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गुरुवार, 2 दिसंबर 2010

आरम्भ एक नयी चुनौती का

मेरे गाँव खंदोई का प्रधान एक ऐसे व्यक्ति की पत्नी बन गयी है जिसे अधिकाँश लोग नहीं चाहते - उसके आपराधिक चरित्र के कारण. चूंकि वर्तमान भारतीय जनतंत्र की परम्परा के अनुसार, स्त्री प्रधानों के पति ही प्रधान पद का दायित्व एवं कार्यभार संभालते हैं, इसलिए उक्त आपराधिक चरित्र वाला व्यक्ति ही प्रधान माना जा रहा है.


उसे चुनाव में पड़े १५०० मतों में से केवल ४२२ मत पड़े, शेष चार विरोधियों में बँट गए जिसके कारण वह चुना गया. यह भारतीय जनतंत्र और संविधान की निर्बलता है जो अल्पमत प्राप्तकर्ता को भी विजयी बनाती है. ग्राम प्रधान विकास के लिए उत्तरदायी होता है जिसके लिए उसे सार्वजनिक धन प्रदान किया जाता है. इस धन के उपयोग में भारी हेरफेर की जाती है. इसी के लिए अधिकाँश प्रधान पद प्रत्याशी मतदाताओं पर भारी धन व्यय करके यह पद प्राप्त करने के प्रयास करते हैं.

इस व्यक्ति को प्रधान बनने से रोकने के सभी प्रयास असफल होने के बाद, निराश, निस्सहाय, निर्धन ग्रामवासियों ने मुझे दायित्व दिया है कि मैं सार्वजनिक धन के दुरूपयोग को न होने दूं. किसी पद या प्रतिष्ठा की लालसा न होते हुए भी मैं इस दायित्व से पीछे नहीं हट सकता. इस दायित्व के लिए ग्राम के निर्धनतम और दलित लोगों ने मुझे अपने मोहल्ले से अपने प्रतिनिधि के रूप में ग्राम पंचायत का सदस्य चुना है. मेरे सदस्य पद पर चुने जाने की अनेक विशेषताएं रही हैं.

सत्ता पक्ष ने मेरा भरपूर विरूद्ध - नैतिक एवं अनैतिक, किया. यहाँ तक कि मतदाताओं को नकद धन के प्रलोभन भी दिए गए. ये अधिकाँश मतदाता भूमिहीन मजदूर हैं और बहुत से प्रधान समूह के यहाँ मजदूरी करके अपने आजीविका चलाते हैं. इसलिए उन्हें मजदूरी न दिए जाने की धमकियां भी दी गयीं. तथापि मतदाता मेरे समर्थन पर अडिग रहे. ऐसा विरल ही होता है, विशेषकर तब जब मतदाता अशिक्षित एवं निर्धन हों. इसका एक विशेष कारण यह था कि मतदाता अपने हितों की रक्षा के लिए स्वयं मुझे अपना प्रतिनिधि चुनना चाहते थे जब कि मुझे इसमें कोई रूचि नहीं थी. उन्हें मुझ पर भरोसा है कि मैं उन्हें कोई हानि नहीं होने दूंगा तथा मेरे कारण ग्राम विकास कार्यों में भी भृष्टाचार नहीं होगा. 

इससे उक्त नए दायित्व का भार मेरे कन्धों पर आ गया है. इसके साथ ही उक्त प्रधान पति के आपराधिक गिरोह से मेरी शत्रुता भी प्रबल होगी, क्योंकि वे अपने दुश्चरित्रता से बाज नहीं आने वाले और मैं अपने विरोध से. ग्राम पंचायत के कार्य क्षेत्र विकास कार्यालय से संचालित होते हैं. इसलिए मैंने ग्राम पंचायत का सदस्य चुने जाने के तुरंत बाद क्षेत्र विकास अधिकारियों से दो निवेदन किये हैं -
    Aristotle on Political Enmity and Disease: An Inquiry into Stasis (S U N Y Series in Ancient Greek Philosophy)
  • ग्राम खंदोई से सम्बंधित सभी बैठकों में केवल विधिवत चुने गए व्यक्ति ही उपस्थित हों न कि उनके पति अथवा अन्य संबंधी. 
  • ग्राम खंदोई में आपराधिक चरित्र के लोगों का बोलबाला है इसलिए ग्राम संबंधी सभी अनुलेखों की जांच-पड़ताल ध्यान से की जाये. इसमें कोई भी भूल अथवा धांधली होने पर मैं उसका डटकर विरोध करूंगा. 
इस सबसे ग्राम कार्यों में मेरी व्यस्तता और भी अधिक बढ़ जायेगी. 

