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सोमवार, 8 मार्च 2010

धर्म और उसका स्थान

बौद्धिक जनतंत्र की सुनिश्चित मान्यता है कि दर्मों और सम्प्रदायों ने मानव समाज कोविभाजित कर घोर अहित हिय है तथापि यह प्रत्येक व्यक्ति को आस्था की स्वतन्त्रता का सम्मान करता है किन्तु इसकी सार्वजनिक अभिव्यक्ति एवं प्रदर्शन की स्वतन्त्रता प्रदान नहीं करता. बौद्धिक जनतंत्र की मान्यता है कि धर्म, संप्रदाय आदि में आस्था पूर्णतः व्यक्तिगत प्रश्न हैं और इसे व्यक्तिगत स्तर तक ही सीमित रखना समाज के हित में है.

धार्मिक आस्था का वास्तविक स्थान व्यक्ति का मन होता है, यह बाह्य प्रदर्शन का विषय नहीं होता. अतः बौद्धिक जनतंत्र नागरिकों को अपनी आस्थाओं को स्वयं तक ही सीमित रखने का प्रावधान करता है जिसके लिए सार्वजानिक रूप से धार्मिक आस्था का प्रदर्शन पूर्णतः प्रतिबंधित किया गया है. इस प्रावधान के अंतर्गत नागरिकों के व्यक्तिगत आवासों के अतिरिक्त किसी अन्य स्थान पर किसी धार्मिक स्थल अथवा भवन - जैसे मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, चर्च, आदि के निर्माण अथवा रख-रखाव की अनुमति नहीं होगी. बौद्धिक जनतंत्र व्यवस्था लागू होने के पूर्व जो भी धार्मिक स्थल अथवा भवन विद्यमान होंगे उन्हें सार्वजनिक विद्यालयों, स्वास्थ केन्द्रों, सभा भवनों आदि में परिवर्तित कर दिया जायेगा तथा उनपर व्यक्तिगत अथवा वर्ग विशेष के अधिकार समाप्त कर दिए जायेंगे.

इन प्रावधानों की पृष्ठभूमि में मानवता का इतिहास है जिससे स्पष्ट है कि धर्म, सम्प्रदाय, अध्यात्म आदि ने मानव जाति को सर्वाधिक भ्रमित किया है और उसके मद्य संकीर्ण दीवारें खादी की हैं. विश्व का सर्वाधिक लम्बा युद्ध इस्लाम और इसाई धर्मावलम्बियों के मध्य हुआ है जो सन ६३० से आरम्भ होकर १७९१ तक चला. इसे 'यूरोप पर इस्लामी आक्रमण' कहा जाता है. भारत पर प्रथम इस्लामी आक्रमण ९३१ में हुआ और तब से अब तक देश में धार्मिक संघर्ष चलते रहे हैं और अब इन्होने आतंक का रूप ले लिया है.

जन-साधारण में ईश्वर के नाम का आतंक, ज्योतिष, भाग्य, जन्म-जन्मान्तर, भूत-प्रेत आदि के अंध-विश्वास भारतीय जनमानस को लगभग दो हज़ार वर्षों से डसते रहे हैं और इसमें वैज्ञानिक सोच को विकसित नहीं होने दिया गया है. इसी का परिणाम है कि भारत प्राकृत संपदा से संपन्न होते हुए भी पिछड़ेपन से उबार नहीं पाया है. धर्म, सम्प्रदाय, अध्यात्म आदि पर प्रतिबन्ध ही इसे पुनः 'सोने की चिड़िया' बना सकता है जैसा कि यह गुप्त वंश के शासन काल में विश्व-प्रसिद्ध था..   

