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शनिवार, 30 अक्तूबर 2010

जनतांत्रिक चुनावों में जनमत की कसौटियां

यद्यपि भारत में सरकार के चयन हेतु आयोजित जनतांत्रिक चुनावों में जनसाधारण द्वारा अपने मत प्रकट करने की परम्परा स्वस्थ कभी नहीं रही है, किन्तु अभी समापित उत्तर प्रदेश पंचायत चुनावों ने स्पष्ट कर दिया है कि भारत में जनतंत्र की स्थिति बुरी तरह प्रदूषित है और यह बदतर होती जा रही है. पंचायत चुनावों द्वारा केवल ग्राम, विकास खंड और जनपद स्तर की पंचायतों के लिए जन प्रतिनिधियों को चुना जाता है जिनकी शासन में कोई विशेष भूमिका नहीं होती, मात्र कुछ औपचारिकताओं का निर्वाह किया जाता है और जनहित हेतु आबंटित कुछ सार्वजनिक धन की बन्दर-बाँट की जाती है. तथापि इसके माध्यम से तुच्छ लाभों को प्राप्त करने के लिए जो भीषण संघर्ष होते हैं और उनमें भारतीय जनमानस की जो दयनीय स्थिति उजागर होती है उन्हें देखकर प्रत्येक सम्मानित भारतीय का सिर शर्म से झुक जाता है. उक्त चुनावों में जो पाया गया, आइये उसके कुछ पहलुओं पर दृष्टि डालें.

जातीयता
भारत का समाज सदैव जातियों में विभाजित रहा है किन्तु इस विभाजन का सर्वाधिक दुष्प्रभाव भारत की राजनीति पर होता है जिसमें चुनावों के लिए प्रत्याशियों के चयन से लेकर मतदान तक व्यक्ति की जाति को प्रमुख आधार बनाया जाता है तथा व्यक्ति की पद हेतु सुयोग्यता को ताक पर रख दिया जाता है. चूंकि मूर्ख और अशिक्षित व्यक्ति अधिक बच्चे जनते हैं इसलिए इस प्रकार की जातियां ही देश की बहुसंख्यक होती रही हैं और अपने प्रतिनिधि भी इसी प्रकार के चुनते रहे हैं. इसी कारण से अनेक आपराधिक प्रवृत्तियों वाली परम्परागत जातियां भी देश की राजनैतिक सत्ता हथियाती रही हैं.

आरक्षण
बुद्धिहीन और आपराधिक प्रवृत्तियों वाली जातियों द्वारा सत्ता प्राप्त करते रहने के कारण ही देश में राजनैतिक एवं प्रशासनिक पदों पर स्वयं को सत्तासीन करने के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गयी जो आरम्भ में सीमित थी और केवल १० वर्ष की अवधि के लिए पर्याप्त मानी गयी थी. किन्तु अब स्वतन्त्रता के ६० वर्ष होने पर भी इसे केवल सतत ही नहीं रखा गया इसका विस्तार भी किया जाता रहा है. वर्तमान में प्रत्येक राजनैतिक और प्रशासनिक पद के लिए दो-तिहाई स्थान आरक्षित कर दिए गए हैं जिनमें महिला आरक्षण भी सम्मिलित है.

राजनीति में आरक्षण करने की मूर्खता इससे भी स्पष्ट होती है कि देश की पिछड़ी और दलित जातियां बहुमत में हैं और वे जनतांत्रिक पद्यति से अपने बहुमत के कारण देश की राजनैतिक सत्ता हथियाती रही हैं और उन्हें किसी आरक्षण की आवश्यकता नहीं है. इसी प्रकार महिलाओं की संख्या लगभग ५० प्रतिशत होने कारण वे भी अपने प्रतिनिधि छनने में सक्षम हैं और उन के लिए भी आरक्षण की कोई आवश्यकता नहीं है.

बुद्धिहीन भावुकता
अभी हुए पंचायती चुनावों में एक जाने-माने अपराधी ने कानूनी फंदे से अपनी जान बचाने की गुहार देते हुए मतदाताओं के पैरों में सिर रख-रख कर उन्हें भावुकता का शिकार बनाया और उनके मत प्राप्त कर लिए. इस प्रकार एक अपराधी भी सत्ताधिकारी बन गया. जन साधारण को उस पर दया आयी जिसके कारण उसे अपने मत दे दिए किन्तु किसी ने भी उसे अपनी कोई व्यक्तिगत संपत्ति नहीं दी जिससे उसे अपराध करने की आवश्यकता न हो. ऐसा उन्होंने इसलिए किया क्योंकि वे अपने मतों का महत्व नहीं जानते किन्तु अपनी व्यक्तिगत संपदाओं का महत्व जानते हैं. इससे सिद्ध यही होता है कि भारतीय जनमानस अभी भी जनतंत्र हेतु वांछित सुयोग्यता प्राप्त नहीं कर पाया है.

