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रविवार, 12 सितंबर 2010

चुनावी बुखार

उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनावों का दौर आरम्भ हो चुका है जिस में किसी वैचारिकता अथवा आदर्श को कोई स्थान प्राप्त नहीं हो रहा है. सभी समीकरणों का आधार 'जाति' है जिसे शराबखोरी से सशक्त किया जा रहा है. गाँव प्रधान पद अन्य पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षित किये जाने से मैं चुनाव मैदान से बाहर हूँ किन्तु मेरी भूमिका का कुछ महत्व बना हुआ है.

गाँव में एक-दो व्यक्ति ही ऐसे हैं जिनकी ईमानदारी पर मैं विश्वास कर सकता हूँ और उन्हें अपना प्रत्याशी बना सकता हूँ किन्तु वे इसके लिए राजी नहीं हो पा रहे हैं. इस का बड़ा कारण यह है कि ग्राम प्रधान पद महिलाओं के लिए आरक्षित है. भली महिलाएं आज भी पुरुष समाज से दूर रहना ही पसंद करती हैं. वस्तुतः, महिलाओं का राजनीति में कोई महत्व नहीं है, इनके लिए आरक्षण करना राष्ट्र-स्तरीय राजनीति का एक दुखद पहलू है जो गाँव स्तर की राजनीति को भी दुष्प्रभावित कर रहा है. जो भी स्त्रियाँ पंचायत चुनावी मैदान में उतारी जाती हैं वे सभी अपने पतियों की प्रतिछाया और संरक्षण में रहकर अपने नाम का निर्वाह करती हैं. इनमें से अधिकाँश निरक्षर हैं और घूँघट से भी बाहर नहीं आती हैं. इस प्रकार महिला आरक्षण भारतीय राजनीति का एक सबसे विकराल और निरर्थक उपहास है.

गाँव प्रमुखतः तीन लगभग समान खेमों में बँटा हुआ है - राजोरा जाट, लोध-जाटव, और अन्य. मैं अन्य वर्ग में सम्मिलित हूँ और इसका अनौपचारिक प्रतिनिधित्व करता हूँ. प्रथम दो खेमों से तीन-तीन व्यक्ति प्रत्याशी बनने के लिए संघर्षशील हैं किन्तु मेरे खेमों से अभी कोई व्यक्ति इस मैदान के लिए तैयार नहीं हुआ है. इस रिक्ति का कारण यह है कि इसमे डागुर तथा देंगरी जाटों सहित अनेक जातियां सम्मिलित हैं और मेरी उपस्थिति के कारण इसमें कुछ अनुशासन बना हुआ है जिससे कोई भी व्यक्ति प्रत्याशी बनने के उपयुक्त नहीं समझा जा सकता. इस खेमे के प्रत्याशी बनने के लिए कड़ी कसौटियां है, जिनमें ईमानदारी, शराबखोरी से दूरी, महिलाओं के प्रति सम्मान की भावना, ग्राम-विकास के प्रति समर्पण, आदि सम्मिलित हैं जब कि अन्य खेमों में ऐसी कोई कसौटी नहीं हैं. कुछ समय पूर्व हुए बलात्कार के अपराधी के पक्षधर चुनाव मैदान में प्रत्याशी बने हुए हैं और जातीय आधार पर समर्थन भी प्राप्त कर रहे हैं.

गाँव में मतदाताओं को रिझाने के लिए शराबखोरी का दौर आरम्भ कर दिया गया है जिसमें किशोरों से लेकर वृद्धों तक को प्रत्याशियों द्वारा निःशुल्क शराब पिलाई जा रही है. मैं इसका प्रबल विरोधी हूँ और इसे सीमित करने के लिए पुलिस और प्रशासन की भी सहायता ले रहा हूँ. इसके कारण गाँव में शराब का अवैध विक्रय सीमित है. कुछ आस-पास के गाँवों में जाकर भी मैंने शराबखोरी के विरुद्ध जनमत तैयार किया है किन्तु प्रत्याशियों द्वारा इसके प्रचार-प्रसार के कारण मुझे कोई विशेष सफलता नहीं मिली है. केवल विरोधी स्वर जीवित रखने का प्रयास है.
Indian Politics and Society Since Independence: Events, Processes and Ideology

शराबखोरी का विकास उन दोनों खेमों से किया जा रहा है जिनमें से एक खेमा बलात्कार और अन्य अपराधों का समर्थक रहा  है, तथा दूसरे खेमे से निवर्तमान प्रधान चुना गया था जिसका पूरा परिवार निरक्षर है तथा विगत ५ वर्षों में गाँव में कोई विकास कार्य नहीं किया गया है. इस प्रकार इनमें से एक खेमा अपराधी प्रवृत्ति वाला है तो दूसरा मूर्खों का. मतदाताओं का समर्थन प्राप्त करने के लिए इनके पास शराबखोरी और जातीयता के अतिरिक्त कोई अन्य विशिष्टता नहीं है. तथापि ये दोनों खेमे इन दोषों के कारण सफल भी होते रहे हैं. यही भारतीय राजनीति की विडम्बना है.

