शनिवार, 2 जनवरी 2010

एतिहासिक सन्दर्भों की क्लिष्टताएं - भाग एक

विश्व-संजोग पर लिखे जा रहे इस इतिहास के आलेखों पर अनेक विद्वानों ने टिप्पड़ियों द्वारा सन्दर्भ गिये जाने की मांग की है जो सर्वथा उचित है. किसी भी परम्परा को तोड़ने अथवा सुधारने के लिए नयी स्थापनाओं को प्रमाणित किया जाना आवश्यक होता है, जो दो प्रकार से किया जा सकता है - नयी स्थापनाओं के साक्ष्य प्रदान किये जा सकते हैं, अथवा परम्परागत स्थापना की विशंगताओं को प्रकाशित करते हुए उन्हें दोषपूर्ण सिद्धकर नयी निर्दोष एवं तर्कपूर्ण स्थापनाएं दी जा सकती हैं. प्रथम भौतिक, सीधा एवं परम्परागत तरीका है जिसकी अपेक्षा की जाती है. दूसरा  बौद्धिक, तिर्यक एवं अपराम्परागत तरीका है जिसे अल्प बौद्धिक जन ही स्वीकार करते हैं. किन्तु प्रथम तरीके में क्लिष्टताएं होने पर दूसरा तरीका अपनाया जा सकता है जो मैं अपना रहा हूँ. अपने पक्ष को पुष्ट करने के लिए मैं सर्वप्रथम प्रचलित इतिहास की उन विशंगताओं को प्रस्तुत करना चाहूंगा जिनके कारण मुझे भारत के प्राचीन इतिहास को नए सिरे लिखना पड़ रहा  है.


महाभारत भारत का प्राचीन इतिहास है, इससे सभी विद्वान् सहमत होंगे. इसके प्रचलित स्वरुप को यदि तार्किक दृष्टि से विश्लेषित किया जाए तो हम पाते हैं कि जो घटनाएं बुद्धि और तर्क दोनों दृष्टियों पर खरी नहीं उतरतीं उन्हें दिव्यता के आवरण में लपेट कर प्रस्तुत किया गया है जिससे कि उनपर बौद्धिक बहस न हो. मेरी दृष्टि में यह इस इतिहास लेखाकारों के एक छल है और हमारे द्वारा इसे स्वीकार किया जाना हमारी बुद्धिहीनता का परिचायक. अतः मेरा विद्वान् जनों से आग्रह है कि वे प्रचलित इतिहास को केवल दिव्यता के बहाने स्वयं-सिद्ध न स्वीकारें और उसे तार्किक दृष्टि से परखें.

इस विषय में मेरा प्रमुख मंतव्य कृष्ण के चरित्र से है जिसमें उसके द्वारा १२ वर्ष की अवस्था में महाबली कंस  की ह्त्या किया जाना, गोवर्धन पर्वत को सर पर उठाया जाना, ह्त्या हेतु जरासंध के शरीर को चीरा जाना, रक्तबीज की परिकल्पना, अपना विश्व-रूप प्रदर्शित करना, विवाहित राधा को मोह-जाल में फंसाकर उसका यौन-शोषण कर उसे त्यागा जाना तथापि भारतीय परम्परागत एवं संकीर्ण समाज में अविवाहित राधा-कृष्ण युगल को पूजनीय स्वीकार किया जाना, स्वयं को ईश्वर घोषित करते रहना, आदि आदि अनेक ऐसे घटनाक्रम हैं जो केवल दिव्यता के आधार पर स्वीकार किये जा रहे हैं और बुद्धि को परे धकेला जा रहा है. इसके साथ-साथ वे राम को भी दिव्य विभूति स्वीकारते हैं जिनके चरित्र कहीं भी कोई इस प्रकार का दंभ अथवा भोंडा प्रदर्शन नहीं है. इस प्रकार दोनों में व्यासीय अंतराल है और कृष्ण को छलिया सिद्ध करता है जो संज्ञा उसे प्रदान भी की जाती रही है, तथापि उसके सब दोष और छल-कपट उसकी दिव्यता के भय से स्वीकारे जा रहे हैं. इस पर भी कोई भी अनुयायी अपनी पुत्री अथवा अपनी वधु को किसी पर-पुरुष के साथ प्रेमालाप में लिप्त नहीं देखना चाहता जबकि यही समाज आज भी अनेकानेक व्यक्तियों को दिव्य विभूति स्वीकार कर रहा है और उनकी वन्दना की जा रही है. क्या कोई अनुयायी किसी ऐसी दिव्य विभूति को अपनी कन्या अथवा वधु प्रेमालाप हेतु प्रस्तुत करेगा?

अब आते हैं हम पांडवों के प्रचलित चरित्र पर - यह सभी स्वीकारते हैं कि वे अज्ञात पिताओंकी संतानें थे किन्तु कुंती की दिव्य शक्तियों के आवरण में उसके व्याभिचार को सहज रूप में स्वीकार लेते हैं. तथापि ऐसे अनुयायी अपनी तुच्छ पारिवारिक संपदा में किसी अवैधसंतान को हिस्सा देना नहीं स्वीकारते. जबकि कौरव-पांडव संग्राम केवल पारिवारिक संपदा का प्रश्न न होकर देश को कुशल शासन प्रदान करने का था. क्या अपने शौक के लिए अपनी वधु को जुए में दांव पर लगाने वाले पांडवों से कुशल शासन व्यवस्था प्रदान करने की अपेक्षा की जा सकती थी? तो फिर दोष दुर्योधन को क्यों दिया जा रहा है? इस के बाद भी कृष्ण के पांडवों को शासन में भागीदारी प्रदान किये जाने  के नाम पर महाभारत विजय के बाद पांडवों को वनों में भटकने के लिए प्रेरित किया और उन्हें राज्य में हिस्सा नहीं दिया, जबकि अर्जुन कदापि युद्ध नहीं चाहता था और केवल कृष्ण द्वारा ही उसे विवश किया गया था.

