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सोमवार, 18 जनवरी 2010

वर्ण व्यवस्था के बारे में आशंकाएं और उत्तर

इस संलेख के सम्मानित पाठकों ने अंतिम आलेख 'वर्ण व्यवस्था की सच्चाई' पर कुछ संशयात्मक टिप्पणीयाँ की हैं जिनके विस्तृत उत्तर देना आवश्यक है ताकि भारत की ऐतिहासिक सच्चाईयों का निरूपण सरल, सहज और कारगर हो सके. यह टिप्पणी इस प्रकार है -  

"आपने बात-बात पर लैटिन, हिब्रू शब्दों का प्रयोग करके इतिहास को अपने हिसाब से समझने/समझाने की वैसी ही कोशिश की है जैसा अंग्रेजों ने 'आर्य' शब्द का निकालकर भारत के इतिहास को कलुषित करने के लिये किया था (जो अब पूर्णत: झूठ साबित हो चुका है)

"मेरे मन में भी कुछ प्रश्न हैं जो आप द्वारा उठाये गये प्रश्नों से कम महत्वपूर्ण नहीं हैं-

१) क्या वर्ण-व्यवस्था अपने 'पूर्ण रूप' में कभी लागू हो पायी थी?

२) वर्ण व्य्वस्था किसी आधुनिक नियम की भाँति किसी एक दिन लागू कर दी गयी या यह कई शताब्दियों तक धीरे-धीरे और बहुत ही धुंधले रूप में प्रकट हुई?

३) यदि यह किसी धर्माचार्य या राजा द्वारा प्रचलित की गयी तो किसको ब्राह्मण, किसको क्षत्रिय आदि माना गया? क्या ऐसा करना व्यावहारिक लगता है?

४) यदि यह शनै:-शनै: क्रमिक विकास (इवोलूशन) जैसा हुआ तो लोगों को इसमें आपत्ति क्या है? यह तो प्राकृतिक है।"

मेरे स्पष्टीकरण :
भाषा प्रसंग
भारत की सभी भाषाएँ यूरोपीय भाषा परिवार की सदस्य हैं और इस परिवार की सभी बाषाओं के उद्भव परस्पर सम्बंधित हैं जैसा कि अन्य भाषा परिवारों में है. इस प्रकार लैटिन, ग्रीक, हेब्रू आदि भाषाएँ हमारी प्राचीन भाषाओं को समझाने में सहायक हैं. इसके अतिरिक्त ये भाषाएँ विश्व की प्राचीनतम विकसित भाषाएँ हैं जिनसे इस परिवार की सभी भाषाएँ विकसित हुई हैं. इनका आश्रय लेना हमारे लिए इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि हमारे वेदों और शास्त्रों की भाषा आधुनिक संस्कृत से एकदम भिन्न है और उस भाषा के बारे में हमेंबहुत अधिक ज्ञान नहीं है. वेदों और शास्त्रों के अब तक प्रचलित सभी अनुवाद आधुनिक संस्कृत के आधारित हैं और वे हमें इतिहास का कुछ ज्ञान कारन के स्थान पर भ्रम और संशयों को जन्म देते रहे हैं. इस कारण से सभी अनुवादों में भी परस्पर भारी भिन्नता पाई जाती है.

श्री अरविन्द द्वारा रचित पुस्तक के हिंदी अनुवाद 'वेद रहस्य' को पढ़ने से मुझे ज्ञात हुआ कि वेदों और शास्त्रों में उपयुक्त शब्दावली लैटिन और ग्रीक शब्दावली से बहुत अधिक मेल खाती है. इससे मेरा निष्कर्ष यह है कि इन ग्रंथों की शब्दावली लैटिन, ग्रीक आदि की देवानागारीकृत शब्दावली ही है  इसकी पुष्टि तब हुई जब मैंने अनेक अंशों के अनुवाद इस शब्दावली के आधार पर किये.

विदेशी भाषाओं के आश्रय का तीसरा कारण यह है कि भारत पर अनेक आक्रमण हुए है, अनेक जातियां यहाँ आकर बसी हैं, और इस देश को लम्बे समय तक गुलाम बनाकर रखा गया है. इन कारणों से यहाँ की संस्कृति, ग्रंथों के अनुवाद्फ़ आदि अशुद्ध किये जाने की संभावना बहुत अधिक है, जो वेदों, शास्त्रों के हिंदी अनुवादों से स्पष्ट भी है.

