भारत लम्बे समय तक अंग्रेजों के अधीन रहा और उनके शासन का मुख्य उद्येश्य आर्थिक शोषण था जिससे कि ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था सुद्रढ़ रहे और वह विश्व पर अपना शासन रख सके. भारत पर शासन से ब्रिटेन को विश्व स्तर पर किसी राजनैतिक लाभ की आशा नहीं थी, सिवाय इसके कि भारत का विशाल क्षेत्र भी उसके शासन में कहा जाए. इस शोषण के कारण भारत में पर्याप्त संसाधन होते हुए भी आर्थिक विपन्नता व्याप्त थी.
भारत तब से अब तक गाँवों का देश रहा है इसलिए आर्थिक शोषण में गाँवों का शोषण भी अनिवार्य रहा. गाँवों की आर्थिक व्यवस्था का मुख्य आधार कृषि था जो आज भी है. इसलिए ब्रिटिश शोषण का सर्वाधिक दुष्प्रभाव भारत के कृषकों पर पड़ता था जिसके लिए जमींदारी व्यवस्था को एक माध्यम के रूप में स्थापित किया गया. इस व्यवस्था का मुख्य लक्ष्य जमींदारों द्वारा कृषकों की भूमि हड़पना रहा जिसके लिए जमींदार अधिकृत थे और इसके लिए वे ब्रिटिश सरकार को धन प्रदान करते थे. यद्यपि जमींदार कृषकों से भी भूमिकर वसूल कर ब्रिटिश सरकार को प्रदान करते थे किन्तु ब्रिटिश आय में इसका अंश अल्प था. इस प्रक्रिया में जमींदार और अधिक धनवान और बड़े भूस्वामी बनते गए और कृषक निर्धन और भूमिहीन.
उक्त जमींदारी व्यवस्था के सञ्चालन में लोगों में पुलिस का आतंक भी सम्मिलित था जिससे कि लोग उक्त आर्थिक शोषण के विरुद्ध अपना स्वर बुलंद करने योग्य ही न रहें. इसके लिए पुलिस को निरंकुश शक्तियां प्रदान की गयीं जिनका उपयोग जमींदारों के पक्ष में किया जाता था. इसी प्रकार न्याय व्यवस्था भी जन साधारण के आर्थिक शोषण हेतु ही नियोजित थी. अपनी दमनात्मक शक्तियों के कारण उस समय पुलिस और न्याय व्यवस्था ही जन साधारण के विरुद्ध ब्रिटिश प्रशासन के प्रमुख शस्त्र थे. इस कारण से सभी क़ानून केवल शोषण-परक बनाये गए थे.
१९४७ में भारत द्वारा स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय स्वतन्त्रता की मांग करने वालों के पास अपनी शासन व्यवस्था स्थापित करने हेतु कोई रूपरेखा उपलब्ध नहीं थी. इसलिए शीघ्रता में एक संविधान रचा गया जो प्रमुखतः शोषण-परक ब्रिटिश शासन तंत्र पर आधारित रखा गया. यही संविधान आज तक भारत पर लागू है जो पूरी तरह दमनात्मक और शोशंपरक है. अंतर केवल इतना है कि उस समय दमन और शोषण ब्रिटेन के लिए जाते थे जबकि आज उसी प्रकार के दमन और शोषण भारतीय शासकों और प्रशासकों के हित में किये जा रहे हैं.
यद्यपि जन साधारण को प्रसन्न करने के लिए जमींदारी व्यवस्था समाप्त कर दी गयी किन्तु तत्कालीन जमींदार परिवारों को भारत की शासन व्यवस्था में महत्वपूर्ण भागीदारी दे दी गयी ताकि वे अपना शोषण पूर्ववत जारी रख सकें. इस प्रकार भारत की स्वतन्त्रता केवल उक्त जमींदार एवं अन्य शासक परिवारों तक सीमित रही, जन साधारण को इसका कोई सीधा लाभ नहीं मिल पाया. आज भी न्यायालयों और पुलिस को ब्रिटिश काल की निरंकुश शक्तियां प्राप्त हैं जिसका वे पूरी तरह उपयोग कर रहे हैं.
अभी विगत सप्ताह ही मेरे क्षेत्र के उप जिला मजिस्ट्रेट ने मुझे बिना किसी पर्याप्त कारण मेरे विरुद्ध धार्मिक कट्टरपंथी होने का आरोप लगाते हुए अपने न्यायालय में एक वाद स्थापित कर दिया जबकि मैं लिखित साक्ष्यों के अनुसार एक धर्म-निरपेक्ष नास्तिक हूँ. इसके अंतर्गत मुझसे कहा गया कि मैं कारागार से बचने के लिए एक बंधक पत्र पर हस्ताक्षर कर अपना दोष स्वीकार करूं, जबकि कोई क़ानून मुझे इसके लिए बाध्य नहीं करता है किन्तु उक्त मजिस्ट्रेट की निरंकुश शक्तियां मुझे बाध्य करने हेतु पर्याप्त हैं.
सोमवार, 27 सितंबर 2010
सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था का नियमन
सघन एवं बहुविध पारस्परिक निर्भरता के कारण व्यक्तिगत और सामाजिक प्रगति के लिए आवागमन परमावश्यक हो गया है जब कि सभी इसके लिए निजी वाहनों की व्यवस्था नहीं कर सकते. इससे समाज में आर्थिक अंतराल का संवर्धन होगा यदि सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था चुस्त-दुरुस्त न हो. इसके सुचारू होने से सभी को अपनी आय में वृद्धि के अवसर प्राप्त होंगे जिससे सामाजिक और आर्थिक असमानता पर स्वतः नियंत्रण हो सकेगा.
भारत में अन्य व्यवस्थाओं की तरह ही सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था भी अस्त-व्यस्त है, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में जहां लगभग ७० प्रतिशत भारतीय बसते हैं. इस कारण से अधिकाँश लोगों को व्यक्तिगत वाहन रखना आवश्यक हो गया है जिसमें व्यक्तिगत और सार्वजनिक धन का अपव्यय हो रहा है. बौद्धिक जनतंत्र सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था को सुचारू करने की भव्य योजना रखता है ताकि लोगों को व्यक्तिगत वाहनों की न्यूनतम आवश्यकता हो.
व्यक्तिगत वाहन एक ओर सभी के लिए असंभव हैं, दूसरी ओर ये व्यक्तिगत और राष्ट्र स्तरों पर आर्थिक अपव्यय होते हैं. तीसरे इनकी अधिकता से सडकों पर भार वृद्धि होती है जिससे उनकी देख-रेख पर अधिक धन व्यय होता है. चौथे, इनकी अधिकता मार्गों पर यातायात अवरोध उत्पन्न करती है. इस सबका निदान यही है कि भारत में सार्वजनिक यात्री परिवहन व्यवस्था को सुचारू किया जाये. बौद्धिक जनतंत्र में सार्वजनिक यात्री परिवहन को सुचारू बनाने के लिए तीन मूलभूत सिद्धांत निश्चित किये हैं -
- सरकार किसी व्यावसायिक गतिविधि में लिप्त नहीं होगी,
- सरकार प्रत्येक व्यावसायिक गतिविधि को जनहित में बनाये रखने के लिए उस का नियमन करेगी.
- सुचारू बनाये रखने के नियमन में सरकार का जो व्यय होगा वह उसी व्यवसाय से वित्तपोषित किया जाएगा.
तदनुसार, यात्री परिवहन के लिए सरकार मार्गों का निर्माण स्वयं एक यात्रा प्राधिकरण के माध्यम से करायेगी, तथा उनपर वाहनों के आवागमन के समय, यात्री किराए, आदि का नियमन इस प्रकार करेगी कि प्रत्येक मार्ग पर यात्रियों को उच्च कोटि की परिवहन सेवा उपलब्ध हो. इसके लिए प्राधिकरण प्रत्येक मार्ग पर लगभग २० किलोमीटर के अंतराल से वाहन-स्थलों का निर्माण करेगा और उनसे उस मार्ग पर चलने वाले सभी सार्वजनिक यात्री वाहनों के आवागमन के समयों और यात्री किरायों का नियमन किया जाएगा. इन वाहन-स्थलों के अतिरिक्त, प्रत्येक ५ किलोमीटर के अंतराल से यात्री वाहनों के प्रार्थना पर रोके जाने की व्यवस्था होगी जहां से यात्री वाहनों पर सवार हो सकेंगे अथवा उनसे उतर सकेंगे.
सरकार अथवा प्राधिकरण अपने वाहनों का सञ्चालन नहीं करेगी किन्तु मार्गों पर चलने के लिए प्राधिकरण निजी क्षेत्र के यात्री वाहनों को अनुमति देगा और उनसे मार्ग कर वसूल करेगा जिस धन से मार्गों और वाहन-स्थलों का निर्माण, देखरेख एवं सञ्चालन होगा.
सरकार अथवा प्राधिकरण अपने वाहनों का सञ्चालन नहीं करेगी किन्तु मार्गों पर चलने के लिए प्राधिकरण निजी क्षेत्र के यात्री वाहनों को अनुमति देगा और उनसे मार्ग कर वसूल करेगा जिस धन से मार्गों और वाहन-स्थलों का निर्माण, देखरेख एवं सञ्चालन होगा.
गुरुवार, 23 सितंबर 2010
एक नया संघर्ष
जब से मैंने गाँव में आकर रहना आरम्भ किया है, तब से ही उन लोगों को बड़ी परेशानी हो रही है जो विगत ३० वर्षों से गाँव के लोगों के आपराधिक शोषण करते रहे थे और उनके विरुद्ध कोई आवाज़ बुलंद नहीं होती थी. पिताजी के गाँव से चले जाने के बाद यह आवाज शांत हो गयी थी और मेरे आने के बाद पुनः झंकृत होने लगी है. ये आपराधिक प्रवृत्ति के लोग एक समूह बनाकर रहते हैं और गाँव में चोरी, राहजनी, मार-पिटाई, बलात्कार आदि अपराध करते रहे हैं और इनकी स्थानीय पुलिस से घनिष्ठ सांठ-गाँठ के कारण लोग चुपचाप यह सब सहन करते रहे हैं. मेरे आने के बाद बलात्कार आदि के अनेक मामले पूरी कठोरता के साथ उठाये गए हैं और दोषियों को दंड दिए गए हैं अथवा दंड की कार्यवाही की गयी है. इसीसे मैं इनकी आँख की किरकिरी बना हुआ हूँ. इसलिए ये कोई ऐसा अवसर नहीं छोड़ते जब भी इन्हें मेरे विरुद्ध कोई षड्यंत्र रचने का अवसर मिले.
अयोध्या मामले को लेकर प्रशासन ने जन-सामान्य के मस्तिष्क में एक हऊआ खडा कर दिया है और उसे इस बारे में जागृत कर ड़ोया है. अन्यथा जन-सामान्य अपनी व्यक्तिगत समस्याओं में इतना उलझा हुआ है कि उसे इन सब बातों से कोई लेना देना नहीं है. किन्तु राजनेताओं ने अपना महत्व बनाये रखने के लिए इसे एक हऊए के रूप में जनता के सामने लाकर खडा कर दिया है.
इस के परिपेक्ष्य में देश भर के प्रत्येक गाँव, कसबे एवं नगर से पुलिस प्रशासन को उन लोगों लोगों की सूची तैयार करने को कहा गया है जो किसी भी प्रकार से सक्रिय रहते हैं और उन्हें धार्मिक कट्टरपंथी घोषित किया गया है. यह मेरे विरोधियों के लिए एक सुनेहरा अवसर था जब वे अपने पुलिस के साथ संपर्कों का उपयोग कर मुझे एक धार्मिक कट्टरपंथी घोषित करा सकते थे और उन्होंने ऐसा करा ही दिया. स्थानीय पुलिस ने पूरे गाँव में मुझ अकेले को एक धार्मिक कट्टरपंथी घोषित कर प्रशासन को इसकी सूचना भेज दी. जब कि पूरा क्षेत्र तथा मेरा इन्टरनेट नेटवर्क जानता है कि मैं एक कट्टर नास्तिक हूँ और इस बारे में मैं अपना मत यथासंभव प्रकट करता रहता हूँ इसी विषय पर मेरा एक ब्लॉग भी है. तथापि पुलिस और प्रशासन के अनुसार मैं एक धार्मिक कट्टरपंथी हूँ.
