भारत लम्बे समय तक अंग्रेजों के अधीन रहा और उनके शासन का मुख्य उद्येश्य आर्थिक शोषण था जिससे कि ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था सुद्रढ़ रहे और वह विश्व पर अपना शासन रख सके. भारत पर शासन से ब्रिटेन को विश्व स्तर पर किसी राजनैतिक लाभ की आशा नहीं थी, सिवाय इसके कि भारत का विशाल क्षेत्र भी उसके शासन में कहा जाए. इस शोषण के कारण भारत में पर्याप्त संसाधन होते हुए भी आर्थिक विपन्नता व्याप्त थी.
भारत तब से अब तक गाँवों का देश रहा है इसलिए आर्थिक शोषण में गाँवों का शोषण भी अनिवार्य रहा. गाँवों की आर्थिक व्यवस्था का मुख्य आधार कृषि था जो आज भी है. इसलिए ब्रिटिश शोषण का सर्वाधिक दुष्प्रभाव भारत के कृषकों पर पड़ता था जिसके लिए जमींदारी व्यवस्था को एक माध्यम के रूप में स्थापित किया गया. इस व्यवस्था का मुख्य लक्ष्य जमींदारों द्वारा कृषकों की भूमि हड़पना रहा जिसके लिए जमींदार अधिकृत थे और इसके लिए वे ब्रिटिश सरकार को धन प्रदान करते थे. यद्यपि जमींदार कृषकों से भी भूमिकर वसूल कर ब्रिटिश सरकार को प्रदान करते थे किन्तु ब्रिटिश आय में इसका अंश अल्प था. इस प्रक्रिया में जमींदार और अधिक धनवान और बड़े भूस्वामी बनते गए और कृषक निर्धन और भूमिहीन.
उक्त जमींदारी व्यवस्था के सञ्चालन में लोगों में पुलिस का आतंक भी सम्मिलित था जिससे कि लोग उक्त आर्थिक शोषण के विरुद्ध अपना स्वर बुलंद करने योग्य ही न रहें. इसके लिए पुलिस को निरंकुश शक्तियां प्रदान की गयीं जिनका उपयोग जमींदारों के पक्ष में किया जाता था. इसी प्रकार न्याय व्यवस्था भी जन साधारण के आर्थिक शोषण हेतु ही नियोजित थी. अपनी दमनात्मक शक्तियों के कारण उस समय पुलिस और न्याय व्यवस्था ही जन साधारण के विरुद्ध ब्रिटिश प्रशासन के प्रमुख शस्त्र थे. इस कारण से सभी क़ानून केवल शोषण-परक बनाये गए थे.
१९४७ में भारत द्वारा स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय स्वतन्त्रता की मांग करने वालों के पास अपनी शासन व्यवस्था स्थापित करने हेतु कोई रूपरेखा उपलब्ध नहीं थी. इसलिए शीघ्रता में एक संविधान रचा गया जो प्रमुखतः शोषण-परक ब्रिटिश शासन तंत्र पर आधारित रखा गया. यही संविधान आज तक भारत पर लागू है जो पूरी तरह दमनात्मक और शोशंपरक है. अंतर केवल इतना है कि उस समय दमन और शोषण ब्रिटेन के लिए जाते थे जबकि आज उसी प्रकार के दमन और शोषण भारतीय शासकों और प्रशासकों के हित में किये जा रहे हैं.
यद्यपि जन साधारण को प्रसन्न करने के लिए जमींदारी व्यवस्था समाप्त कर दी गयी किन्तु तत्कालीन जमींदार परिवारों को भारत की शासन व्यवस्था में महत्वपूर्ण भागीदारी दे दी गयी ताकि वे अपना शोषण पूर्ववत जारी रख सकें. इस प्रकार भारत की स्वतन्त्रता केवल उक्त जमींदार एवं अन्य शासक परिवारों तक सीमित रही, जन साधारण को इसका कोई सीधा लाभ नहीं मिल पाया. आज भी न्यायालयों और पुलिस को ब्रिटिश काल की निरंकुश शक्तियां प्राप्त हैं जिसका वे पूरी तरह उपयोग कर रहे हैं.