इन सभी कारणों से प्राचीन ग्रंथों के नए सिरे से अनुवाद करने की अतीव आवश्यकता है यदि हम अपना वास्तविक इतिहास जानना चाहें. इस संलेख के माध्यम से भारत के वास्तविक इतिहास को जानने का प्रयास किया जा रहा है. यह एक विशाल और जटिल कार्य है, संदेह और संशय होने स्वाभाविक हैं, औउर वास्तविक के उजागर होने के लिए धैर्य की अतीव आवश्यकता है.   

आर्य विवाद
इस बहु-चर्चित विवाद के बारे में मैं अभी यही कहूँगा कि इसकी सच्चाई अभी सामने आयी ही नहीं है जो इस संलेख में प्रसंग आने पर स्पष्ट रूप से दर्शाई जायेगी. अभी इस बारे में कुछ कहना अप्रासंगिक होगा और विषय-वस्तु को क्रमानुसार आगे बढाने में बाधक होगा.

वर्ण व्यवस्था
वर्ण व्यवस्था का प्रथम उल्लेख मनुस्मृति में है जो मूलतः मानव जाति के समाजीकरण और समाज में कार्य विभाजन का मार्गदर्शक है. चाणक्य महोदय ने इसी व्यवस्ठ को संक्षेप में एक सूत्र के रूप में प्रस्तुत किया. कोई भी सामाजिक सिद्धांत पूर्ण रूप से लागू होने में समय लगता है. भारत चूंकि अधिकाँश समय गुलाम रहा इसलिए यह संभव है कि यह पूरी तरह कभी लागू हुआ ही न हो. शासक वर्ग में समाज को सदैव अपने हित में ही गठित करता रहा है और भारत भी इसका अपवाद नहीं रहा है. इसलिए भारत के समाज में अत्यधिक विकृतियाँ समाहित होती चली गयीं जिन सबका दायित्व वर्ण व्यवस्था पर थोपा जाता रहा.
वर्ण व्यवस्था का केवल सूत्रीकरण ही किया गया जो एक बार ही हुआ किन्तु यह कभी पूरी तरह लागू न किया जाकर इसके स्थान पर सामजिक विकृतियाँ ही पनपायी गयीं जिनमें से अनेक आज तक प्रचलित हैं.

ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि
जैसा कि पहले स्पष्ट किया जा चुका है, ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश्वर तीन भाइयों ने भारत निर्माण कार्य आरम्भ किया और इसके लिए अपने-अपने कार्य क्षेत्र क्रमशः सृजन, अर्थ व्यवस्था, तथा रक्षा क्रमशः निर्धारित किये. इन्हीं तीनों के अनुयायी कृमशः ब्राह्मण, वैश्य और क्षत्रिय कहलाये. यदि यह कार्य विभाजन स्वेच्छा से लागू किया जाता रहता तो इसमें कोई दोष नहीं था, किन्तु स्वार्थी तत्वों ने इसे स्वेच्छाधारित न रखकर इसे जन्म आधारित बना दिया जिससे समाज में विकृतियाँ उत्पन्न हुईं.

जो समाज गुलाम बनाकर रखे जाते हैं, उनमें कुछ भी प्राकृत रूप में विकसित नहीं होने दिया जाता और शासक वर्ग उनकी जीवन शैली और संस्कृति अपने स्वार्थ पूर्ति हेतु निर्धारित करता है. भारत की सामजिक विक्रितीय यहाँ की लम्बी गुलामी की देनें हैं.

