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गुरुवार, 2 दिसंबर 2010

स्वप्न दृष्टा

हम सभी स्वप्न देखते हैं - सोयी अवस्था में, और जागृत अवस्था में भी. किन्तु सच यह है कि हम स्वप्नों में कुछ भी नहीं देखते हैं क्योंकि देखा तो आँखों से जाता है जो स्वप्नावस्था में उन दृश्यों को नहीं देखतीं. तथापि हमें लगता है कि हम स्वप्नावस्था में देख रहे होते हैं. वस्तुतः स्वप्नावस्था में हमारे मस्तिष्क का वही भाग देख रहा होता है जो आँखों द्वारा देखे जाते समय उपयोग में आता है. यह भी निश्चित है कि मस्तिष्क की अधिकाँश गतिविधियों में हमारी स्मृति भी सक्रिय होती है. स्वप्नावस्था में यह स्मृति उन दृश्यों को ही प्रस्तुत करती है जो हम कभी देख चुके होते हैं, अथवा जिनकी हमने कभी कल्पना की होती है, किन्तु अनियमित और अक्रमित रूप में. इस अनियमितता और अक्रमितता के कारण ही हमारे स्वप्न यथार्थ से परे के घटनाक्रमों पर आधारित होते हैं.

जब हम जागृत अवस्था में अपने कल्पना लोक में निमग्न रहते हैं तब भी हम आँखों के माध्यम से देखी जा रही वस्तुओं के अतिरिक्त भी बहुत कुछ देख रहे होते हैं. इस प्रकार हम देखने की क्रिया दो तरह से कर रहे होते हैं - आँखों से तथा मस्तिष्क से. किन्तु हमारे अनुभव हमें बताते हैं कि जब हम आँखों से देखने की क्रिया पर पूरी तरह केन्द्रित करते हैं, उस समय हमारी मस्तिष्क की देखने की क्रिया शिथिल हो जाती है और जब हम अपने कल्पनाओं के माध्यम से दिवा-स्वप्नों में लिप्त होते हैं तब हमारी आँखों से देखने की क्रिया क्षीण हो जाती है. इससे सिद्ध यह होता है कि दोनों प्रकार की देखने की क्रियाओं में मस्तिष्क का एक ही भाग उपयोग में आता है जो एक समय एक ही प्रकार से देखने में लिप्त होता है.

हमारा आँखों के माध्यम से देखना भी दो प्रकार का होता है - वह जो हमें स्वतः दिखाई पड़ता है, और वह जो हम ध्यान से देखते हैं. स्वतः दिखाई पड़ने वाली वस्तुओं में हमारा मस्तिष्क लिप्त नहीं होता इसलिए यह हमारी स्मृति में भी संचित नहीं होता जब कि जो भी हम ध्यान से से देखते हैं वह हमारी स्मृति में भी संचित होता रहता है और भविष्य में उपयोग में लिया जाता है.

जो हमें बिना ध्यान दिए स्वतः दिखाई देता रहता है वह भी दो प्रकार का होता है - एक वह जिससे हम कोई सम्बन्ध नहीं रखते, और दूसरा वह जो हमारी स्मृति में पूर्व-समाहित होता है किन्तु ध्यान न दिए जाने के कारण नवीन रूप में स्मृति में प्रवेश नहीं करता. इस दूसरे प्रकार के देखने में हमारा अवचेतन मन सक्रिय होता है और हमारा मार्गदर्शन करता रहता है. जब हम कोई ऐसा कार्य करते हैं जिसके हम अभ्यस्त होते हैं तो हमें उस क्रिया पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता नहीं होती, तब हमारा अवचेतन मन हमारे शरीर का सञ्चालन कर रहा होता है. ऐसी अवस्था में हम अपने चेतन मन को अन्य किसी विषय पर केन्द्रित कर सकते हैं.
The Complete Dream Book, 2nd edition: Discover What Your Dreams Reveal about You and Your Life

वैज्ञानिकों में मतभेद है कि स्वप्नावस्था में दृश्य तरंग मस्तिष्क के किस अंग से आरम्भ होती है - दृष्टि क्षेत्र से अथवा स्मृति से किन्तु उनकी मान्यता है कि यह आँख से होकर मस्तिष्क में न जाकर मस्तिष्क में ही उठाती है. उनका ही मानना है कि व्यक्ति स्वप्न तभी देखता है जब उसकी सुषुप्त अवस्था में उसकी आँखों में तीव्र गति होती है. इस अवस्था को आर ई एम् (REM ) निद्रा कहा जाता है.

दिवास्वप्न देखना और कल्पना लोक में विचारना एक ही क्रिया के दो नाम हैं. व्यतीत काल की स्मृतियों में निमग्न रहना यद्यपि यदा-कदा सुखानुभूति दे सकता है किन्तु इसका जीवन में कोई विशेष महत्व नहीं होता. सुषुप्तावस्था के स्वप्न प्रायः भूतकाल की स्मृतियों पर आधारित होते हैं इस लिए ये भी प्रायः निरर्थक ही होते हैं.