अभी विगत सप्ताह ही मेरे क्षेत्र के उप जिला मजिस्ट्रेट ने मुझे बिना किसी पर्याप्त कारण मेरे विरुद्ध धार्मिक कट्टरपंथी होने का आरोप लगाते हुए अपने न्यायालय में एक वाद स्थापित कर दिया जबकि मैं लिखित साक्ष्यों के अनुसार एक धर्म-निरपेक्ष नास्तिक हूँ. इसके अंतर्गत मुझसे कहा गया कि मैं कारागार से बचने के लिए एक बंधक पत्र पर हस्ताक्षर कर अपना दोष स्वीकार करूं, जबकि कोई क़ानून मुझे इसके लिए बाध्य नहीं करता है किन्तु उक्त मजिस्ट्रेट की निरंकुश शक्तियां मुझे बाध्य करने हेतु पर्याप्त हैं.
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सोमवार, 27 सितंबर 2010
मंगलवार, 14 सितंबर 2010
भारतीय समाज में जातीय विष का हल
एक प्रचलित कथावत है -
'ज्यों केले के पात पात में पात, त्यों हिन्दुओं की जात जात में जात'.
जो भारतीय समाज के यथार्थ को प्रदर्शित करती है. विश्व के किसी अन्य देश में संभवतः ऐसा नहीं है जहां जीवन और समाज के प्रत्येक क्षेत्र में व्यक्ति की जाति का इतना अधिक महत्व हो. अधिकाँश देशों में इस प्रकार के जातीय विष का अन्तर्जातीय विवाहों द्वारा शमन किया गया है. भारत में भी पश्चिमी बंगाल में अब कुछ ऐसा होने लगा है जिसे समाज की भी सहज स्वीकृति प्राप्त हो जाती है. अन्य क्षेत्रों में युवा प्रेमी छिपकर अन्तर्जातीय विवाह कर रहे हैं किन्तु समाज उन्हें सामान्यतः मान्यता नहीं देता है.
जातीयता भारतीय जीवन के प्रत्येक अंग को प्रदूषित कर रही है, यहाँ तक कि जनतांत्रिक चुनावों में मतदाता जातीय आधार पर ही सरकार का चुनाव कर रहे हैं, जिसे सभी राजनैतिक दल भी पुष्ट कर रहे हैं. अतः सरकारें सार्वजनिक हितों की अवहेलना कर जातीय हितों के लिए कार्य कर रही हैं.
भारत में जातीय भेद का मुख्य कारण यह है कि यहाँ अनेक प्रकार की जीवनशैलियों वाली जातियां आकर बसती रही हैं, जिनमें से अधिकाँश असभ्य थीं और यहाँ सांस्कृतिक प्रदूषण हेतु ही लाई गयी थीं. महिलाओं के अपहरण और उनके साथ दुराचार इनके प्रमुख व्यसन थे. स्थानीय लोगों को अपने सम्मान और संपदा के सुरक्षा के लिए उनसे दूर रहना आवश्यक था. इसी कारण से भारत में स्त्रियों के लिए परदे में रहना आवश्यक समझा गया जो प्रचलन अनेक क्षेत्रों में आज भी है.
बौद्धिक जनतंत्र जातीय भेद को मान्यता नहीं देता किन्तु इसके लिए यह अतीव आवश्यक है कि समाज में कठोर अनुशासन की स्थापना हो, विशेषकर भारतीय समाज में जहां आज भी अनेक जातियां अपने जंगली व्यवहार का परित्याग नहीं कर रही हैं. स्त्रियों और निस्सहाय लोगों के प्रति अपराध इन्ही जातियों के जंगली व्यवहार के कारण हो रहे हैं.
