मनुष्यता की दो पहचानें मानवता को पशुता से प्रथक करती हैं - समाजीकरण एवं भाषा विकास. समाजीकरण का मूल मन्त्र कार्य विभाजन के साथ परस्पर सहयोग है, जबकि भाषा विकास का मूल भाव और शब्द का सम्बन्ध है. इन्ही दो माध्यमों से मानव समाज से महामानावोदय की संभावना है. सहयोग की चर्चा इस संलेख पर की जा चुकी है, यहाँ प्रस्तुत है भाव और शब्द संबंधों की समीक्षा.
अभी कुछ दिन पूर्व एक आर्य समाज अनुयायी से मिलाना हुआ और उन्होंने मुझे बताया कि आर्य समाज की दृष्टि में विदों की ऋचाएं बनाने के बाद ऋषियों ने उनके अर्थ बनाये जिसके कारण ऋषि उन ऋचाओं के दृष्टा कहलाए. यह तो मैं निश्चित रूप में नहीं कह सकता कि यह आर्य समाज का अधिकृत दृष्टिकोण है किन्तु इतना अवश्य कह सकता हूँ कि इससे अधिक मूर्खतापूर्ण दृष्टिकोण किसी लेखन के बारे में मुझे अभी तक दृष्टिगोचर नहीं हुआ है. शब्द कदापि अपने भाव से पूर्व अस्तित्व आ ही नहीं सकता.
भाषा विकास और उपयोग की यात्रा में सबसे पहले कोई भाव उदित होता है तदुपरांत उस भाव को व्यक्त करने हेतु शब्दों की रचना की जाती है. यही प्रक्रिया प्रत्येक भाषा की संदाचना में अपनाई जाती है और यही विकसित भाषा के उपयोग में लेखन प्रक्रिया में.
आधुनिक काल में भाषा और लिपि को प्रथक-प्रथक माना जाता है किन्तु जिस समय मानवों ने अपने उपयोग हेतु भाषा विकास आरम्भ किये उस समय इन दोनों को प्रथक नहीं माना जाता था, प्रत्येक भाषा की एक निर्धारित लिपि होती टी और उसे भी भाषा के अंग के रूप में ही जाना जाता था. इस कारण उस काल में लिपि शब्द का उद्भव नहीं हुआ था. उदाहरण के लिए भारत इतिहास के आरंभिक काल में देवनागरी को ही भाषा कहा जाता था जिसमें लिपि, शब्द, और व्याकरण अंगों के रूप में सम्मिलित किये गए. उस काल की देवनागरी भाषा को आज वैदिक संस्कृत कहा जाता है. वस्तुतः 'लिपि' शब्द की आवश्यकता उस समय हुई जब एक ही लिपि के उपयोग से भावों को व्यक्त करने हेतु अनेक भाषाओँ का विकास हुआ. वैदिक संस्कृत, आधुनिक संस्कृत और हिंदी तीनों भाषाएँ देवनागरी लिपि पर आधारित हैं. इन तीन भाषाओँ में शब्दार्थ एवं व्याकरण नियम भिन्न हैं. वर्तमान अध्ययन में हम लिपि को भाषा से प्रथक नहीं मान रहे हैं, अर्थात लिपि, शब्द और व्याकरण तीनों को हम भाषा के अंग ही कहेंगे. इसलिए 'लिपि' शब्द की हमें आगे आवश्यकता नहीं होगी.
भाषा विकास में सबसे पहले अक्षर अर्थात ध्वनियों की अभिव्यक्तियों के लिए लिखित प्रतीक चुने जाते हैं, जिनके संग्रह को वर्णमाला कहा जाता है. इसके बाद उदित प्रत्येक अर्थ के लिए एक शब्द चुना जाता है और इन दोनों के समन्वय को शब्दार्थ कहा जाता है. शब्दों के सार्थक समूह को वाक्य कहते हैं जिनकी संरचना के नियमों को व्याकरण कहा जाता है. इसके बाद उदित भावों को अभिव्यक्त करने हेतु वाक्यों की रचना की जाती है. इस प्रकार प्रत्येक भाषा के तीन अंग होते हैं - वर्णमाला, शब्दार्थ और व्याकरण. अक्षर, शब्द और वाक्य अभिव्यक्तियों के केवल प्रतीक होते हैं, मूल अभिव्यक्ति नहीं. इनकी मूल अभिव्यक्तियाँ क्रमशः ध्वनि, अर्थ और भाव होते हैं.
मस्तिष्क में सबसे पहले कोई भाव उदित होता है, उसे अभिव्यक्त करने हेतु अर्थ चुने जाते हैं. प्रत्येक अर्थ के लिए एक शब्द चुना जाता है. प्रत्येक शब्द ध्वनियों का सार्थक समूह होता है तथा प्रत्येक ध्वनि की अभिव्यक्ति हेतु अक्षर चुना जाता है. इस प्रकार अक्षरों के सार्थक समूहन से शब्द बनाते हैं और शब्दों के सार्थक समूहन से वाक्य बनते हैं.
यद्यपि भाव अभिव्यक्ति मानवीय कर्म है किन्तु यह इतना महत्वपूर्ण है कि जीव जगत में यह ही मानवता की विशिष्ट पहचान है. अर्थात समस्त जीव जगत में केवल मानव ही अपने भावों की लिखित अभिव्यक्ति से संपन्न हैं. महामानवता को इससे भी आगे जाना होगा किन्तु यह तभी संभव होगा जब कोई मानव पूरी तरह इस प्रक्रिया से आत्मसात होगा. यही महामानवता का सोपान है. .
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