मानवता एवं स्वयं के जीवन के लिए वही दिवास्वप्न महत्वपूर्ण होते हैं जो भविष्य के बारे में स्वस्थ मन के साथ देखे जाते हैं. ऐसे स्वप्नदृष्टा ही विश्व के मार्गदर्शक सिद्ध होते हैं. प्रगति सदैव व्यवहारिक क्रियाओं से होती है और प्रत्येक व्यवहारिक क्रिया से पूर्व उसका भाव उदित होता है जो दिवास्वप्न में ही उदित होता है. अतः प्रत्येक प्रगति कू मूल स्रोत एक दिवास्वप्न होता है.

सोमवार, 13 सितंबर 2010

सृजनात्मक अभिव्यक्ति और जानने की सीमा

प्रत्येक सृजनात्मक अभिव्यक्ति से पूर्व अनेक बौद्धिक गतिविधियों यथा जानना, सृजन-परक चिंतन, मूल्यांकन, आदि, की आवश्यकता होती है, किन्तु अभिव्यक्ति की वास्तविक प्रक्रिया हेतु और अधिक जानने की प्रक्रिया बंद करनी होती है और यह मान लिया जाता है कि अभिव्यक्ति हेतु पर्याप्त जान लिया गया है. इसके विपरीत जब तक जानने की प्रक्रिया चलती रहती है तब तक सृजन प्रक्रिया प्रतिबंधित रहती है. 




न तो ज्ञान के विषयों की कोई सीमा है और न ही किसी विषय के ज्ञान की कोई सीमा है अतः ज्ञान प्राप्त करने की प्रक्रिया सदा-सदा चलती रहती है और यह जीवन का एक सकारात्मक पक्ष है. तथापि उपरोक्त तर्क सिद्ध करता है कि जीवन के उद्येश्यों की पूर्ति के लिए इसी के किसी न किसी सकारात्मक पक्ष को भी सीमित करना आवश्यक हो जाता है. अतः, जीवन में ऐसा कुछ भी नहीं होता जो प्रत्येक परिस्थिति सकारात्मक सिद्ध होता हो.  


प्रत्येक सृजनात्मक अभिव्यक्ति रचनाकार के उस विषयक ज्ञान का प्रतिरूप होती है, और इसका उत्कर्ष तभी प्राप्त किया जा सकता है जब ज्ञान का उत्कर्ष स्वीकार कर लिया गया हो - चाहे यह स्वीकृति सदा के लिए न होकर उस अभिव्यक्ति हेतु तात्कालिक ही क्यों न हो. 


 जानने की प्रक्रिया द्वारा अभिव्यक्ति हेतु ज्ञान प्राप्त किया जाता है. इस ज्ञान का मूल्यांकन स्मृति में संग्रहित अन्य ज्ञान द्वारा किया जाता है. अभिव्यक्ति की प्रक्रिया के लिए भी स्मृति में संग्रहित किसी अन्य ज्ञान का उपयोग किया जाता है. यह मूल्यांकन तथा अभिव्यक्ति प्रक्रिया तभी संभव हो सकती है जब इन हेतु संग्रहित ज्ञान पर्याप्त स्वीकार कर लिया गया हो. उदाहरण के लिए, किसी विषय पर आलेखन हेतु उस विषयक शोध करके ज्ञान प्राप्त किया जाता है, इस ज्ञान के पर्याप्त होने का मूल्यांकन स्मृति में संग्रहित अन्य ज्ञान से किया जाता है. इसके पश्चात लेखन अभिव्यक्ति हेतु भाषा ज्ञान का पर्याप्त होना आवश्यक होता है. इस प्रकार इन तीनों ज्ञानों के पर्याप्त होने की आत्म-स्वीकृति के पश्चात् ही अभिव्यक्ति की जा सकती है. इस प्रकार सिद्ध हो जाता है कि प्रत्येक सृजनात्मक अभिव्यक्ति व्यक्ति के तात्कालिक ज्ञान संचय की परिणति होती है जिसके लिए ज्ञान संवर्धित करने की प्रक्रिया को विराम देना आवश्यक होता है.  


यद्यपि उपरोक्त तर्क सृजनात्मक अभिव्यक्ति हेतु सिद्ध किया गया है, तथापि व्यक्ति के प्रत्येक कर्म हेतु जानने की प्रक्रिया को विराम देना होता है. इसके विपरीत, प्रत्येक कर्म ज्ञान के तात्कालिक उत्कर्ष की स्वीकृति का परिणाम होता है, और यदि ज्ञान संवर्धन की प्रक्रिया जारी रहती है तो कर्म नहीं किया जा सकता. इससे यह भी सिद्ध होता है कि व्यक्ति का मस्तिष्क, जो ज्ञान प्राप्त करता है, और शरीर, जो कर्म करता है, एक ही समय पर कार्यशील नहीं रहते.