अब आते हैं हम मर्यादा-पुरुषोत्तम राम पर जो वस्तुतः महाभारत के आरभिक काल के नायक थे और महाभारत की मूल संस्कृत में अनेक स्थानों पर उनका उल्लेख है किन्तु इस ग्रन्थ के हिंदी अनुवादकों ने जहां भी राम शब्द आया है उसे बलराम, परशुराम, आदि शब्दों से विस्थापित कर दिया है. क्या यह एतिहासिक छल नहीं है? मेरा विद्वान् जनों से अनुरोध है कि वे स्वयं महाभारत में राम को पायें और इस छल को समझें. अनुवादकों के छल का स्पष्ट कारण है - वे राजनैतिक कारणों से कृष्ण को स्थापित करने के लिए राम को विलुप्त करने के लिए प्रतिबद्ध थे अन्यथा राम की तुलना में कृष्ण को महान दिव्य विभूति सिद्ध नहीं किया जा सकता था. वस्तुतः महाभारत का आरंभिक काल राम और कृष्ण का संघर्ष था.

गंभीर शोध करने वाले सभी भाषाविद एक मत हैं कि रामायण ग्रन्थ महाभारत के बाद लिखा गया, जबकि रामायण काल महाभारत काल से लाखों वर्ष पूर्व का स्वीकार जाता है. रामायण में राम की मृत्यु का कोई उल्लेख नहीं है जिसे विस्फोटक होने के कारण लुप्त किया गया है. संकेत के लिए इतना बता दें कि 'राम' शब्द का एक अर्थ 'बकरा' है, ईद में बकरे की बलि दी जाती है, और किसी निर्दोष व्यक्ति की की ह्त्या के लिए बलि के बकरे की उपमा चिर काल से दी जाती रही है. यह एक अति संवेदनशील और गंभीर प्रश्न है इसलिए इस पर चर्चा फिर कभी विस्तार से की जायेगी.

महाभारत काल के बारे में भी भ्रांत धारणाएं प्रचलित हैं. महाभारत में ही गजेन्द्र और हेलिउकस चरित्र उपस्थित हैं. अरबी भाषा में विशेष उल्लेख के लिए 'अल' शब्द का प्रचलन रहा है. इस विषय में विस्तृत शोध करने पर मुझे ज्ञात हुआ कि अल-गजेंदर ही अलगजेंदर अर्थात अलेक्संदर अर्थात सिकंदर है, तथा 'सेलयूकस' नाम 'हेलयूकस' में इसी प्रकार परिवर्तित है जैसे 'सिन्धु' से 'हिन्दू' बना हुआ है. अतः महाभारत काल वही काल है जो सिकंदर के भारत पर आक्रमण का काल है. इसे छिपाने का उद्देश्य केवल यही है कि सिकंदर को भारत पर आक्रमण के लिए कृष्ण द्वारा आमंत्रित किया गया था जो कृष्ण-अनुयायी स्वीकार नहीं करना चाहते. महाभारत स्थल के बारे में मेरी चर्चा कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के इंडोलोजी विभाग के विशेषज्ञों से हुई जिन्होंने कुरुक्षेत्र में युद्ध के संकेत खोजने के लिए व्यापक प्रयास किये हैं और उनके हाथ एक भी प्रमाण नहीं लगा है. कुरुक्षेत्र में ही महाभारत अभिलेखागार के विशेषग्य भी इसी मत के पाए गए. अतः मैंने तत्कालीन सरस्वती नदी के मार्ग और महाभारत स्थल खोजने के लिए पंजाब, हरियाणा और राजस्थान की व्यापक पदयात्राएं कीं और उन्हें पाया जिसका उल्लेख में फिर कभी इसी संलेख में करूंगा. इस सम्बन्ध में यह भी उल्लेखनीय है कि भारत के प्रचलित इतिहास में महाभारत युद्ध का उल्लेख नहीं किया जाता जो एक विश्व-युद्ध था. अयोध्या के पास एक नदी की लगभग ५ किलोमीटर की लम्बाई को सरयू नदी कहा जाता है, शेष भाग के अन्य नाम हैं.

इसी प्रकार की भ्रान्ति वैदिक काल के बारे में है जिसे लाखों वर्ष पूर्व से लेकर हजारों वर्ष पूर्व का बताया जाता है जबकि ३,००० वर्ष से  पूर्व पृथ्वी पर किसी भाषा अथवा मानव सभ्यता के विकसित होने के कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं. भारत में पाए गए सिक्कों के आधार पर भी यहाँ का इतिहास २५०० से अधिक पुराना नहीं पाया जाता. यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि कार्बन पद्यति जो काल निर्धारण के लिए उपयोग की जाती है, अभी तक प्रमाणित नहीं मानी जाती. आर्यों के बारे में भी इतिहास विशेषग्य अभी तक एकमत नहीं हो पाए हैं. देवों के बारे में भी भारतीय इतिहास में कोई अवधारणा नहीं है जबकि वेदों और शास्त्रों में उनके विस्तृत उल्लेख हैं.

ऐसे ही अनेकानेक कारणों से भारत के इतिहास को विश्व स्तर पर भ्रांतियों का पिटारा माना जाता है जो हमारे लिए शर्मनाक है. मेरा निवेदन है कि इतिहास का अध्ययन भावुकता और आस्था को दूर करके ही यथार्थपरक किया जा सकता है.  

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