शनिवार, 16 जनवरी 2010

वर्ण व्यवस्था की सच्चाई

 भारत में समाज को व्यवस्थित करने और कार्य विभाजन के लिए वर्ण व्यवस्था लागू की गयी जिसका आरंभिक विवरण मनुस्मृति में तथा बाद में विष्णु गुप्त चाणक्य द्वारा अपने ग्रन्थ 'अर्थशास्त्र' में प्रकाशित किया गया. चाणक्य महोदय के शब्दों में -
स्वधर्मो ब्राह्मनस्याध्ययनमध्यापनं यजनं याजनं दानं प्रतिग्रहश्चेती. क्षत्रियस्याध्ययनं यजनं दानं शस्त्राजीवो भूतरक्षणं च. वैश्यस्याध्ययनं यजनं दानं कृषिपाशुपाल्ये वनिज्या च. शूद्रस्य द्विजाति शुश्रूषा वार्ता कारूकुशीलवकर्म च.
इस ग्रन्थ का प्रचलित हिंदी अनुवाद (श्री वाचस्पति गैरोला, चौखम्बा विद्याभवन) इस प्रकार है -
ब्राह्मण का धर्म अध्ययन-अध्यापन, यज्ञ-याजन, और दान देना तथा दान लेना है. क्षत्रिय का है पढ़ना, यज्ञ करना, दान देना, शास्त्रों के उपयोग से जीविकोपार्जन करना और प्राणियों की रक्षा करना. वैश्य का धर्म पढ़ना, यज्ञ करना, दान देना, कृषि कार्य एवं पशुपालन और व्यापार करना है. इसी प्रकार शूद्र का अपना धर्म है कि वह ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य की सेवा करे; पशु-पालन तथा व्यापार करे; और शिल्प (कारीगरी), गायन, वादन एवं चारण, भात आदि का कार्य करे.
इस अनुवाद की कपट-पूर्ण विकृतियों पर ध्यान दीजिये-
  1. मूल पाठ्य में दानं प्रथम तीन वर्णों का धर्म कहा गया है किन्तु हिंदी अनुवाद में केवल ब्राह्मण के लिए इसका अर्थ 'दान देना तथा दान लेना' किया गया है, शेष दो वर्णों के लिए इसका अर्थ केवल दान देना है. 
  2. मूल संस्कृत में शूद्र धर्म द्विजाति सुश्रुषा है जबकि हिंदी अनुवाद में इसके लिए तीनों वर्णों की सेवा करना कहा गया है.
  3. खेती, पशुपालन तथा व्यापार उसके लिए हिंदी अर्थों में बिना सन्दर्भ के ठूंसे गए हैं. 
इनसे स्पष्ट होता है कि अनुवादक मूल मंतव्य के अतिरिक्त अपना मत भी अनुवाद के माध्यम से अनधिकृत रूप से व्यक्त कर रहे हैं जो ब्राह्मणों को दान लेने का अधिकारी तथा शूद्रों को वैश्य धर्म में सम्मिलित करता है. शास्त्रों के साथ आधुनिक ब्राह्मण वादियों ने इसी प्रकार के छल कर उन्हें विकृत करके ही जन-साधारण के समक्ष प्रस्तुत किया है. इस प्रकार के छलों से ही भारत के इतिहास को विकृत किया गया है जिसका संशोधन किया जाना आवश्यक है. आइये हम इस विषय पर तर्कपूर्ण दृष्टिकोण से विचार करते हुए उक्त वर्ण व्यवस्था का सही अनुवाद करें.

सबसे पहले ब्राह्मण के बारे में - ब्रह्मा रचनाकार थे और उनके अनुयायी ब्राह्मण कहलाये जो रचनाकार ही थे. हिंदी शब्दावली के अनुसार अध्ययन और अध्यापन का अर्थ पढ़ना पढ़ाना है जो रचनात्मक कार्य नहीं हैं तो ये ब्राह्मण धर्म कैसे हो सकते हैं. इसी प्रकार दान देना तथा लेना किसी प्रकार भी रचनात्मक कार्य नहीं कहे जा सकते और ब्राह्मण धर्म नहीं हो सकते. यज्ञ का वर्तमान प्रचलित अर्थ अग्नि में घी एवं अन्य सामग्री जलाना लिया जाता है. ऐसा करने से यदि वातावरण शुद्ध होता है तो श्होद्र ही इससे वंचित क्यों किये गए हैं जबकि उन्हें तो वातावरण शुद्धि की सर्वाधिक आवशकता रहती है. इस सबसे यही प्रतीत होता है कि चाणक्य महोदय के शब्दों को समझाने के कोई प्रयास न किये जाकर अनुवादक ने अपने मत थोपे हैं. आइये, सही अनुवाद पाने के प्रयास करें. किन्तु पहले कुछ शब्दों की व्याख्या करें.

