थ से यथावत न लिया जाकर अनेक ग्रंथों के मेरे अनुवादों के कणों को संगृहीत करके बनाया गया है जिसमें बौद्धिक तर्कों का भी समावेश है. यदि इतिहास किसी ग्रन्थ में सीधे-सीधे समावेशित होता तो इस सम्बन्ध में अभी तक फ़ैली भ्रांतियां उत्पन्न ही नहीं होतीं और मुझे यह इतिहास नए सिरे से लिखने की आवश्यकता ही नहीं होती. किसी ग्रन्थ में प्राचीन इतिहास को समावेशित करने में जटिलताएं थीं जिनका अवलोकन यहाँ किया जा रहा है.


भारत राष्ट्र के विकास के बारे में सबसे पहले वेड लिखे गए जो आरम्भ में किसी अन्य लिपि में लिखे गए होंगे किन्तु बाद में इन्हें देवनागरी में लिपिबद्ध किया गया. इनकी शब्दावली लातिन तथा ग्रीक भाषाओं की शब्दावली है क्योंकि उस समय तक ये भाषाएँ ही विकसित हुई थीं. यह भाषा आधुनिक संस्कृत से एकदम भिन्न है और इसके आधार पर वेदों का अनुवाद करना मूर्खतापूर्ण तथा अतार्किक है. इस तथ्य को सभी मानते हैं तथापि सभी अनुवाद आधुनिक संस्कृत के आधार पर ही किये गए  है जो वेदों के बारे में भ्रांत धारणाएं उत्पन्न करते हैं.वेदों में पूर्णतः तत्कालीन वैज्ञानिक ज्ञान निहित है किन्तु काल अंतराल के कारण इनके अनुवाद करनी अति क्लिष्ट है.

यवनों एवं अन्य जंगली जातियों के भारत में आने और उन के द्वारा देवों द्वारा किये जा रहे विकास कार्यों में धर्म प्रचार के माध्यम से बाधा उत्पन्न किये जाने के अंतर्गत उन्होंने वेदों तथा अन्य ग्रन्थों के गलत अनुवाद प्रसारित करने आरम्भ किये  जिनमें धर्म और अध्यात्म प्रचार पर बल दिया गया जो पूरी तरह देवों तथा वेदों के मंतव्य से भिन्न था. इस उद्देश्य से इन जंगली जातियों ने आधुनिक संस्कृत विकसित की जिसमें शब्दार्थ मूल शब्दार्थ से बहुत भिन्न हैं. शास्त्रों के प्रचलित अनुवाद इसी आधुनिक संस्कृत शब्दार्थों पर आधारित होने के कारण दोषपूर्ण हैं.

ऐसी स्थिति में यदि देव उसी प्रकार अन्य ग्रन्थ भी लिखते तो उससे कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता. अतः देवों ने एक नयी लेखन शैली का विकास किया जिसे शास्त्रीय शैली कहा जा सकता है. इस शैली में शब्दावली को इस प्रकार बदला जाता है कि उसमें वास्तविक अर्थ तो छिपा रहे किन्तु प्रतीत अर्थ धर्म एवं अध्यात्मा परक लगे. इस आशय के संकेत प्रत्येक ग्रन्थ के आरम्भ में गूढ़ रूप में दे दिए गए ताकि गंभीर पाठक इस शैली में लिखे ग्रंथों के सही अनुवाद पा सकें. साथ ही अध्यात्मवादी भी इन ग्रंथों से प्रसन्न रहें और इन्हें नष्ट करने के स्थान पर इन्हें सुरक्षित रखें. इस कारण से अधकांश ग्रंथों की मूल भाषा आज तक सुरक्षित है किन्तु उनके उलटे-सीधे अनुवाद प्रचलित हैं जिसके कारण इन ग्रंथों में अतार्किक वर्णन प्रतीत होते हैं.

इस शास्त्रीय शैली में पुराण लिखे गए जिनमें पुरु वंश एवं इसके प्रमुख व्यक्तियों के इतिहास निहित हैं. किन्तु इस इतिहास को आधुनिक संस्कृत के आधार पर किये गए अनुवादों में प्राप्त नहीं किया जा सकता. इसके कारण इस इतिहास के सीधे सन्दर्भ देना संभव नहीं है. मूल भाषा में सन्दर्भ प्रदान करने से उसके अनुवादों की जटिलता सामने आती है. इसलिए इस इतिहास को कण-कण करके बनाया गया है, शास्त्रीय शैली में सबसे बाद में लिखा गया ग्रन्थ भाव प्रकाश है जिसमें आयुर्वेद के अतिरिक्त इतिहास का भी समावेश है.

