शनिवार, 23 जनवरी 2010

बौद्धिक जनतंत्र की प्राथमिकता तीन - न्याय

बौद्धिक जनतंत्र की तीसरी प्राथमिकता सभी को निःशुल्क त्वरित न्यायप्रदान करना है जो स्वस्थ एवं शिक्षित नागरिकों के सुखी जीवन के लिए अनिवार्य है. स्वतंत्र भारत के के ६० वर्षों से अधिक की अवधि में न्याय उपलब्धि अधिक से अधिक दुर्लभ होती जा रही है, जो शासन के लिए शर्मनाक है.


न्याय की त्वरित उपलब्धि न्याय प्रक्रिया का अभिन्न अंग है. अतः बौद्धिक जनतंत्र में प्रत्येक न्यायालय के लिए प्रत्येक विवाद में तीन माह की अवधि में न्याय प्रदान करना अनिवार्य किया गया है जिसका उत्तरदायित्व सम्बद्ध न्यायाधीश का निर्धारित किया गया है. ऐसा न होने पर न्यायाधीश को इस सेवा के अयोग्य  ठहराकर पद मुक्त किये जाने का प्रावधान है. 

यदि देश अथवा समाज में अन्याय न हो तो किसी भी नागरिक को न्याय की आवश्यकता नहीं होगी, और देश अथवा समाज की व्यवस्था का दायित्व शासन का होता है. अतः अन्यायों को रोकना शासन का दायित्व है. यदि शासन इसमें असफल रहता है तो ही नागरिकों को न्याय माँगने की आवश्यकता होती है. नागरिकों को न्याय प्रदान करने के लिए उनसे किसी शूल की मांग किया जाना स्वयं एक अन्याय है. अतः बौद्धिक जनतंत्र में निःशुल्क न्याय प्रदान करना शासन का निर्धारित दायित्व है क्योंकि न्याय की आवश्यकता शासन दोष से ही व्युत्पन्न होती है. 

न्याय का अर्थ होता है दंड व्यवस्था, जिस के लिए बौद्धिक जनतंत्र में कुछ विशिष्ट प्रावधान हैं -
  1. प्रकृति कारण-प्रभाव सिद्धांत पर कार्य करती है जिसमें प्रत्येक कारण का प्रभाव अवश्य होता है, अर्थात कोई भी कारण प्रभावहीन अथवा क्षम्य नहीं होता. बौद्धिक जनतंत्र की न्याय व्यवस्था भी इसी सिद्धांत पर कार्य करती है, तदनुसार कोई भी अपराध क्षम्य नहीं होगा. 
  2. अपराधी को दंड उसके द्वारा किये गए अपराध के अनुसार न दिया जाकर समाज में उसके दायित्व और अधिकार के अनुरूप निर्धारित है. यथा यदि कोई निम्न वर्गीय राज्यकर्मी रिश्वत लेता है तो उसे अल्प दंड दिया जायेगा किन्तु यदि ऐसा ही अपराध कोई उच्च पदासीन व्यक्ति करता है तो उसे इसके लिए अत्यधिक कठोर दंड दिया जायेगा. 
  3. न्यायाधीश समाज के विशिष्ट बुद्धिसम्पन्न एवं अधिकृत व्यक्ति होते हैं अतः उनका दायित्व भी सर्वाधिक होता है. अतः उनसे सर्वाधिक अपेक्षाएं की जाती हैं. यदि किसी न्यायाधीश का न्यायादेश उच्चतर न्यायाधीश द्वारा निरस्त अथवा उलटा जाता है तो यह पूर्व न्यायाधीश की अक्षमता मानी जायेगी और उसे न्याय करने के अयोग्य घोषित किया जाकर पदमुक्त किया जायेगा. साथ ही उच्चतर न्यायाधीश को पूर्वादेश को निरस्त किये जाने के विस्तृत कारण देने होंगे.
  4. न्यायालयों के न्याय-आदेशों पर समाज अथवा जन-माध्यम में खुली चर्चा की जा सकेगी ताकि समाज उनकी कार्य कुशलता की परख करता रहे तथा वे स्वयं भी सजग रहें. इसके साथ ही न्यायाधीशों के कोई विशेषाधिकार नहीं होंगे और उन्हें अपने प्रत्येक आदेश का अधर सिद्ध करना होगा. 
  5. बौद्धिक जनतंत्र मृत्युदंड का पक्षधर है और इसे अपराध रोकने के लिए आवश्यक मानता है. 
इस प्रकार बौद्धिक जनतंत्र समाज में अपराधों को ही नहीं, अपराध प्रवृतियों को रोकने के कारगर उपाय करने के लिए कृतसंकल्प है. 

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