हमारी सृजनात्मक अभिव्यक्तियाँ हमारे अवचेतन मन के कर्म होती हैं जब कि जानने की प्रक्रिया चेतन मन से संचालित होती है. चेतन मन जब पर्याप्त ज्ञान अवचेतन मन को प्रदान कर देता है तभी अवचेतन मन सृजन कार्य कर सकता है. इस प्राविधि में चेतन मन जब जानने से संतुष्ट हो जाता है तब वह 'और अधिक न जानने' की स्थिति में आ जाता है और व्यक्ति चेतन मन से बाहर आकर अवचेतन अवस्था में पहुँच कर सृजन करता है. 


The Power of Your Subconscious Mind
जानने और सोचने की प्रक्रियाएं चेतन मन द्वारा संपन्न होती हैं और इनके निर्गत अवचेतन मन को प्रदान कर दिए जाते हैं. तब चेतन मन अपना कार्य बंद कर देता है अवचेतन मन इसके आधार पर सृजनात्मक अभिव्यक्ति का अपना कार्य आरम्भ करता है.  इस प्रक्रिया की अवधि में यदि चेतन मन पाता है कि ज्ञान अभी अधूरा है तो वह अभिव्यक्ति प्रक्रिया में व्यवधान उत्पन्न कर देता है.  चूंकि अवचेतन मन जानने और सोचने के कर्म नहीं करता है इसलिए यह सदैव यह मानता है कि यह सबकुछ जानता है.  

मंगलवार, 22 जून 2010

अवचेतन, चेतन और अधिचेतन मन

प्रत्येक जीव के मन का सम्बन्ध सीधे उसके शरीर के अंग-प्रत्यंग से होता है. यह सम्बन्ध शरीर और मस्तिष्क के सम्बन्ध से भिन्न है क्योंकि मन और मस्तिष्क एक दूसरे से भिन्न होते हैं. मन शरीर का प्रतिनिधित्व करता है और चिंतन में असमर्थ होता है जबकि मस्तिष्क मनुष्य की स्मृति एवं चिंतन सामर्थ्यों का समन्वय होता है. इस कारण से व्यक्ति जो भी दोष करता है, वह अपने मन के अधीन होकर ही करता है.
मन तीन स्तरों पर कार्य करता है - अवचेतन, चेतन और अधिचेतन. अवचेतन मन शरीर की अनिवार्य क्रिया-प्रतिक्रियाओं का सञ्चालन एवं नियमन करता है जिसके लिए उसे मस्तिष्क की कोई आवश्यकता नहीं होती. इसी कारण से इस स्तर पर मन तीव्रतम गति पर कार्य करता है, जिनके लिए यह मूल रूप से प्रोग्रामित होता है. तथापि इन प्रोग्रामों में संशोधन किये जा सकते हैं, मन के चेतन स्तर द्वारा. शरीर की आतंरिक क्रियान के अतिरिक्त बाह्य रूप में व्यक्ति की अंतर्चेतानाएं (इंस्टिंक्ट), आदतें, आदि मन के इसी स्तर से संचालित होती हैं.
चेतन मन व्यक्ति के बाह्य जगत से सम्बन्ध रखता है और उसकी स्मृति और चिंतन सामर्थ (बुद्धि) का उपयोग करते हुए उसके जागतिक व्यवहार का संचालन करता है. चूंकि इस व्यवहार में मन और बुद्धि का समन्वय होता है, इसलिए इसके सञ्चालन में विलम्ब होता है. यदा-कदा मनुष्य इस समन्वय के विना ही अपनी आदत के अनुसार अपने अवचेतन मन के आदेश पर तुरंत जागतिक व्यवहार भी कर बैठता है जो बुद्धि के अभाव के कारण संतुलित नहीं हो पाता.
Super Consciousness: The Quest for the Peak Experience

व्यक्ति के अवचेतन और चेतन मन ही उसके यथार्थ होते हैं, उसके अधिचेतन मन का उसके यथार्थ से कोई सम्बन्ध नहीं होता किन्तु उसका व्यवहार उसकी किसी कल्पना पर आधारित होता है. यह कल्पना कभी उसके अवचेतन मन को आच्छादित करती है तो कभी उसके चेतन मन को. इसके अधीन व्यक्ति का व्यवहार असामान्य हो जाता है. प्रायः देखा जाता है कि व्यक्ति स्वयं को अपने यथार्थ के अतिरिक्त कुछ अन्य समझने लगता है और उसी प्रकार व्यवहार करने लगता है. स्वयं को दिव्य शक्तियों से संपन्न माँ लेना, भूत-प्रेतों के प्रभाव को स्वीकार कर लेना, किसी अन्य व्यक्ति के वशीभूत हो जाना, आदि के अंतर्गत व्यवहार व्यक्ति के अधिचेतन मन द्वारा ही संचालित होते हैं जो उसके यथार्थ को आच्छादित रखता है. इसी कारण से ऐसे प्रभाव सीमित समय के लिए ही होते हैं. व्यक्ति का यथार्थ प्रकट होते ही उसकी कल्पना तिरोहित हो जाती है. अध्यात्मवाद का प्रचार-प्रसार भी अदिचेतन मन के माध्यम से किया जाता है, जो वस्तुतः सभी यथार्थ से परे एवं पूर्णतः काल्पनिक होता है. इसका मनुष्य की बुद्धि से भी कोई सम्बन्ध नहीं होता.