समाज को अनुशासित करने के लिए दो आवश्यक वान्छाएं हैं - न्याय व्यवस्था सुचारू हो तथा दंड विधान कठोर हो. जबकि आज के भारत की वास्तविकता यह है कि न्याय व्यवस्था पूरे तरह निष्फल है और दंड व्यवस्था अति लचर है. बौद्धिक जनतंत्र में न्याय व्यवस्था को सुचारू रखना स्वास्थ और शिक्षा के समान प्राथमिकता दी गयी है. दंड व्यवस्था को कठोर बनने के लिए मृत्यु दंड आवश्यक माना गया है जब कि विश्व भर की जंगली जातियां मृत्यु दंड का विरोध कर रही हैं.
बौद्धिक जनतंत्र दो प्रकार के अपराधों के लिए मृत्यु दंड अनिवार्य मानता है - राष्ट्रद्रोह तथा स्त्रियों के प्रति दुराचार. इसके साथ ही राजकीय पद का दुरूपयोग करते हुए भृष्ट आचरण राष्ट्रद्रोह माना गया है. स्त्री समाज के सम्मान की प्रतीक ही नहीं होती यह समाज की निर्माता भी होती है.
उक्त प्रावधानों से भारतीय समाज शीघ्र ही अनुशासित हो जाएगा, तब ही यहाँ जाति मुक्त विवाह का प्रचलन लाभकर सिद्ध हो सकता है, जो समाज के जातीय भेद को मिटाने का एकमात्र उपाय है. भारतीय समाज की वर्तमान अवस्था में अन्तर्जातीय विवाह सामान्यतः अनुमत नहीं किया जा सकता जिसके लिए समाज की शैक्षिक स्थिति स्वस्थ होनी चाहिए, जबकि आज के भारत में लगभग ७० प्रतिशत लोग अशिक्षित अथवा अर्ध-शिक्षित हैं जिनमें सामाजिक अनुशासन हेतु परिपक्वता भी विद्यमान नहीं है.
'ज्यों केले के पात पात में पात, त्यों हिन्दुओं की जात जात में जात'.
जो भारतीय समाज के यथार्थ को प्रदर्शित करती है. विश्व के किसी अन्य देश में संभवतः ऐसा नहीं है जहां जीवन और समाज के प्रत्येक क्षेत्र में व्यक्ति की जाति का इतना अधिक महत्व हो. अधिकाँश देशों में इस प्रकार के जातीय विष का अन्तर्जातीय विवाहों द्वारा शमन किया गया है. भारत में भी पश्चिमी बंगाल में अब कुछ ऐसा होने लगा है जिसे समाज की भी सहज स्वीकृति प्राप्त हो जाती है. अन्य क्षेत्रों में युवा प्रेमी छिपकर अन्तर्जातीय विवाह कर रहे हैं किन्तु समाज उन्हें सामान्यतः मान्यता नहीं देता है.
जातीयता भारतीय जीवन के प्रत्येक अंग को प्रदूषित कर रही है, यहाँ तक कि जनतांत्रिक चुनावों में मतदाता जातीय आधार पर ही सरकार का चुनाव कर रहे हैं, जिसे सभी राजनैतिक दल भी पुष्ट कर रहे हैं. अतः सरकारें सार्वजनिक हितों की अवहेलना कर जातीय हितों के लिए कार्य कर रही हैं.
भारत में जातीय भेद का मुख्य कारण यह है कि यहाँ अनेक प्रकार की जीवनशैलियों वाली जातियां आकर बसती रही हैं, जिनमें से अधिकाँश असभ्य थीं और यहाँ सांस्कृतिक प्रदूषण हेतु ही लाई गयी थीं. महिलाओं के अपहरण और उनके साथ दुराचार इनके प्रमुख व्यसन थे. स्थानीय लोगों को अपने सम्मान और संपदा के सुरक्षा के लिए उनसे दूर रहना आवश्यक था. इसी कारण से भारत में स्त्रियों के लिए परदे में रहना आवश्यक समझा गया जो प्रचलन अनेक क्षेत्रों में आज भी है.