शनिवार, 13 मार्च 2010

महिला आरक्षण का षड्यंत्र

 महिलाओं के लिए विधायिकाओं में एक तिहाई स्थान प्रदान करने वाला आरक्षण बिल राज्यसभा में पारित हो गया, जो प्रत्यक्ष अनुभवों से कुछ भी न सीखने का सटीक उदाहरण है. पंचायतों में महिलाओं के लिए आरक्षण पहले से ही लागू है और इसके परिणाम घोर निराशाजनक सिद्ध हुए हैं.

मेरे गाँव के प्रधान एक निरक्षर महिला है और ऐसी ही एक महिला विकास खंड की प्रमुख है. मैं गाँव में ही रहता हूँ किन्तु मैंने कभी ग्राम प्रधान को कभी नहीं देखा क्योंकि वह घूँघट में रहती है. उसका निरक्षर एवं शराबी पति ही प्रधान की भूमिका का निर्वाह करता है. ग्रामवासियों को शराब पिलाकर ही उसने यह पड प्राप्त किया था जो भारत में जनतंत्र की वास्तविक स्थिति है. अन्य प्रत्याशी कुछ साक्षर थे और सौम्य भी, वे इस सीमा तक नहीं गिर सके और चुनाव में पराजित हो गए.

विकास खंड कार्यालय में भी मुझे यदा-कदा जाना होता है, किन्तु मैंने कभी भी वहां प्रमुख महोदया को नहीं पाया, उसके लिए निर्धारित कुर्सी पर उसके पति ही विराजमान पाए जाते हैं. उन्होंने चुनाव में विजय के लिए प्रत्येक सदस्य को एक-एक लाख रुपये दिए थे और उन्हें लगभग १५ दिन ऋषिकेश के एक आश्रम में कैद करके रखा था.

ये महिला आरक्षण के व्यवहारिक पक्ष हैं और ऐसा ही कुछ विधायिकाओं में होगा. वहाँ सदस्य महिलाओं के पति उपस्थित तो संभवतः न हों किन्तु सडन के बाहर के सभी कार्य उनके पति ही करेंगे. ऐसे अनुभवों और संभावनाओं पर भी महिला आरक्षण पर बल दिया जा रहा है, इसका कुछ विशेष कारण तो होगा ही. आइये झांकें इसके यथार्थ में.

यह सर्वविदित है कि भारत के राजनेताओं की सपरिवार सत्ता में बने रहने की भूख अमिट और असीमित है  अनेक परिवारों के कई-कई सदस्य विधायिकाओं में विराजमान देखे जा सकते हैं. इस पर भी ये सुनिश्चित करना चाहते हैं कि विधायिकाओं में उनके परिवारों के अतिरिक्त कोई अन्य व्यक्ति प्रवेश न कर पाए, क्योंकि जितने अधिक परिवार वहाँ होंगे, राजनेताओं के कुत्सित व्यवसायों की सफलताओं में उतनी ही अधिक अनिश्चितता आयेगी. इनमें वे और केवल उनके परिवार ही उपस्थित रहें, महिला आरक्षण इसमें उनकी सहायता करेगा. 

भारत के लगभग सभी राजनैतिक दल राजनेताओं की जागीरें हैं जहाँ उनके एक छात्र शासन चलते हैं. विधायिकाओं में प्रवेश के टिकेट इन्हीं जागीरों से निर्धारित किये जाते हैं. महिलाओं के लिए आरक्षण न होने से अनेक बाहरी व्यक्ति भी इन जागीरदारों से अनुनय-विनय करके विदयिकाओं में प्रवेश पाने के प्रयास करते हैं. विधायिकाओं में महिला आरक्षण से पति-पत्नी दोनों ही चुने जाने के प्राकृत रूप से अधिकारी हो जायेंगे, अथवा प्रवेश टिकेट ऐसी अन्य मेलों को दिए जायेंगे जो पत्नी न होकर परनी-समतुल्य भूमिका का निर्वाह करने को तत्पर हों. इससे राज्नाताओं के सुविधा-संपन्न जीवन और अधिक सुविधा-संपन्न बन सकेंगे.