अनुशासन लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
अनुशासन लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

रविवार, 7 नवंबर 2010

उत्कृष्टता कैसे प्राप्त करें

आज फिर हिंदी की अपूर्णता का आभास हो रहा है और अंग्रेज़ी के 'परफेक्ट' शब्द के समतुल्य कोई शब्द नहीं मिल पा रहा है, जो 'उत्कृष्ट' 'आदर्श' और 'पूर्ण' शब्दों के मध्य कहीं होना चाहिए था किन्तु इसका भाव न तो ''उत्कृष्ट' और आदर्श' व्यक्त करते  है और न ही 'पूर्ण' शब्द. इसलिए अभी 'उत्कृष्ट  शब्द से काम चलाया जा रहा है.

सर्व प्रथम यहाँ यह चेतावनी देना प्रासंगिक है कि उत्कृष्टता कभी उपलब्ध न होने वाली स्थिति होती है, तथापि इसके लिए सतत प्रयास करते रहना वांछित है. इन प्रयासों से ही हम एक उत्कृष्ट व्यक्ति और कर्मी बन सकते हैं. अतः प्रयास करते रहने पर भी उत्कृष्टता प्राप्त न होने पर भी निराश नहीं होना चाहिए, अपितु और अधिक प्रयास किये जाने चाहिए.

