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शनिवार, 9 अक्तूबर 2010

विवश बाल श्रमिक

विश्व के अनेक देशों की तरह ही भारत भी एक आदर्श, सभ्य और संपन्न समाज की संरचना की कल्पनाओं में निमग्न है. इस लालसा में भारत में १८ वर्ष से कम आयु के बच्चों से मजदूरी कराना अपराध है. अतः १८ वर्ष के बच्चों के लिए संगठित उद्योगों और व्यवसायों में रोजगार पाना असंभव नहीं तो दुष्कर अवश्य है जिसके परिणामस्वरूप ये विवश बच्चे कूड़े दानों में से कुछ व्यावसायिक रूप से उपयोगी कचरा बीनने, भीख माँगते, ढाबों और चाय की दुकानों पर झूठे बर्तन मांजते प्रायः देखे जा सकते हैं. भारत की सरकारें इन बच्चों के लिए आदर्श स्थिति की कल्पना तो करती हैं किन्तु ऐसी स्थिति उत्पन्न करने में कोई रूचि नहीं रखती, बल्कि इसके विपरीत बहुत कुछ करती रही हैं.


बल श्रमिक प्रतिबंधित करने की पृष्ठभूमि में कल्पना यह है कि देश के प्रत्येक बच्चे को समुचित शिक्षा पाने का अधिकार है इसलिए इस अबोध आयु में उससे श्रमिक के रूप में कार्य लेना अमानवीय है और इसे अवैध घोषित कर दिया गया है. किन्तु इन बच्चों के समक्ष आजीविका हेतु श्रमिक बनाने की विवशता न हो इसके लिए कोई कदम नहीं उठाया गया है.

सर्व प्रथम प्रत्येक परिवार की इतनी आय सुनिश्चित की जानी चाहिए थी कि माता-पिता अपने बच्चों को श्रमिक बनाने की विवशता न हो तथा वे उन्हें समुचित शिक्षा की व्यवस्था करने में समर्थ हों. दूसरे, देश के राज्य-पोषित प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षा व्यवस्था ऐसी हो जहां बच्चों को भेजकर माता-पिता तथा स्वयं बच्चे उससे संतुष्ट हों तथा कुछ सार्थक शिक्षा पा सकें. तीसरे, देश की सामाजिक व्यवस्था ऐसी हो जहां बच्चों का दुरूपयोग न किया जा सके. 

आज भी भारत की लगभग ४० प्रतिशत जनसँख्या निर्धना सीमा रेखा के नीचे है जिसका अर्थ है कि इन परिवारों की दैनिक औसत आय ५० रुपये से कम है और इसमें परिवार के सदस्यों को पेट भार भोजन पाना भी दुष्कर है. कोई भी व्यक्ति भूखे पेट स्वस्थ नहीं रह सकता  और उसे शिक्षित करना असंभव होता है. ऐसे परिवारों की विवशता हो जाती है कि उनके बच्चे श्रमिकों के रूप में कार्य करके परिवार की आय में संवर्धन करें. 

इसी सन्दर्भ में यह भी सत्य है कि इन परिवारों के पास मनोरंजन के कोई साधन उपलब्ध नहीं होते जिसके कारण स्त्री-पुरुषों का यथासंभव नित्यप्रति सम्भोग में लिप्त होना ही मनोरंजन होता है, जिसके परिणामस्वरूप इन परिवारों में बच्चों की संख्या को सीमित करना असंभव हो जाता है जिससे परिवार को और भी अधिक आय की आवश्यकता हो जाती है. 

पूरे भारत में प्राथमिक शिक्षा राज्य-पोषित प्राथमिक विद्यालयों के अतिरिक्त निजी संस्थानों द्वारा भी दी जा रही है. इन दोन व्यवस्थाओं में इतने विशाल गुणात्मक अंतर हैं कि राज्य-पोषित विद्यालयों में शिक्ष व्यवस्था नष्ट-भृष्ट ही कही जानी चाहिए. राज्य-पोषित विद्यालयों में नियमित अध्यापकों के वेतनमान सरकारों द्वारा इतने अधिक कर दिए गए हैं कि स्वयं सरकारें भी पर्याप्त संख्या में अध्यापकों की व्यवस्था करने में असमर्थ हो गयी हैं. इस अभाव की पूर्ति हेतु ये सरकारें शिक्षा मित्रों के रूप में अस्थायी और अल्प वेतन पर अध्यापक नियुक्त कर रही हैं जिनमें प्रायः योग्यता, अनुभव और सर्वोपरि शिक्षा प्रदान करने में रूचि का अभाव होता है. इसके परिणामस्वरूप राज्य-पोषित प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षा की औपचारिकता मात्र पूरी की जा रही है. निर्धन माता-पिता ऐसे विद्यालयों में अपने बच्चों को शिक्षा पाने हेतु भेजना निरर्थक मानते हैं और निजी विद्यालयों में बच्चों को भेजना उनकी समर्थ के बाहर होता है. यह स्थिति और भी अधिक उग्र हो गयी है जब वे देखते हैं कि धनाढ्य परिवारों के बच्चे निजी विद्यालयों में अच्छी शिक्षा पा रहे हैं. 