इसी प्रकार की बुद्धिहीन भावुकता के कारण ही स्वतन्त्रता के बाद से देश की राजनैतिक सत्ता केवल एक परिवार के इर्द-गिर्द ही घूमती रही है.

शराबखोरी
चुनावों में मत पाने के लिए जिस वस्तु का सर्वाधिक उपयोग होता है वह शराब है जिसका प्रत्याशियों द्वारा निःशुल्क वितरण किया जाता है. यह मात्र एक दूषित परम्परा है जिससे मत प्राप्त नहीं होते केवल कुछ दुश्चरित्र लोगों को खुश कर प्रत्याशी के पक्ष में वातावरण बनाया जाता है. इस प्रकार के शराबी समाज के प्रतिष्ठित व्यक्ति माने जाते हैं जिन्हें खुश रखना प्रत्येक प्रत्याशी के लिए आवश्यक होता है. केवल शराब के वितरण पर ही प्रत्येक औसत ग्राम में २० लाख रुपये व्यय कर दिया जाता है.


धन का लालच
इस चुनाव से सिद्ध हो गया है कि अब मतदाताओं को खुश करने के लिए केवल शराब पिलाना पर्याप्त नहीं रह गया है, उन्हें नकद धन भी दिया जाने लगा है. मेरे गाँव में ही ग्राम प्रधान पद के दो प्रत्याशियों ने डेढ़-डेढ़ लाख रुपये वितरित किये जिनमें से एक ने विजय पायी. इन चुनावों में जनपद पंचायत के प्रत्येक प्रत्याशी ने अपने प्रचार और मतदाताओं को खुश करने के लिए २० से ५० लाख रुपये तक व्यय किये जिसमें से अधिकाँश शराब के वितरण पर व्यय हुआ.  

बाहरी प्रभाव
मूल रूप से गाँव के निवासी शिक्षित और साधन संपन्न होकर दूर शहरों में जा बसते हैं जहां उनके स्थायी घर, राशन कार्ड, मताधिकार आदि सभी कुछ होते हैं तथापि वे अपने गाँवों में भी अपने घर, राशन कार्ड तथा मताधिकार बनाए रखते हैं. इस प्रकार ये देश के दोहरे नागरिक होते हैं और दोनों स्थानों से सुविधाएं प्राप्त करते रहते हैं. इनकी तुलना में ग्रामवासी प्रायः निर्धन होते हैं इसलिए उन्हें स्वयं से श्रेष्ठ मानते हुए चुनावों में उनके मार्गदर्शन की अपेक्षा करते हैं. इस प्रकार ग्रामों के ये अवैध नागरिक गाँवों पर अपना वर्चस्व बनाए हुए हैं और पंचायत चुनावों को अपने हित में प्रभावित करते हैं. 
Jana Sanskriti: Forum Theatre and Democracy in India

मेरे ग्राम में भी इस प्रकार के लगभग ४०० अवैध मतदाता हैं जो गाँव के लगभग १६०० वैध मतदाताओं को मूर्ख समझते और बनाते रहे हैं. उक्त पंचायत चुनावों से पूर्व मैंने उत्तर प्रदेश के चुनाव आयुक्त को लिखित निवेदन भेजा था कि ऐसे मतदाताओं के नाम गाँव की मतदाता सूची से हटाने की व्यवस्था की जाए किन्तु इस पर कोई कार्यवाही नहीं की गयी.  

उक्त कारणों से कहा जा सकता है कि भारत में अभी तक कोई जनतांत्रिक व्यवस्था स्थापित नहीं हो पायी है और इस नाम पर जो कुछ भी हो रहा है वह सब धोखाधड़ी है. इसमें बुद्धिमानी अथवा सुयोग्यता का कोई महत्व नहीं है. 

मंगलवार, 14 सितंबर 2010

भारतीय समाज में जातीय विष का हल

एक प्रचलित कथावत है -
'ज्यों केले के पात पात में पात, त्यों हिन्दुओं की जात जात में जात'.
जो भारतीय समाज के यथार्थ को प्रदर्शित करती है. विश्व के किसी अन्य देश में संभवतः ऐसा नहीं है जहां जीवन और समाज के प्रत्येक क्षेत्र में व्यक्ति की जाति का इतना अधिक महत्व हो. अधिकाँश देशों में इस प्रकार के जातीय विष का अन्तर्जातीय विवाहों द्वारा शमन किया गया है. भारत में भी पश्चिमी बंगाल में अब कुछ ऐसा होने लगा है जिसे समाज की भी सहज स्वीकृति प्राप्त हो जाती है. अन्य क्षेत्रों में युवा प्रेमी छिपकर अन्तर्जातीय विवाह कर रहे हैं किन्तु समाज उन्हें सामान्यतः मान्यता नहीं देता है.