जीवन शैली और कर्मों में उत्कृष्टता प्राप्त करना साधारणता की तुलना में सरल और सुविधाजनक तो नहीं होता अपितु असीम संतुष्टि प्रदायक होता है. इसके लिए अपने आराम और सुविधाजनक स्थिति को त्यागते हुए और असफलता की चिंता न करते हुए सतत प्रयास करने होते हैं. जितना कष्टकर और महत्वपूर्ण उत्कृष्टता प्राप्त करना होता है, उससे अधिक कष्टकर और महत्वपूर्ण इसे बनाये रखना होता है. इसके लिए कुछ महत्वपूर्ण सूत्र निम्नांकित हैं -
  • अपनी पसंद का कार्य करें : उत्कृष्टता प्राप्त करने के लिए यह अनिवार्य है कि करता की उस कर्म में पूर्ण रूचि हो और यह तभी संभव होता है जब कार्य कर्ता की पसंद का हो. अतः उत्कृष्टता के लिए वही करें जो आपको सर्वाधिक पसंद हो. 
  • क्लिष्टतम को सर्वप्रथम करें : प्रत्येक कार्य में अनेक चरण अथवा अंग होते हैं. सुविध्वादी लोग प्रायः कार्य के उस भाग को पहले करते हैं जो सरलतम होता है. इसके बाद जब वे क्लिष्ट भागों की ओर बढ़ते हैं तो क्लिष्टता उन्हें पसंद नहीं आती और वे अनेक कार्यों को मध्य में ही छोड़ देते हैं अथवा उन्हें शीघ्रता से घटिया रूप में संपन्न करते हैं. उत्कृष्टता के सर्वप्रथम तो यह आवश्यक होता है कि व्यक्ति उसे पूर्ण और उत्कृष्ट रूप में करने के लिए संकल्पशील हो. कार्य को आरम्भ करते समय व्यक्ति स्वाभाविक रूप में अधिक ऊर्जावान होता है जिसके कारण उसे क्लिष्ट कार्य में कठिनाई नहीं होती. इसलिए कार्य को करते हुए अधिकाधिक आनंद प्राप्त करते रहने के लिए उसके क्लिष्टतम भाग को सर्वप्रथम करना चाहिए ताकि आगे के सरल भाग आनंददायक सिद्ध होते चले जाएँ. इससे कार्य में उत्कृष्टता प्राप्त करना सरल होता है.  
  • गहन तल्लीन रहें : कहावतों में अभ्यास को उत्कृष्टता की जननी कहा गया है, जो अक्षरशः सत्य है. किन्तु कोई भी व्यक्ति दीर्घ अवधि तक सतत कार्य करते हुए उत्कृष्टता प्राप्त नहीं कर सकता. अध्ययनों से पाया गया है कि व्यक्ति किसी एक कार्य को अधिकतम ९० मिनट तक ही उत्कृष्टता के साथ संपन्न कर सकता है. अतः जब भी जो भी करें पूर्ण तल्लीनता से करें और जब भी कार्य की एकरसता तल्लीनता में बाधा बने, कुछ समय के लिए उस कार्य को विराम दें. इससे व्यक्ति के मस्तिष्क का दाहिना भाग पुनः ऊर्जित हो जाता है और वह व्यक्ति की रचनात्मकता को बनाये रखता है.  मनोवैज्ञानिक शोधों से यह भी पाया गया है कि व्यक्ति २४ घंटों में अधिकतम ४.५ घंटों के लिए उत्कृष्टता के साथ कार्य कर सकता है. इससे अधिक किये गए कार्यों में उत्कृष्टता होनी आशंकित होती है. इसलिए केवल शारीरिक परिश्रम की अपेक्षा कर्म में बुद्धि और मानसिकता का सहयोग लें जो सीमित समय के लिए ही उपलब्ध होता है. 
  • दूसरों के मत जानें किन्तु अंतरालों पर : अपने द्वारा किये गए कार्य से सभी को संतुष्टि होती है किन्तु मानव की सामाजिकता यह भी अपेक्षा रखती है कि दूसरे लोग भी कार्य की उत्कृष्टता से संतुष्ट हों, जिसके लिए अपने द्वारा किये जा रहे कार्यों के बारे में समय-समय पर उस क्षेत्र के विशेषज्ञ लोगों के मत भी जानें और तदनुसार अपनी कार्य शैली में संशोधन करें. किन्तु दूसरों के आलोचनात्मक मत सतत रूप में उपलब्ध होने से व्यक्ति के मानस पर अनावश्यक भार पड़ता है जिससे उसकी रचनात्मकता दुष्प्रभावित होती है. इसके अतिरिक्त यह भी ध्यान रखें कि सभी को संतुष्ट करना असंभव होता है. इसलिए सुनें अनेकों की, किन्तु करें अपने ही तदनुसार संशोधित निर्णय की. 
  • स्वयं अनुशासित रहें : संकल्पशक्ति और अनुशासन, मानवीय जीवन के दो ऐसे पहलू हैं जिनके बारे में कहा बहुत कुछ जाता है, किन्तु इन्हें जीवन में धारण करना अत्यधिक क्लिष्ट है और हम में से अधिकाँश इन से कतराते हैं. इन्हें दारण करने की कुछ व्यवहारिक कठिनाइयाँ भी हैं. इन कठिनाइयों के निवारण के लिए हम जो विशेष कार्य उत्कृष्टता के साथ करना चाहते हैं, उनके लिए विशिष्ट समय निर्धारित करें जिससे उन्हें करना हमारे स्वभाव और जीवनचर्या में सम्मिलित हो जाये. इससे हम स्वानुशासित भी सरलता से हो सकेंगे.         .
Perfection: A Memoir of Betrayal and Renewalइन मनोवैज्ञानिक तथ्यों को ध्यान में रखकर हम अपने कार्यों में अधिक उत्कृष्टता प्राप्त कर सकते हैं. तथापि हमें इसे प्राप्त करने में असफलता से निराश भी नहीं होना चाहिए और यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि हमारे प्रयासों में कहीं कोई कमी रह गयी है जिसके निराकरण के लिए भविष्य में और भी अधिक प्रयास करने चाहिए. 

मंगलवार, 14 सितंबर 2010

भारतीय समाज में जातीय विष का हल

एक प्रचलित कथावत है -
'ज्यों केले के पात पात में पात, त्यों हिन्दुओं की जात जात में जात'.
जो भारतीय समाज के यथार्थ को प्रदर्शित करती है. विश्व के किसी अन्य देश में संभवतः ऐसा नहीं है जहां जीवन और समाज के प्रत्येक क्षेत्र में व्यक्ति की जाति का इतना अधिक महत्व हो. अधिकाँश देशों में इस प्रकार के जातीय विष का अन्तर्जातीय विवाहों द्वारा शमन किया गया है. भारत में भी पश्चिमी बंगाल में अब कुछ ऐसा होने लगा है जिसे समाज की भी सहज स्वीकृति प्राप्त हो जाती है. अन्य क्षेत्रों में युवा प्रेमी छिपकर अन्तर्जातीय विवाह कर रहे हैं किन्तु समाज उन्हें सामान्यतः मान्यता नहीं देता है.