बौद्धिक जनतंत्र जातीय भेद को मान्यता नहीं देता किन्तु इसके लिए यह अतीव आवश्यक है कि समाज में कठोर अनुशासन की स्थापना हो, विशेषकर भारतीय समाज में जहां आज भी अनेक जातियां अपने जंगली व्यवहार का परित्याग नहीं कर रही हैं. स्त्रियों और निस्सहाय लोगों के प्रति अपराध इन्ही जातियों के जंगली व्यवहार के कारण हो रहे हैं.
समाज को अनुशासित करने के लिए दो आवश्यक वान्छाएं हैं - न्याय व्यवस्था सुचारू हो तथा दंड विधान कठोर हो. जबकि आज के भारत की वास्तविकता यह है कि न्याय व्यवस्था पूरे तरह निष्फल है और दंड व्यवस्था अति लचर है. बौद्धिक जनतंत्र में न्याय व्यवस्था को सुचारू रखना स्वास्थ और शिक्षा के समान प्राथमिकता दी गयी है. दंड व्यवस्था को कठोर बनने के लिए मृत्यु दंड आवश्यक माना गया है जब कि विश्व भर की जंगली जातियां मृत्यु दंड का विरोध कर रही हैं.
बौद्धिक जनतंत्र दो प्रकार के अपराधों के लिए मृत्यु दंड अनिवार्य मानता है - राष्ट्रद्रोह तथा स्त्रियों के प्रति दुराचार. इसके साथ ही राजकीय पद का दुरूपयोग करते हुए भृष्ट आचरण राष्ट्रद्रोह माना गया है. स्त्री समाज के सम्मान की प्रतीक ही नहीं होती यह समाज की निर्माता भी होती है.
उक्त प्रावधानों से भारतीय समाज शीघ्र ही अनुशासित हो जाएगा, तब ही यहाँ जाति मुक्त विवाह का प्रचलन लाभकर सिद्ध हो सकता है, जो समाज के जातीय भेद को मिटाने का एकमात्र उपाय है. भारतीय समाज की वर्तमान अवस्था में अन्तर्जातीय विवाह सामान्यतः अनुमत नहीं किया जा सकता जिसके लिए समाज की शैक्षिक स्थिति स्वस्थ होनी चाहिए, जबकि आज के भारत में लगभग ७० प्रतिशत लोग अशिक्षित अथवा अर्ध-शिक्षित हैं जिनमें सामाजिक अनुशासन हेतु परिपक्वता भी विद्यमान नहीं है.
लेबल:
अनुशासन,
अन्तर्जातीय,
जातीयता,
न्याय व्यवस्था,
भारतीय समाज
रविवार, 13 जून 2010
बौद्धिक जनतंत्र में तुरंत क्या किया जायेगा
बौद्धिक जनतंत्र संपूर्ण रूप में एक नवीन व्यवस्था है जिसमें शोषण के लिए कोई स्थान नहीं है. अतः अनेक शक्तिशाली लोग इसका विरोध भी करेंगे जिसके कारण संपूर्ण व्यवस्था को कारगर बनाने में कुछ समय लगेगा. दूसरे इसके लिए संविधान की नए सिरे से रचना की जायेगी जिसके लिए भी समय की अपेक्षा है. तथापि सुधरी व्यवस्था के अवसर प्राप्त होते ही जो कदम तुरंत उठाये जायेंगे वे निम्नांकित हैं -
- देश की न्याय व्यवस्था के प्रत्येक कर्मी को उस समय तक ८ घंटे प्रतिदिन एवं ७ दिन प्रति सप्ताह कार्य करना होगा जब तक कि ऐसी स्थिति न आ जाये कि वाद की स्थापना के तीन माह के अन्दर ही उसका निस्तारण न होने लगे. प्रत्येक न्यायालय को प्रतिदिन न्यूनतम एक दावे पर अपना निर्णय देना होगा.
- केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो को सर्वोच्च न्यायालय के अधीन कर वर्तमान राजनेताओं के कार्यकलापों के अन्वेषण कार्य पर लगाया जाएगा जिनके दोषी पाए जाने पर उनकी सभी सम्पदाएँ राज्य संपदा घोषित कर दी जायेंगी.