शनिवार, 20 नवंबर 2010

भारतीय समाज में अवसरवादिता का विष

भारत में मानवीय चरित्र का संकट है और गन्तार होता जा रहा है. इस चरित्र की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि लोगों के किसी भी विषय पर अपने मत नहीं होते, इसलिए वे सभी मतों से सामयिक तौर पर सरलता से सहमत प्रतीत होने लगते हैं. साथ ही दृष्टि से ओझल होते ही अपनी सहमति को भूल जाते हैं तथा किसी विरोधी मत से भी तुरंत सहमत हो सकते हैं. इसका मूल कारण बुद्धिहीनता है किन्तु इस प्रकार के लोग इसे कूटनीति अथवा डिप्लोमेसी कहते हैं जिसमें व्यक्ति जो कहता है उसका मंतव्य वह नहीं होता अपितु कुछ और होता है. अर्थात कूटनीति में मानवीय मौलिकता एवं नैतिकता के लिए कोई स्थान नहीं होता. इसका अर्थ यह हुआ कि जो लोग किसी विषय में अपना कोई मत नहीं रखते, वे कूटनीतिज्ञ हो सकते हैं.

व्यवसाय प्रबंधन की पुस्तकों में सफल व्यवसाय का मूल मन्त्र पढ़ा है - अवसरों का शोषण व्यवसायिक सफलता की कुंजी है. यह सच है किन्तु केवल व्यवसाय के लिए, क्योंकि व्यवसाय व्यक्ति नहीं होता, उसमें भावनाएं नहीं होतीं. इसके दोनों शब्द 'अवसर' तथा 'शोषण' मानवीयता शब्दकोष के बाहर के हैं. मानव जीवन अवसरों का लाभ उठाने के लिए नहीं, उनकी रचना करने के लिए अभिकल्पित है, और शोषण तो 'कोरी स्वार्थपरता है जबकि मानवीयता शोषणविहीन समाज के सपने को व्यवहार में लाने के लिए विकसित हुई. किन्तु ये दोनों ही भूतकाल की बातें हैं.

अभी जनतांत्रिक चुनाव हुए, उनमें अधिकाँश लोगों का विचार था कि वे उसी प्रत्याशी को अपना मत देंगे जो विजयी होता प्रतीत होगा. कितनी बड़ी मूर्खता है यह. वस्तुतः विजय मतों से होती है किन्तु यहाँ तो विजय के कारण मत प्राप्त होते हैं. ऐसे मतदाता आधुनिक समाज के अग्रणी हैं, जिनका कोई अपना मत नहीं है प्रत्याशियों के पक्ष अथवा विपक्ष में. इनके यहाँ अच्छे- बुरे, योग्य-अयोग्य, चतुर-चालाक, बुद्धिमान-मूर्ख, आदि विरोधाभासी शब्द युगलों का कोई महत्व नहीं है. यही अवसरवाद है जो पूरी तरह अमानवीय है. मैं इससे भिन्न मत रखता हूँ - एकनिष्ठ, किसी एक प्रत्याशी के पक्ष में - उसके गुणों के आधार पर, चाहे वह जीते अथवा हारे. उसको मत देकर मुझे संतुष्टि प्राप्त होती है - उसके हारने पर भी. किन्तु आधुनिक समाज के मानदंड के अनुसार पराजित प्रत्याशी को डाला गया मत व्यर्थ चला गया. इसी मूर्खतापूर्ण अवसरवादिता के कारण भारत के जनतांत्रिक चुनावों में मूर्ख विजयी होते रहे हैं और बुद्धिमान पिछड़ते जा रहे हैं. उदाहरण सामने हैं - मेरे क्षेत्र का संसद सदस्य निरक्षर है जो एक सेवानिवृत प्रशासनिक अधिकारी को पराजित करके विजयी हुआ. मेरा जिला पंचायत सदस्य एक जाने माने अपराधी की पत्नी है. भारत में महिला आरक्षण ने महिलाएं चुनी जाती हैं और उनके पति पदासीन होते हैं - हम जनतांत्रिक न होकर जनतंत्र की लाश ढो रहे हैं.

मूर्खों के किसी भी विषय में अपने कोई विचार नहीं होते, वे अवसरानुसार किसी से भी सहमत अथवा असहमत हो सकते हैं, इसलिए ये शीघ्र ही और अकारण ही एकता के सूत्र में बंध जाते हैं. जबकि बुद्धिमान अपने-अपने विचार रखने के कारण उनपर तर्क-वितर्क करते हुए बिखरे हुए रह जाते हैं. यही समाज और यही अवसरवादिता जनतंत्र को मूर्खों का शासन सिद्ध करता है.
Opportunism(s) kills
एक सभा हुई समाज को एकता के सूत्र में बांधने के लिए. कुछ बुद्धिसम्पन्न लोगों ने अपने-अपने विचार रखे और उनमें आपस में बहस छिड़ गयी. एक मूर्ख उठा और बोला एकता के लिए हमें केवल हुआ-हुआ पुकारना है. जो ऐसा करेंगे वे सब एकता के सूत्र में बंधे माने जायेंगे, उनमें कभी कोई मतभेद नहीं होगा क्योंकि उनमें से किसी का कोई विचार नहीं होगा, बस हुआ-हुआ का शोर करना होगा. ऐसा ही हुआ और सभी मूर्ख अकारण ही एक स्वर से हुआ-हुआ करने लगे और एक हो गए. इस शोरगुल में बुद्धिसम्पन्न लोगों के विचार तिरोहित हो गए. यही है भारतीय समाज का सच, और यही है भारतीय जनतंत्र की वस्तुस्थिति, और यही है हमारी प्रगति की दिशा,. और यही है हमारी महान भारतीय संस्कृति.