कल २२ सितम्बर को मुझे उप जिला मजिस्टेट, सियाना, बुलंदशहर का एक नोटिस मिला कि मैं २३ सितम्बर को न्यायालय में उपस्थित होकर स्पष्टीकरण दूं कि क्यों न मुझसे एक लाख रुपये का बंधक पत्र भरवाया जाये. इस पर मैंने पुलिस थाना प्रभारी सुभाष चंद राठोड से फोन पर बातें की कि मेरे नाम से ऐसी भद्दी रिपोर्ट क्यों की गयी जिसपर उसने बताया कि यह कोई गंभीर मामला नहीं है और किसी ने रिपोर्ट लिख दी होगी जिसकी उसे कोई जानकारी नहीं थी. इस थाना प्रभारी का अब स्थानांतरण हो गया है.
तदनुसार आज मैं न्यायालय में उपस्थित हुआ जहां उप जिलाधिकारी एवं न्यायाधीश श्री राजेश कुमार सिंह धारा १०७/११६ के अंतर्गत मुझे बंधक पत्र देने का निदेश दिया जिससे मैंने इनकार कर दिया और स्पष्ट किया कि मैं एक नास्तिक हूँ और मुझे धार्मिक कट्टरपंथी कहना मेरा घोर अपमान है और इस बारे में मुझसे बंधक पत्र की मांग करना मेरे आत्मसम्मान पर आक्रमण है. इस पर मेरे विरुद्ध वारंट जारी करने की धमकी दी गयी जिस पर मैं स्वयं ही कारागार भेजे जाने के लिए प्रस्तुत हो गया. इसके साथ ही मेरे अधिवक्ता ने स्पष्ट किया कि न्याय व्यबस्था के अनुसार धरा १०७/११६ के अंतर्गत मुझे बंधक पत्र के लिए बाध्य नहीं दिया जा सकता. किन्तु न्यायाधीश का मत था कि वे किसी को भी बंधक पत्र के लिए बाध्य कर सकते हैं जिसको मैंने तथा मेरे अधिवक्ता ने चुनौती दी.
इस सब चर्चा के बाद मुझे अगली दिनांक ४ अक्टूबर को पुनः उपस्थित होने का निर्देश दिया गया, साथ ही मेरे आवेदन पर पुलिस को पुनः जांच कर अपनी रिपोर्ट देने का निर्देश भी दे दिया गया, जो मेरी आंशिक विजय है.
इसके बाद मैंने स्थानीय पुलिस में सिपाही ताहिर अली तथा उपनिरीक्षक चेतराम सिंह से संपर्क किया जिनकी इस रिपोर्ट पर मुझे कट्टरपंथी घोषित किया गया कि मैं धार्मिक उन्माद फैला रहा था. इसमें सिपाही पूरी तरह निर्दोष पाया गया क्योंकि उसे इस बारे मैं कोई जानकारी नहीं थी. रिपोर्ट में उसका नाम उपनिरीक्षक ने उसको कोई सूचना दिए बिना ही लिख दिया था. उपनिरीक्षक चेतराम सिंह ने मुझे बताया कि उसे रात्रि में ९ बजे थाना प्रभारी ने विवश किया था कि वह उसी समय किसी एक व्यक्ति के नाम कट्टरपंथी होने के रिपोर्ट तैयार करे. पुलिस थाने की पंचायत चुनाव संबंधी काली सूची में मेरा नाम सर्वोपरि था जो मेरे विरोधियों ने एक अन्य उपनिरीक्षक नरेश कुमार शर्मा से मिलकर तैयार कराई थी. इसलिए उसने मेरे नाम से ही वह रिपोर्ट तैयार कर दी जब कि उस समय तक सिपाही ताहिर अली तथा उपनिरीक्षक चेतराम सिंह मुझे जानते भी नहीं थे.
पुलिस थाने में लम्बी चर्चाओं के बाद ज्ञात हुआ कि पुलिस कोई भी कार्य गंभीरता से नहीं करके केवल औपचारिकतावश अपने अनेक कार्य करती रहती है और मुझे आश्वासन दिया गया कि मेरे विरुद्ध उक्त रिपोर्ट निरस्त कर दी जायेगी. किन्तु स्थानीय पुलिस में कोई भी विश्वसनीय नहीं है और न ही कोई अपने कर्तव्यों के प्रति गंभीर अथवा निष्ठांवान है. किसी के भी साथ कभी भी कुछ भी हो सकता है.
अयोध्या मामले को लेकर प्रशासन ने जन-सामान्य के मस्तिष्क में एक हऊआ खडा कर दिया है और उसे इस बारे में जागृत कर ड़ोया है. अन्यथा जन-सामान्य अपनी व्यक्तिगत समस्याओं में इतना उलझा हुआ है कि उसे इन सब बातों से कोई लेना देना नहीं है. किन्तु राजनेताओं ने अपना महत्व बनाये रखने के लिए इसे एक हऊए के रूप में जनता के सामने लाकर खडा कर दिया है.
इस के परिपेक्ष्य में देश भर के प्रत्येक गाँव, कसबे एवं नगर से पुलिस प्रशासन को उन लोगों लोगों की सूची तैयार करने को कहा गया है जो किसी भी प्रकार से सक्रिय रहते हैं और उन्हें धार्मिक कट्टरपंथी घोषित किया गया है. यह मेरे विरोधियों के लिए एक सुनेहरा अवसर था जब वे अपने पुलिस के साथ संपर्कों का उपयोग कर मुझे एक धार्मिक कट्टरपंथी घोषित करा सकते थे और उन्होंने ऐसा करा ही दिया. स्थानीय पुलिस ने पूरे गाँव में मुझ अकेले को एक धार्मिक कट्टरपंथी घोषित कर प्रशासन को इसकी सूचना भेज दी. जब कि पूरा क्षेत्र तथा मेरा इन्टरनेट नेटवर्क जानता है कि मैं एक कट्टर नास्तिक हूँ और इस बारे में मैं अपना मत यथासंभव प्रकट करता रहता हूँ इसी विषय पर मेरा एक ब्लॉग भी है. तथापि पुलिस और प्रशासन के अनुसार मैं एक धार्मिक कट्टरपंथी हूँ.
कल २२ सितम्बर को मुझे उप जिला मजिस्टेट, सियाना, बुलंदशहर का एक नोटिस मिला कि मैं २३ सितम्बर को न्यायालय में उपस्थित होकर स्पष्टीकरण दूं कि क्यों न मुझसे एक लाख रुपये का बंधक पत्र भरवाया जाये. इस पर मैंने पुलिस थाना प्रभारी सुभाष चंद राठोड से फोन पर बातें की कि मेरे नाम से ऐसी भद्दी रिपोर्ट क्यों की गयी जिसपर उसने बताया कि यह कोई गंभीर मामला नहीं है और किसी ने रिपोर्ट लिख दी होगी जिसकी उसे कोई जानकारी नहीं थी. इस थाना प्रभारी का अब स्थानांतरण हो गया है.
तदनुसार आज मैं न्यायालय में उपस्थित हुआ जहां उप जिलाधिकारी एवं न्यायाधीश श्री राजेश कुमार सिंह धारा १०७/११६ के अंतर्गत मुझे बंधक पत्र देने का निदेश दिया जिससे मैंने इनकार कर दिया और स्पष्ट किया कि मैं एक नास्तिक हूँ और मुझे धार्मिक कट्टरपंथी कहना मेरा घोर अपमान है और इस बारे में मुझसे बंधक पत्र की मांग करना मेरे आत्मसम्मान पर आक्रमण है. इस पर मेरे विरुद्ध वारंट जारी करने की धमकी दी गयी जिस पर मैं स्वयं ही कारागार भेजे जाने के लिए प्रस्तुत हो गया. इसके साथ ही मेरे अधिवक्ता ने स्पष्ट किया कि न्याय व्यबस्था के अनुसार धरा १०७/११६ के अंतर्गत मुझे बंधक पत्र के लिए बाध्य नहीं दिया जा सकता. किन्तु न्यायाधीश का मत था कि वे किसी को भी बंधक पत्र के लिए बाध्य कर सकते हैं जिसको मैंने तथा मेरे अधिवक्ता ने चुनौती दी.
इस सब चर्चा के बाद मुझे अगली दिनांक ४ अक्टूबर को पुनः उपस्थित होने का निर्देश दिया गया, साथ ही मेरे आवेदन पर पुलिस को पुनः जांच कर अपनी रिपोर्ट देने का निर्देश भी दे दिया गया, जो मेरी आंशिक विजय है.
इसके बाद मैंने स्थानीय पुलिस में सिपाही ताहिर अली तथा उपनिरीक्षक चेतराम सिंह से संपर्क किया जिनकी इस रिपोर्ट पर मुझे कट्टरपंथी घोषित किया गया कि मैं धार्मिक उन्माद फैला रहा था. इसमें सिपाही पूरी तरह निर्दोष पाया गया क्योंकि उसे इस बारे मैं कोई जानकारी नहीं थी. रिपोर्ट में उसका नाम उपनिरीक्षक ने उसको कोई सूचना दिए बिना ही लिख दिया था. उपनिरीक्षक चेतराम सिंह ने मुझे बताया कि उसे रात्रि में ९ बजे थाना प्रभारी ने विवश किया था कि वह उसी समय किसी एक व्यक्ति के नाम कट्टरपंथी होने के रिपोर्ट तैयार करे. पुलिस थाने की पंचायत चुनाव संबंधी काली सूची में मेरा नाम सर्वोपरि था जो मेरे विरोधियों ने एक अन्य उपनिरीक्षक नरेश कुमार शर्मा से मिलकर तैयार कराई थी. इसलिए उसने मेरे नाम से ही वह रिपोर्ट तैयार कर दी जब कि उस समय तक सिपाही ताहिर अली तथा उपनिरीक्षक चेतराम सिंह मुझे जानते भी नहीं थे.
पुलिस थाने में लम्बी चर्चाओं के बाद ज्ञात हुआ कि पुलिस कोई भी कार्य गंभीरता से नहीं करके केवल औपचारिकतावश अपने अनेक कार्य करती रहती है और मुझे आश्वासन दिया गया कि मेरे विरुद्ध उक्त रिपोर्ट निरस्त कर दी जायेगी. किन्तु स्थानीय पुलिस में कोई भी विश्वसनीय नहीं है और न ही कोई अपने कर्तव्यों के प्रति गंभीर अथवा निष्ठांवान है. किसी के भी साथ कभी भी कुछ भी हो सकता है.
लेबल:
धार्मिक कट्टरपंथी,
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पुलिस
रविवार, 19 सितंबर 2010
आस्था और विवेक
मनुष्य में एक प्राकृत अंतर्चेतना होती है - जिज्ञासा, जिसे तृप्त करने के लिए वह ज्ञान अर्जित करता है. उसके पास ज्ञान अर्जन के दो स्रोत होते हैं - अन्य व्यक्तियों से जाने और उस पर विश्वास करे, तथा अपनी तर्कशक्ति से अनजानी वस्तुओं के बारे में अध्ययन करे अथवा इस प्रकार के अध्ययनों का विवेचन करे और स्वयं की तर्कशक्ति को संतुष्ट करते हुए तथ्यों को स्वीकारे. ये दो विधाएँ क्रमशः 'आस्था' और 'विवेक' कहलाती हैं. विवेकशील प्रक्रिया को विज्ञानं भी कहा जाता है.
आस्था के लिए व्यक्ति का पहले से ज्ञानी होना आवश्यक नहीं है और न ही उसमें तर्कशक्ति होने आवश्यकता होती है. आस्थावान को तो बस किसी दूसरे व्यक्ति से जानना और मानना होता है, इसमें न तो बुद्धि की आवश्यकता होती है और न ही किसी श्रम की. अतः यह अतीव सरल है, इसलिए आस्था निष्कर्म्य लोगों के लिए एक बड़ा शरणगाह है - बिना कोई प्रयास किये उनकी जिज्ञासा संतुष्ट हो जाती है. जिज्ञासा संतुष्ट होने पर व्यक्ति स्वयं को ज्ञानी कह सकता है किन्तु उसका सभी ज्ञान उथला होता है और जो प्रायः समयानुसार तथा परिपेक्ष्यानुसार परिवर्तित होता रहता है. मान लीजिये कि एक व्यक्ति आस्तिकों के समूह में जाता है और उनकी बातें सुनकर आस्तिक हो जाता है. वही व्यक्ति जब नास्तिकों के समूह में जाता है तो उनकी बातें सुनकर बड़ी सरलता से नास्तिक हो सकता है. इस प्रकार उसकी आस्था और ज्ञान परिवर्तनीय होते है. अपनी आस्था को स्थिर रखने के लिए वह बहुमत का आश्रय लेता है अर्थात जिस बात को अधिक लोग कहते हैं वह उसी में आस्था रखने लगता है.
