मनुष्य में एक प्राकृत अंतर्चेतना होती है - जिज्ञासा, जिसे तृप्त करने के लिए वह ज्ञान अर्जित करता है. उसके पास ज्ञान अर्जन के दो स्रोत होते हैं - अन्य व्यक्तियों से जाने और उस पर विश्वास करे, तथा अपनी तर्कशक्ति से अनजानी वस्तुओं के बारे में अध्ययन करे अथवा इस प्रकार के अध्ययनों का विवेचन करे और स्वयं की तर्कशक्ति को संतुष्ट करते हुए तथ्यों को स्वीकारे. ये दो विधाएँ क्रमशः 'आस्था' और 'विवेक' कहलाती हैं. विवेकशील प्रक्रिया को विज्ञानं भी कहा जाता है.
आस्था के लिए व्यक्ति का पहले से ज्ञानी होना आवश्यक नहीं है और न ही उसमें तर्कशक्ति होने आवश्यकता होती है. आस्थावान को तो बस किसी दूसरे व्यक्ति से जानना और मानना होता है, इसमें न तो बुद्धि की आवश्यकता होती है और न ही किसी श्रम की. अतः यह अतीव सरल है, इसलिए आस्था निष्कर्म्य लोगों के लिए एक बड़ा शरणगाह है - बिना कोई प्रयास किये उनकी जिज्ञासा संतुष्ट हो जाती है. जिज्ञासा संतुष्ट होने पर व्यक्ति स्वयं को ज्ञानी कह सकता है किन्तु उसका सभी ज्ञान उथला होता है और जो प्रायः समयानुसार तथा परिपेक्ष्यानुसार परिवर्तित होता रहता है. मान लीजिये कि एक व्यक्ति आस्तिकों के समूह में जाता है और उनकी बातें सुनकर आस्तिक हो जाता है. वही व्यक्ति जब नास्तिकों के समूह में जाता है तो उनकी बातें सुनकर बड़ी सरलता से नास्तिक हो सकता है. इस प्रकार उसकी आस्था और ज्ञान परिवर्तनीय होते है. अपनी आस्था को स्थिर रखने के लिए वह बहुमत का आश्रय लेता है अर्थात जिस बात को अधिक लोग कहते हैं वह उसी में आस्था रखने लगता है.
इसके विपरीत, विवेक पूर्ण ज्ञान प्राप्त करना एक क्लिष्ट, श्रमसाध्य एवं बौद्धिक प्रक्रिया है, जिसमें व्यक्ति प्रत्येक तथ्य का तर्क की कसौटी पर परीक्षण करता है और संतुष्ट होने पर ही उसे स्वीकार करता है. इस प्रक्रिया में व्यक्ति में तर्कशक्ति के अतिरिक्त कसौटी पर परीक्षण का पूर्व ज्ञान भी होना भी अपेक्षित है. अतः ज्ञानवान व्यक्ति ही विवेकशील हो सकता है. चूंकि यह वैज्ञानिक प्रक्रिया क्लिष्ट है इसलिए व्यक्ति सीमित ज्ञान ही प्राप्त कर पाता है किन्तु उसका ज्ञान गहन और अपरिवर्तनीय होता है. सीमित ज्ञान होने के कारण ऐसा व्यक्ति सदैव जिज्ञासु बना रहता है और वह स्वयं को सदैव अल्पज्ञानी ही मानता है. इसी भावना के कारण वह अपने ज्ञान में निरंतर वृद्धि के प्रयास करता रहता है. वस्तुतः यही मनुष्यता है जो मनुष्य की अंतर्चेतना जिज्ञासा को जीवंत बनाए रखती है.
आस्था मनुष्य का प्राकृत गुण नहीं है, इसे मनुष्य जाति ने केवल अंतरिम रूप में काम चलाने हेतु अपनाया था. जब मनुष्य के पास ज्ञान प्राप्त करने के स्रोत सीमित थे और वे उसकी जिज्ञासा को तृप्त करने हेतु अपर्याप्त थे, उसका विवेक भी अपर्याप्त था. अतः उसने अपनी जिज्ञासा को तात्कालिक रूप से तृप्त करने के लिए आस्था का आश्रय लिया, किन्तु यह स्थायी हल नहीं है. विज्ञानं ही मनुष्य जाति की अंतर्चेतना जिज्ञासा को तृप्त करने का स्थायी हल है.