भारत की सरकारें ही राजस्व प्राप्त करने के लिए देश में शराब तथा अन्य नशीले द्रव्यों के सेवन को प्रोन्नत करने में लिप्त हैं. साथ ही देश में भृष्टाचार का इतना बोलबाला है कि जन-साधारण का जीवनयापन दूभर हो गया है और वह तनावों में जी रहा है. भृष्टाचार के कारण ही तथाकथित जनतांत्रिक चुनावों में मतदाताओं को प्रसन्न कर उनके मत पाने के लिए धन का दुरूपयोग किया जाता है जिसका बहुलांश लोगों को निःशुल्क शराब पिलाने में व्यय किया जाता है, जिसके कारण प्रत्येक चुनाव में अनेक व्यक्ति नए शराबी बन जाते हैं. धनवान लोग तो इसके दुष्प्रभाव को सहन कर लेते हैं किन्तु निर्धन लोग इसमें इतने डूब जाते हैं कि उनका ध्यान परिवार के पालन-पोषण पर न होकर स्वयं के लिए शराब की व्यवस्था करने में लगा रहता है. ऐसे परिवारों के प्रमुख अपने बच्चों और स्त्रियों को विवश करते हैं कि वे उनकी शराब की आपूर्ति के लिए मजदूरी करें. इस कारण से भी बच्चों की विशाल संख्या शिक्षा से वंचित रहकर श्रमिक बनाने हेतु विवश होती है. 
Kids at Work: Lewis Hine and the Crusade Against Child Labor

देश के बच्चों के समक्ष श्रमिक बनाने की उक्त विवशताओं और बाल-श्रमिकों की घोषित अवैधता के कारण बच्चे ऐसे दूषित कार्य करने के लिए विवश हैं जिनमें उनके स्वास्थ दुष्प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते. वस्तुतः भारत भविष्य अंधकारमय है. 

शनिवार, 16 जनवरी 2010

भारत में जनतंत्र का एक नमूना

अभी-अभी उत्तर प्रदेश में विधान परिषद् के सदस्यों के चुनाव संपन्न हुए हैं जिनमें बहुजन समाज पार्टी ने लगभग सभी स्थानों पर विजय प्राप्त की है. जन संचार माध्यम का कहना है कि उत्तर प्रदेश इन चुनावों में बहुजन समाज पार्टी की अप्रत्याशित विजय उसकी जनप्रियता का प्रतीक है जबकि तथ्य इसके विपरीत हैं.


इन चुनावों में ग्रामसभा प्रधान और खंड विकास समिति सदस्य मताधिकारी थे. बहुजन समाज पार्टी के प्रत्याशियों ने इन मतों को खुले आम खरीदा है और विजय प्राप्त की है. मेरे गाँव के प्रधान और समिति सदस्य ने २५,००० प्रत्येक प्राप्त किये और बसपा प्रत्याशी को अपने मत दिए. सूचना है कि यही अन्य सभी स्थानों पर भी हुआ है.

मेरे क्षेत्र में दूसरा प्रत्याशी राष्ट्रीय लोकदल का था और धनबल में बसपा प्रत्याशी से पीछे नहीं था. उसने भी मुक्त हस्तों से धन का वितरण किया. बहुत से ऐसे मताधिकारी थे जिन्होंने विरोधी प्रत्याशी से धन लेकर भी अपने मत उसके पक्ष में नहीं दिए क्योंकि उन्होंने दोनों पक्षों से धन प्राप्त किया था. इसका एक विशेष कारण यह था कि चुनाव प्रक्रिया के दौरान राज्य शासन प्रशासन ने ग्राम प्रधानों के विरुद्ध अनियमितताओं के लिए कार्यवाही किये जाने के संकेत दिए थे जिससे ग्राम प्रधान दवाब में आ गए और बसपा के पक्ष में मत-विक्रय किये. इन परिस्थितियों में 'मतदान' शब्द का उपयोग किया जाना खुली बेईमानी होगी. 
चुनाव परिणामों पर विरोधियों ने तीखी प्रतिक्रियाएं की हैं और इसे जनतंत्र विरोधी आधी बताया है. किन्तु वे सब भी सत्ता प्राप्ति के बाद यही सब करते रहे हैं जो आज बसपा ने किया है. तो इसमें बसपा का ही क्या दोष है, यह तो भारतीय जनतंत्र की परम्परा है और इसे चुनावी विधान कहा जा सकता है.

मतों का विक्रय मताधिकारियों की विवशता भी थी क्योंकि उन्होंने भी अपने चुनावों में धन के बल पर ही विजय प्राप्त की थी जिसका बदला उन्हें लेना ही था. इस प्रकार धन के उपयोग से चुनाव जीतना एक चक्रव्यूह है जिसमें भारत का तथाकथित जनतंत्र बुरी तरह फंसा है, और किसी भी अर्थ में जनतंत्र नहीं रह गया है. जनतंत्र के नाम पर भारत में मतों का क्रय-विक्रय ग्राम-स्तर से लेकर संसद तक हो रहा है और सर्व-विदित है, तथापि सब चुप हैं और अनेक आनंदित हैं भारत में जनतंत्र की सफलता पर.

ऐसा है भारत का जनतंत्र जो पूंजीवाद से बहुत अधिक पूंजीवादी है. इसमें लिप्त राजनेता भृष्टता से अधिक भृष्ट हैं. इस खुली व्यवस्था पर भी हम भारतीय और भारतीय जन संचार माध्यम यह कहते नहीं अघाते कि भारत में जनतंत्र की जड़ें बहुत गहरी हैं. क्या इस देश की दुर्दशा इससे भी अधिक होना संभव रह गया है? फिर भी हम सुधारवादी दृष्टिकोण अपनाने से कतरा रहे हैं.