इसके विपरीत, विवेक पूर्ण ज्ञान प्राप्त करना एक क्लिष्ट, श्रमसाध्य एवं बौद्धिक प्रक्रिया है, जिसमें व्यक्ति प्रत्येक तथ्य का तर्क की कसौटी पर परीक्षण करता है और संतुष्ट होने पर ही उसे स्वीकार करता है. इस प्रक्रिया में व्यक्ति में तर्कशक्ति के अतिरिक्त कसौटी पर परीक्षण का पूर्व ज्ञान भी होना भी अपेक्षित है. अतः ज्ञानवान व्यक्ति ही विवेकशील हो सकता है. चूंकि यह वैज्ञानिक प्रक्रिया क्लिष्ट है इसलिए व्यक्ति सीमित ज्ञान ही प्राप्त कर पाता है किन्तु उसका ज्ञान गहन और अपरिवर्तनीय होता है. सीमित ज्ञान होने के कारण ऐसा व्यक्ति सदैव जिज्ञासु बना रहता है और वह स्वयं को सदैव अल्पज्ञानी ही मानता है. इसी भावना के कारण वह अपने ज्ञान में निरंतर वृद्धि के प्रयास करता रहता है. वस्तुतः यही मनुष्यता है जो मनुष्य की अंतर्चेतना जिज्ञासा को जीवंत बनाए रखती है.
आस्था मनुष्य का प्राकृत गुण नहीं है, इसे मनुष्य जाति ने केवल अंतरिम रूप में काम चलाने हेतु अपनाया था. जब मनुष्य के पास ज्ञान प्राप्त करने के स्रोत सीमित थे और वे उसकी जिज्ञासा को तृप्त करने हेतु अपर्याप्त थे, उसका विवेक भी अपर्याप्त था. अतः उसने अपनी जिज्ञासा को तात्कालिक रूप से तृप्त करने के लिए आस्था का आश्रय लिया, किन्तु यह स्थायी हल नहीं है. विज्ञानं ही मनुष्य जाति की अंतर्चेतना जिज्ञासा को तृप्त करने का स्थायी हल है.
मनुष्यता में भी निर्जीव वस्तुओं की तरह कुछ जड़ता होती है जो उसे निश्कर्मी बने रहने की सुविधा प्रदान करती है. अतः सुविध्वादी मनुष्य आज भी आस्था का दामन कस कर पकडे हुए हैं ताकि वे विज्ञानं की श्रमसाध्य एवं क्लिष्ट प्रक्रिया से बचे रह सकें.
आस्था के लिए व्यक्ति का पहले से ज्ञानी होना आवश्यक नहीं है और न ही उसमें तर्कशक्ति होने आवश्यकता होती है. आस्थावान को तो बस किसी दूसरे व्यक्ति से जानना और मानना होता है, इसमें न तो बुद्धि की आवश्यकता होती है और न ही किसी श्रम की. अतः यह अतीव सरल है, इसलिए आस्था निष्कर्म्य लोगों के लिए एक बड़ा शरणगाह है - बिना कोई प्रयास किये उनकी जिज्ञासा संतुष्ट हो जाती है. जिज्ञासा संतुष्ट होने पर व्यक्ति स्वयं को ज्ञानी कह सकता है किन्तु उसका सभी ज्ञान उथला होता है और जो प्रायः समयानुसार तथा परिपेक्ष्यानुसार परिवर्तित होता रहता है. मान लीजिये कि एक व्यक्ति आस्तिकों के समूह में जाता है और उनकी बातें सुनकर आस्तिक हो जाता है. वही व्यक्ति जब नास्तिकों के समूह में जाता है तो उनकी बातें सुनकर बड़ी सरलता से नास्तिक हो सकता है. इस प्रकार उसकी आस्था और ज्ञान परिवर्तनीय होते है. अपनी आस्था को स्थिर रखने के लिए वह बहुमत का आश्रय लेता है अर्थात जिस बात को अधिक लोग कहते हैं वह उसी में आस्था रखने लगता है.
इसके विपरीत, विवेक पूर्ण ज्ञान प्राप्त करना एक क्लिष्ट, श्रमसाध्य एवं बौद्धिक प्रक्रिया है, जिसमें व्यक्ति प्रत्येक तथ्य का तर्क की कसौटी पर परीक्षण करता है और संतुष्ट होने पर ही उसे स्वीकार करता है. इस प्रक्रिया में व्यक्ति में तर्कशक्ति के अतिरिक्त कसौटी पर परीक्षण का पूर्व ज्ञान भी होना भी अपेक्षित है. अतः ज्ञानवान व्यक्ति ही विवेकशील हो सकता है. चूंकि यह वैज्ञानिक प्रक्रिया क्लिष्ट है इसलिए व्यक्ति सीमित ज्ञान ही प्राप्त कर पाता है किन्तु उसका ज्ञान गहन और अपरिवर्तनीय होता है. सीमित ज्ञान होने के कारण ऐसा व्यक्ति सदैव जिज्ञासु बना रहता है और वह स्वयं को सदैव अल्पज्ञानी ही मानता है. इसी भावना के कारण वह अपने ज्ञान में निरंतर वृद्धि के प्रयास करता रहता है. वस्तुतः यही मनुष्यता है जो मनुष्य की अंतर्चेतना जिज्ञासा को जीवंत बनाए रखती है.
आस्था मनुष्य का प्राकृत गुण नहीं है, इसे मनुष्य जाति ने केवल अंतरिम रूप में काम चलाने हेतु अपनाया था. जब मनुष्य के पास ज्ञान प्राप्त करने के स्रोत सीमित थे और वे उसकी जिज्ञासा को तृप्त करने हेतु अपर्याप्त थे, उसका विवेक भी अपर्याप्त था. अतः उसने अपनी जिज्ञासा को तात्कालिक रूप से तृप्त करने के लिए आस्था का आश्रय लिया, किन्तु यह स्थायी हल नहीं है. विज्ञानं ही मनुष्य जाति की अंतर्चेतना जिज्ञासा को तृप्त करने का स्थायी हल है.
मनुष्यता में भी निर्जीव वस्तुओं की तरह कुछ जड़ता होती है जो उसे निश्कर्मी बने रहने की सुविधा प्रदान करती है. अतः सुविध्वादी मनुष्य आज भी आस्था का दामन कस कर पकडे हुए हैं ताकि वे विज्ञानं की श्रमसाध्य एवं क्लिष्ट प्रक्रिया से बचे रह सकें.
शनिवार, 18 सितंबर 2010
मनोरंजन, व्यायाम और चरित्र निर्माण के लिए खेलों का उपयोग
उत्तर प्रदेश के गाँवों में पंचायत चुनावों का दौर चल रहा है जिसमें मेरा गाँव खंदोई भी सम्मिलित है. प्रत्याशियों के पास मतदाताओं को अपने पक्ष में करने के लिए कोई अपने सामाजिक कार्य न होने के कारण उन्हें निःशुल्क शराब पिलाना ही एक मात्र मार्ग है जिसे जोर-शोर से अपनाया जा रहा है. आस-पास के कुछ गाँवों में तो शराब पर ५ लाख रुपये तक व्यय हो चुके हैं किन्तु मेरे गाँव में यह कुछ सीमित है किन्तु अब इसमें तेजी आ रही है. अभी तक मैं स्थिति को नियंत्रित करने के प्रयास करता रहा हूँ किन्तु अब स्थिति मेरे नियंत्रण से बाहर हो रही है.
यद्यपि गाँव में लगभग १०-१२ व्यक्ति ही पियक्कड़ हैं किन्तु शराब के निःशुल्क उपलब्ध होने के कारण लगभग ५० प्रतिशत लोग इसे पीने लगते हैं, जिनमें से अनेक इतने अभ्यस्त हो जाते हैं कि चुनाव के बाद भी वे अपना घर-परिवार नष्ट-भृष्ट करके शराब पीते रहते हैं. इस प्रकार प्रत्येक चुनाव में कुछ नए पियक्कड़ बन जाते हैं. अधेड़ और वृद्ध लोगों को तो जो बनना था वे बन चुके हैं इसलिए उन पर तो इस शराबखोरी का कोई विशेष दुष्प्रभाव नहीं पड़ता, किन्तु युवाओं का इसके चंगुल में आना उनके जीवन के लिए यक्ष प्रश्न बन जाता है. इसलिए उनका इससे दूर रखना बहुत महत्वपूर्ण है.
मेरे गाँव में कोई खेल का मैदान नहीं है, यहाँ तक कि गाँव के माध्यमिक विद्यालय के पास जो खेल के मैदान के लिए स्थान उपलब्ध था उसे प्रबंध समिति ने निजी लाभ के लिए निजी अधिकारों में दे दिया है और उस पर निजी भवन बन चुके हैं. इस कारण से गाँव के युवाओं के लिए खेलों के लिए कोई सार्वजनिक स्थान उपलब्ध नहीं है. इसलिए वे अपनी शामें मार्गों पर खड़े रहकर आवारागर्दी में व्यतीत करते रहे हैं.
गाँव के युवाओं को एक नयी दिशा देने के उद्येश्य से मैंने अपने निवास के उद्यान में खेलों के लिए एक छोटा सा मैदान बना दिया है जो गाँव के सभी व्यक्तियों के लिए खुला रहता है. अब गाँव के लगभग ८०-१०० युवा और बच्चे प्रत्येक शाम को लगभग ४ बजे से ही इस मैदान में आने लगते हैं और संध्या ६-७ बजे तक विविध प्रकार के खेल खेलते रहते हैं जिनमें कबड्डी अधिक लोकप्रिय है. युवा शाम को थक कर अपने घर जाकर भोजन के बाद सो जाते हैं. इस प्रकार वे आवारागर्दी और शराबखोरी से दूर हो गए हैं, और उनमें अपने शरीर शौष्ठव की प्रतिस्पर्द्धा जागृत हुई है.
घर में खेल का सार्वजनिक मैदान बनने से मुझे कुछ असुविधा अवश्य हुई है, उद्यान को भी कुछ आघात पहुंचते हैं, किन्तु गाँव के युवा समाज को लाभ हो रहा है वह मेरी व्यक्तिगत क्षति से अनेक गुणित है. इसलिए मुझे इस सब से प्रसन्नता है.
यद्यपि गाँव में लगभग १०-१२ व्यक्ति ही पियक्कड़ हैं किन्तु शराब के निःशुल्क उपलब्ध होने के कारण लगभग ५० प्रतिशत लोग इसे पीने लगते हैं, जिनमें से अनेक इतने अभ्यस्त हो जाते हैं कि चुनाव के बाद भी वे अपना घर-परिवार नष्ट-भृष्ट करके शराब पीते रहते हैं. इस प्रकार प्रत्येक चुनाव में कुछ नए पियक्कड़ बन जाते हैं. अधेड़ और वृद्ध लोगों को तो जो बनना था वे बन चुके हैं इसलिए उन पर तो इस शराबखोरी का कोई विशेष दुष्प्रभाव नहीं पड़ता, किन्तु युवाओं का इसके चंगुल में आना उनके जीवन के लिए यक्ष प्रश्न बन जाता है. इसलिए उनका इससे दूर रखना बहुत महत्वपूर्ण है.
मेरे गाँव में कोई खेल का मैदान नहीं है, यहाँ तक कि गाँव के माध्यमिक विद्यालय के पास जो खेल के मैदान के लिए स्थान उपलब्ध था उसे प्रबंध समिति ने निजी लाभ के लिए निजी अधिकारों में दे दिया है और उस पर निजी भवन बन चुके हैं. इस कारण से गाँव के युवाओं के लिए खेलों के लिए कोई सार्वजनिक स्थान उपलब्ध नहीं है. इसलिए वे अपनी शामें मार्गों पर खड़े रहकर आवारागर्दी में व्यतीत करते रहे हैं.
गाँव के युवाओं को एक नयी दिशा देने के उद्येश्य से मैंने अपने निवास के उद्यान में खेलों के लिए एक छोटा सा मैदान बना दिया है जो गाँव के सभी व्यक्तियों के लिए खुला रहता है. अब गाँव के लगभग ८०-१०० युवा और बच्चे प्रत्येक शाम को लगभग ४ बजे से ही इस मैदान में आने लगते हैं और संध्या ६-७ बजे तक विविध प्रकार के खेल खेलते रहते हैं जिनमें कबड्डी अधिक लोकप्रिय है. युवा शाम को थक कर अपने घर जाकर भोजन के बाद सो जाते हैं. इस प्रकार वे आवारागर्दी और शराबखोरी से दूर हो गए हैं, और उनमें अपने शरीर शौष्ठव की प्रतिस्पर्द्धा जागृत हुई है.
