अभी-अभी उत्तर प्रदेश में विधान परिषद् के सदस्यों के चुनाव संपन्न हुए हैं जिनमें बहुजन समाज पार्टी ने लगभग सभी स्थानों पर विजय प्राप्त की है. जन संचार माध्यम का कहना है कि उत्तर प्रदेश इन चुनावों में बहुजन समाज पार्टी की अप्रत्याशित विजय उसकी जनप्रियता का प्रतीक है जबकि तथ्य इसके विपरीत हैं.
इन चुनावों में ग्रामसभा प्रधान और खंड विकास समिति सदस्य मताधिकारी थे. बहुजन समाज पार्टी के प्रत्याशियों ने इन मतों को खुले आम खरीदा है और विजय प्राप्त की है. मेरे गाँव के प्रधान और समिति सदस्य ने २५,००० प्रत्येक प्राप्त किये और बसपा प्रत्याशी को अपने मत दिए. सूचना है कि यही अन्य सभी स्थानों पर भी हुआ है.
मेरे क्षेत्र में दूसरा प्रत्याशी राष्ट्रीय लोकदल का था और धनबल में बसपा प्रत्याशी से पीछे नहीं था. उसने भी मुक्त हस्तों से धन का वितरण किया. बहुत से ऐसे मताधिकारी थे जिन्होंने विरोधी प्रत्याशी से धन लेकर भी अपने मत उसके पक्ष में नहीं दिए क्योंकि उन्होंने दोनों पक्षों से धन प्राप्त किया था. इसका एक विशेष कारण यह था कि चुनाव प्रक्रिया के दौरान राज्य शासन प्रशासन ने ग्राम प्रधानों के विरुद्ध अनियमितताओं के लिए कार्यवाही किये जाने के संकेत दिए थे जिससे ग्राम प्रधान दवाब में आ गए और बसपा के पक्ष में मत-विक्रय किये. इन परिस्थितियों में 'मतदान' शब्द का उपयोग किया जाना खुली बेईमानी होगी.
चुनाव परिणामों पर विरोधियों ने तीखी प्रतिक्रियाएं की हैं और इसे जनतंत्र विरोधी आधी बताया है. किन्तु वे सब भी सत्ता प्राप्ति के बाद यही सब करते रहे हैं जो आज बसपा ने किया है. तो इसमें बसपा का ही क्या दोष है, यह तो भारतीय जनतंत्र की परम्परा है और इसे चुनावी विधान कहा जा सकता है.
मतों का विक्रय मताधिकारियों की विवशता भी थी क्योंकि उन्होंने भी अपने चुनावों में धन के बल पर ही विजय प्राप्त की थी जिसका बदला उन्हें लेना ही था. इस प्रकार धन के उपयोग से चुनाव जीतना एक चक्रव्यूह है जिसमें भारत का तथाकथित जनतंत्र बुरी तरह फंसा है, और किसी भी अर्थ में जनतंत्र नहीं रह गया है. जनतंत्र के नाम पर भारत में मतों का क्रय-विक्रय ग्राम-स्तर से लेकर संसद तक हो रहा है और सर्व-विदित है, तथापि सब चुप हैं और अनेक आनंदित हैं भारत में जनतंत्र की सफलता पर.
ऐसा है भारत का जनतंत्र जो पूंजीवाद से बहुत अधिक पूंजीवादी है. इसमें लिप्त राजनेता भृष्टता से अधिक भृष्ट हैं. इस खुली व्यवस्था पर भी हम भारतीय और भारतीय जन संचार माध्यम यह कहते नहीं अघाते कि भारत में जनतंत्र की जड़ें बहुत गहरी हैं. क्या इस देश की दुर्दशा इससे भी अधिक होना संभव रह गया है? फिर भी हम सुधारवादी दृष्टिकोण अपनाने से कतरा रहे हैं.
कोई भी जनतंत्र उस की अर्थ व्यवस्था के अनुकूल होता है। पूंजीतंत्र में जनतंत्र की यह दशा उसी के अनुकूल है। जब सांसद बिकते हों तो यह तो मामूली बात है। इस में व्यय धन अब भिन्न भिन्न तरीकों से जनता की जेब से निकाला जाएगा।
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