जातीयता भारतीय जीवन के प्रत्येक अंग को प्रदूषित कर रही है, यहाँ तक कि जनतांत्रिक चुनावों में मतदाता जातीय आधार पर ही सरकार का चुनाव कर रहे हैं, जिसे सभी राजनैतिक दल भी पुष्ट कर रहे हैं. अतः सरकारें सार्वजनिक हितों की अवहेलना कर जातीय हितों के लिए कार्य कर रही हैं.

भारत में जातीय भेद का मुख्य कारण यह है कि यहाँ अनेक प्रकार की जीवनशैलियों वाली जातियां आकर बसती रही हैं, जिनमें से अधिकाँश असभ्य थीं और यहाँ सांस्कृतिक प्रदूषण हेतु ही लाई गयी थीं. महिलाओं के अपहरण और उनके साथ दुराचार इनके प्रमुख व्यसन थे. स्थानीय लोगों को अपने सम्मान और संपदा के सुरक्षा के लिए उनसे दूर रहना आवश्यक था. इसी कारण से भारत में स्त्रियों के लिए परदे में रहना आवश्यक समझा गया जो प्रचलन अनेक क्षेत्रों में आज भी है.

बौद्धिक जनतंत्र जातीय भेद को मान्यता नहीं देता किन्तु इसके लिए यह अतीव आवश्यक है कि समाज में कठोर अनुशासन  की स्थापना हो, विशेषकर भारतीय समाज में जहां आज भी अनेक जातियां अपने जंगली व्यवहार का परित्याग नहीं कर रही हैं. स्त्रियों और निस्सहाय लोगों के प्रति अपराध इन्ही जातियों के जंगली व्यवहार के कारण हो रहे हैं.

समाज को अनुशासित करने के लिए दो आवश्यक वान्छाएं हैं - न्याय व्यवस्था सुचारू हो तथा दंड विधान कठोर हो. जबकि आज के भारत की वास्तविकता यह है कि न्याय व्यवस्था पूरे तरह निष्फल है और दंड व्यवस्था अति लचर है. बौद्धिक जनतंत्र में न्याय व्यवस्था को सुचारू रखना स्वास्थ और शिक्षा के समान प्राथमिकता दी गयी है. दंड व्यवस्था को कठोर बनने के लिए मृत्यु दंड आवश्यक माना गया है जब कि विश्व भर की जंगली जातियां मृत्यु दंड का विरोध कर रही हैं.

बौद्धिक जनतंत्र दो प्रकार के अपराधों के लिए मृत्यु दंड अनिवार्य मानता है - राष्ट्रद्रोह तथा स्त्रियों के प्रति दुराचार. इसके साथ ही राजकीय पद का दुरूपयोग करते हुए भृष्ट आचरण राष्ट्रद्रोह माना गया है. स्त्री समाज के सम्मान की प्रतीक ही नहीं होती यह समाज की निर्माता भी होती है.
Caste System

उक्त प्रावधानों से भारतीय समाज शीघ्र ही अनुशासित हो जाएगा, तब ही यहाँ जाति मुक्त विवाह का प्रचलन लाभकर सिद्ध हो सकता है, जो समाज के जातीय भेद को मिटाने का एकमात्र उपाय है. भारतीय समाज की वर्तमान अवस्था में अन्तर्जातीय विवाह सामान्यतः अनुमत नहीं किया जा सकता जिसके लिए समाज की शैक्षिक स्थिति स्वस्थ होनी चाहिए, जबकि आज के भारत में लगभग ७० प्रतिशत लोग अशिक्षित अथवा अर्ध-शिक्षित हैं जिनमें सामाजिक अनुशासन हेतु परिपक्वता भी विद्यमान नहीं है.  