- राजकीय पद के दुरूपयोग को राष्ट्रद्रोह घोषित किया जायेगा जिसके लिए त्वरित न्याय व्यवस्था द्वारा मृत्यु दंड दिए जाने का प्रावधान किया जाएगा जिससे भृष्टाचार पर तुरंत रोक लग सके.
- देश में अनेक राजकीय श्रम केंद्र खोले जायेंगे जहाँ उत्पादन कार्य होंगे. ये केंद्र कारागारों का स्थान लेंगे. वर्तमान कारागारों में सभी बंदियों पर एक आयोग द्वारा विचार किया जाएगा, जिनमें से निर्दोषों को मुक्त करते हुए शेष को श्रम केन्द्रों पर अवैतनिक श्रम हेतु नियुक्त कर दिया जाएगा.
- देश में सभी प्रकार नशीले द्रव्यों के उत्पादन एवं वितरण पर तुरंत रोक लगा दी जायेगी जिसके उल्लंघन पर मृत्युदंड का प्रावधान होगा.
- सभी शहरी विकास कार्यों पर तुरंत रोक लगाते हुए उनकी केवल देखरेख की जायेगी. इसके स्थान पर ग्रामीण विकास पर बल दिया जाएगा और वहां सभी आधुनिक सुविधाएँ विकसित की जायेंगी.
- कृषि उत्पादों के मूल्य उनकी सकल लागत के अनुसार निर्धारित कर कृषि क्षेत्र को स्वयं-समर्थ लाभकर व्यवसाय बनाया जायेगा जिससे कि भारतीय अर्थ व्यवस्था की यह मेरु सुदृढ़ हो. इससे खाद्यान्नों के मूल्यों में वृद्धि होगी, जिसको ध्यान में रखते हुए न्यूनतम मजदूरी निर्धारित की जायेगी.
- विकलांगों और वृद्धों के अतिरिक्त शेष जनसँख्या के लिए चलाई जा रही सभी समाज कल्याण योजनायें बंद कर दी जायेंगी और इससे बचे धन के उपयोग से ग्रामीण क्षेत्रों में खाद्य प्रसाधन और कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहित किया जायेगा ताकि छोटे कृषकों को दूसरी आय के साधन प्राप्त हों और उन्हें अपनी कृषि भूमि विक्रय की विवशता न हो और भूमिहीनों को घर बैठे ही रोजगार उपलब्ध हों.
- ६५ वर्ष से अधिक आयु के सभी वृद्धों को सम्मानजनक जीवनयापन हेतु पेंशन दी जायेगी, तथा राजकीय सेवा निवृत कर्मियों की सभी पेंशन बंद कर दी जायेंगी. साथ ही सेना और पुलिस के अतिरिक्त राजकीय सेवा से निवृत्ति की आयु ६५ वर्ष कर दी जायेगी.
- पुलिस और सेना के प्रत्येक कर्मी की कठोर कर्मों हेतु शारीरिक शौष्ठव का प्रति वर्ष परीक्षण अनिवार्य होगा जिसमें अयोग्य होने पर उन्हें सेवा निवृत कर दिया जायेगा.
- प्रांतीय विधान सभा सदस्यों के वेतन ५,००० रुपये प्रतिमाह, प्रांतीय मंत्रियों, राज्यपालों एवं संसद सदस्यों के वेतन ६,००० रुपये प्रतिमाह, केन्द्रीय मंत्रियों के वेतन ७,००० रुपये प्रतिमाह, तथा राष्ट्राध्यक्ष का वेतन ८,००० रुपये प्रतिमाह पर ५ वर्ष के लिए सीमित कर दिए जायेंगे. इसके अतिरिक्त इनके राजकीय कर्तव्यों पर वास्तविक व्ययों का भुगतान किया जाएगा अथवा निःशुल्क सुविधाएं दी जायेंगी.
