शनिवार, 6 मार्च 2010

सहयोग और प्रतिस्पर्द्धा

जीवन और अधिकारों के लिए प्रतिस्पर्द्धा करना आदिमानव का अन्य जीव-जंतुओं की तरह जन्मजात गुण था. व्यक्तिगत और वर्ग संघर्ष उनके घुमक्कड़ जीवन के अभिन्न अंग थे. इस अवस्था में चिंतनपरक विकास करना उसके लिए संभव नहीं था जबकि उसकी क्षमता विकास हेतु वैज्ञानिक चिंतन के लिए पनप चुकी थी. इसलिए, अब से लगभग ३,००० वर्ष पूर्व कुछ मनुष्यों ने एक स्थान पर स्थाई रूप से बसकर जलवायु परिवर्तनों से संघर्ष करते हुए मानव जाति को अन्य जीव-जंतुओं से आगे लेजाने का निर्णय लिया और वे जलस्रोतों के तटों पर बस्तियां बनाकर रहने लगे. मानव जाति के लिए यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक कदम था. इस पर ही मानव सभ्यता का आधुनिक विकास आधारित है.

जलवायु परिवर्तनों का सामना करने के लिए उन्होंने प्रतिकूल ऋतुओं में उपभोग हेतु वस्तुओं का संग्रहण आरम्भ किया जिसे आधुनिक शब्दावली में 'संपदा' कहा जाता है. इस प्रकार सभ्यता, समाज और संपदा इस मनुष्य जीवन के अभिन्न अंग बन गए. जीवन में सुख-सुविधाओं के विकास के साथ ही मनुष्य को अधिकाधिक वस्तुओं की आवश्यकता होने लगी जिससे प्रत्येक व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं की स्वयं आपूर्ति में असक्षम हो गया. इसके लिए उन्होंने परस्पर उत्पादक कार्यों का परस्पर विभाजन किया और उत्पादित वस्तुओं को एक दूसरे से आदान-प्रदान कर जीवन को सरल बनाया गया. इसे सामाजिक अर्थ-  व्यवस्था कहा गया जिसमें परस्पर सहयोग की भावना अपरिहार्य हो गयी. इस प्रकार परस्पर सहयोग मनुष्य जाति के आर्थिक विकास के लिए अनिवार्य भूमिका निर्वाह करने लगा जो आज बजी है.


इस प्रकार मानव समाज दो वर्गों में विभाजित हो गया जिन्हें हम 'सभ्य' और 'असभ्य' कह सकते हैं. सभ्य जातियां बस्तियां बनाकर रहने लगीं जबकि असभ्य जातियों ने अपना घुमक्कड़ जीवन जारी रखा. इसमें  असभ्य जातियों के स्वार्थ निहित थे. वे सरलता से सभ्य लोगों की बस्तियों पर आक्रमण कर उनकी संपदा लूटते और जंगलों में छुप जाते.कालान्तर में असभ्य जातियां भी बस्तियां बनाकर रहने लगीं किन्तु उन्होंने अपनी लूटपाट करने की जीवन शैली में कोई सुधार नहीं किया. इसका प्रभाव दोनों जातियों की विस्तार प्रक्तियाओं पर पड़ा. एक स्थान पर जनसँख्या बढ़ने पर जब सभ्य जातियों को बस्तियों के विस्तार की आवश्यकता होती तो वे रिक्त भू भाहों पर नयी बस्तियां बसाते और कुछ जनसँख्या को वहां स्तानान्तरित कर देते. असभ्य जातियां जनसँख्या वृद्धि पर सभ्य जातियों की बस्तियों पर आक्रमण करते और सभ्य लोगों को वहां से खदेड़ कर बस्तियों पर अपना अधिकार कर लेते. मसदोनिया की जंगली शासक फिलिप ने अथेन्स से अच्रोपोलों को इसी कारण से खदेड़ा था.

इस प्रकार हम देखते हैं कि सभ्य समाजों में परस्पर सहयोग और असभ्य समाजों में प्रतिस्पर्द्धा जीवन सामाजिक व्यवस्थाओं के आधार बने. आधुनिक विचारधारा कि विका के लिए प्रतिस्पर्द्धा आवश्यक होती है, विश्व को असभ्य समाजों की दें है जिनका पृथ्वी के बहुल भू भाग पर अधिकार रहा है. मानव सभ्यता का जो भी विकास हुआ है वह सब सभ्य जातियों द्वारा किया गया है और परस्पर सहयोग ही उसका मूल कारण रहा है. असभ्य जातियां मानव सभ्यता का प्रतिस्पर्द्धा विकास द्वारा ह्रास ही करती रही हैं.

आज अधिकाँश मानव समाज सभ्य और असभ्य जातियों के मिश्रण बन गए हैं तथापि उनके सदस्यों को सहयोग और प्रतिस्पर्द्धा विचारधाराओं ले आधार पर प्रथक-प्रथक पहचाना जा सकता है. एक वर्ग मानव सभ्यता का विकास कर रहा है तो दूसरा वर्ग उसका दोहन एवेम ह्रास कटते रहने पर अडिग है. सहयोगात्मक विचारधारा वाले व्यक्ति ही महामानवता के उदय के स्रोत होने की संभावना रखते हैं.

यहाँ इस विषय पर विचार करना भी प्रासंगिक है कि मनुष्य जाति को प्रतिस्पर्द्धा की आवश्यकता ही क्यों अनुभव होती है जबकि उअसका विकास सहयोग से ही होता है. इसका सीधा सम्बन्ध नियोजन प्रक्रिया से है. जब किसी वस्तु अथवा साधन का उत्पादन आवश्यकता से अधिक कर दिया जाता है, अथवा यह सकल आवश्यकताओं की आपूर्ति हेतु पर्याप्त नहीं होता, तभी प्रतिस्पर्द्धा का उदय होता है. अतः प्रतिस्पर्द्धा का मूल आवश्यकता-आपूर्ति के असंतुलन में है, जिसे केवल कुशल नियोजन से ही समाप्त किया जा सकता है. इसके लिए मानवता के प्रत्येक वर्ग के बौद्धिक इविकास की आवश्यकता होती है जिसका अभी भी नितांत अभाव है और मनुष्य जाति प्रतिस्पर्द्धाओं को विकास हेतु अनिवार्य मानने लगी है. 

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