घर में खेल का सार्वजनिक मैदान बनने से मुझे कुछ असुविधा अवश्य हुई है, उद्यान को भी कुछ आघात पहुंचते हैं, किन्तु गाँव के युवा समाज को लाभ हो रहा है वह मेरी व्यक्तिगत क्षति से अनेक गुणित है. इसलिए मुझे इस सब से प्रसन्नता है.
लेबल:
कबड्डी,
खंदोई,
खेल का मैदान,
युवा समाज,
शराबखोरी
शुक्रवार, 17 सितंबर 2010
जन स्वास्थ - उत्तरदायी कौन
बचपन में विगत काल में जन साधारण के स्वास्थ के बारे में अनेक प्रकार की बातें सुनी थीं -
अतः जन-स्वास्थ के लिए सर्वाधिक घातक कृषकों द्वारा कृषि उत्पादन हेतु अपनाई गयी तकनीकें हैं जिसके लिए कृषि वैज्ञानिक उत्तरदायी हैं. दूसरा घातक प्रहार सरकार द्वारा लोगों को शुद्ध पेय जल उपलब्ध न कराकर किया जा रहा है. तीसरे स्तर पर देश के व्यवसायी हैं जो अपने लाभ के लिए जन-स्वास्थ से खिलवाड़ कर रहे हैं.
- गिल्टी जैसी एक महामारी फ़ैली थी जिसमें हजारों लोग बिना किसी चिकित्सा के मरे गए थे.
- चेचक, हैजा, उल्टी, दस्त आदि बीमारियों से अनेक बच्चे मृत्यु को प्राप्त हो जाया करते थे.
- अधिकाँश जनसँख्या को भर पेट भोजन उपलब्ध नहीं होता था.
- कुछ लोग इतने सशक्त थे कि भैंसे को भी पछाड़ देते थे.
- कुछ लोगों की खुराक अत्यधिक कल्पनातीत थी और वे सशक्त भी बहुत थे.
इसके बाद मैंने अपनी आँखों से देखा था कि गेंहूं की फसल उठाने के समय कुछ लोग पशुओं के गोबर को धोकर उससे गेंहूं प्राप्त करते थे और उससे अपना पेट भरते थे. सिहराने वाली सर्दी, भयंकर बरसात और भरी दोपहरी में कृषि कार्य किये जाते थे जिससे अनेक लोग बीमार हो जाते थे और उन्हें चिकित्सा उपलब्ध न होने के कारण मृत्यु को गले लगाना पड़ता था. तथापि कुछ लोग अत्यधिक सशक्त और स्वस्थ थे.
आज सुनता हूँ कि देश में लोगों की औसत आयु में वृद्धि हुई है, अस्पतालों चिकित्सा के लिए में भीड़ लगी रहती है, और सर्वोपरि प्रत्येक धनवान व्यक्ति अत्यधिक व्यस्त और निर्धन व्यक्ति अत्यधिक अभावग्रस्त है जिससे कोई भी सुखी नहीं है. परिवार टूट रहे हैं और बच्चे मार्गदर्शन के अभाव में आवारा हो रहे हैं.
उपरोक्त तीन स्थितियां संकेत करती हैं कि देश में स्वास्थ सेवाओं का विकास हुआ है किन्तु जनसँख्या वृद्धि की तुलना में पर्याप्त नहीं है. जो भी चिकित्सा सेवाएं उपलब्ध हैं उनके कारण मृत्यु दर कम हुई है किन्तु अधिकाँश लोग अस्वस्थ हैं, अर्थात चिकित्सा सेवाएं लोगों को केवल जीवित रखने में सफल रही हैं, उन्हें स्वस्थ रखने की सामर्थ इन सेवाओं में नहीं है. प्राचीन काल में चाहे कुछ व्यक्ति ही सही वे आज के स्वस्थतम व्यक्तियों से अधिक स्वस्थ थे. इससे सिद्ध यह होता है कि हमने प्रदूषण द्वारा रोगों के स्रोतों में भी वृद्धि की है और भोजन की पोषण सामर्थ भी कम हुई है.
अच्छे स्वास्थ के लिए व्यक्ति के पास स्वास्थ चिंतन हेतु सर्व प्रथम समय होना चाहिए जिसका आज नितांत अभाव है - धनवान और अधिक धनवान होने में व्यस्त है जब कि निर्धन जीवित बने रहने के प्रयासों में स्वास्थ चिंतन के लिए समय नहीं दे पा रहे हैं. प्राचीन काल में लोगों के पास पर्याप्त समय उपलब्ध था जिसका कुछ लोग स्वस्थ बने रहने के लिए सदुपयोग करते थे जिसके कारण ये लोग आज के स्वस्थतम लोगों की तुलना में अधिक स्वस्थ थे.
प्राचीन काल में सभी को पर्याप्त भोजन उपलब्ध नहीं था किन्तु जो उपलब्ध था वह आज के उपलब्ध भोजन की तुलना में अधिक स्वास्थवर्धक था. इससे सिद्ध होता है कि देश में खाद्य पदार्थों का उत्पादन बढ़ा है किन्तु इसकी गुणवत्ता में गिरावट आयी है.
पेय जल का स्वास्थ पर सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है. उपरोक्त विवरणों से सिद्ध होता है कि चाहे कुछ लोगों को ही सही, प्राचीन काल में शुद्ध पेय जल उपलब्ध था जो आज किसी को भी उपलब्ध नहीं है. इसके लिए सर्वाधिक दोषारोपण औद्योगिक प्रदूषण पर किया जाता है किन्तु यह केवल नगरीय जनसँख्या के लिए ही सही कहा जा सकता है. शुद्ध पेय जल का सर्वव्यापक स्रोत भूगर्भीय जल भण्डार रहा है - प्राचीन काल से आज तक. इससे आज भूगर्भीय जल भी प्रदूषित सिद्ध होता है. इस प्रदूषण का जो कारण स्पष्ट है वह है कृषि क्षेत्रों में रासायनिक खादों और कीटनाशकों का उपयोग. ये कृषि उत्पादन में वृद्धि के कारण रहे हैं किन्तु साथ ही इनसे खाद्यान्नों की गुणता में कमी आयी है.
मुझे अच्छी तरह याद है, आज से लगभग ५० वर्ष पूर्व टिड्डी दल ही केवल खरीफ की फसलों को क्षति पहुंचाते थे अन्य हानिकारक कीट पतंगे नगण्य थे. किन्तु आज मेरा कटु अनुभव है कि प्रत्येक फसल को अनेक प्रकार के कीट हानि पहुंचा रहे हैं. इन्ही से फसलों की रक्षा के लिए कीटनाशक अपरिहार्य हो गए हैं. संभवतः रासायनिक खाद का उपयोग ही इन कीटों की वृद्धि का कारण है जो मिट्टी को अम्लीय बनाते हैं जिससे कीटों की संख्या में अप्रत्याशित वृद्धि होती है.
जन स्वास्थ को दुष्प्रभावित करने में औद्योगिक प्रदूषण इतना व्यापक कारण नहीं है जितना व्यापक व्यावसायिक स्तर पर उत्पादित खाद्य पदार्थ हैं. इनके उत्पादन और इन्हें लोकप्रिय बनाने में जन-स्वास्थ की अवहेलना की जा रही है. इन पदार्थों में चबाये जाने वाले पान-मसाले और तम्बाकू उत्पाद, बिस्कुट, डबल रोटी, आदि बेकरी उत्पाद, और हलवाइयों द्वारा तैयार की गयी अनेक प्रकार की मिठाइयाँ प्रमुख हैं. प्राचीन काल में इनका प्रचलन नगण्य था इसलिए इनसे उत्पन्न व्याधियां भी नहीं थीं.
अतः जन-स्वास्थ के लिए सर्वाधिक घातक कृषकों द्वारा कृषि उत्पादन हेतु अपनाई गयी तकनीकें हैं जिसके लिए कृषि वैज्ञानिक उत्तरदायी हैं. दूसरा घातक प्रहार सरकार द्वारा लोगों को शुद्ध पेय जल उपलब्ध न कराकर किया जा रहा है. तीसरे स्तर पर देश के व्यवसायी हैं जो अपने लाभ के लिए जन-स्वास्थ से खिलवाड़ कर रहे हैं.
लेबल:
औद्योगिक प्रदूषण,
कीटनाशक,
कृषि उत्पादन,
जन-स्वास्थ,
पेय जल
मंगलवार, 14 सितंबर 2010
भारतीय समाज में जातीय विष का हल
एक प्रचलित कथावत है -
'ज्यों केले के पात पात में पात, त्यों हिन्दुओं की जात जात में जात'.
जो भारतीय समाज के यथार्थ को प्रदर्शित करती है. विश्व के किसी अन्य देश में संभवतः ऐसा नहीं है जहां जीवन और समाज के प्रत्येक क्षेत्र में व्यक्ति की जाति का इतना अधिक महत्व हो. अधिकाँश देशों में इस प्रकार के जातीय विष का अन्तर्जातीय विवाहों द्वारा शमन किया गया है. भारत में भी पश्चिमी बंगाल में अब कुछ ऐसा होने लगा है जिसे समाज की भी सहज स्वीकृति प्राप्त हो जाती है. अन्य क्षेत्रों में युवा प्रेमी छिपकर अन्तर्जातीय विवाह कर रहे हैं किन्तु समाज उन्हें सामान्यतः मान्यता नहीं देता है.
जातीयता भारतीय जीवन के प्रत्येक अंग को प्रदूषित कर रही है, यहाँ तक कि जनतांत्रिक चुनावों में मतदाता जातीय आधार पर ही सरकार का चुनाव कर रहे हैं, जिसे सभी राजनैतिक दल भी पुष्ट कर रहे हैं. अतः सरकारें सार्वजनिक हितों की अवहेलना कर जातीय हितों के लिए कार्य कर रही हैं.
भारत में जातीय भेद का मुख्य कारण यह है कि यहाँ अनेक प्रकार की जीवनशैलियों वाली जातियां आकर बसती रही हैं, जिनमें से अधिकाँश असभ्य थीं और यहाँ सांस्कृतिक प्रदूषण हेतु ही लाई गयी थीं. महिलाओं के अपहरण और उनके साथ दुराचार इनके प्रमुख व्यसन थे. स्थानीय लोगों को अपने सम्मान और संपदा के सुरक्षा के लिए उनसे दूर रहना आवश्यक था. इसी कारण से भारत में स्त्रियों के लिए परदे में रहना आवश्यक समझा गया जो प्रचलन अनेक क्षेत्रों में आज भी है.
बौद्धिक जनतंत्र जातीय भेद को मान्यता नहीं देता किन्तु इसके लिए यह अतीव आवश्यक है कि समाज में कठोर अनुशासन की स्थापना हो, विशेषकर भारतीय समाज में जहां आज भी अनेक जातियां अपने जंगली व्यवहार का परित्याग नहीं कर रही हैं. स्त्रियों और निस्सहाय लोगों के प्रति अपराध इन्ही जातियों के जंगली व्यवहार के कारण हो रहे हैं.
समाज को अनुशासित करने के लिए दो आवश्यक वान्छाएं हैं - न्याय व्यवस्था सुचारू हो तथा दंड विधान कठोर हो. जबकि आज के भारत की वास्तविकता यह है कि न्याय व्यवस्था पूरे तरह निष्फल है और दंड व्यवस्था अति लचर है. बौद्धिक जनतंत्र में न्याय व्यवस्था को सुचारू रखना स्वास्थ और शिक्षा के समान प्राथमिकता दी गयी है. दंड व्यवस्था को कठोर बनने के लिए मृत्यु दंड आवश्यक माना गया है जब कि विश्व भर की जंगली जातियां मृत्यु दंड का विरोध कर रही हैं.
बौद्धिक जनतंत्र दो प्रकार के अपराधों के लिए मृत्यु दंड अनिवार्य मानता है - राष्ट्रद्रोह तथा स्त्रियों के प्रति दुराचार. इसके साथ ही राजकीय पद का दुरूपयोग करते हुए भृष्ट आचरण राष्ट्रद्रोह माना गया है. स्त्री समाज के सम्मान की प्रतीक ही नहीं होती यह समाज की निर्माता भी होती है.
उक्त प्रावधानों से भारतीय समाज शीघ्र ही अनुशासित हो जाएगा, तब ही यहाँ जाति मुक्त विवाह का प्रचलन लाभकर सिद्ध हो सकता है, जो समाज के जातीय भेद को मिटाने का एकमात्र उपाय है. भारतीय समाज की वर्तमान अवस्था में अन्तर्जातीय विवाह सामान्यतः अनुमत नहीं किया जा सकता जिसके लिए समाज की शैक्षिक स्थिति स्वस्थ होनी चाहिए, जबकि आज के भारत में लगभग ७० प्रतिशत लोग अशिक्षित अथवा अर्ध-शिक्षित हैं जिनमें सामाजिक अनुशासन हेतु परिपक्वता भी विद्यमान नहीं है.