- राज्य कर्मियों के न्यूनतम एवं अधिकतम सकल वेतन ७,००० से १०,००० के मध्य कर दिए जायेंगे. इसके अतिरिक्त उन्हें कोई भत्ते देय नहीं होंगे. राज्य कर्मियों के लिए सभी आवासीय कॉलोनियां नीलाम कर दी जायेंगी और उन्हें निजी व्यवस्थाओं द्वारा जनसाधारण के मध्य रहना होगा. साथ ही कार्यालयों में चतुर्थ श्रेणी के सभी पद समाप्त होंगे.
- राजनैतिक दलों को प्राप्त मान्यताएं और अन्य सुविधाएं समाप्त कर दी जायेंगी, तथापि वे स्वयं के स्तर पर संगठित रह सकते हैं.
- देश में सभी प्रकार की आरक्षण व्यवस्थाएं समाप्त कर दी जायेंगी.
- निजी क्षेत्र की सभी शिक्षण संस्थाएं बंद कर दी जायेंगी तथा राज्य संचालित सभी संस्थानों में सभी को निःशुल्क शिक्षा प्रदान की जायेगी. आवश्यकता होने पर नए संस्थान खोले जायेंगे.
- सेना देश की रक्षा के अतिरिक्त सार्वजनिक संपदाओं, जैसे वन, भूमि, जलस्रोत आदि के संरक्षण का दायित्व सौंपा जाएगा जिससे उस पर किये जा रहे भारी व्यय का सदुपयोग हो सके. इसके अंतर्गत सार्वजनिक संपदाओं पर व्यक्तिगत अधिकार के लिए सैन्य न्यायालयों में कार्यवाही की जा सकेगी.
- सभी धर्म, सार्वजनिक धार्मिक अनुष्ठानों एवं संस्थानों पर पूर्ण रोक लगा दी जायेगी और धर्म स्थलों को शिक्षा संस्थानों में परिवर्तित कर दिया जायेगा. सार्वजनिक स्तर पर प्रत्येक मनुष्य को केवल मनुष्य बन कर रहना होगा.
शनिवार, 23 जनवरी 2010
बौद्धिक जनतंत्र की प्राथमिकता तीन - न्याय
बौद्धिक जनतंत्र की तीसरी प्राथमिकता सभी को निःशुल्क त्वरित न्यायप्रदान करना है जो स्वस्थ एवं शिक्षित नागरिकों के सुखी जीवन के लिए अनिवार्य है. स्वतंत्र भारत के के ६० वर्षों से अधिक की अवधि में न्याय उपलब्धि अधिक से अधिक दुर्लभ होती जा रही है, जो शासन के लिए शर्मनाक है.
न्याय की त्वरित उपलब्धि न्याय प्रक्रिया का अभिन्न अंग है. अतः बौद्धिक जनतंत्र में प्रत्येक न्यायालय के लिए प्रत्येक विवाद में तीन माह की अवधि में न्याय प्रदान करना अनिवार्य किया गया है जिसका उत्तरदायित्व सम्बद्ध न्यायाधीश का निर्धारित किया गया है. ऐसा न होने पर न्यायाधीश को इस सेवा के अयोग्य ठहराकर पद मुक्त किये जाने का प्रावधान है.
यदि देश अथवा समाज में अन्याय न हो तो किसी भी नागरिक को न्याय की आवश्यकता नहीं होगी, और देश अथवा समाज की व्यवस्था का दायित्व शासन का होता है. अतः अन्यायों को रोकना शासन का दायित्व है. यदि शासन इसमें असफल रहता है तो ही नागरिकों को न्याय माँगने की आवश्यकता होती है. नागरिकों को न्याय प्रदान करने के लिए उनसे किसी शूल की मांग किया जाना स्वयं एक अन्याय है. अतः बौद्धिक जनतंत्र में निःशुल्क न्याय प्रदान करना शासन का निर्धारित दायित्व है क्योंकि न्याय की आवश्यकता शासन दोष से ही व्युत्पन्न होती है.