मनुष्यता में भी निर्जीव वस्तुओं की तरह कुछ जड़ता होती है जो उसे निश्कर्मी बने रहने की सुविधा प्रदान करती है. अतः सुविध्वादी मनुष्य आज भी आस्था का दामन कस कर पकडे हुए हैं ताकि वे विज्ञानं की श्रमसाध्य एवं क्लिष्ट प्रक्रिया से बचे रह सकें.
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रविवार, 19 सितंबर 2010
रविवार, 20 जून 2010
अधीनत्व, आस्था और अनुशासन
अधीनत्व, आस्था और अनुशासन जीवन को संयमित करने वाले तीन महत्वपूर्ण कारण पाए जाते हैं. किसी व्यक्ति में ये तीनों उपस्थित होते हैं तो कुछ में कोई दो, तथा कुछ अन्य में कोई एक विद्यमान होता हैं. तो क्या तीनों समान रूप से सद्गुण हैं - इसी पर विचार को समर्पित है यह आलेख.
अधीनता व्यक्ति की परतंत्रता के पर्याय के रूप में जानी जाती है जिसमें व्यक्ति अपने व्यवहार हेतु स्वतंत्र न होकर दूसरे के आदेश अथवा इच्छानुसार नियोजित होता है. यह अधीनता जीवन के सपूर्ण कार्य-कलापों के लिए अथवा जीवन के किसी सीमित पक्ष हेतु हो सकती है. यथा स्वतंत्र व्यक्ति भी अपनी आजीविका हेतु किसी के अधीनस्थ होकर कार्य कर सकता है जिसमें व्यक्त सीमित समय हेतु ही किसी अन्य व्यक्ति के अधीन होता है. तकनीकी स्तर पर अधीनता की स्थिति में व्यक्ति दूसरे द्वारा निर्धारित लक्ष्य के लिए कार्य करता है, जिसकी प्राप्ति के लिए वह अपने विवेक का सीमित उपयोग ही कर पाता है. ऐसे व्यक्ति के लिए निर्धारित लक्ष्य की प्राप्ति सर्वोपरि होती है अर्थात व्यक्ति का जीवन बहुलांश में लक्ष्य्परक होता है, उसे व्यक्तिपरक होने की स्वतन्त्रता नहीं होती. कोई भी व्यक्ति अधीनता किसी विवशता के कारण ही स्वीकार करता है. पराधीन व्यक्ति अपने कर्म के दायित्व से मुक्त होता है क्योंकि उसका कर्म स्वयं द्वारा निर्धारित नहीं होता.
व्यक्ति का किसी अन्य व्यक्ति अथवा प्रतीक के प्रति समर्पण भाव व्यक्ति की उसमें आस्था कहलाती है. अतः आस्थावान व्यक्ति स्वयं को आस्थास्रोत के सापेक्ष तुच्छ होना स्वीकार करता है तथा अपना जीवन-व्यवहार उसी के आदेश अथवा इच्छानुसार नियमित करता है. इस प्रकार आस्था अधीनता का ही एक स्वरुप है जिसमें व्यक्ति किसी विवशता के बिना ही स्वेच्छा से इसे स्वीकार करता है. यह आस्था किसी वास्तविक अथवा काल्पनिक व्यक्ति अथवा व्यक्ति के प्रति हो सकती है. आस्थावान व्यक्ति प्रायः अपने कर्म के प्रति दायित्व से भारित न होकर यह भार आस्थास्रोत पर डाल देता है और वह स्वयं को दायित्व से मुक्त अनुभव करता है.
इस प्रकार हम पाते हैं कि अधीनता और आस्था में कुछ साम्य है - व्यक्ति का स्वकर्म के प्रति दायित्व से मुक्ति का. तथापि इन दोनों में जो महत्वपूर्ण अंतराल है वह है विवशता और स्वेच्छा का. अधीनता का कारण विवशता होती है किन्तु आस्था स्वेच्छा से स्वीकार की जाती है. इससे ऐसा प्रतीत होता है कि स्वतंत्र व्यक्ति भी दायित्व से मुक्ति के लिए आस्था का आश्रय लेता है अथवा ले सकता है.