सोमवार, 2 अगस्त 2010

वर्तमान भारत का नायक कैसा हो

आधुनिक भारत में अनेक जन नायक हुए हैं, किन्तु कोई भी लम्बे समय तक नेतृत्व का दायित्व नहीं संभालता पाया गया है. महात्मा गाँधी निश्चित रूप से जन नायक थे किन्तु स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद वे नेतृत्व भर से मुक्त ही रहना चाहते थे, अतः उन्हें भी ऐसा जन नायक नहीं कहा जा सकता जो प्रत्येक स्थिति में जनता का नेतृत्व कर सके. अतः गांधी को जन नायक तो कहा जा सकता है किन्तु भारत नायक नहीं कहा जा सकता जिसके लिए कठोर एवं प्रखर राष्ट्रवाद की भावना की आवश्यकता है. इसके विपरीत गाँधी केवल मानवतावादी थे.

स्वतंत्र भारत के नेताओं में केवल एक नाम ऐसा है जो तब से अब तक सम्मान के साथ याद किया जाता है और जिसने अपने दायित्व निर्वाह से स्वयं को अद्वितीय सिद्ध किया था. यह नाम है 'सरदार वल्लभ भाई पटेल', जिन्होंने अंग्रेजों की देन विखंडित भारत को एक छ्त्र के नीचे ला दिया जिसकी क्षमता अन्य किसी नेता में नहीं थी. यदि स्वतंत्र भारत का नेतृत्व सरदार को दिया जाता तो आज देश की यह दुर्दशा न होती जो नेहरु और उसके परिवार ने की है.

दूसरा व्यक्ति जो भारत को सही नेतृत्व प्रदान करने में समर्थ था वह थे 'नेताजी सुभाष चन्द्र बोस' जिनके लिए देश सर्वोपरि था, लोगों की स्वतन्त्रता अथवा नेताओं के स्वार्थ राष्ट्र हित के समक्ष कोई महत्व नहीं रखते थे. इसी कारण से वे भारत में स्वतन्त्रता के तुरंत बाद जनतंत्र की स्थापना के विरोधी थे. वे चाहते थे कि जनतांत्रिक अधिकार पाने से पहले भारतीयों को अनुशासन सिखाना होगा जिसका उस समय तो नितांत अभाव था ही, आज की स्थिति और भी अधिक दयनीय हुई है.
स्वतन्त्रता से पूर्व के भारत, उसके बाद के भारत में केवल अंतर इतना है कि उस समय विदेशी भारतीयों का बहुविध शोषण कर रहे थे और आज देशी लोग भारतीयों का शोषण ही नहीं कर रहे, उन्हें बहुविध पथ-भृष्ट भी कर रहे हैं ताकि वे कुशासन के विरुद्ध सिर उठाने योग्य ही न रहें. आज के भारत का कुशासन अंग्रेज़ी कुशासन से अधिक घातक है.

भारतीयों में जिन गुणों का नितांत अभाव है तथापि सर्वाधिक अपरिहार्यता है, वे हैं - अनुशासन और राष्ट्रवाद. अतः भारत और भारतीयों को सही दिशा देने के लिए नायक में इन दोनों गुणों की सर्वाधिक आवश्यकता है. अनुशासन के सापेक्ष स्थिति इतनी विकृत कर दी गयी है कि कठोर कदम उठाये बिना इसकी स्थापना संभव नहीं रह गयी है. अतः वर्तमान भारत नायक को कठोर अनुशासक होने की आवश्यकता है जिसमें लोगों की वर्तमान निरंकुश स्वतन्त्रता] जिसने अब उद्दंडता का रूप ले लिया है, का हनन होना स्वाभाविक है. इस विषय में संदेह यह व्यक्त किया जाता है कि लोग इसे पसंद नहीं करेंगे. किन्तु वस्तुतः ऐसा नहीं है, जन-साधारण आज के छोटे-बड़े नेताओं से इतना तृस्त है कि वे कठोर अनुशासक को पसंद करेंगे. इसका विशेष कारण यह है कि कठोर अनुशासन में जन-साधारण को कोई हानि नहीं है, हानि केवल आज के स्वार्थी नेतृत्व को ही होनी है. और यही जन-साधारण की हार्दिक अभिलाषा है.
Making Globalization Work

