भारत तब से अब तक गाँवों का देश रहा है इसलिए आर्थिक शोषण में गाँवों का शोषण भी अनिवार्य रहा. गाँवों की आर्थिक व्यवस्था का मुख्य आधार कृषि था जो आज भी है. इसलिए ब्रिटिश शोषण का सर्वाधिक दुष्प्रभाव भारत के कृषकों पर पड़ता था जिसके लिए जमींदारी व्यवस्था को एक माध्यम के रूप में स्थापित किया गया. इस व्यवस्था का मुख्य लक्ष्य जमींदारों द्वारा कृषकों की भूमि हड़पना रहा जिसके लिए जमींदार अधिकृत थे और इसके लिए वे ब्रिटिश सरकार को धन प्रदान करते थे. यद्यपि जमींदार कृषकों से भी भूमिकर वसूल कर ब्रिटिश सरकार को प्रदान करते थे किन्तु ब्रिटिश आय में इसका अंश अल्प था. इस प्रक्रिया में जमींदार और अधिक धनवान और बड़े भूस्वामी बनते गए और कृषक निर्धन और भूमिहीन.
उक्त जमींदारी व्यवस्था के सञ्चालन में लोगों में पुलिस का आतंक भी सम्मिलित था जिससे कि लोग उक्त आर्थिक शोषण के विरुद्ध अपना स्वर बुलंद करने योग्य ही न रहें. इसके लिए पुलिस को निरंकुश शक्तियां प्रदान की गयीं जिनका उपयोग जमींदारों के पक्ष में किया जाता था. इसी प्रकार न्याय व्यवस्था भी जन साधारण के आर्थिक शोषण हेतु ही नियोजित थी. अपनी दमनात्मक शक्तियों के कारण उस समय पुलिस और न्याय व्यवस्था ही जन साधारण के विरुद्ध ब्रिटिश प्रशासन के प्रमुख शस्त्र थे. इस कारण से सभी क़ानून केवल शोषण-परक बनाये गए थे.
१९४७ में भारत द्वारा स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय स्वतन्त्रता की मांग करने वालों के पास अपनी शासन व्यवस्था स्थापित करने हेतु कोई रूपरेखा उपलब्ध नहीं थी. इसलिए शीघ्रता में एक संविधान रचा गया जो प्रमुखतः शोषण-परक ब्रिटिश शासन तंत्र पर आधारित रखा गया. यही संविधान आज तक भारत पर लागू है जो पूरी तरह दमनात्मक और शोशंपरक है. अंतर केवल इतना है कि उस समय दमन और शोषण ब्रिटेन के लिए जाते थे जबकि आज उसी प्रकार के दमन और शोषण भारतीय शासकों और प्रशासकों के हित में किये जा रहे हैं.
यद्यपि जन साधारण को प्रसन्न करने के लिए जमींदारी व्यवस्था समाप्त कर दी गयी किन्तु तत्कालीन जमींदार परिवारों को भारत की शासन व्यवस्था में महत्वपूर्ण भागीदारी दे दी गयी ताकि वे अपना शोषण पूर्ववत जारी रख सकें. इस प्रकार भारत की स्वतन्त्रता केवल उक्त जमींदार एवं अन्य शासक परिवारों तक सीमित रही, जन साधारण को इसका कोई सीधा लाभ नहीं मिल पाया. आज भी न्यायालयों और पुलिस को ब्रिटिश काल की निरंकुश शक्तियां प्राप्त हैं जिसका वे पूरी तरह उपयोग कर रहे हैं.
अभी विगत सप्ताह ही मेरे क्षेत्र के उप जिला मजिस्ट्रेट ने मुझे बिना किसी पर्याप्त कारण मेरे विरुद्ध धार्मिक कट्टरपंथी होने का आरोप लगाते हुए अपने न्यायालय में एक वाद स्थापित कर दिया जबकि मैं लिखित साक्ष्यों के अनुसार एक धर्म-निरपेक्ष नास्तिक हूँ. इसके अंतर्गत मुझसे कहा गया कि मैं कारागार से बचने के लिए एक बंधक पत्र पर हस्ताक्षर कर अपना दोष स्वीकार करूं, जबकि कोई क़ानून मुझे इसके लिए बाध्य नहीं करता है किन्तु उक्त मजिस्ट्रेट की निरंकुश शक्तियां मुझे बाध्य करने हेतु पर्याप्त हैं.