शनिवार, 12 दिसंबर 2009

पृष्ठभूमि


मध्य प्रदेश के एक विचारक से टिप्पड़ी के माध्यम से अचानक परिचय हुआ और उनके विचार पढ़ने का संयोग हुआ. अपना नाम तो वे सही नहीं प्रकाशित करते किन्तु स्वयं को असुविधाजनक कहते हैं. बहुत अच्छा लिखते हैं - भाषा और ज्ञान दोनों दृष्टियों से. विश्व-संजोग (इन्टरनेट) पर हिंदी में ऐसा अच्छा आलेखन और कहीं देखने को नहीं मिला. उन्हीं से प्रेरणा पाकर इस नए जोगालेख (ब्लॉग) का आरम्भ किया है ताकि हिंदीभाषियों तक अपने विचार पहुंचा सकूं.


यों तो मैं अपने १२ अन्य जोगालेखों के माध्यम से विश्व समुदाय से सम्बद्ध हूँ तथापि हिंदी में जोगयेख का यह प्रथम प्रयास है, इसलिए कुछ भूलचूकें स्वाभाविक हैं जीसके लिए मैं पाठकों से अग्रिम क्षमा याचना करता हूँ. मुद्रण माध्यम से बहुत कुछ लिखा है और प्रकाशित किया है इसलिए हिंदी में लिखने में मुझे कोई कठिनाई नहीं है तथापि शब्दानुवाद के माध्यम से लिखने का यह प्रथम अवसर है.


मूलतः भारत की वर्त्तमान स्थिति से मैं बहुत दुखी हूँ जिसे व्यक्त करने के लिए लिखता हूँ. अपने इंजीनियरिंग व्यवसाय को लगभग १६ वर्ष पूर्व त्याग कर भारत के इतिहास और शास्त्रों का अध्ययन आरम्भ किया था जिससे पाया की भारत को गुप्त वंश के शासन से पूर्व तथा पश्चात अनेक प्रकारों से ठगा जाता रहा है जिनमें से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण ठगी लोगों को ईश्वर के भय से आक्रांत कर अध्यात्म, धर्म और सम्प्रदायों के माध्यम से की गयी है.


इन ठगियों का कारण केवल सामाजिक न होकर राजनैतिक रहा है. लोगों के मानस का पतन कर उन्हें बौद्धिक चिंतन से विमुख किया जाता रहा है और उनपर निरंकुश शाशन के माध्यम से उनका अमानवीय शोषण किया जाता रहा है. इसके परिणामस्वरूप देश पर चोर, ठग और डाकू अपना शाशन स्थापित करते चले आ रहे हैं.  यह स्थिति लगभग २,००० वर्षों से वर्त्तमान तक चल रही है और जनमानस अपना सर उठाने का साहस नहीं कर पा रहा है. छुटपुट व्यक्ति जो इस सतत दमन के विरुद्ध अपना स्वर उठाते रहें हैं उन्हें कुचला जाता रहा है.


स्वतंत्रता के बाद देश पर लोकतंत्र थोपा गया जबकि जनमानस इसके लिए परिपक्व नहीं था और न ही स्वतंत्र भारत की सरकारों ने जनता को स्वास्थ, शिक्षा और न्याय प्रदान कर उसे लोकतंत्र हेतु सुयोग्य बनाने का कोई प्रयास किया है. अतः २,००० वर्षों से चली आ रही गुलामी आज भी जारी है. देश में सुयोग्यता और बोद्धिकता का कोई सम्मान न होने के कारण बुद्धिवादी या तो देश से पलायन कर जाते हैं या दमनचक्र में पीस दिए जाते हैं.


इस सबसे दुखी होकर गाँव में रहता हूँ ताकि अनाचार से न्यूनतम सामना हो. यहीं से अपना अध्ययन और लेखन कार्य करता हूँ. जहां अवसर पाता हूँ अनाचार के विरुद्ध संघर्ष करता हूँ. किन्तु इस संघर्ष में स्वयं को अकेला ही खड़ा पता हूँ  क्योंकि जनमानस अभी भी संघर्ष करने को तैयार नहीं है.