आधुनिक विश्व और वैश्वीकरण के सन्दर्भ में राष्ट्रवाद का महत्व क्षीण है, किन्तु भारत के हितों की रक्षा के लिए और विदेशियों द्वारा इसके शोषण को रोकने के लिए इसकी नितांत आवश्यकता है. राष्ट्रवाद राष्ट्र स्तर पर अपना घर संभालने जैसा कार्य है. आज की विडम्बना यह है कि भारत की आतंरिक स्थिति संभाले बिना इसे वैश्वीकरण में धकेल दिया गया है. जिसके कारण अनेक धनाढ्य देश भारतीय हितों के विरुद्ध कार्य कर रहे हैं और भारत के वर्तमान नेता भारत के इस शोषण में निजी स्वार्थों के लिए सहयोग दे रहे हैं. अतः, आज आवश्यकता यह है कि हमें विश्व की ओर से अपने द्वार कुछ समय के लिए बंद कर अपना घर संभालना चाहिए, जिसके बाद वैस्वीकरण से भारत के हितों को कोई आंच नहीं आ सकेगी. अतः वर्तमान भारत के नायक के लिए कठोर अनुशासक होने के साथ-साथ प्रखर राष्ट्रवादी होने की आवश्यकता है.

रविवार, 20 जून 2010

अधीनत्व, आस्था और अनुशासन

अधीनत्व, आस्था और अनुशासन जीवन को संयमित करने वाले तीन महत्वपूर्ण कारण पाए जाते हैं. किसी व्यक्ति में ये तीनों  उपस्थित होते हैं तो कुछ में कोई दो, तथा कुछ अन्य में कोई एक विद्यमान होता हैं. तो क्या तीनों समान रूप से सद्गुण हैं - इसी पर विचार को समर्पित है यह आलेख.

अधीनता व्यक्ति की परतंत्रता के पर्याय के रूप में जानी जाती है जिसमें व्यक्ति अपने व्यवहार हेतु स्वतंत्र न होकर दूसरे के आदेश अथवा इच्छानुसार नियोजित होता है. यह अधीनता जीवन के सपूर्ण कार्य-कलापों के लिए अथवा जीवन के किसी सीमित पक्ष हेतु हो सकती है. यथा स्वतंत्र व्यक्ति भी अपनी आजीविका हेतु किसी के अधीनस्थ होकर कार्य कर सकता है जिसमें व्यक्त सीमित समय हेतु ही किसी अन्य व्यक्ति के अधीन होता है. तकनीकी स्तर पर अधीनता की स्थिति में व्यक्ति दूसरे द्वारा निर्धारित लक्ष्य के लिए कार्य करता है, जिसकी प्राप्ति के लिए वह अपने विवेक का सीमित उपयोग ही कर पाता है. ऐसे व्यक्ति के लिए निर्धारित लक्ष्य की प्राप्ति सर्वोपरि होती है अर्थात व्यक्ति का जीवन बहुलांश में लक्ष्य्परक होता है, उसे व्यक्तिपरक होने की स्वतन्त्रता नहीं होती. कोई भी व्यक्ति अधीनता किसी विवशता के कारण ही स्वीकार करता है. पराधीन व्यक्ति अपने कर्म के दायित्व से मुक्त होता है क्योंकि उसका कर्म स्वयं द्वारा निर्धारित नहीं होता.      

व्यक्ति का किसी अन्य व्यक्ति अथवा प्रतीक के प्रति समर्पण भाव व्यक्ति की उसमें आस्था कहलाती है. अतः आस्थावान व्यक्ति स्वयं को आस्थास्रोत के सापेक्ष तुच्छ होना स्वीकार करता है तथा अपना जीवन-व्यवहार उसी के आदेश अथवा इच्छानुसार नियमित करता है. इस प्रकार आस्था अधीनता का ही एक स्वरुप है जिसमें व्यक्ति किसी विवशता के बिना ही स्वेच्छा से इसे स्वीकार करता है. यह आस्था किसी वास्तविक अथवा काल्पनिक व्यक्ति अथवा व्यक्ति के प्रति हो सकती है. आस्थावान व्यक्ति प्रायः अपने कर्म के प्रति दायित्व से भारित न होकर यह भार आस्थास्रोत पर डाल देता है और वह स्वयं को दायित्व से मुक्त अनुभव करता है.

