एक प्रचलित कथावत है -
'ज्यों केले के पात पात में पात, त्यों हिन्दुओं की जात जात में जात'.
जो भारतीय समाज के यथार्थ को प्रदर्शित करती है. विश्व के किसी अन्य देश में संभवतः ऐसा नहीं है जहां जीवन और समाज के प्रत्येक क्षेत्र में व्यक्ति की जाति का इतना अधिक महत्व हो. अधिकाँश देशों में इस प्रकार के जातीय विष का अन्तर्जातीय विवाहों द्वारा शमन किया गया है. भारत में भी पश्चिमी बंगाल में अब कुछ ऐसा होने लगा है जिसे समाज की भी सहज स्वीकृति प्राप्त हो जाती है. अन्य क्षेत्रों में युवा प्रेमी छिपकर अन्तर्जातीय विवाह कर रहे हैं किन्तु समाज उन्हें सामान्यतः मान्यता नहीं देता है.
जातीयता भारतीय जीवन के प्रत्येक अंग को प्रदूषित कर रही है, यहाँ तक कि जनतांत्रिक चुनावों में मतदाता जातीय आधार पर ही सरकार का चुनाव कर रहे हैं, जिसे सभी राजनैतिक दल भी पुष्ट कर रहे हैं. अतः सरकारें सार्वजनिक हितों की अवहेलना कर जातीय हितों के लिए कार्य कर रही हैं.
भारत में जातीय भेद का मुख्य कारण यह है कि यहाँ अनेक प्रकार की जीवनशैलियों वाली जातियां आकर बसती रही हैं, जिनमें से अधिकाँश असभ्य थीं और यहाँ सांस्कृतिक प्रदूषण हेतु ही लाई गयी थीं. महिलाओं के अपहरण और उनके साथ दुराचार इनके प्रमुख व्यसन थे. स्थानीय लोगों को अपने सम्मान और संपदा के सुरक्षा के लिए उनसे दूर रहना आवश्यक था. इसी कारण से भारत में स्त्रियों के लिए परदे में रहना आवश्यक समझा गया जो प्रचलन अनेक क्षेत्रों में आज भी है.
बौद्धिक जनतंत्र जातीय भेद को मान्यता नहीं देता किन्तु इसके लिए यह अतीव आवश्यक है कि समाज में कठोर अनुशासन की स्थापना हो, विशेषकर भारतीय समाज में जहां आज भी अनेक जातियां अपने जंगली व्यवहार का परित्याग नहीं कर रही हैं. स्त्रियों और निस्सहाय लोगों के प्रति अपराध इन्ही जातियों के जंगली व्यवहार के कारण हो रहे हैं.
समाज को अनुशासित करने के लिए दो आवश्यक वान्छाएं हैं - न्याय व्यवस्था सुचारू हो तथा दंड विधान कठोर हो. जबकि आज के भारत की वास्तविकता यह है कि न्याय व्यवस्था पूरे तरह निष्फल है और दंड व्यवस्था अति लचर है. बौद्धिक जनतंत्र में न्याय व्यवस्था को सुचारू रखना स्वास्थ और शिक्षा के समान प्राथमिकता दी गयी है. दंड व्यवस्था को कठोर बनने के लिए मृत्यु दंड आवश्यक माना गया है जब कि विश्व भर की जंगली जातियां मृत्यु दंड का विरोध कर रही हैं.
बौद्धिक जनतंत्र दो प्रकार के अपराधों के लिए मृत्यु दंड अनिवार्य मानता है - राष्ट्रद्रोह तथा स्त्रियों के प्रति दुराचार. इसके साथ ही राजकीय पद का दुरूपयोग करते हुए भृष्ट आचरण राष्ट्रद्रोह माना गया है. स्त्री समाज के सम्मान की प्रतीक ही नहीं होती यह समाज की निर्माता भी होती है.
उक्त प्रावधानों से भारतीय समाज शीघ्र ही अनुशासित हो जाएगा, तब ही यहाँ जाति मुक्त विवाह का प्रचलन लाभकर सिद्ध हो सकता है, जो समाज के जातीय भेद को मिटाने का एकमात्र उपाय है. भारतीय समाज की वर्तमान अवस्था में अन्तर्जातीय विवाह सामान्यतः अनुमत नहीं किया जा सकता जिसके लिए समाज की शैक्षिक स्थिति स्वस्थ होनी चाहिए, जबकि आज के भारत में लगभग ७० प्रतिशत लोग अशिक्षित अथवा अर्ध-शिक्षित हैं जिनमें सामाजिक अनुशासन हेतु परिपक्वता भी विद्यमान नहीं है.