'ज्यों केले के पात पात में पात, त्यों हिन्दुओं की जात जात में जात'.
जो भारतीय समाज के यथार्थ को प्रदर्शित करती है. विश्व के किसी अन्य देश में संभवतः ऐसा नहीं है जहां जीवन और समाज के प्रत्येक क्षेत्र में व्यक्ति की जाति का इतना अधिक महत्व हो. अधिकाँश देशों में इस प्रकार के जातीय विष का अन्तर्जातीय विवाहों द्वारा शमन किया गया है. भारत में भी पश्चिमी बंगाल में अब कुछ ऐसा होने लगा है जिसे समाज की भी सहज स्वीकृति प्राप्त हो जाती है. अन्य क्षेत्रों में युवा प्रेमी छिपकर अन्तर्जातीय विवाह कर रहे हैं किन्तु समाज उन्हें सामान्यतः मान्यता नहीं देता है.
जातीयता भारतीय जीवन के प्रत्येक अंग को प्रदूषित कर रही है, यहाँ तक कि जनतांत्रिक चुनावों में मतदाता जातीय आधार पर ही सरकार का चुनाव कर रहे हैं, जिसे सभी राजनैतिक दल भी पुष्ट कर रहे हैं. अतः सरकारें सार्वजनिक हितों की अवहेलना कर जातीय हितों के लिए कार्य कर रही हैं.
भारत में जातीय भेद का मुख्य कारण यह है कि यहाँ अनेक प्रकार की जीवनशैलियों वाली जातियां आकर बसती रही हैं, जिनमें से अधिकाँश असभ्य थीं और यहाँ सांस्कृतिक प्रदूषण हेतु ही लाई गयी थीं. महिलाओं के अपहरण और उनके साथ दुराचार इनके प्रमुख व्यसन थे. स्थानीय लोगों को अपने सम्मान और संपदा के सुरक्षा के लिए उनसे दूर रहना आवश्यक था. इसी कारण से भारत में स्त्रियों के लिए परदे में रहना आवश्यक समझा गया जो प्रचलन अनेक क्षेत्रों में आज भी है.
बौद्धिक जनतंत्र जातीय भेद को मान्यता नहीं देता किन्तु इसके लिए यह अतीव आवश्यक है कि समाज में कठोर अनुशासन की स्थापना हो, विशेषकर भारतीय समाज में जहां आज भी अनेक जातियां अपने जंगली व्यवहार का परित्याग नहीं कर रही हैं. स्त्रियों और निस्सहाय लोगों के प्रति अपराध इन्ही जातियों के जंगली व्यवहार के कारण हो रहे हैं.
समाज को अनुशासित करने के लिए दो आवश्यक वान्छाएं हैं - न्याय व्यवस्था सुचारू हो तथा दंड विधान कठोर हो. जबकि आज के भारत की वास्तविकता यह है कि न्याय व्यवस्था पूरे तरह निष्फल है और दंड व्यवस्था अति लचर है. बौद्धिक जनतंत्र में न्याय व्यवस्था को सुचारू रखना स्वास्थ और शिक्षा के समान प्राथमिकता दी गयी है. दंड व्यवस्था को कठोर बनने के लिए मृत्यु दंड आवश्यक माना गया है जब कि विश्व भर की जंगली जातियां मृत्यु दंड का विरोध कर रही हैं.
बौद्धिक जनतंत्र दो प्रकार के अपराधों के लिए मृत्यु दंड अनिवार्य मानता है - राष्ट्रद्रोह तथा स्त्रियों के प्रति दुराचार. इसके साथ ही राजकीय पद का दुरूपयोग करते हुए भृष्ट आचरण राष्ट्रद्रोह माना गया है. स्त्री समाज के सम्मान की प्रतीक ही नहीं होती यह समाज की निर्माता भी होती है.
उक्त प्रावधानों से भारतीय समाज शीघ्र ही अनुशासित हो जाएगा, तब ही यहाँ जाति मुक्त विवाह का प्रचलन लाभकर सिद्ध हो सकता है, जो समाज के जातीय भेद को मिटाने का एकमात्र उपाय है. भारतीय समाज की वर्तमान अवस्था में अन्तर्जातीय विवाह सामान्यतः अनुमत नहीं किया जा सकता जिसके लिए समाज की शैक्षिक स्थिति स्वस्थ होनी चाहिए, जबकि आज के भारत में लगभग ७० प्रतिशत लोग अशिक्षित अथवा अर्ध-शिक्षित हैं जिनमें सामाजिक अनुशासन हेतु परिपक्वता भी विद्यमान नहीं है.
लेबल:
अनुशासन,
अन्तर्जातीय,
जातीयता,
न्याय व्यवस्था,
भारतीय समाज
सोमवार, 13 सितंबर 2010
सृजनात्मक अभिव्यक्ति और जानने की सीमा
प्रत्येक सृजनात्मक अभिव्यक्ति से पूर्व अनेक बौद्धिक गतिविधियों यथा जानना, सृजन-परक चिंतन, मूल्यांकन, आदि, की आवश्यकता होती है, किन्तु अभिव्यक्ति की वास्तविक प्रक्रिया हेतु और अधिक जानने की प्रक्रिया बंद करनी होती है और यह मान लिया जाता है कि अभिव्यक्ति हेतु पर्याप्त जान लिया गया है. इसके विपरीत जब तक जानने की प्रक्रिया चलती रहती है तब तक सृजन प्रक्रिया प्रतिबंधित रहती है.
न तो ज्ञान के विषयों की कोई सीमा है और न ही किसी विषय के ज्ञान की कोई सीमा है अतः ज्ञान प्राप्त करने की प्रक्रिया सदा-सदा चलती रहती है और यह जीवन का एक सकारात्मक पक्ष है. तथापि उपरोक्त तर्क सिद्ध करता है कि जीवन के उद्येश्यों की पूर्ति के लिए इसी के किसी न किसी सकारात्मक पक्ष को भी सीमित करना आवश्यक हो जाता है. अतः, जीवन में ऐसा कुछ भी नहीं होता जो प्रत्येक परिस्थिति सकारात्मक सिद्ध होता हो.
प्रत्येक सृजनात्मक अभिव्यक्ति रचनाकार के उस विषयक ज्ञान का प्रतिरूप होती है, और इसका उत्कर्ष तभी प्राप्त किया जा सकता है जब ज्ञान का उत्कर्ष स्वीकार कर लिया गया हो - चाहे यह स्वीकृति सदा के लिए न होकर उस अभिव्यक्ति हेतु तात्कालिक ही क्यों न हो.
जानने की प्रक्रिया द्वारा अभिव्यक्ति हेतु ज्ञान प्राप्त किया जाता है. इस ज्ञान का मूल्यांकन स्मृति में संग्रहित अन्य ज्ञान द्वारा किया जाता है. अभिव्यक्ति की प्रक्रिया के लिए भी स्मृति में संग्रहित किसी अन्य ज्ञान का उपयोग किया जाता है. यह मूल्यांकन तथा अभिव्यक्ति प्रक्रिया तभी संभव हो सकती है जब इन हेतु संग्रहित ज्ञान पर्याप्त स्वीकार कर लिया गया हो. उदाहरण के लिए, किसी विषय पर आलेखन हेतु उस विषयक शोध करके ज्ञान प्राप्त किया जाता है, इस ज्ञान के पर्याप्त होने का मूल्यांकन स्मृति में संग्रहित अन्य ज्ञान से किया जाता है. इसके पश्चात लेखन अभिव्यक्ति हेतु भाषा ज्ञान का पर्याप्त होना आवश्यक होता है. इस प्रकार इन तीनों ज्ञानों के पर्याप्त होने की आत्म-स्वीकृति के पश्चात् ही अभिव्यक्ति की जा सकती है. इस प्रकार सिद्ध हो जाता है कि प्रत्येक सृजनात्मक अभिव्यक्ति व्यक्ति के तात्कालिक ज्ञान संचय की परिणति होती है जिसके लिए ज्ञान संवर्धित करने की प्रक्रिया को विराम देना आवश्यक होता है.
यद्यपि उपरोक्त तर्क सृजनात्मक अभिव्यक्ति हेतु सिद्ध किया गया है, तथापि व्यक्ति के प्रत्येक कर्म हेतु जानने की प्रक्रिया को विराम देना होता है. इसके विपरीत, प्रत्येक कर्म ज्ञान के तात्कालिक उत्कर्ष की स्वीकृति का परिणाम होता है, और यदि ज्ञान संवर्धन की प्रक्रिया जारी रहती है तो कर्म नहीं किया जा सकता. इससे यह भी सिद्ध होता है कि व्यक्ति का मस्तिष्क, जो ज्ञान प्राप्त करता है, और शरीर, जो कर्म करता है, एक ही समय पर कार्यशील नहीं रहते.
हमारी सृजनात्मक अभिव्यक्तियाँ हमारे अवचेतन मन के कर्म होती हैं जब कि जानने की प्रक्रिया चेतन मन से संचालित होती है. चेतन मन जब पर्याप्त ज्ञान अवचेतन मन को प्रदान कर देता है तभी अवचेतन मन सृजन कार्य कर सकता है. इस प्राविधि में चेतन मन जब जानने से संतुष्ट हो जाता है तब वह 'और अधिक न जानने' की स्थिति में आ जाता है और व्यक्ति चेतन मन से बाहर आकर अवचेतन अवस्था में पहुँच कर सृजन करता है.
जानने और सोचने की प्रक्रियाएं चेतन मन द्वारा संपन्न होती हैं और इनके निर्गत अवचेतन मन को प्रदान कर दिए जाते हैं. तब चेतन मन अपना कार्य बंद कर देता है अवचेतन मन इसके आधार पर सृजनात्मक अभिव्यक्ति का अपना कार्य आरम्भ करता है. इस प्रक्रिया की अवधि में यदि चेतन मन पाता है कि ज्ञान अभी अधूरा है तो वह अभिव्यक्ति प्रक्रिया में व्यवधान उत्पन्न कर देता है. चूंकि अवचेतन मन जानने और सोचने के कर्म नहीं करता है इसलिए यह सदैव यह मानता है कि यह सबकुछ जानता है.
न तो ज्ञान के विषयों की कोई सीमा है और न ही किसी विषय के ज्ञान की कोई सीमा है अतः ज्ञान प्राप्त करने की प्रक्रिया सदा-सदा चलती रहती है और यह जीवन का एक सकारात्मक पक्ष है. तथापि उपरोक्त तर्क सिद्ध करता है कि जीवन के उद्येश्यों की पूर्ति के लिए इसी के किसी न किसी सकारात्मक पक्ष को भी सीमित करना आवश्यक हो जाता है. अतः, जीवन में ऐसा कुछ भी नहीं होता जो प्रत्येक परिस्थिति सकारात्मक सिद्ध होता हो.
प्रत्येक सृजनात्मक अभिव्यक्ति रचनाकार के उस विषयक ज्ञान का प्रतिरूप होती है, और इसका उत्कर्ष तभी प्राप्त किया जा सकता है जब ज्ञान का उत्कर्ष स्वीकार कर लिया गया हो - चाहे यह स्वीकृति सदा के लिए न होकर उस अभिव्यक्ति हेतु तात्कालिक ही क्यों न हो.
जानने की प्रक्रिया द्वारा अभिव्यक्ति हेतु ज्ञान प्राप्त किया जाता है. इस ज्ञान का मूल्यांकन स्मृति में संग्रहित अन्य ज्ञान द्वारा किया जाता है. अभिव्यक्ति की प्रक्रिया के लिए भी स्मृति में संग्रहित किसी अन्य ज्ञान का उपयोग किया जाता है. यह मूल्यांकन तथा अभिव्यक्ति प्रक्रिया तभी संभव हो सकती है जब इन हेतु संग्रहित ज्ञान पर्याप्त स्वीकार कर लिया गया हो. उदाहरण के लिए, किसी विषय पर आलेखन हेतु उस विषयक शोध करके ज्ञान प्राप्त किया जाता है, इस ज्ञान के पर्याप्त होने का मूल्यांकन स्मृति में संग्रहित अन्य ज्ञान से किया जाता है. इसके पश्चात लेखन अभिव्यक्ति हेतु भाषा ज्ञान का पर्याप्त होना आवश्यक होता है. इस प्रकार इन तीनों ज्ञानों के पर्याप्त होने की आत्म-स्वीकृति के पश्चात् ही अभिव्यक्ति की जा सकती है. इस प्रकार सिद्ध हो जाता है कि प्रत्येक सृजनात्मक अभिव्यक्ति व्यक्ति के तात्कालिक ज्ञान संचय की परिणति होती है जिसके लिए ज्ञान संवर्धित करने की प्रक्रिया को विराम देना आवश्यक होता है.