इस प्रकार हम पाते हैं कि अधीनता और आस्था में कुछ साम्य है - व्यक्ति का स्वकर्म के प्रति दायित्व से मुक्ति का. तथापि इन दोनों में जो महत्वपूर्ण अंतराल है वह है विवशता और स्वेच्छा का. अधीनता का कारण विवशता होती है किन्तु आस्था स्वेच्छा से स्वीकार की जाती है. इससे ऐसा प्रतीत होता है कि स्वतंत्र व्यक्ति भी दायित्व से मुक्ति के लिए आस्था का आश्रय लेता है अथवा ले सकता है.

आस्था सद्गुण है अथवा दुर्गुण, इस पर विचार की आवश्यकता है. आस्था प्रायः सम्मान भाव से उगती है और इसका परिणाम स्वकर्म के प्रति दायित्व से मुक्ति होता है अथवा हो सकता है. उदाहरण के लिए व्यक्ति अपने माता-पिता का सम्मान करता है और उनके प्रति आस्थावान होता है जिसके कारण उनकी आज्ञा का पालन करता है और ऐसे कर्मों के प्रति दायित्व-मुक्त होता है.  इसके विपरीत आस्था दायित्व से मुक्ति के लिए स्वीकार की जा सकती है जिसका परिणाम आस्थास्रोत में सम्मान हो सकता है. यथा - व्यक्ति दुष्कर्म करने निकलता है किन्तु उसका भय उसे किसी इष्ट देवता में आस्था व्यक्त करने को विवश करता है जिससे कि वह स्वकर्म के प्रति दायित्व से मुक्त अनुभव कर सकता है.      

इस प्रकार हम देखते हैं कि आस्था के दो उद्भव स्रोत हो सकते हैं - सम्मान अथवा दायित्व से मुक्ति. आस्था का कारण यदि स्वकर्म के प्रति दायित्व से मुक्ति है तो इसे दुर्गुण ही कहा जाना चाहिए, किन्तु यदि आस्था का कारण स्रोत के प्रति सम्मान भाव है तो आस्था सद्गुण सिद्ध होती है. वास्तविक व्यक्तियों में आस्था प्रायः सम्मान से ही उगती है इसलिए सद्गुण होने की अधिक संभावना रखती है. किन्तु किसी काल्पनिक व्यक्ति, शक्ति अथवा वस्तु में आस्था संदेहास्पद हो सकती है क्यों कि इसका कारण वास्तविक सम्मान न होकर दायित्व से मुक्ति हो सकती है. लोगों की ईश्वर अथवा उसके किसी प्रतीक के प्रति आस्था इसी प्रकार की होना संभव है. इस रूप में आस्था व्यक्ति की निर्बलता के ऊपर एक आवरण का कार्य करती है, जिसे व्यक्ति का आडम्बर भी कहा जा सकता है.  अतः आस्था संदेहास्पद हो सकती है.
DISCIPLINE : TRAINING THE MIND TO MANAGE YOUR LIFE 
अनुशासन व्यक्ति का निस्संदेह सद्गुण होता है जिसके अंतर्गत व्यक्ति स्वयं के कर्मों पर स्वेच्छा से अंकुश लगाता है. इसका स्रोत व्यक्ति की बुद्धि होती है जिसके उपयोग से व्यक्ति अपने कर्म का निर्धारण स्वयं को श्रेष्ठ बनाने हेतु करता है. इस प्रकार अनुशासन आस्था के सापेक्ष उच्च स्थान रखता है. अनुशासन में सम्मान-जनित आस्था भी समाहित होती है जिसमें कोई कृत्रिमता अथवा विवशता भी नहीं होती. अतः अनुशासन ही महामानव का अनिवार्य लक्षण होता है.  