अध्ययन-अध्यापन
लैटिन भाषा का शब्द है aedis जिसका समतुल्य हिंदी शब्द 'भवन' हैं. लैटिन भाषा शब्दों में अंत के भागों -is, -us तथा ग्रीक भाषा के -os का उच्चारण नहीं होता. भवन बनाना उच्च कोटि का रचनात्मक कार्य है अतः यह ब्राह्मण का निर्धारित दर्म हो सकता है. इससे स्पष्ट होता है कि शास्त्रीय शब्द 'अध्य' का अर्थ 'भवन' है, जिसके आधार पर अध्ययन-अध्यापन का अर्थ 'भवनों में रहना और उनका निर्माण करना' होता है.  यहाँ यह स्पष्ट कर दें कि उस समय बहुत अल्प जन समुदाय ही भवनों में रहते थे, अधिकाँश जन-समुदाय जंगलों में भ्रमणकारी जीवन व्यतीत करते थे. इस दृष्टि से भवनों में रहने का विशेष उल्लेख किया गया है.

यजन-याजन 
दक्षिण भारतीय परम्परा में आज भी हिंदी के 'ज्ञ' को 'ज्न' उच्चारित किया जाता है, अतः यजन-याजन का हिंदी रूपांतर 'यज्ञ-याज्ञ' है. यज्ञ के बारे में बहुत भारी भ्रान्ति प्रचलित है. यज्ञ शब्द 'योग' से बना है जो जिसका अर्थ मिश्रित करना अथवा एक साथ मिलाना होता है. प्राचीन काल में अंग्रेजी भाषा का एक शब्द 'yogh था जो दो अक्षरों के योग के लिए उपयोग में लिया जाता था जो योग के उपर्युक्त अर्थ को पुष्ट करता है.
व्यक्तियों का समाज बनने के लिए बस्तियों - ग्राम और नगर - का बनाना आवश्यक होता है. उस समय समाज बनाना मानवता  विकास के लिए महत्वपूर्ण था जो केवल सभ्य जन-समुदाय ही करते थे. इस आधार पर यज्ञ-याज्ञ का अर्थ 'समाज में रहना तथा समाज बनाना' अर्थात 'बस्ती में रहना तथा बस्ती बनाना' सिद्ध होता है.

दान
आधुनिक तथाकथित ब्राह्मणों ने अपने स्वार्थ सिद्ध करने के लिए दान शब्द का दुरूपयोग बहुत अधिक किया है. हिंदी भाषा परिवार की भाषा हेब्रू में दान शब्द का अर्थ 'न्याय करना' है.जो एक अति महत्वपूर्ण धर्म होने की संभावना भी रखता है. अतः यही दान शब्द का सही अर्थ है जो ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वश्य वर्णों द्वारा अन्यों के प्रति न्यायपूर्ण व्यवहार किया जाना निर्धारित करता है.

प्रतिग्रह
लैटिन भाषा के दो शब्द 'granum ' तथा 'graes' हैं जिनके अर्थ क्रमशः 'बीज' तथा 'घास' हैं जो परंपरागत रूप में भोजन के रूप में उपयोग में लिए जाते रहे हैं. अतः प्रतिग्रह का अर्थ 'खाद्यान्न और शाक-भाजी का उपयोग करते हुए भोजन बनाना' सिद्ध होता है, जो लगभग ५० वर्ष पहले तक अनेक ब्राह्मणों का निर्धारित कार्य था.

शस्त्र 
शस्त्र शब्द का वही अर्थ है जो हिंदी में 'शब्द' का है. प्राचीन काल में शब्दों के उपयोग से आजीविका चलने वाले लोग राजाओं के आश्रित हुआ करते थे जिन्हें भात कहा जाता था. युद्ध क्षेत्र में सेना उत्साह बढ़ने में उनका विशेष योगदान हुआ करता था.


भूत 
भूत शब्द लैटिन के बोटाने से उद्भूत है जिसका अर्थ पेड़-पौधे है.
 

कृषि
वैश्यों का एक धर्म कृषि कहा गया है, किन्तु वैश्य परम्परागत रूप में कभी खेती में लिप्त नहीं रहे और ना ही आज हैं. उनकी जीवनचर्या भी खेती के योग्य नहीं रही है. अतः कृषि शब्द का अर्थ खेती नहीं है. लैटिन भाषा में कृषि के निकटस्थ शब्द cratia (उच्चारण क्रशिया) तथा crucea पाए जाते हैं जिनमें से प्रथम का अर्थ 'शासन करना' तथा दूसरे का अर्थ 'क्रोस' है जो उस समय अपराधियों को दंड देने में उपयोग किया जाता था. शासन करना तथा दंड देना सम्बंधित कार्य हैं. चाणक्य महोदय के ग्रन्थ अर्थशास्त्र लिखे जाते समय गुप्त वंश का शासन चन्द्रगुप्त मोर्य के सम्राट बनने से आरम्भ हो चुका था. अतः इस ग्रन्थ में शासन करना वैश्यों का निर्धारित धर्म कहा गया है.