यद्यपि उपरोक्त तर्क सृजनात्मक अभिव्यक्ति हेतु सिद्ध किया गया है, तथापि व्यक्ति के प्रत्येक कर्म हेतु जानने की प्रक्रिया को विराम देना होता है. इसके विपरीत, प्रत्येक कर्म ज्ञान के तात्कालिक उत्कर्ष की स्वीकृति का परिणाम होता है, और यदि ज्ञान संवर्धन की प्रक्रिया जारी रहती है तो कर्म नहीं किया जा सकता. इससे यह भी सिद्ध होता है कि व्यक्ति का मस्तिष्क, जो ज्ञान प्राप्त करता है, और शरीर, जो कर्म करता है, एक ही समय पर कार्यशील नहीं रहते.
हमारी सृजनात्मक अभिव्यक्तियाँ हमारे अवचेतन मन के कर्म होती हैं जब कि जानने की प्रक्रिया चेतन मन से संचालित होती है. चेतन मन जब पर्याप्त ज्ञान अवचेतन मन को प्रदान कर देता है तभी अवचेतन मन सृजन कार्य कर सकता है. इस प्राविधि में चेतन मन जब जानने से संतुष्ट हो जाता है तब वह 'और अधिक न जानने' की स्थिति में आ जाता है और व्यक्ति चेतन मन से बाहर आकर अवचेतन अवस्था में पहुँच कर सृजन करता है.
जानने और सोचने की प्रक्रियाएं चेतन मन द्वारा संपन्न होती हैं और इनके निर्गत अवचेतन मन को प्रदान कर दिए जाते हैं. तब चेतन मन अपना कार्य बंद कर देता है अवचेतन मन इसके आधार पर सृजनात्मक अभिव्यक्ति का अपना कार्य आरम्भ करता है. इस प्रक्रिया की अवधि में यदि चेतन मन पाता है कि ज्ञान अभी अधूरा है तो वह अभिव्यक्ति प्रक्रिया में व्यवधान उत्पन्न कर देता है. चूंकि अवचेतन मन जानने और सोचने के कर्म नहीं करता है इसलिए यह सदैव यह मानता है कि यह सबकुछ जानता है.
रविवार, 12 सितंबर 2010
चुनावी बुखार
उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनावों का दौर आरम्भ हो चुका है जिस में किसी वैचारिकता अथवा आदर्श को कोई स्थान प्राप्त नहीं हो रहा है. सभी समीकरणों का आधार 'जाति' है जिसे शराबखोरी से सशक्त किया जा रहा है. गाँव प्रधान पद अन्य पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षित किये जाने से मैं चुनाव मैदान से बाहर हूँ किन्तु मेरी भूमिका का कुछ महत्व बना हुआ है.
गाँव में एक-दो व्यक्ति ही ऐसे हैं जिनकी ईमानदारी पर मैं विश्वास कर सकता हूँ और उन्हें अपना प्रत्याशी बना सकता हूँ किन्तु वे इसके लिए राजी नहीं हो पा रहे हैं. इस का बड़ा कारण यह है कि ग्राम प्रधान पद महिलाओं के लिए आरक्षित है. भली महिलाएं आज भी पुरुष समाज से दूर रहना ही पसंद करती हैं. वस्तुतः, महिलाओं का राजनीति में कोई महत्व नहीं है, इनके लिए आरक्षण करना राष्ट्र-स्तरीय राजनीति का एक दुखद पहलू है जो गाँव स्तर की राजनीति को भी दुष्प्रभावित कर रहा है. जो भी स्त्रियाँ पंचायत चुनावी मैदान में उतारी जाती हैं वे सभी अपने पतियों की प्रतिछाया और संरक्षण में रहकर अपने नाम का निर्वाह करती हैं. इनमें से अधिकाँश निरक्षर हैं और घूँघट से भी बाहर नहीं आती हैं. इस प्रकार महिला आरक्षण भारतीय राजनीति का एक सबसे विकराल और निरर्थक उपहास है.
गाँव प्रमुखतः तीन लगभग समान खेमों में बँटा हुआ है - राजोरा जाट, लोध-जाटव, और अन्य. मैं अन्य वर्ग में सम्मिलित हूँ और इसका अनौपचारिक प्रतिनिधित्व करता हूँ. प्रथम दो खेमों से तीन-तीन व्यक्ति प्रत्याशी बनने के लिए संघर्षशील हैं किन्तु मेरे खेमों से अभी कोई व्यक्ति इस मैदान के लिए तैयार नहीं हुआ है. इस रिक्ति का कारण यह है कि इसमे डागुर तथा देंगरी जाटों सहित अनेक जातियां सम्मिलित हैं और मेरी उपस्थिति के कारण इसमें कुछ अनुशासन बना हुआ है जिससे कोई भी व्यक्ति प्रत्याशी बनने के उपयुक्त नहीं समझा जा सकता. इस खेमे के प्रत्याशी बनने के लिए कड़ी कसौटियां है, जिनमें ईमानदारी, शराबखोरी से दूरी, महिलाओं के प्रति सम्मान की भावना, ग्राम-विकास के प्रति समर्पण, आदि सम्मिलित हैं जब कि अन्य खेमों में ऐसी कोई कसौटी नहीं हैं. कुछ समय पूर्व हुए बलात्कार के अपराधी के पक्षधर चुनाव मैदान में प्रत्याशी बने हुए हैं और जातीय आधार पर समर्थन भी प्राप्त कर रहे हैं.
गाँव में मतदाताओं को रिझाने के लिए शराबखोरी का दौर आरम्भ कर दिया गया है जिसमें किशोरों से लेकर वृद्धों तक को प्रत्याशियों द्वारा निःशुल्क शराब पिलाई जा रही है. मैं इसका प्रबल विरोधी हूँ और इसे सीमित करने के लिए पुलिस और प्रशासन की भी सहायता ले रहा हूँ. इसके कारण गाँव में शराब का अवैध विक्रय सीमित है. कुछ आस-पास के गाँवों में जाकर भी मैंने शराबखोरी के विरुद्ध जनमत तैयार किया है किन्तु प्रत्याशियों द्वारा इसके प्रचार-प्रसार के कारण मुझे कोई विशेष सफलता नहीं मिली है. केवल विरोधी स्वर जीवित रखने का प्रयास है.
शराबखोरी का विकास उन दोनों खेमों से किया जा रहा है जिनमें से एक खेमा बलात्कार और अन्य अपराधों का समर्थक रहा है, तथा दूसरे खेमे से निवर्तमान प्रधान चुना गया था जिसका पूरा परिवार निरक्षर है तथा विगत ५ वर्षों में गाँव में कोई विकास कार्य नहीं किया गया है. इस प्रकार इनमें से एक खेमा अपराधी प्रवृत्ति वाला है तो दूसरा मूर्खों का. मतदाताओं का समर्थन प्राप्त करने के लिए इनके पास शराबखोरी और जातीयता के अतिरिक्त कोई अन्य विशिष्टता नहीं है. तथापि ये दोनों खेमे इन दोषों के कारण सफल भी होते रहे हैं. यही भारतीय राजनीति की विडम्बना है.
गाँव में एक-दो व्यक्ति ही ऐसे हैं जिनकी ईमानदारी पर मैं विश्वास कर सकता हूँ और उन्हें अपना प्रत्याशी बना सकता हूँ किन्तु वे इसके लिए राजी नहीं हो पा रहे हैं. इस का बड़ा कारण यह है कि ग्राम प्रधान पद महिलाओं के लिए आरक्षित है. भली महिलाएं आज भी पुरुष समाज से दूर रहना ही पसंद करती हैं. वस्तुतः, महिलाओं का राजनीति में कोई महत्व नहीं है, इनके लिए आरक्षण करना राष्ट्र-स्तरीय राजनीति का एक दुखद पहलू है जो गाँव स्तर की राजनीति को भी दुष्प्रभावित कर रहा है. जो भी स्त्रियाँ पंचायत चुनावी मैदान में उतारी जाती हैं वे सभी अपने पतियों की प्रतिछाया और संरक्षण में रहकर अपने नाम का निर्वाह करती हैं. इनमें से अधिकाँश निरक्षर हैं और घूँघट से भी बाहर नहीं आती हैं. इस प्रकार महिला आरक्षण भारतीय राजनीति का एक सबसे विकराल और निरर्थक उपहास है.
गाँव प्रमुखतः तीन लगभग समान खेमों में बँटा हुआ है - राजोरा जाट, लोध-जाटव, और अन्य. मैं अन्य वर्ग में सम्मिलित हूँ और इसका अनौपचारिक प्रतिनिधित्व करता हूँ. प्रथम दो खेमों से तीन-तीन व्यक्ति प्रत्याशी बनने के लिए संघर्षशील हैं किन्तु मेरे खेमों से अभी कोई व्यक्ति इस मैदान के लिए तैयार नहीं हुआ है. इस रिक्ति का कारण यह है कि इसमे डागुर तथा देंगरी जाटों सहित अनेक जातियां सम्मिलित हैं और मेरी उपस्थिति के कारण इसमें कुछ अनुशासन बना हुआ है जिससे कोई भी व्यक्ति प्रत्याशी बनने के उपयुक्त नहीं समझा जा सकता. इस खेमे के प्रत्याशी बनने के लिए कड़ी कसौटियां है, जिनमें ईमानदारी, शराबखोरी से दूरी, महिलाओं के प्रति सम्मान की भावना, ग्राम-विकास के प्रति समर्पण, आदि सम्मिलित हैं जब कि अन्य खेमों में ऐसी कोई कसौटी नहीं हैं. कुछ समय पूर्व हुए बलात्कार के अपराधी के पक्षधर चुनाव मैदान में प्रत्याशी बने हुए हैं और जातीय आधार पर समर्थन भी प्राप्त कर रहे हैं.
गाँव में मतदाताओं को रिझाने के लिए शराबखोरी का दौर आरम्भ कर दिया गया है जिसमें किशोरों से लेकर वृद्धों तक को प्रत्याशियों द्वारा निःशुल्क शराब पिलाई जा रही है. मैं इसका प्रबल विरोधी हूँ और इसे सीमित करने के लिए पुलिस और प्रशासन की भी सहायता ले रहा हूँ. इसके कारण गाँव में शराब का अवैध विक्रय सीमित है. कुछ आस-पास के गाँवों में जाकर भी मैंने शराबखोरी के विरुद्ध जनमत तैयार किया है किन्तु प्रत्याशियों द्वारा इसके प्रचार-प्रसार के कारण मुझे कोई विशेष सफलता नहीं मिली है. केवल विरोधी स्वर जीवित रखने का प्रयास है.
शराबखोरी का विकास उन दोनों खेमों से किया जा रहा है जिनमें से एक खेमा बलात्कार और अन्य अपराधों का समर्थक रहा है, तथा दूसरे खेमे से निवर्तमान प्रधान चुना गया था जिसका पूरा परिवार निरक्षर है तथा विगत ५ वर्षों में गाँव में कोई विकास कार्य नहीं किया गया है. इस प्रकार इनमें से एक खेमा अपराधी प्रवृत्ति वाला है तो दूसरा मूर्खों का. मतदाताओं का समर्थन प्राप्त करने के लिए इनके पास शराबखोरी और जातीयता के अतिरिक्त कोई अन्य विशिष्टता नहीं है. तथापि ये दोनों खेमे इन दोषों के कारण सफल भी होते रहे हैं. यही भारतीय राजनीति की विडम्बना है.
लेबल:
जातीयता,
पंचायत चुनाव,
भारतीय राजनीति,
महिला आरक्षण,
शराबखोरी
सोमवार, 6 सितंबर 2010
जिज्ञासा - समग्र जीवन की उत्प्रेरक
जिज्ञासा, अर्थात कुछ नया जानने की उत्कंठा, मनुष्य जाति का वह धर्म है जिसने इस जाति को इस धरा की सर्वोत्कृष्ट जाति बनाया है. यही मनुष्य को जीवंत बनाती है. इसी के कारण विशिष्ट वस्तुओं में हमारी रूचि जागृत होती है जिससे हमें प्रसन्नता प्राप्त होती है. यद्यपि जिज्ञासा जीवन की अन्तः प्रेरणा होती है, यह प्रतिकूल परिस्थितियों में मृतप्रायः हो सकती है तथा इसे प्रयासों से संवर्धित किया जा सकता है.