ऐतिहासिक सन्दर्भों की क्लिष्टताएं - भाग दो

इस संलेख में प्रकाशित भारत के इतिहास में सन्दर्भ प्रदान करने की सबसे बड़ी क्लिष्टता यह है कि यह इतिहास किसी ग्रन्थ से यथावत न लिया जाकर अनेक ग्रंथों के मेरे अनुवादों के कणों को संगृहीत करके बनाया गया है जिसमें बौद्धिक तर्कों का भी समावेश है. यदि इतिहास किसी ग्रन्थ में सीधे-सीधे समावेशित होता तो इस सम्बन्ध में अभी तक फ़ैली भ्रांतियां उत्पन्न ही नहीं होतीं और मुझे यह इतिहास नए सिरे से लिखने की आवश्यकता ही नहीं होती. किसी ग्रन्थ में प्राचीन इतिहास को समावेशित करने में जटिलताएं थीं जिनका अवलोकन यहाँ किया जा रहा है.


भारत राष्ट्र के विकास के बारे में सबसे पहले वेड लिखे गए जो आरम्भ में किसी अन्य लिपि में लिखे गए होंगे किन्तु बाद में इन्हें देवनागरी में लिपिबद्ध किया गया. इनकी शब्दावली लातिन तथा ग्रीक भाषाओं की शब्दावली है क्योंकि उस समय तक ये भाषाएँ ही विकसित हुई थीं. यह भाषा आधुनिक संस्कृत से एकदम भिन्न है और इसके आधार पर वेदों का अनुवाद करना मूर्खतापूर्ण तथा अतार्किक है. इस तथ्य को सभी मानते हैं तथापि सभी अनुवाद आधुनिक संस्कृत के आधार पर ही किये गए  है जो वेदों के बारे में भ्रांत धारणाएं उत्पन्न करते हैं.वेदों में पूर्णतः तत्कालीन वैज्ञानिक ज्ञान निहित है किन्तु काल अंतराल के कारण इनके अनुवाद करनी अति क्लिष्ट है.

यवनों एवं अन्य जंगली जातियों के भारत में आने और उन के द्वारा देवों द्वारा किये जा रहे विकास कार्यों में धर्म प्रचार के माध्यम से बाधा उत्पन्न किये जाने के अंतर्गत उन्होंने वेदों तथा अन्य ग्रन्थों के गलत अनुवाद प्रसारित करने आरम्भ किये  जिनमें धर्म और अध्यात्म प्रचार पर बल दिया गया जो पूरी तरह देवों तथा वेदों के मंतव्य से भिन्न था. इस उद्देश्य से इन जंगली जातियों ने आधुनिक संस्कृत विकसित की जिसमें शब्दार्थ मूल शब्दार्थ से बहुत भिन्न हैं. शास्त्रों के प्रचलित अनुवाद इसी आधुनिक संस्कृत शब्दार्थों पर आधारित होने के कारण दोषपूर्ण हैं.

ऐसी स्थिति में यदि देव उसी प्रकार अन्य ग्रन्थ भी लिखते तो उससे कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता. अतः देवों ने एक नयी लेखन शैली का विकास किया जिसे शास्त्रीय शैली कहा जा सकता है. इस शैली में शब्दावली को इस प्रकार बदला जाता है कि उसमें वास्तविक अर्थ तो छिपा रहे किन्तु प्रतीत अर्थ धर्म एवं अध्यात्मा परक लगे. इस आशय के संकेत प्रत्येक ग्रन्थ के आरम्भ में गूढ़ रूप में दे दिए गए ताकि गंभीर पाठक इस शैली में लिखे ग्रंथों के सही अनुवाद पा सकें. साथ ही अध्यात्मवादी भी इन ग्रंथों से प्रसन्न रहें और इन्हें नष्ट करने के स्थान पर इन्हें सुरक्षित रखें. इस कारण से अधकांश ग्रंथों की मूल भाषा आज तक सुरक्षित है किन्तु उनके उलटे-सीधे अनुवाद प्रचलित हैं जिसके कारण इन ग्रंथों में अतार्किक वर्णन प्रतीत होते हैं.

इस शास्त्रीय शैली में पुराण लिखे गए जिनमें पुरु वंश एवं इसके प्रमुख व्यक्तियों के इतिहास निहित हैं. किन्तु इस इतिहास को आधुनिक संस्कृत के आधार पर किये गए अनुवादों में प्राप्त नहीं किया जा सकता. इसके कारण इस इतिहास के सीधे सन्दर्भ देना संभव नहीं है. मूल भाषा में सन्दर्भ प्रदान करने से उसके अनुवादों की जटिलता सामने आती है. इसलिए इस इतिहास को कण-कण करके बनाया गया है, शास्त्रीय शैली में सबसे बाद में लिखा गया ग्रन्थ भाव प्रकाश है जिसमें आयुर्वेद के अतिरिक्त इतिहास का भी समावेश है.