पाशुपाल्य
पशुपालन खेती से निकट सम्बन्ध रखता है. इसलिए उपर्युक्त चर्चा के आधार पर पशुपालन भी वैश्यों का धर्म सिद्ध नहीं होता. लैटिन भाषा में passus शब्द का उच्चारण पाशु तथा अर्थ 'यात्रा' है जो वैश्यों के परम्परागत धर्म वाणिज्य से गहन सम्बन्ध रखता है. अतः पाशुपाल्य शब्द का अर्थ 'यात्रा करना' सिद्ध होता है न कि पशुपालन.

द्विजाति शुश्रूषा
प्राचीन काल में सुश्रुत नामक महत्वपूर्ण चिकित्सक रहे हैं जिनके चिकित्सा संबंधी ग्रन्थ आज भी प्रचलित हैं. अतः शुश्रूषा शब्द का अर्थ सेवा न होकर चिकित्सा सिद्ध होता है. इसी आधार पर द्विज शब्द का अर्थ रोगी सिद्ध होता है. रोग की चिकित्सा व्यक्ति को दूसरा जन्म देने के समान होती है क्योंकि उस समय रोग अनेक लोगों की जान ले लेते थे.

कारुकुशीलवकर्म 
लैटिन शब्द carruca का अर्थ 'हल' अथवा 'हल चलाना' है जो खेती कार्य का प्रतीक हैं. लैटिन में ही carnis तथा caro शब्दों के अर्थ 'मां'स' हैं जिसे चर्म के भाव में भी लिया जाता है. अतः उपरोक्त शब्द समूह में कारू दो भ्हवों में उपयुक्त किया गया है - एक कुशील के साथ तथा दूसरा कर्म के साथ. इस आधार पर पूरे शब्द समूह का अर्थ 'खेती करना तथा चर्म संबंधी कार्य करना' सिद्ध होता है. चर्म कार्य शूद्रों का परम्परागत कार्य रहा है.

इन सब्द व्याख्याओं के आधार पर चाणक्य महोदय के उक्त सूत्र वर्ण धर्म इस प्रकार निर्धारित करता है -

ब्राह्मण का अपना धर्म भवन में रहना तथा भवन बनाना, बस्ती (समाज) में रहना तथा बस्ती बसाना, सभी के साथ न्यायपूर्ण व्यवहार करना तथा भोजन पकाना है. क्षत्रिय धर्म भवन में रहना, बस्ती में रहना, सभी के साथ न्यायपूर्ण व्यवहार करना, तथा शब्दों के उपयोग से उत्साह वर्धन कर जीविकोपार्जन करना तथा पेड़-पौधों की रक्षा करना है. वैश्य धर्म भवन में रहना, बस्ती में रहना, सभी के साथ न्यायपूर्ण व्यवहार करना, शासन करना, यात्राएं करना तथा व्यापार करना है. शूद्र धर्म रोगियों की चिकित्सा करना, सन्देश वाहक के रूप में कार्य करना, खेती करना तथा चमड़े का कार्य करना है. 

इस आलेख के अंत में 'ब्राह्मण' का परिचय भी प्रासंगिक है. उक्त वर्ण धर्म निर्धारण यह सिद्ध करता है ब्राह्मण धर्म मुख्यतः भोजन, भवन और बस्तियों का निर्माण करना है जो सभी रचनात्मक कार्य हैं और ब्रह्मा की रचनात्मकता से सम्बन्ध रखते हैं. आधुनिक युग में जो समुदाय स्वयं को ब्राह्मण कह रहे हैं, उन्होंने भोजन पकाने के अतिरिक्त कोई अन्य निर्धारित कार्य कभी नहीं किया है. अतः ये ब्राह्मण कभी नहीं रहे हैं और न आज हैं. ग्रामीण अंचलों में इन्हें वामन कहा जाता है. दूसरी ओर कृष्ण ने छल-कपट के लिए वामन का रूप धारण किया था. यह सिद्ध करता है कि आधुनिक समुदाय जो स्वयं को ब्राह्मण कहते हैं, वस्तुतः वे 'वामन' हैं.   .