पृष्ठभूमि


मध्य प्रदेश के एक विचारक से टिप्पड़ी के माध्यम से अचानक परिचय हुआ और उनके विचार पढ़ने का संयोग हुआ. अपना नाम तो वे सही नहीं प्रकाशित करते किन्तु स्वयं को असुविधाजनक कहते हैं. बहुत अच्छा लिखते हैं - भाषा और ज्ञान दोनों दृष्टियों से. विश्व-संजोग (इन्टरनेट) पर हिंदी में ऐसा अच्छा आलेखन और कहीं देखने को नहीं मिला. उन्हीं से प्रेरणा पाकर इस नए जोगालेख (ब्लॉग) का आरम्भ किया है ताकि हिंदीभाषियों तक अपने विचार पहुंचा सकूं.


यों तो मैं अपने १२ अन्य जोगालेखों के माध्यम से विश्व समुदाय से सम्बद्ध हूँ तथापि हिंदी में जोगयेख का यह प्रथम प्रयास है, इसलिए कुछ भूलचूकें स्वाभाविक हैं जीसके लिए मैं पाठकों से अग्रिम क्षमा याचना करता हूँ. मुद्रण माध्यम से बहुत कुछ लिखा है और प्रकाशित किया है इसलिए हिंदी में लिखने में मुझे कोई कठिनाई नहीं है तथापि शब्दानुवाद के माध्यम से लिखने का यह प्रथम अवसर है.


मूलतः भारत की वर्त्तमान स्थिति से मैं बहुत दुखी हूँ जिसे व्यक्त करने के लिए लिखता हूँ. अपने इंजीनियरिंग व्यवसाय को लगभग १६ वर्ष पूर्व त्याग कर भारत के इतिहास और शास्त्रों का अध्ययन आरम्भ किया था जिससे पाया की भारत को गुप्त वंश के शासन से पूर्व तथा पश्चात अनेक प्रकारों से ठगा जाता रहा है जिनमें से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण ठगी लोगों को ईश्वर के भय से आक्रांत कर अध्यात्म, धर्म और सम्प्रदायों के माध्यम से की गयी है.


इन ठगियों का कारण केवल सामाजिक न होकर राजनैतिक रहा है. लोगों के मानस का पतन कर उन्हें बौद्धिक चिंतन से विमुख किया जाता रहा है और उनपर निरंकुश शाशन के माध्यम से उनका अमानवीय शोषण किया जाता रहा है. इसके परिणामस्वरूप देश पर चोर, ठग और डाकू अपना शाशन स्थापित करते चले आ रहे हैं.  यह स्थिति लगभग २,००० वर्षों से वर्त्तमान तक चल रही है और जनमानस अपना सर उठाने का साहस नहीं कर पा रहा है. छुटपुट व्यक्ति जो इस सतत दमन के विरुद्ध अपना स्वर उठाते रहें हैं उन्हें कुचला जाता रहा है.


स्वतंत्रता के बाद देश पर लोकतंत्र थोपा गया जबकि जनमानस इसके लिए परिपक्व नहीं था और न ही स्वतंत्र भारत की सरकारों ने जनता को स्वास्थ, शिक्षा और न्याय प्रदान कर उसे लोकतंत्र हेतु सुयोग्य बनाने का कोई प्रयास किया है. अतः २,००० वर्षों से चली आ रही गुलामी आज भी जारी है. देश में सुयोग्यता और बोद्धिकता का कोई सम्मान न होने के कारण बुद्धिवादी या तो देश से पलायन कर जाते हैं या दमनचक्र में पीस दिए जाते हैं.


इस सबसे दुखी होकर गाँव में रहता हूँ ताकि अनाचार से न्यूनतम सामना हो. यहीं से अपना अध्ययन और लेखन कार्य करता हूँ. जहां अवसर पाता हूँ अनाचार के विरुद्ध संघर्ष करता हूँ. किन्तु इस संघर्ष में स्वयं को अकेला ही खड़ा पता हूँ  क्योंकि जनमानस अभी भी संघर्ष करने को तैयार नहीं है.