गुरुवार, 10 जून 2010

स्वतन्त्रता और अनुशासन

स्वतन्त्रता और अनुशासन का गहनतम सम्बन्ध यह है कि केवल अनुशासित व्यक्ति ही स्वतन्त्रता पाने का अधिकारी होता है. स्वतन्त्रता का अर्थ है कि व्यक्ति अपनी इच्छानुसार कार्य करने या न करने के लिए किसी के बंधन में ना रहे. व्यक्तिगत स्तर पर इस प्रकार की स्वतन्त्रता में कोई दोष प्रतीत नहीं होता, किन्तु यह स्वतन्त्रता सामाजिक स्तर पर मानवता के लिए निश्चित रूप से घातक है. मानव जाति के समाजीकरण ने उसे अनेक लाभ प्रदान किये जिनके कारण ही मानव सभ्यता विकसित हुई है और मानव जाति  पृथ्वी की सभी जीव-जातियों से श्रेष्ठ बन पाई है. इसके साथ ही समाजीकरण का प्रथम प्रतिबन्ध यह है कि प्रत्येक मनुष्य सामाजिक अनुशासन का अनुपालन करे. इस अनुशासन से उसकी स्वतन्त्रता सीमित होती है.

इस स्वतन्त्रता परिसीमन अथवा सामाजिक अनुशासन का प्रयोजन यह है कि कोई भी मनुष्य किसी अन्य की अनुशासित स्वतन्त्रता को आघात न पहुंचाए और सभी मनुष्य यथासंभव परस्पर सहयोग करें. प्रत्येक व्यक्ति के दो स्वरुप होते हैं - भौतिक शरीर और उसका मानस. चूंकि आघात इन दोनों स्वरूपों को पहुंचाए जा सकते हैं, इसलिए व्यक्ति की स्वतन्त्रता और उस पर अनुशासन भी उसके इन दोनों स्वरूपों पर वांछित होते हैं.

प्रत्येक व्यक्ति स्वतन्त्रता चाहता है किन्तु व्यक्तिगत स्वार्थों वश उसका सदुपयोग नहीं कर पाता है, इसी कारण स्वतन्त्रता के साथ-साथ उस पर सामाजिक अंकुश लगने की भी आवश्यकता होती है. जो व्यक्ति स्वयं अनुशासित नहीं होते, वे पूर्ण स्वतन्त्रता को उद्दंडता में परिवर्तित कर सामाजिक संरचना को क्षति पहुंचाते हैं. इसलिए उनकी स्वतन्त्रता को सीमित करना समाज के हित में अनिवार्य होता है.  इस से यह सिद्ध होता है कि जो व्यक्ति किसी प्राप्त सुविधा का दुरूपयोग करते हैं, उनसे वह सुविधा छीन ली जाती है - यह एक प्राकृत सिद्धांत है.

स्वतन्त्रता को सीमित और अनुशासित करने हेतु ही राष्ट्र स्तर पर वैधानिक व्यवस्थाएं बनायी जाती हैं जिनके क्रियान्वयन के लिए पुलिस और न्याय व्यवस्था की आवश्यकता होती है जो स्वयं मानवीय अर्थ-व्यवस्था के ऊपर अनावश्यक भार होती हैं. यह भार समाज के अवयव व्यक्तियों की अनुशासनहीनता के समानुपाती होता है. विडम्बना यह है कि समाज में कुछ व्यक्तियों की उद्दंडता के कारण पूरे समाज को यह अनावश्यक भार वहन करना पड़ता है.
The Practicing Mind: Bringing Discipline and Focus Into Your Life

जो व्यक्ति स्वयं अनुशासित होते हैं उन पर किसी अंकुश की आवश्यकता नहीं होती, और वे पूर्ण स्वतन्त्रता की अनुभूति कर पाते हैं. अतः मानव समाज में व्यक्तियों के लिए पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान करना संभव नहीं है, किन्तु स्वयं अनुशासित होकर इसकी मात्र अनुभूति की जा सकती है.