समाज के अग्रणियों का षड्यंत्र लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
समाज के अग्रणियों का षड्यंत्र लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

शुक्रवार, 29 जनवरी 2010

धर्म और भक्ति का नशा

भारतवासियों को सर्वाधिक दुष्प्रभावित किया है भक्तिभाव ने और दुष्टों ने इसका सतत लाभ उठाया है उनकी कमाई पर वैभव-भोग के लिए. ईश्वर और उसकी भक्ति से लोग इतने अधिक आतंकित रहे हैं कि दुष्टों ने अपने सिरों पर ईश्वरीय और अन्य दिव्य ताज रख-रख कर उनकी बुद्धि को विकसित होने से पूरी तरह प्रतिबाधित किया हुआ है. इसी कारण से इस देश पर लगभग २००० वर्षों तक चोर, डकैत और लुटेरे शासन करते रहे और उनके विरुद्ध किसी ने सर नहीं उठाया. स्वतन्त्रता के बाद भी लगभग इन्ही वर्गों के भारतीयों ने राजनैतिक सत्ता पर अपने अधिकार किया हुआ है और लोग सब सहन कर रहे हैं - उनके मस्तिष से भक्ति-भाव का नशा उतरता ही नहीं. शासक चाहे कुछ भी करते रहें, वे सब सहन करते जाते हैं.

भक्ति का यह नशा बच्चे को अपने माता-पिता के संस्कारों से जन्म से पहले ही प्राप्त होने लगता है और जन्म लेने पर समाज के प्रत्येक स्तम्भ से और जीवन के प्रत्येक मोड़ पर इसी नशे को परिपक्व किया जाता रहता है. उसे स्वतंत्र रूप से चिंतन कर अपना मार्ग चुनने का कोई अवसर दिया ही नहीं जाता.

पुनर्जागरण से पूर्व यूरोपे की भी कुछ ऐसी ही स्थिति थी जहाँ प्रत्येक बुद्धि-विसंगत बात को verbum dei अर्थात ईश्वरीय शब्द बताकर बुद्धि को अवरोधित कर दिया जाता था. इस पर भी कुछ साहसी चिंतकों ने नए सिरे से सोचने की परम्परा विकास्ल्ट करते हुए अनेक वैज्ञानिक शोध किये और इस प्रकार मानव जाति को वैज्ञानिक पथ पर अग्रसरित किया. विगत ३०० वर्षों के इन वैज्ञानिक प्रयासों का भारतीयों ने लाभ तो उठाया है किन्तु कभी भी इस प्रकार के चिंतन को नहीं अपनाया. इस कारण से भारत में वैज्ञानिक शोध और विकास कार्य नगण्य ही हुए हैं. और जो भी हुए हैं, वे भारत भूमि एवं इसकी परम्पराओं पर आधारित न होकर बाहरी प्रेरणाओं से हुए हैं.

भारतीयों के मस्तिष्कों पर भक्तिभाव का यह दुश्चक्र्व्यूह इतना अधिक हावी हो गया है कि वे प्रत्येक नव-चिंतन प्रयास को अपने दूषित भावात्मक कुठाराघातों से शैशव अवस्था में ही कुंठित कर देते हैं. इस प्रकार ये भक-भावी स्वयं तो लोई चिंतन करते ही नहीं, किसी अन्य को भी करने से प्रतिबंधित करते रहते हैं. सतत रूप में कुटिल लोगों और से पोषण पाता हुआ यह चक्रव्यूह इतना अधिक सशक्त हो गया है कि यहाँ किसी नवाचार के लिए कोई स्थान शेष नहीं रह गया है. इस चक्रव्यूह से ही पोषण पा रहे हैं शासकों, प्रशासकों और समाज के तथाकथित पथप्रदर्शकों के दुष्कर्म जो बेरोकटोक किये जा रहे हैं.


इस दुश्चक्र के माध्यम से देश के परिश्रमी एवं भोले-भाले लोगों का खून चूंसा जा रहा है. उन्हें स्वास्थ, शिक्षा और न्याय से वंचित रखा जा रहा है, देश की इस ६० प्रतिशत से अधिक जनसँख्या के खून-पसीने की कमाई पर देश के शासन-प्रशासन से जुडी केवल १५ प्रतिशत जनसँख्या वैभव भोग रही है. शेष २५ प्रतिशत जनसँख्या समाज की पथ-प्रदर्शक बनकर उसका सर प्रत्येक ईंट-पत्थर के समक्ष झुकवाते हुए, उसको धर्म, जाति और सम्प्रदायों के नाम पर विभाजित करते हुए, उसको सहिष्णुता का पाठ पढ़ाते हुए, उसको नित्यप्रति मृत्यु, भाग्य, ईश्वर आदि के भय से आतंकित करते हुए उसका मनोवैज्ञानिक पतन करने में लगी हुई है ताकि समाज का कोई अंग सर उठाने योग्य ही नहीं रहे. इस प्रकार ये समाज के तथाकथित अग्रणी भी शासन तंत्र के साथ सांठ-गाँठ कर दूषित शासन तंत्र का पोषण एवं जनता का शोषण कर रहे है.  

आज देश के जनसाधारण की स्थिति १९३८ के फ़्रांस के जनसाधारण से कहीं अधिक बदतर है, जब वहां रक्त-रंजित जनक्रांति हुई थी और शासन तंत्र में व्यापक परिवर्तन किये गए थे. किन्तु भारत में ऐसी कोई संभावना उदित नहीं हुई है.