अपने चारों ओर के विश्व में अपनी जिज्ञासा जागृत करने की कुंजी हमारे द्वारा दृश्यों को देखने, ध्वनियों को श्रवन करने, गंधों को सूंघने, स्पर्श करने, स्वादों को चखने, आदि में निष्क्रिय रहने की अपेक्षा सक्रिय भूमिका है. जब हम किसी गली से होकर गुजरते हैं तो हमें अनेक वस्तुएं स्वतः दिखाई देती हैं किन्तु हम उनमें से कुछ वस्तुओं में ही रूचि लेते हैं. बाद में यदि उक्त दृश्यावली को स्मृत करें तो केवल हमरे द्वारा रूचि ली गयी वस्तुएं ही हमारे स्मरण में आती हैं जैसे कि अन्य वस्तुएं वहां उपस्थित ही न हों. इससे दो तथ्य उभरते हैं - हमारा मस्तिष्क उन्ही वस्तुओं को स्मृत रखता है जिनमें हम सक्रिय रूचि लेते हैं तथा हममें से प्रत्येक का विश्व वहीं तक सीमित होता है जहां तक हमारी रूचि का विस्तार होता है. अतः हमारी रूचि जो जिज्ञासा से उगती है, हमारे मस्तिष्क को सक्रिय बनाती है, और हमारी जिज्ञासा ही हमारे विश्व स्वरुप का निर्माण करती है.
जिज्ञासा ऊर्जित और संवर्धित करने के कुछ उपाय निम्नांकित हैं, अपनाईये और जीवंत बनिए. केवल जीवित होना जीवन के लिए पर्याप्त नहीं है.
जीवन के उत्कर्ष
मुझे अभी तक अपनी प्रथम पुत्री के जन्म के समय उसका देखा जाना स्मृत है क्योंकि वह मेरे जीवन का उत्कर्ष भरा क्षण था, जबकि उसके बाद की अनेक महत्वपूर्ण घटनाएं और दृश्य विस्मृत से हो गए हैं. ऐसे आह्लाद भरे क्षणों के अतिरिक्त हमारी चिंताएं, अनिश्चितताएं, आदि यद्यपि ऋणात्मक मानी जाती हैं किन्तु ये भी जीवन में उत्कर्ष के क्षण उत्पन्न करती हैं जिनसे हम अपने चारों ओर की वस्तुओं और घटनाओं के बारे में अधिक सचेत होते हैं. दूसरे शब्दों में, सहज जीवन के ये ऋणात्मक भाव भी हमारे मस्तिष्क को अधिक सक्रिय कर हमें जिज्ञासु बना सकते हैं. बस आवश्यकता होती है अपने जीवन में उत्कर्ष के क्षणों का सदुपयोग करने की, जागृत और सचेत होकर अपने चारों ओर की वस्तुओं, घटनाओं और परिस्थितियों के प्रति, जिनमें ही उत्कर्ष के पाल पाए जा सकते हैं.
जीवन के किनारे
जैसे नदी की मुख्य धारा का जल प्रवाह तो सभी का ध्यान आकृष्ट करता है किन्तु किनारे पर तैरते कूड़े-करकट के पुंज नगण्य समझ लिए जाते हैं. ध्यान दें तो इनमें भी अनेक कलात्मक दृश्य उजागर होते हैं. इसी प्रकार, अपनी मुख्य जीवन धारा पर तो हम सभी ध्यान देते हैं, किन्तु जीवन के किनारे, अर्थात छोटी-छोटी घटनाएँ, वस्तुएं, आदि, हमारी यात्रा में बिना ध्यान आकृष्ट किये ही पीछे छूटते जाते हैं. खोजने पर ज्ञात होता है कि इन नगण्य वस्तुओं, घटनाओं, आदि में भी बहुत कुछ जानने के लिए होता है. यह समय का नष्ट करना न होकर, जीवन को समग्र रूप में देखना होता है. किसी वृहत उपन्यास की मूल कथा कुछ शब्दों में कही जा सकती है किन्तु इससे श्रोताओं को मंत्रमुग्ध नहीं किया जा सकता, जिसके लिए कथा के ताने-बाने बारीकी से उभारे जाते हैं. श्रोताओं के बांधे रखने में ही कथा की सार्थकता निहित होती है. एक बार केरल की यात्रा में कोचीन-त्रिवेंदृम मुख्य मार्ग पर गाडी सरपट दौड़ी जा रही थी. यात्रा समाप्ति की शीघ्रता पर सभी का ध्यान था जिससे सड़क पर आते-जाते अन्य वाहन ही यात्रा की मुख्य धारा प्रतीत हो रहे थे. किन्तु मार्ग से हटकर खजूर वृक्षों के आलिंगनों में छोटे-छोटे चित्रात्मक भवन और उनके आसपास खेलते हुए बच्चे मुझे आह्लादित कर रहे थे जिनका यात्रा से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं था. स्वयं यात्रा का कोई महत्व नहीं होता यदि स्थानीय जीवन शैली और पारिस्थितिकी को आत्मसात न किया जाए.
पुनरावलोकन
हमें बहुधा प्रतीत होता है कि परिचित व्यक्तियों और वस्तुओं से हम पूरी तरह परिचित होते हैं, जबकि वस्तुतः ऐसा नहीं होता. प्रत्येक परिचित वस्तु अथवा व्यक्ति में भी अनाकानेक हमारे लिए अपरिचित तथ्य विद्यमान होते हैं जिन्हें बार-बार पुनरावलोकन से पाया जा सकता है. परिचय तभी तो पूर्ण हो पाता है. जिज्ञासा प्रवृत्ति जागृत बनाए रखने के लिए जब भी किसी परिचित वस्तु अथवा व्यक्ति को देखें उसमें कुछ नया खोजें, कुछ नया जानने का प्रयास करें. विश्वविद्यालयी जीवन काल में एक मित्र था जिसने शर्मीला टगोर अभिनीत एक फिल्म १८ बार देखी थी और उसका कहना था कि तब भी बहुत कुछ देखने योग्य शेष रह गया था. ऐसे कुछ अब्यासों के बाद उसकी आदत बन गयी थी कि वह फिल्म को एक बार देख कर ही उसके सूक्ष्मतम तथ्यों को आत्मसात कर लेता था और उनको बयान कर सकता था.
काम-काज में खेल
प्रत्येक कार्य करते हुए उसे खेल का रूप देने की संभावना होती है. किसी कार्य हेतु बैठे हुए यदा-कदा अपनी परछाईं को सूक्षमता से देखिये, इसमें आनंद मिलेगा जो कार्य को बोझिल नहीं होने देगा. इस प्रकार का आनंद कार्य से विमुख नहीं करता, उसे करने में रूचि बनाए रखता है जिससे कार्य-कौशल का संवर्धन होता है. इस प्रकार के आनंद और कार्य-कौशल का मूल स्रोत जिज्ञासा होती है - जो कुछ अप्रयासित हो रहा होता है उसके प्रति. रुड़की विश्वविद्यालय में इंजीनियरिंग का छात्र होने के समय मैं अपने एक अवकाश हेतु आवेदन में लिखा था, "... मैं कक्षा में उपस्थित रहने का आनंद नहीं ले सकूंगा..." इस पर कक्षाध्यापक ने आपत्ति की थी तो मैंने जिद करके कहा था, "मुझे कक्षा में अपने मित्रों के साथ उपस्थित रहने और शिक्षा गृहण करने में वास्तव में आनंद आता है इसलिए आवेदन में ऐसा लिखा जाना मेरी विवशता है....." यह विषय चर्चित हुआ और छात्र जीवन को एक नया दर्शन मिला. .
रूचि विविधता
एक-रसता जिज्ञासा का हनन करती है इसलिए निष्क्रियता को जन्म देती है. इसके विपरीत, विविधता जिज्ञासा और सक्रियता विकास में उत्प्रेरक होती है. मैं १५ प्रथक विषयों पर ब्लॉग लिखता हूँ जिसके लिए इन विविध विषयों का अध्ययन करता हूँ और लगातार १०-१२ घंटे अपनी मेज पर बैठा इन कार्यों से कभी ऊबता नहीं हूँ - केवल विषयों की विविधता के कारण. इससे मेरी सम्बद्ध विषयों में जिज्ञासा बनी रहती है और मैं अपने ज्ञान संवर्धन हेतु सदैव प्रयासरत रहता हूँ - एक नव-शिक्षु की तरह.
अपने चारों ओर के विश्व में अपनी जिज्ञासा जागृत करने की कुंजी हमारे द्वारा दृश्यों को देखने, ध्वनियों को श्रवन करने, गंधों को सूंघने, स्पर्श करने, स्वादों को चखने, आदि में निष्क्रिय रहने की अपेक्षा सक्रिय भूमिका है. जब हम किसी गली से होकर गुजरते हैं तो हमें अनेक वस्तुएं स्वतः दिखाई देती हैं किन्तु हम उनमें से कुछ वस्तुओं में ही रूचि लेते हैं. बाद में यदि उक्त दृश्यावली को स्मृत करें तो केवल हमरे द्वारा रूचि ली गयी वस्तुएं ही हमारे स्मरण में आती हैं जैसे कि अन्य वस्तुएं वहां उपस्थित ही न हों. इससे दो तथ्य उभरते हैं - हमारा मस्तिष्क उन्ही वस्तुओं को स्मृत रखता है जिनमें हम सक्रिय रूचि लेते हैं तथा हममें से प्रत्येक का विश्व वहीं तक सीमित होता है जहां तक हमारी रूचि का विस्तार होता है. अतः हमारी रूचि जो जिज्ञासा से उगती है, हमारे मस्तिष्क को सक्रिय बनाती है, और हमारी जिज्ञासा ही हमारे विश्व स्वरुप का निर्माण करती है.
जिज्ञासा ऊर्जित और संवर्धित करने के कुछ उपाय निम्नांकित हैं, अपनाईये और जीवंत बनिए. केवल जीवित होना जीवन के लिए पर्याप्त नहीं है.
जीवन के उत्कर्ष
मुझे अभी तक अपनी प्रथम पुत्री के जन्म के समय उसका देखा जाना स्मृत है क्योंकि वह मेरे जीवन का उत्कर्ष भरा क्षण था, जबकि उसके बाद की अनेक महत्वपूर्ण घटनाएं और दृश्य विस्मृत से हो गए हैं. ऐसे आह्लाद भरे क्षणों के अतिरिक्त हमारी चिंताएं, अनिश्चितताएं, आदि यद्यपि ऋणात्मक मानी जाती हैं किन्तु ये भी जीवन में उत्कर्ष के क्षण उत्पन्न करती हैं जिनसे हम अपने चारों ओर की वस्तुओं और घटनाओं के बारे में अधिक सचेत होते हैं. दूसरे शब्दों में, सहज जीवन के ये ऋणात्मक भाव भी हमारे मस्तिष्क को अधिक सक्रिय कर हमें जिज्ञासु बना सकते हैं. बस आवश्यकता होती है अपने जीवन में उत्कर्ष के क्षणों का सदुपयोग करने की, जागृत और सचेत होकर अपने चारों ओर की वस्तुओं, घटनाओं और परिस्थितियों के प्रति, जिनमें ही उत्कर्ष के पाल पाए जा सकते हैं.
जीवन के किनारे
जैसे नदी की मुख्य धारा का जल प्रवाह तो सभी का ध्यान आकृष्ट करता है किन्तु किनारे पर तैरते कूड़े-करकट के पुंज नगण्य समझ लिए जाते हैं. ध्यान दें तो इनमें भी अनेक कलात्मक दृश्य उजागर होते हैं. इसी प्रकार, अपनी मुख्य जीवन धारा पर तो हम सभी ध्यान देते हैं, किन्तु जीवन के किनारे, अर्थात छोटी-छोटी घटनाएँ, वस्तुएं, आदि, हमारी यात्रा में बिना ध्यान आकृष्ट किये ही पीछे छूटते जाते हैं. खोजने पर ज्ञात होता है कि इन नगण्य वस्तुओं, घटनाओं, आदि में भी बहुत कुछ जानने के लिए होता है. यह समय का नष्ट करना न होकर, जीवन को समग्र रूप में देखना होता है. किसी वृहत उपन्यास की मूल कथा कुछ शब्दों में कही जा सकती है किन्तु इससे श्रोताओं को मंत्रमुग्ध नहीं किया जा सकता, जिसके लिए कथा के ताने-बाने बारीकी से उभारे जाते हैं. श्रोताओं के बांधे रखने में ही कथा की सार्थकता निहित होती है. एक बार केरल की यात्रा में कोचीन-त्रिवेंदृम मुख्य मार्ग पर गाडी सरपट दौड़ी जा रही थी. यात्रा समाप्ति की शीघ्रता पर सभी का ध्यान था जिससे सड़क पर आते-जाते अन्य वाहन ही यात्रा की मुख्य धारा प्रतीत हो रहे थे. किन्तु मार्ग से हटकर खजूर वृक्षों के आलिंगनों में छोटे-छोटे चित्रात्मक भवन और उनके आसपास खेलते हुए बच्चे मुझे आह्लादित कर रहे थे जिनका यात्रा से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं था. स्वयं यात्रा का कोई महत्व नहीं होता यदि स्थानीय जीवन शैली और पारिस्थितिकी को आत्मसात न किया जाए.
