बौद्धिक जनतंत्र की सुनिश्चित मान्यता है कि दर्मों और सम्प्रदायों ने मानव समाज कोविभाजित कर घोर अहित हिय है तथापि यह प्रत्येक व्यक्ति को आस्था की स्वतन्त्रता का सम्मान करता है किन्तु इसकी सार्वजनिक अभिव्यक्ति एवं प्रदर्शन की स्वतन्त्रता प्रदान नहीं करता. बौद्धिक जनतंत्र की मान्यता है कि धर्म, संप्रदाय आदि में आस्था पूर्णतः व्यक्तिगत प्रश्न हैं और इसे व्यक्तिगत स्तर तक ही सीमित रखना समाज के हित में है.
धार्मिक आस्था का वास्तविक स्थान व्यक्ति का मन होता है, यह बाह्य प्रदर्शन का विषय नहीं होता. अतः बौद्धिक जनतंत्र नागरिकों को अपनी आस्थाओं को स्वयं तक ही सीमित रखने का प्रावधान करता है जिसके लिए सार्वजानिक रूप से धार्मिक आस्था का प्रदर्शन पूर्णतः प्रतिबंधित किया गया है. इस प्रावधान के अंतर्गत नागरिकों के व्यक्तिगत आवासों के अतिरिक्त किसी अन्य स्थान पर किसी धार्मिक स्थल अथवा भवन - जैसे मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, चर्च, आदि के निर्माण अथवा रख-रखाव की अनुमति नहीं होगी. बौद्धिक जनतंत्र व्यवस्था लागू होने के पूर्व जो भी धार्मिक स्थल अथवा भवन विद्यमान होंगे उन्हें सार्वजनिक विद्यालयों, स्वास्थ केन्द्रों, सभा भवनों आदि में परिवर्तित कर दिया जायेगा तथा उनपर व्यक्तिगत अथवा वर्ग विशेष के अधिकार समाप्त कर दिए जायेंगे.
इन प्रावधानों की पृष्ठभूमि में मानवता का इतिहास है जिससे स्पष्ट है कि धर्म, सम्प्रदाय, अध्यात्म आदि ने मानव जाति को सर्वाधिक भ्रमित किया है और उसके मद्य संकीर्ण दीवारें खादी की हैं. विश्व का सर्वाधिक लम्बा युद्ध इस्लाम और इसाई धर्मावलम्बियों के मध्य हुआ है जो सन ६३० से आरम्भ होकर १७९१ तक चला. इसे 'यूरोप पर इस्लामी आक्रमण' कहा जाता है. भारत पर प्रथम इस्लामी आक्रमण ९३१ में हुआ और तब से अब तक देश में धार्मिक संघर्ष चलते रहे हैं और अब इन्होने आतंक का रूप ले लिया है.
जन-साधारण में ईश्वर के नाम का आतंक, ज्योतिष, भाग्य, जन्म-जन्मान्तर, भूत-प्रेत आदि के अंध-विश्वास भारतीय जनमानस को लगभग दो हज़ार वर्षों से डसते रहे हैं और इसमें वैज्ञानिक सोच को विकसित नहीं होने दिया गया है. इसी का परिणाम है कि भारत प्राकृत संपदा से संपन्न होते हुए भी पिछड़ेपन से उबार नहीं पाया है. धर्म, सम्प्रदाय, अध्यात्म आदि पर प्रतिबन्ध ही इसे पुनः 'सोने की चिड़िया' बना सकता है जैसा कि यह गुप्त वंश के शासन काल में विश्व-प्रसिद्ध था..
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