न्याय का अर्थ होता है दंड व्यवस्था, जिस के लिए बौद्धिक जनतंत्र में कुछ विशिष्ट प्रावधान हैं -
न्याय की त्वरित उपलब्धि न्याय प्रक्रिया का अभिन्न अंग है. अतः बौद्धिक जनतंत्र में प्रत्येक न्यायालय के लिए प्रत्येक विवाद में तीन माह की अवधि में न्याय प्रदान करना अनिवार्य किया गया है जिसका उत्तरदायित्व सम्बद्ध न्यायाधीश का निर्धारित किया गया है. ऐसा न होने पर न्यायाधीश को इस सेवा के अयोग्य ठहराकर पद मुक्त किये जाने का प्रावधान है.
यदि देश अथवा समाज में अन्याय न हो तो किसी भी नागरिक को न्याय की आवश्यकता नहीं होगी, और देश अथवा समाज की व्यवस्था का दायित्व शासन का होता है. अतः अन्यायों को रोकना शासन का दायित्व है. यदि शासन इसमें असफल रहता है तो ही नागरिकों को न्याय माँगने की आवश्यकता होती है. नागरिकों को न्याय प्रदान करने के लिए उनसे किसी शूल की मांग किया जाना स्वयं एक अन्याय है. अतः बौद्धिक जनतंत्र में निःशुल्क न्याय प्रदान करना शासन का निर्धारित दायित्व है क्योंकि न्याय की आवश्यकता शासन दोष से ही व्युत्पन्न होती है.
न्याय का अर्थ होता है दंड व्यवस्था, जिस के लिए बौद्धिक जनतंत्र में कुछ विशिष्ट प्रावधान हैं -
- प्रकृति कारण-प्रभाव सिद्धांत पर कार्य करती है जिसमें प्रत्येक कारण का प्रभाव अवश्य होता है, अर्थात कोई भी कारण प्रभावहीन अथवा क्षम्य नहीं होता. बौद्धिक जनतंत्र की न्याय व्यवस्था भी इसी सिद्धांत पर कार्य करती है, तदनुसार कोई भी अपराध क्षम्य नहीं होगा.
- अपराधी को दंड उसके द्वारा किये गए अपराध के अनुसार न दिया जाकर समाज में उसके दायित्व और अधिकार के अनुरूप निर्धारित है. यथा यदि कोई निम्न वर्गीय राज्यकर्मी रिश्वत लेता है तो उसे अल्प दंड दिया जायेगा किन्तु यदि ऐसा ही अपराध कोई उच्च पदासीन व्यक्ति करता है तो उसे इसके लिए अत्यधिक कठोर दंड दिया जायेगा.
- न्यायाधीश समाज के विशिष्ट बुद्धिसम्पन्न एवं अधिकृत व्यक्ति होते हैं अतः उनका दायित्व भी सर्वाधिक होता है. अतः उनसे सर्वाधिक अपेक्षाएं की जाती हैं. यदि किसी न्यायाधीश का न्यायादेश उच्चतर न्यायाधीश द्वारा निरस्त अथवा उलटा जाता है तो यह पूर्व न्यायाधीश की अक्षमता मानी जायेगी और उसे न्याय करने के अयोग्य घोषित किया जाकर पदमुक्त किया जायेगा. साथ ही उच्चतर न्यायाधीश को पूर्वादेश को निरस्त किये जाने के विस्तृत कारण देने होंगे.
- न्यायालयों के न्याय-आदेशों पर समाज अथवा जन-माध्यम में खुली चर्चा की जा सकेगी ताकि समाज उनकी कार्य कुशलता की परख करता रहे तथा वे स्वयं भी सजग रहें. इसके साथ ही न्यायाधीशों के कोई विशेषाधिकार नहीं होंगे और उन्हें अपने प्रत्येक आदेश का अधर सिद्ध करना होगा.
- बौद्धिक जनतंत्र मृत्युदंड का पक्षधर है और इसे अपराध रोकने के लिए आवश्यक मानता है.
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