पुनरावलोकन
हमें बहुधा प्रतीत होता है कि परिचित व्यक्तियों और वस्तुओं से हम पूरी तरह परिचित होते हैं, जबकि वस्तुतः ऐसा नहीं होता. प्रत्येक परिचित वस्तु अथवा व्यक्ति में भी अनाकानेक हमारे लिए अपरिचित तथ्य विद्यमान होते हैं जिन्हें बार-बार पुनरावलोकन से पाया जा सकता है. परिचय तभी तो पूर्ण हो पाता है. जिज्ञासा प्रवृत्ति जागृत बनाए रखने के लिए जब भी किसी परिचित वस्तु अथवा व्यक्ति को देखें उसमें कुछ नया खोजें, कुछ नया जानने का प्रयास करें. विश्वविद्यालयी जीवन काल में एक मित्र था जिसने शर्मीला टगोर अभिनीत एक फिल्म १८ बार देखी थी और उसका कहना था कि तब भी बहुत कुछ देखने योग्य शेष रह गया था. ऐसे कुछ अब्यासों के बाद उसकी आदत बन गयी थी कि वह फिल्म को एक बार देख कर ही उसके सूक्ष्मतम तथ्यों को आत्मसात कर लेता था और उनको बयान कर सकता था.
काम-काज में खेल
प्रत्येक कार्य करते हुए उसे खेल का रूप देने की संभावना होती है. किसी कार्य हेतु बैठे हुए यदा-कदा अपनी परछाईं को सूक्षमता से देखिये, इसमें आनंद मिलेगा जो कार्य को बोझिल नहीं होने देगा. इस प्रकार का आनंद कार्य से विमुख नहीं करता, उसे करने में रूचि बनाए रखता है जिससे कार्य-कौशल का संवर्धन होता है. इस प्रकार के आनंद और कार्य-कौशल का मूल स्रोत जिज्ञासा होती है - जो कुछ अप्रयासित हो रहा होता है उसके प्रति. रुड़की विश्वविद्यालय में इंजीनियरिंग का छात्र होने के समय मैं अपने एक अवकाश हेतु आवेदन में लिखा था, "... मैं कक्षा में उपस्थित रहने का आनंद नहीं ले सकूंगा..." इस पर कक्षाध्यापक ने आपत्ति की थी तो मैंने जिद करके कहा था, "मुझे कक्षा में अपने मित्रों के साथ उपस्थित रहने और शिक्षा गृहण करने में वास्तव में आनंद आता है इसलिए आवेदन में ऐसा लिखा जाना मेरी विवशता है....." यह विषय चर्चित हुआ और छात्र जीवन को एक नया दर्शन मिला. .
रूचि विविधता
एक-रसता जिज्ञासा का हनन करती है इसलिए निष्क्रियता को जन्म देती है. इसके विपरीत, विविधता जिज्ञासा और सक्रियता विकास में उत्प्रेरक होती है. मैं १५ प्रथक विषयों पर ब्लॉग लिखता हूँ जिसके लिए इन विविध विषयों का अध्ययन करता हूँ और लगातार १०-१२ घंटे अपनी मेज पर बैठा इन कार्यों से कभी ऊबता नहीं हूँ - केवल विषयों की विविधता के कारण. इससे मेरी सम्बद्ध विषयों में जिज्ञासा बनी रहती है और मैं अपने ज्ञान संवर्धन हेतु सदैव प्रयासरत रहता हूँ - एक नव-शिक्षु की तरह.
रविवार, 5 सितंबर 2010
विश्वीय दृष्टिकोण, स्थानीय कर्म
बौद्धिक जनतंत्र के लिए स्थानीय हितों की रक्षा सर्वोपरि होता है - राष्ट्र, क्षेत्र, गाँव, आदि के सापेक्ष. जबकि विकासशील विश्व में जनतंत्र के अंतर्गत प्रत्येक उत्तम वस्तु निर्यात कर दी जाती है उस विदेशी मुद्रा के लिए जिस के उपयोग से घटिया वस्तुएं देश में लाई जाती हैं. यह किसी व्यावसायिक इकाई के लिए हितकर प्रतीत हो सकता है किन्तु राष्ट्र और समाज के लिए अनेक प्रकार से अनुत्पादक सिद्ध होता है और बौद्धिक दृष्टि से अनैतिक भी है.
यहाँ एक मौलिक प्रश्न उभरता है - विश्वीय दृष्टिकोण की आवश्यकता ही क्या है? इसका हमारे पास एक अति उत्तम उत्तर है. यदि लोग जो चाहें, उन्हें सरकार द्वारा वही सब उपलब्ध कराया जाए तो वे संतुष्ट हो सकते हैं. किन्तु बौद्धिक विश्व इससे संतुष्ट नहीं हो सकता. लोग केवल वही चाह सकते हैं जो वे जानते हैं, किन्तु विश्व में उनके ज्ञान के अतिरिक्त भी बहुत कुछ होता है जो उन्हें शासन द्वारा उपलब्ध कराया जाना चाहिए. इससे शासन में लोगों की आस्था सुदृढ़ होती है और विश्वीय विकास से लोगों की सेवा संभव होती है. इसके लिए शासकों के विश्वीय दृष्टिकोण अपनाना अनिवार्य होता है.
विश्वीय दृष्टिकोण से स्थानीय कर्म संलग्न होने से शासन द्वारा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विकसित उत्पादों को देश में आयात की अनुमति प्राप्त ना होकर उन उत्पादों के देश में ही उत्पादन एवं लोगों द्वारा उपभोग उत्प्रेरित होता है. इससे देश में व्यवसाय और रोजगार के नए अवसर विकसित होते हैं जिनसे व्यक्तिगत और राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था सुदृढ़ होती है.
शासन का विश्वीय दृष्टिकोण देश की अर्थव्यवस्था के विश्वीकरण से भिन्न प्रक्रिया है. विश्वीकरण में विश्व-स्तरीय कर्म अपनाया जाता है जो पूरी तरह अव्यवहारिक होता है जब कि विश्वीय दृष्टिकोण में केवल विकास का विश्वीय दर्शन अपनाया जाता है जिसे स्थानीय पारिस्थितिकी के अनुकूल किया जाकर स्थानीय कर्मों में उसका उपयोग किया जाता है. इससे विकास प्रक्रिया स्थानीय कर्मों से संचालित होती है.
वस्तुतः, भूमंडल पर प्रशासनिक और भौगोलिक सीमाओं की उपस्थिति के कारण विभिन्न स्थानों पर भिन्न परिस्थितियों का सृजन होता है जिनके कारण विश्वीय कर्म संभव नहीं हो सकता. इसलिए कर्म स्थानीय परिस्थितियों के अनुरूप स्थानीय स्तर पर ही संभव होता है. केवल दृष्टिकोण ही विश्वीय हो सकता है जिसे स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार स्थानीय कर्म में परिणित किया जाता है. .
स्थानीय दृष्टिकोण से सीमित स्थानीय कर्म होने से स्थानीय विकास स्थानीय स्तर तक ही सीमित रहता है जिसका लाभ अन्य स्थानों को प्राप्त नहीं हो पाता. विश्वीय दृष्टिकोण अपनाए जाने से दूसरे स्थानों के विकास का ही लाभ नहीं उठाया जाता, स्थानीय विकास का लाभ भी सुदूर स्थानों को प्राप्त होता है. इस प्रकार विश्वीय दृष्टिकोण विकास प्रक्रिया को विश्व स्तर तक विस्तृत करता है.
उपरोक्त के अतिरिक्त, विश्वीय दृष्टिकोण से संपन्न स्थानीय कर्म केवल कर्म-स्थल हेतु ही उपयुक्त नहीं होता अपितु उसी प्रकार के अन्य स्थलों के लिए भी उपयोगी सिद्ध होता है. उदाहरणार्थ, विश्वीय दृष्टिकोण के साथ एक छोटे से गाँव में किया गया कर्म उस प्रकार के अन्य गाँवों में भी विकास के लहर का सृजन करता है. इस लहर के सृजन का कारण यह है कि दृष्टिकोण को स्थानीय पारिस्थितिकी हेतु अनुकूलित कर लिया गया होता है जिसे उसी पारिस्थितिकी के अन्य स्थानों पर भी सरलता से लागू किया जा सकता है.
यहाँ एक मौलिक प्रश्न उभरता है - विश्वीय दृष्टिकोण की आवश्यकता ही क्या है? इसका हमारे पास एक अति उत्तम उत्तर है. यदि लोग जो चाहें, उन्हें सरकार द्वारा वही सब उपलब्ध कराया जाए तो वे संतुष्ट हो सकते हैं. किन्तु बौद्धिक विश्व इससे संतुष्ट नहीं हो सकता. लोग केवल वही चाह सकते हैं जो वे जानते हैं, किन्तु विश्व में उनके ज्ञान के अतिरिक्त भी बहुत कुछ होता है जो उन्हें शासन द्वारा उपलब्ध कराया जाना चाहिए. इससे शासन में लोगों की आस्था सुदृढ़ होती है और विश्वीय विकास से लोगों की सेवा संभव होती है. इसके लिए शासकों के विश्वीय दृष्टिकोण अपनाना अनिवार्य होता है.
विश्वीय दृष्टिकोण से स्थानीय कर्म संलग्न होने से शासन द्वारा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विकसित उत्पादों को देश में आयात की अनुमति प्राप्त ना होकर उन उत्पादों के देश में ही उत्पादन एवं लोगों द्वारा उपभोग उत्प्रेरित होता है. इससे देश में व्यवसाय और रोजगार के नए अवसर विकसित होते हैं जिनसे व्यक्तिगत और राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था सुदृढ़ होती है.
शासन का विश्वीय दृष्टिकोण देश की अर्थव्यवस्था के विश्वीकरण से भिन्न प्रक्रिया है. विश्वीकरण में विश्व-स्तरीय कर्म अपनाया जाता है जो पूरी तरह अव्यवहारिक होता है जब कि विश्वीय दृष्टिकोण में केवल विकास का विश्वीय दर्शन अपनाया जाता है जिसे स्थानीय पारिस्थितिकी के अनुकूल किया जाकर स्थानीय कर्मों में उसका उपयोग किया जाता है. इससे विकास प्रक्रिया स्थानीय कर्मों से संचालित होती है.
वस्तुतः, भूमंडल पर प्रशासनिक और भौगोलिक सीमाओं की उपस्थिति के कारण विभिन्न स्थानों पर भिन्न परिस्थितियों का सृजन होता है जिनके कारण विश्वीय कर्म संभव नहीं हो सकता. इसलिए कर्म स्थानीय परिस्थितियों के अनुरूप स्थानीय स्तर पर ही संभव होता है. केवल दृष्टिकोण ही विश्वीय हो सकता है जिसे स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार स्थानीय कर्म में परिणित किया जाता है. .
स्थानीय दृष्टिकोण से सीमित स्थानीय कर्म होने से स्थानीय विकास स्थानीय स्तर तक ही सीमित रहता है जिसका लाभ अन्य स्थानों को प्राप्त नहीं हो पाता. विश्वीय दृष्टिकोण अपनाए जाने से दूसरे स्थानों के विकास का ही लाभ नहीं उठाया जाता, स्थानीय विकास का लाभ भी सुदूर स्थानों को प्राप्त होता है. इस प्रकार विश्वीय दृष्टिकोण विकास प्रक्रिया को विश्व स्तर तक विस्तृत करता है.
उपरोक्त के अतिरिक्त, विश्वीय दृष्टिकोण से संपन्न स्थानीय कर्म केवल कर्म-स्थल हेतु ही उपयुक्त नहीं होता अपितु उसी प्रकार के अन्य स्थलों के लिए भी उपयोगी सिद्ध होता है. उदाहरणार्थ, विश्वीय दृष्टिकोण के साथ एक छोटे से गाँव में किया गया कर्म उस प्रकार के अन्य गाँवों में भी विकास के लहर का सृजन करता है. इस लहर के सृजन का कारण यह है कि दृष्टिकोण को स्थानीय पारिस्थितिकी हेतु अनुकूलित कर लिया गया होता है जिसे उसी पारिस्थितिकी के अन्य स्थानों पर भी सरलता से लागू किया जा सकता है.
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