जातीयता भारतीय जीवन के प्रत्येक अंग को प्रदूषित कर रही है, यहाँ तक कि जनतांत्रिक चुनावों में मतदाता जातीय आधार पर ही सरकार का चुनाव कर रहे हैं, जिसे सभी राजनैतिक दल भी पुष्ट कर रहे हैं. अतः सरकारें सार्वजनिक हितों की अवहेलना कर जातीय हितों के लिए कार्य कर रही हैं.

भारत में जातीय भेद का मुख्य कारण यह है कि यहाँ अनेक प्रकार की जीवनशैलियों वाली जातियां आकर बसती रही हैं, जिनमें से अधिकाँश असभ्य थीं और यहाँ सांस्कृतिक प्रदूषण हेतु ही लाई गयी थीं. महिलाओं के अपहरण और उनके साथ दुराचार इनके प्रमुख व्यसन थे. स्थानीय लोगों को अपने सम्मान और संपदा के सुरक्षा के लिए उनसे दूर रहना आवश्यक था. इसी कारण से भारत में स्त्रियों के लिए परदे में रहना आवश्यक समझा गया जो प्रचलन अनेक क्षेत्रों में आज भी है.

बौद्धिक जनतंत्र जातीय भेद को मान्यता नहीं देता किन्तु इसके लिए यह अतीव आवश्यक है कि समाज में कठोर अनुशासन  की स्थापना हो, विशेषकर भारतीय समाज में जहां आज भी अनेक जातियां अपने जंगली व्यवहार का परित्याग नहीं कर रही हैं. स्त्रियों और निस्सहाय लोगों के प्रति अपराध इन्ही जातियों के जंगली व्यवहार के कारण हो रहे हैं.

समाज को अनुशासित करने के लिए दो आवश्यक वान्छाएं हैं - न्याय व्यवस्था सुचारू हो तथा दंड विधान कठोर हो. जबकि आज के भारत की वास्तविकता यह है कि न्याय व्यवस्था पूरे तरह निष्फल है और दंड व्यवस्था अति लचर है. बौद्धिक जनतंत्र में न्याय व्यवस्था को सुचारू रखना स्वास्थ और शिक्षा के समान प्राथमिकता दी गयी है. दंड व्यवस्था को कठोर बनने के लिए मृत्यु दंड आवश्यक माना गया है जब कि विश्व भर की जंगली जातियां मृत्यु दंड का विरोध कर रही हैं.

बौद्धिक जनतंत्र दो प्रकार के अपराधों के लिए मृत्यु दंड अनिवार्य मानता है - राष्ट्रद्रोह तथा स्त्रियों के प्रति दुराचार. इसके साथ ही राजकीय पद का दुरूपयोग करते हुए भृष्ट आचरण राष्ट्रद्रोह माना गया है. स्त्री समाज के सम्मान की प्रतीक ही नहीं होती यह समाज की निर्माता भी होती है.
Caste System

उक्त प्रावधानों से भारतीय समाज शीघ्र ही अनुशासित हो जाएगा, तब ही यहाँ जाति मुक्त विवाह का प्रचलन लाभकर सिद्ध हो सकता है, जो समाज के जातीय भेद को मिटाने का एकमात्र उपाय है. भारतीय समाज की वर्तमान अवस्था में अन्तर्जातीय विवाह सामान्यतः अनुमत नहीं किया जा सकता जिसके लिए समाज की शैक्षिक स्थिति स्वस्थ होनी चाहिए, जबकि आज के भारत में लगभग ७० प्रतिशत लोग अशिक्षित अथवा अर्ध-शिक्षित हैं जिनमें सामाजिक अनुशासन हेतु परिपक्वता भी विद्यमान नहीं है.  

रविवार, 12 सितंबर 2010

चुनावी बुखार

उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनावों का दौर आरम्भ हो चुका है जिस में किसी वैचारिकता अथवा आदर्श को कोई स्थान प्राप्त नहीं हो रहा है. सभी समीकरणों का आधार 'जाति' है जिसे शराबखोरी से सशक्त किया जा रहा है. गाँव प्रधान पद अन्य पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षित किये जाने से मैं चुनाव मैदान से बाहर हूँ किन्तु मेरी भूमिका का कुछ महत्व बना हुआ है.