आस्था सद्गुण है अथवा दुर्गुण, इस पर विचार की आवश्यकता है. आस्था प्रायः सम्मान भाव से उगती है और इसका परिणाम स्वकर्म के प्रति दायित्व से मुक्ति होता है अथवा हो सकता है. उदाहरण के लिए व्यक्ति अपने माता-पिता का सम्मान करता है और उनके प्रति आस्थावान होता है जिसके कारण उनकी आज्ञा का पालन करता है और ऐसे कर्मों के प्रति दायित्व-मुक्त होता है. इसके विपरीत आस्था दायित्व से मुक्ति के लिए स्वीकार की जा सकती है जिसका परिणाम आस्थास्रोत में सम्मान हो सकता है. यथा - व्यक्ति दुष्कर्म करने निकलता है किन्तु उसका भय उसे किसी इष्ट देवता में आस्था व्यक्त करने को विवश करता है जिससे कि वह स्वकर्म के प्रति दायित्व से मुक्त अनुभव कर सकता है.
इस प्रकार हम देखते हैं कि आस्था के दो उद्भव स्रोत हो सकते हैं - सम्मान अथवा दायित्व से मुक्ति. आस्था का कारण यदि स्वकर्म के प्रति दायित्व से मुक्ति है तो इसे दुर्गुण ही कहा जाना चाहिए, किन्तु यदि आस्था का कारण स्रोत के प्रति सम्मान भाव है तो आस्था सद्गुण सिद्ध होती है. वास्तविक व्यक्तियों में आस्था प्रायः सम्मान से ही उगती है इसलिए सद्गुण होने की अधिक संभावना रखती है. किन्तु किसी काल्पनिक व्यक्ति, शक्ति अथवा वस्तु में आस्था संदेहास्पद हो सकती है क्यों कि इसका कारण वास्तविक सम्मान न होकर दायित्व से मुक्ति हो सकती है. लोगों की ईश्वर अथवा उसके किसी प्रतीक के प्रति आस्था इसी प्रकार की होना संभव है. इस रूप में आस्था व्यक्ति की निर्बलता के ऊपर एक आवरण का कार्य करती है, जिसे व्यक्ति का आडम्बर भी कहा जा सकता है. अतः आस्था संदेहास्पद हो सकती है.
अनुशासन व्यक्ति का निस्संदेह सद्गुण होता है जिसके अंतर्गत व्यक्ति स्वयं के कर्मों पर स्वेच्छा से अंकुश लगाता है. इसका स्रोत व्यक्ति की बुद्धि होती है जिसके उपयोग से व्यक्ति अपने कर्म का निर्धारण स्वयं को श्रेष्ठ बनाने हेतु करता है. इस प्रकार अनुशासन आस्था के सापेक्ष उच्च स्थान रखता है. अनुशासन में सम्मान-जनित आस्था भी समाहित होती है जिसमें कोई कृत्रिमता अथवा विवशता भी नहीं होती. अतः अनुशासन ही महामानव का अनिवार्य लक्षण होता है.
अधीनता व्यक्ति की परतंत्रता के पर्याय के रूप में जानी जाती है जिसमें व्यक्ति अपने व्यवहार हेतु स्वतंत्र न होकर दूसरे के आदेश अथवा इच्छानुसार नियोजित होता है. यह अधीनता जीवन के सपूर्ण कार्य-कलापों के लिए अथवा जीवन के किसी सीमित पक्ष हेतु हो सकती है. यथा स्वतंत्र व्यक्ति भी अपनी आजीविका हेतु किसी के अधीनस्थ होकर कार्य कर सकता है जिसमें व्यक्त सीमित समय हेतु ही किसी अन्य व्यक्ति के अधीन होता है. तकनीकी स्तर पर अधीनता की स्थिति में व्यक्ति दूसरे द्वारा निर्धारित लक्ष्य के लिए कार्य करता है, जिसकी प्राप्ति के लिए वह अपने विवेक का सीमित उपयोग ही कर पाता है. ऐसे व्यक्ति के लिए निर्धारित लक्ष्य की प्राप्ति सर्वोपरि होती है अर्थात व्यक्ति का जीवन बहुलांश में लक्ष्य्परक होता है, उसे व्यक्तिपरक होने की स्वतन्त्रता नहीं होती. कोई भी व्यक्ति अधीनता किसी विवशता के कारण ही स्वीकार करता है. पराधीन व्यक्ति अपने कर्म के दायित्व से मुक्त होता है क्योंकि उसका कर्म स्वयं द्वारा निर्धारित नहीं होता.