जोर से बोलो, शोर से बोलो - 'हुआ-हुआ'. इति शुभम.

शनिवार, 16 जनवरी 2010

भारत में जनतंत्र का एक नमूना

अभी-अभी उत्तर प्रदेश में विधान परिषद् के सदस्यों के चुनाव संपन्न हुए हैं जिनमें बहुजन समाज पार्टी ने लगभग सभी स्थानों पर विजय प्राप्त की है. जन संचार माध्यम का कहना है कि उत्तर प्रदेश इन चुनावों में बहुजन समाज पार्टी की अप्रत्याशित विजय उसकी जनप्रियता का प्रतीक है जबकि तथ्य इसके विपरीत हैं.


इन चुनावों में ग्रामसभा प्रधान और खंड विकास समिति सदस्य मताधिकारी थे. बहुजन समाज पार्टी के प्रत्याशियों ने इन मतों को खुले आम खरीदा है और विजय प्राप्त की है. मेरे गाँव के प्रधान और समिति सदस्य ने २५,००० प्रत्येक प्राप्त किये और बसपा प्रत्याशी को अपने मत दिए. सूचना है कि यही अन्य सभी स्थानों पर भी हुआ है.

मेरे क्षेत्र में दूसरा प्रत्याशी राष्ट्रीय लोकदल का था और धनबल में बसपा प्रत्याशी से पीछे नहीं था. उसने भी मुक्त हस्तों से धन का वितरण किया. बहुत से ऐसे मताधिकारी थे जिन्होंने विरोधी प्रत्याशी से धन लेकर भी अपने मत उसके पक्ष में नहीं दिए क्योंकि उन्होंने दोनों पक्षों से धन प्राप्त किया था. इसका एक विशेष कारण यह था कि चुनाव प्रक्रिया के दौरान राज्य शासन प्रशासन ने ग्राम प्रधानों के विरुद्ध अनियमितताओं के लिए कार्यवाही किये जाने के संकेत दिए थे जिससे ग्राम प्रधान दवाब में आ गए और बसपा के पक्ष में मत-विक्रय किये. इन परिस्थितियों में 'मतदान' शब्द का उपयोग किया जाना खुली बेईमानी होगी. 
चुनाव परिणामों पर विरोधियों ने तीखी प्रतिक्रियाएं की हैं और इसे जनतंत्र विरोधी आधी बताया है. किन्तु वे सब भी सत्ता प्राप्ति के बाद यही सब करते रहे हैं जो आज बसपा ने किया है. तो इसमें बसपा का ही क्या दोष है, यह तो भारतीय जनतंत्र की परम्परा है और इसे चुनावी विधान कहा जा सकता है.

मतों का विक्रय मताधिकारियों की विवशता भी थी क्योंकि उन्होंने भी अपने चुनावों में धन के बल पर ही विजय प्राप्त की थी जिसका बदला उन्हें लेना ही था. इस प्रकार धन के उपयोग से चुनाव जीतना एक चक्रव्यूह है जिसमें भारत का तथाकथित जनतंत्र बुरी तरह फंसा है, और किसी भी अर्थ में जनतंत्र नहीं रह गया है. जनतंत्र के नाम पर भारत में मतों का क्रय-विक्रय ग्राम-स्तर से लेकर संसद तक हो रहा है और सर्व-विदित है, तथापि सब चुप हैं और अनेक आनंदित हैं भारत में जनतंत्र की सफलता पर.

ऐसा है भारत का जनतंत्र जो पूंजीवाद से बहुत अधिक पूंजीवादी है. इसमें लिप्त राजनेता भृष्टता से अधिक भृष्ट हैं. इस खुली व्यवस्था पर भी हम भारतीय और भारतीय जन संचार माध्यम यह कहते नहीं अघाते कि भारत में जनतंत्र की जड़ें बहुत गहरी हैं. क्या इस देश की दुर्दशा इससे भी अधिक होना संभव रह गया है? फिर भी हम सुधारवादी दृष्टिकोण अपनाने से कतरा रहे हैं.