गाँव में एक-दो व्यक्ति ही ऐसे हैं जिनकी ईमानदारी पर मैं विश्वास कर सकता हूँ और उन्हें अपना प्रत्याशी बना सकता हूँ किन्तु वे इसके लिए राजी नहीं हो पा रहे हैं. इस का बड़ा कारण यह है कि ग्राम प्रधान पद महिलाओं के लिए आरक्षित है. भली महिलाएं आज भी पुरुष समाज से दूर रहना ही पसंद करती हैं. वस्तुतः, महिलाओं का राजनीति में कोई महत्व नहीं है, इनके लिए आरक्षण करना राष्ट्र-स्तरीय राजनीति का एक दुखद पहलू है जो गाँव स्तर की राजनीति को भी दुष्प्रभावित कर रहा है. जो भी स्त्रियाँ पंचायत चुनावी मैदान में उतारी जाती हैं वे सभी अपने पतियों की प्रतिछाया और संरक्षण में रहकर अपने नाम का निर्वाह करती हैं. इनमें से अधिकाँश निरक्षर हैं और घूँघट से भी बाहर नहीं आती हैं. इस प्रकार महिला आरक्षण भारतीय राजनीति का एक सबसे विकराल और निरर्थक उपहास है.

गाँव प्रमुखतः तीन लगभग समान खेमों में बँटा हुआ है - राजोरा जाट, लोध-जाटव, और अन्य. मैं अन्य वर्ग में सम्मिलित हूँ और इसका अनौपचारिक प्रतिनिधित्व करता हूँ. प्रथम दो खेमों से तीन-तीन व्यक्ति प्रत्याशी बनने के लिए संघर्षशील हैं किन्तु मेरे खेमों से अभी कोई व्यक्ति इस मैदान के लिए तैयार नहीं हुआ है. इस रिक्ति का कारण यह है कि इसमे डागुर तथा देंगरी जाटों सहित अनेक जातियां सम्मिलित हैं और मेरी उपस्थिति के कारण इसमें कुछ अनुशासन बना हुआ है जिससे कोई भी व्यक्ति प्रत्याशी बनने के उपयुक्त नहीं समझा जा सकता. इस खेमे के प्रत्याशी बनने के लिए कड़ी कसौटियां है, जिनमें ईमानदारी, शराबखोरी से दूरी, महिलाओं के प्रति सम्मान की भावना, ग्राम-विकास के प्रति समर्पण, आदि सम्मिलित हैं जब कि अन्य खेमों में ऐसी कोई कसौटी नहीं हैं. कुछ समय पूर्व हुए बलात्कार के अपराधी के पक्षधर चुनाव मैदान में प्रत्याशी बने हुए हैं और जातीय आधार पर समर्थन भी प्राप्त कर रहे हैं.

गाँव में मतदाताओं को रिझाने के लिए शराबखोरी का दौर आरम्भ कर दिया गया है जिसमें किशोरों से लेकर वृद्धों तक को प्रत्याशियों द्वारा निःशुल्क शराब पिलाई जा रही है. मैं इसका प्रबल विरोधी हूँ और इसे सीमित करने के लिए पुलिस और प्रशासन की भी सहायता ले रहा हूँ. इसके कारण गाँव में शराब का अवैध विक्रय सीमित है. कुछ आस-पास के गाँवों में जाकर भी मैंने शराबखोरी के विरुद्ध जनमत तैयार किया है किन्तु प्रत्याशियों द्वारा इसके प्रचार-प्रसार के कारण मुझे कोई विशेष सफलता नहीं मिली है. केवल विरोधी स्वर जीवित रखने का प्रयास है.
Indian Politics and Society Since Independence: Events, Processes and Ideology

शराबखोरी का विकास उन दोनों खेमों से किया जा रहा है जिनमें से एक खेमा बलात्कार और अन्य अपराधों का समर्थक रहा  है, तथा दूसरे खेमे से निवर्तमान प्रधान चुना गया था जिसका पूरा परिवार निरक्षर है तथा विगत ५ वर्षों में गाँव में कोई विकास कार्य नहीं किया गया है. इस प्रकार इनमें से एक खेमा अपराधी प्रवृत्ति वाला है तो दूसरा मूर्खों का. मतदाताओं का समर्थन प्राप्त करने के लिए इनके पास शराबखोरी और जातीयता के अतिरिक्त कोई अन्य विशिष्टता नहीं है. तथापि ये दोनों खेमे इन दोषों के कारण सफल भी होते रहे हैं. यही भारतीय राजनीति की विडम्बना है.