व्यक्ति का किसी अन्य व्यक्ति अथवा प्रतीक के प्रति समर्पण भाव व्यक्ति की उसमें आस्था कहलाती है. अतः आस्थावान व्यक्ति स्वयं को आस्थास्रोत के सापेक्ष तुच्छ होना स्वीकार करता है तथा अपना जीवन-व्यवहार उसी के आदेश अथवा इच्छानुसार नियमित करता है. इस प्रकार आस्था अधीनता का ही एक स्वरुप है जिसमें व्यक्ति किसी विवशता के बिना ही स्वेच्छा से इसे स्वीकार करता है. यह आस्था किसी वास्तविक अथवा काल्पनिक व्यक्ति अथवा व्यक्ति के प्रति हो सकती है. आस्थावान व्यक्ति प्रायः अपने कर्म के प्रति दायित्व से भारित न होकर यह भार आस्थास्रोत पर डाल देता है और वह स्वयं को दायित्व से मुक्त अनुभव करता है.
इस प्रकार हम पाते हैं कि अधीनता और आस्था में कुछ साम्य है - व्यक्ति का स्वकर्म के प्रति दायित्व से मुक्ति का. तथापि इन दोनों में जो महत्वपूर्ण अंतराल है वह है विवशता और स्वेच्छा का. अधीनता का कारण विवशता होती है किन्तु आस्था स्वेच्छा से स्वीकार की जाती है. इससे ऐसा प्रतीत होता है कि स्वतंत्र व्यक्ति भी दायित्व से मुक्ति के लिए आस्था का आश्रय लेता है अथवा ले सकता है.
आस्था सद्गुण है अथवा दुर्गुण, इस पर विचार की आवश्यकता है. आस्था प्रायः सम्मान भाव से उगती है और इसका परिणाम स्वकर्म के प्रति दायित्व से मुक्ति होता है अथवा हो सकता है. उदाहरण के लिए व्यक्ति अपने माता-पिता का सम्मान करता है और उनके प्रति आस्थावान होता है जिसके कारण उनकी आज्ञा का पालन करता है और ऐसे कर्मों के प्रति दायित्व-मुक्त होता है. इसके विपरीत आस्था दायित्व से मुक्ति के लिए स्वीकार की जा सकती है जिसका परिणाम आस्थास्रोत में सम्मान हो सकता है. यथा - व्यक्ति दुष्कर्म करने निकलता है किन्तु उसका भय उसे किसी इष्ट देवता में आस्था व्यक्त करने को विवश करता है जिससे कि वह स्वकर्म के प्रति दायित्व से मुक्त अनुभव कर सकता है.
इस प्रकार हम देखते हैं कि आस्था के दो उद्भव स्रोत हो सकते हैं - सम्मान अथवा दायित्व से मुक्ति. आस्था का कारण यदि स्वकर्म के प्रति दायित्व से मुक्ति है तो इसे दुर्गुण ही कहा जाना चाहिए, किन्तु यदि आस्था का कारण स्रोत के प्रति सम्मान भाव है तो आस्था सद्गुण सिद्ध होती है. वास्तविक व्यक्तियों में आस्था प्रायः सम्मान से ही उगती है इसलिए सद्गुण होने की अधिक संभावना रखती है. किन्तु किसी काल्पनिक व्यक्ति, शक्ति अथवा वस्तु में आस्था संदेहास्पद हो सकती है क्यों कि इसका कारण वास्तविक सम्मान न होकर दायित्व से मुक्ति हो सकती है. लोगों की ईश्वर अथवा उसके किसी प्रतीक के प्रति आस्था इसी प्रकार की होना संभव है. इस रूप में आस्था व्यक्ति की निर्बलता के ऊपर एक आवरण का कार्य करती है, जिसे व्यक्ति का आडम्बर भी कहा जा सकता है. अतः आस्था संदेहास्पद हो सकती है.
अनुशासन व्यक्ति का निस्संदेह सद्गुण होता है जिसके अंतर्गत व्यक्ति स्वयं के कर्मों पर स्वेच्छा से अंकुश लगाता है. इसका स्रोत व्यक्ति की बुद्धि होती है जिसके उपयोग से व्यक्ति अपने कर्म का निर्धारण स्वयं को श्रेष्ठ बनाने हेतु करता है. इस प्रकार अनुशासन आस्था के सापेक्ष उच्च स्थान रखता है. अनुशासन में सम्मान-जनित आस्था भी समाहित होती है जिसमें कोई कृत्रिमता अथवा विवशता भी नहीं होती. अतः अनुशासन ही महामानव का अनिवार्य लक्षण होता है.
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